Sustain Humanity


Saturday, June 20, 2015

चूंकि हम नरसंहार का सच नहीं जानते,झूठ के खिलाफ खड़े नहीं हो सकते हम कोई भी बदलाव इस कारपोरेट मीडिया को खंड खंड तोड़े बिना असंभव है। कोई राजनीतिक आर्थिक या सामाजिक परिवर्तन असंभव है,जब तक न हम बाजार और आभिजात तबकों के तमाम माध्यमों और सौंदर्यबोध से तामीर इस कारपोरेट केसरिया मीडिया साम्राज्य की धज्जियां न बिखेर दें। जॉन पिल्गर का कहना हैः मेरा मानना है कि पांचवा स्तंभ संभव है, जनआंदोलन के सहयोगी कारपोरेट मीडिया को खंड खंड करेंगे, जवाब देंगे तथा रास्ता दिखाएंगे। प्रत्येक विश्‍वविद्यालयों में, मीडिया अध्ययन के हरेक कॉलेजों में, हर समाचार कक्षों में, पत्रकारिता के शिक्षकों, खुद पत्रकारों को वाहियात वस्तुनिष्ठता के नाम पर जारी खून ख़राबे के दौर में अपनी निभाई जा रही भूमिका के बारे में प्रश्‍न करने की ज़रूरत है। खुद मीडिया में इस तरह का आंदोलन एक पेरोस्त्रोइका (खुलापन) का अग्रदूत होगा जिसके बारे में हम कुछ नहीं जानते। यह सब संभव है। चुप्पियां तोडी़ जा सकती हैं। पलाश विश्वास


चूंकि हम नरसंहार का सच नहीं जानते,झूठ के खिलाफ खड़े नहीं हो सकते हम

कोई भी बदलाव इस कारपोरेट मीडिया को खंड खंड तोड़े बिना असंभव है।

कोई राजनीतिक आर्थिक या सामाजिक परिवर्तन असंभव है,जब तक न हम बाजार और आभिजात तबकों के तमाम माध्यमों और सौंदर्यबोध से तामीर इस कारपोरेट केसरिया मीडिया साम्राज्य की धज्जियां न बिखेर दें।
जॉन पिल्गर का कहना हैः
मेरा मानना है कि पांचवा स्तंभ संभव है, जनआंदोलन के सहयोगी कारपोरेट मीडिया को खंड खंड करेंगे, जवाब देंगे तथा रास्ता दिखाएंगे। प्रत्येक विश्‍वविद्यालयों में, मीडिया अध्ययन के हरेक कॉलेजों में, हर समाचार कक्षों  में, पत्रकारिता के शिक्षकों, खुद पत्रकारों को वाहियात वस्तुनिष्ठता के नाम पर जारी खून ख़राबे के दौर में अपनी निभाई जा रही भूमिका के बारे में प्रश्‍न करने की ज़रूरत है। खुद मीडिया में इस तरह का आंदोलन एक  पेरोस्त्रोइका (खुलापन) का अग्रदूत होगा जिसके बारे में हम कुछ नहीं जानते। यह सब संभव है। चुप्पियां तोडी़ जा सकती हैं।

पलाश विश्वास
हम हैरान हैं जनआंदोलनोंके साथियों,सामाजिक पर्यावरण कार्यकर्ताओं और वैकल्पिक जनपक्षधर राजनीति, बहुजन बहुसंख्य समाज के जनपक्षधर  साथियों के तठस्थ रवैये पर जो या तो कारपरेट मीडिया को सिरे से नजरअंदाज करते हैं या फिर उसी में नख से सिख तक निष्णात हैं और हमारी बार बार की अपील को अनसुना करके वैक्लिपक मीडिया की लड़ाई को हाशिये पर डालकर दरअसल जनसुनवाई को ही खारिज कर रहे हैं और उन्हें यह बात समझ में नहीं आती कि क्यों झूढ के महातिलिस्म को तोड़े बिना सच का बोलबाला असंभव है।उनके लिए यह आलेख।

अपने साथी रियाज उल हक बहुत खामोशी से बहुत महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं।सृजन का मायने हमारे लिए बहुत अलग है।हमारे प्रतिमान अलग हैं।हम नहीं मानते कि कल उदय प्रकाश को नोबेल मिल जाये तो वे प्रेमचंद और मुक्तिबोध से बड़े हो जायेंगे।हम नहीं मानते कि अंबेडकर और गांधी,लोहिया और नजाने कितनों को नोबेल नहीं मिला तो वे नोबेल पाने वाले कैलाश सत्यार्थी के आगे बौने हैं।हम यह भी नहीं मानते कि प्रूफ रीडर मुक्तबोध से हर संपादक का कद बड़ा है।हम आस्कर पाने वाले सत्यजीत राय के माध्यम और सरोकार और उनकी फिल्मों को इस जमीन से जुड़ी चीजें नहीं मानते और न पथेर पांचाली को सर्वश्रेष्ठ रचाना मानते है।विभूति बाबू के ही उपन्यास आरण्यक को हम अब तक के सबसे आधुनिक उपन्यास मानते हैं।हम इस पूरे महादेश में अख्तरुज्जमान इलियस,मुक्तिबोध,प्रेमचंद,माणिक बंद्योपादध्याय के होने के बावजूद किन्हीं नवारुण भट्टाचार्य के हर्बट,फैताड़ु और कंगाल मालसाट को हमारे समय का प्रतिरोध मानते हैं।हम नही मानते कि साहित्य सिर्प वहीं रच रहे हैं,जिनपर प्रकाशकों, पाठ्यक्रम ,संपादकों और आलोचकों की कृपा है।

रियाज भाई जो काम कर रहे हैं .वह किसी सृजनकर्म से कम नहीं है।

अरुंधति हो या आनंद तेलतुंबड़े,दुनियाभर का सारा महत्वपूर्ण लिखा रियाजुल हक बेहतरीन भाषा और अनुवाद के जरिये हाशिये पर सजा रहे हैं।यह खजाना इतना बड़ा है कि हम लूटते रहते हैं रोजाना,फिरभी खाली होतािच नहीं है।

इसी खजाने से कल हमने कारपोरेटमीडिया पर सही मायने विश्व पत्रकार जॉन पिल्गर का अद्भुत व्याख्यान अपने ब्लागों पर मीडिया,वैकल्पिक मीडिया और जनआंदोलन केजनपक्षधर साथियों  को फिर  पढ़ानेके लिए सजाया है।

साथियों,गोपनीयता के सरकारी पाठ के साथ जो कथित निष्पक्ष, धर्मनिरपेक्ष, आधिकारिक जनविरोधी युद्धक मिसाइले हम सूचनाओं और खबरों के नाम पर कारपोरेट मीडिया मार्फत वर्ग वर्ण नस्ली हेजेमनी फासिस्ट राज्यतंत्र की सेहत के नाम रोजाना साझा करते हैं,प्रसारित करते हैं,उसके तिलिस्म को कृपया समजिये कि कैसे हम अपने स्वजनों के खून की नदियों में नहा रहे हैं पल छिन पल छिन।

कोई भी बदलाव इस कारपोरेट मीडिया को खंड खंड तोड़े बिना असंभव है।कोई राजनीतिक आर्थिक या सामाजिक परिवर्तन असंभव है,जब तक न हम बाजार और आभिजात तबकों के तमाम माध्यमों और सौंदर्यबोध से तामीर इस कारपोरेट केसरिया मीडिया साम्राज्य की धज्जियां न बिखेर दें।

जॉन पिल्गर को पढ़ना इसलिए अनिवार्य है क्योंकि  वियतनाम,इराक,अफगानिस्तान,लातिन अमेरिका और अफ्रीका के साथ साथ दक्षिण एशिया के वधस्थल पर कारपोरेट युद्ध और कारपोरेट सिविल वार में जो करोड़ों लोग मारे गये,मारे जा रहे हैं,उनके जीने मरने का खेल यह कारपोरेटमीडिया के अनंत झूठ और आभिजात भाषा और सौंदर्यशास्त्र और फरेबी विचारधाराओं के फासीवाद के बिना असंभव है,यह समझना भारत में जनता और जनतंत्र के लिए सबसे बड़ा सचे हैं।

क्योंकि हम नहीं जानते कि भापाल गैस त्रासदी में मारे गये लोग कौन है और उस रासायनक प्रयोग का सच क्या है।

क्योंकि हम नहीं जानते कि जो राम के नाम नरसंहा का अनंत केसरिया सिलसिला है और बजरंगियों के शत प्रतिशत हिंदू साम्राज्यवादी जिहादी अश्वमेध है,कहां कहां कैसे कैसे लोग उसके शिकार बानये जा रहे हैं।

क्योंकि हम नही जानते कि इस देश के कोने कोने में जो दलित आदिवासी स्तिरयों का आखेट किया जाता है या उन्हें जो मांस के दरिया में झोंका जाता है,सत्ता समीकरण का ताना बान वहां कितने गहरे पैठे हैं।

क्योंकि हम आज भी नहीं जानते कि सिखों क नरसंहार में मारे गये लोग कौन थे।कितने लोग मारे गये स्वर्ण मंदिर में आपरेशन ब्लू स्टार में और जो आतंकवादी कहकर मार गिराये गये,वे सचमुच आतंकवादी थे या नहीं।हम सचमुच नहीं जानते कि देश के कोने कोने में सिखों को जिंदा जलाने वाले कौन लोग थे और कारपोरेट मीडिया ने उन्हें कभी बेनकाब नहीं किया।

हम कश्मीर गाटी में रोज रोज क्या हो रहा है,नहीं जानते और हर कश्मीरी को भारतविरोधी मानते हैं और सेना के हर जुल्मोसितम को,आफसा को कश्मीर को भारत में बनाये रखने की अनिवार्य शर्त मानते हैं।हम कश्मीर के दिलोदिमाग को कहीं स्पर्श नहीं करते क्योंकि देशभक्ति के अखंड जाप में खश्मीर के बारे में लिखना पढ़ना अब राष्ट्रद्रोह है और मारे जाने वाले बेगुनाह कश्मीर के मुखातिब होने की हिम्मत किसी भारतीय नागरिक की है ही नहीं।हम नहीं जानते कि कश्मीर में कितने बेगुनाह मारे गये और कितने गुनाहगार।

हम नहीं जानते कि सलवाजुड़ुम कितना भारतमाता के खजाना लूटने के लिए है और कितना अमन चैन के लिए।हम नहीं जानते कि जो रोज रोज माओवादी लेवेल के साथ मारे जाते हैं वे कितने भारतीय हैं,कितने आदिवासी हैं और कितने माओवादी और कितने कारपोरेट बेदखली के शिकार।

हम देश भर के आदिवासी भूगोल में रोज मारे जाने वालों के आंकड़े नहीं जानते।नहीं जानते कि चांदमारी के सलवाजुड़ुम में रोज याअबतक कितने आदिवासी स्त्री पुरुष और बच्चे बमौत मार दिये गये।

इसीतरह पूर्वोत्तर में आफसा भूगोल का सच हम नहीं जानते और राजधानी में शत्रु अनार्यनस्ल के पूर्वोच्चर के लोगों को पीट पीटकर मारते हुए भी हम सभ्य और आजाद धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील हैं।

गुजरात का सच हम जान रहे होते तो कोई महाजिन्न का देश बेचो ब्रिगेढ इतना निरंकुश नहीं है।अंबानी और अडानी का गुलाम इस महाजिन्न का जनसंहारी राजकाज बजरिये मीडिया है,इसे भी समझने से हम इंकार कर रहे हैं।

हम गायपट्टी हो या केसरिया मध्यभारत,शतरंजी बिहार या लाल नील हरा बंगाल,कहीं भी किसी भी नरसंहार का सच नहीं जानते।

हम आतंकवादी हमलों का सच नहीं जानते।

हम आपदाओं का सच नहीं जानते।

हम आपदाओं में मारे गये जनपदों का भूगोल नहीं जानते।

हम न जानते हैं हिमालय या समुंदर,न सुंदर वन और न हम जानते हैं अपने देस के महाश्मशान खेतखलिहानों और कल कारखानों,चायबागानों का सच।

हम रक्षा सौदों और घोटालों का सच नहीं जानते और हम कभी नहीं जान पायेंगे कि कितने महामहिमों के चरण चिन्ह है काजल की कोठरियों में।

हम सिर्फ बचाये जा रहे बेनकाब चेहरे देख रहे हैं,नकाबों के पीछे जो चेहरे हैं ,जिन्हें बचाने के लिए बेनकाब और नंगों को बचाने की कवायद यह है,उसका सच हम कभी नहीं जान सकते।

हम फर्जी मुठभेड़ों,फर्जी मुकदमों और राजद्रोह के तमाम किस्सों में यकीन करने वाले बजरंगी है और सच छुपाा हमारी सनातन वैदिकी संस्कृति है।

जॉन पिल्गर का कहना हैःतो हमें क्या करना चाहिए? जब कभी मैं सभाओं में मैं जाता हूं अक्सर यह सवाल पूछा जाता है, और अपने आप में मजेदार बात ये कि इस सम्मेलन जैसी ज्यादा जानकारी वाली सभाओं में भी यही सवाल पूछा  जाता है। मेरा अपना अनुभव है कि तथाकथित तीसरे देशों की जनता शायद ही  इस तरह के प्रश्न पूछती है क्योंकि वे जानते हैं कि क्या करना है। और कुछ अपनी स्वतंत्रता तथा अपने जीवन का मूल्य चुकाते है। लेकिन वे जानते हैं कि  क्या करना चाहिए। यह एक ऐसा प्रश्‍न है कि कई डेमोक्रेटिक वामपंथियों को  इसका अभी भी जवाब देना है।

अभी भी वास्वविक स्वतंत्र सूचनाएं सभी के लिए प्रमुख शक्‍ति बनी हुई है। और मेरा मानना है कि हमें इस विश्‍वास कि मीडिया जनता की आवाज़ है, जनता के  लिए बोलती है, के जाल में नहीं फंसना चाहिए। यह स्तालिनवादी चेकोस्लोवाकिया में सच नहीं था और  संयु‍क्‍त राज्य में यह सच नहीं है।
जॉन पिल्गर का कहना हैः
मेरा मानना है कि पांचवा स्तंभ संभव है, जनआंदोलन के सहयोगी कारपोरेट मीडिया को खंड खंड करेंगे, जवाब देंगे तथा रास्ता दिखाएंगे। प्रत्येक विश्‍वविद्यालयों में, मीडिया अध्ययन के हरेक कॉलेजों में, हर समाचार कक्षों  में, पत्रकारिता के शिक्षकों, खुद पत्रकारों को वाहियात वस्तुनिष्ठता के नाम पर जारी खून ख़राबे के दौर में अपनी निभाई जा रही भूमिका के बारे में प्रश्‍न करने की ज़रूरत है। खुद मीडिया में इस तरह का आंदोलन एक  पेरोस्त्रोइका (खुलापन) का अग्रदूत होगा जिसके बारे में हम कुछ नहीं जानते। यह सब संभव है। चुप्पियां तोडी़ जा सकती हैं।

इसीलिए इस कारपोरेट केसरिया मीडिया साम्राज्य को समझने के लिए जॉन पिल्गर को पढ़ना बेहद अनिवार्य है।आप हमारे किसी ब्लाग पर या सीधे हाशिये पर यह आलेख पूरा पढ़ सकते हैं।

गौर करें इस सच पर जो इश आलेख में उजागर हैः

ब्लेयर और क्लिंटन की ही तरह ब्राउन भी उदारवादी सच को मानता है कि इतिहास के लिए युद्ध को जीता जा चुका है; कि ब्रिटिश साम्राज्य की अधीनता में भारत में अकाल, भुखमरी से लाखों लोग जो मारे गए हैं उसे भुला दिया जाना चाहिए। जैसे अमरीकी साम्राज्य में जो लाखों लोग मारे जा रहे हैं, उन्हें भुला दिया जाएगा। और ब्लेयर  जैसे उसका उत्तराधिकारी भी आश्वस्त है कि पेशेवर पत्रकारिता उसके पक्ष में है, अधिकतर पत्रकार ऐसे विचारधारा के प्रतिनिधिक संरक्षक हैं, इसे मानते हैं, भले इसे वे महसूस करें या न करें, जो अपने आपको गैर विचारधारात्मक कहती है, जो अपने आपको प्राकृतिक तौर पर केंद्रिय तथा जो आधुनिक जीवन का प्रमुख आधार ठहराती है। यह बहुत ही अच्छा है कि अभी भी हम सबसे शक्तिशाली तथा ख़तरनाक विचारधारा को जानते हैं जिसका खुले तौर पर अंत हो चुका है। वह है उदारवाद। मैं उदारवाद के गुणों से इंकार नहीं कर रहा हूं, इससे बहुत दूर हूं। हम सभी उसके लाभार्थी हैं। लेकिन अगर हम उसके खतरों से, खुले तौर पर अंत हो चुकी परियोजनाओं से तथा इसके प्रोपेगेंडा की सभी उपभोक्‍ता शक्‍तियों से इंकार करते हैं तब हम सच्चे लोकतंत्र के अपने अधिकार से इंकार कर रहे हैं। क्योंकि उदरवाद और सच्चा लोकतंत्र (जनवाद) एक ही नहीं हैं। उदारवाद १९वीं शतब्दी में अभिजात्य लोगों के संरक्षण से प्रारंभ हुआ था। और जनवाद कभी भी अभिजात्य लोगों के हाथों में नहीं सौपा जा सकता। इसके लिए हमेशा लडा़ई लडी़ गई है। और संघर्ष किया गया है।

फिरः
इसके स्पष्ट प्रमाण हैं कि बुश ने तालिबान पर हमला करने का जो निर्णय लिया वह ९/११ का परिणाम नहीं था। बल्कि यह दो महीने पहले जुलाई २००१ में ही तय हो चुका था। सार्वजनिक तौर पर यह सब संयुक्‍त राज्य में सामान्यतः लोगों की जानकारी में नहीं है। जैसे अफ़गानिस्तान में मारे गए नागरिकों की गणना के बारे में लोगों को कुछ मालूम नहीं है। मेरी जानकारी में, मुख्यधारा मे सिर्फ़ एक रिपोर्टर, लंदन में गार्डियन के जोनाथन स्टील ने अफगानिस्तान में नागरिकों की मौत की जाँच किया है और उनका अनुमान है कि २०००० नागरिक मारे गए हैं और यह तीन  साल पहले की बात है।

जॉन पिल्गर ने यह व्याख्यान(यहां एक वीडियो भी है) शिकागो में पिछली जुलाई में दिया था। इस व्याख्यान में वे विस्तार से बताते हैं कि कैसे प्रोपेगेण्डा हमारे जीवन की दिशा को प्रबलता से प्रभावित कर रहा है। इतना ही नहीं प्रोपेगेण्डा आज एक अद्रृश्य सत्ता का भी प्रतिनिधित्व करता है। अनिल का अनुवाद.इसे हमारे समय में बिकी हुई खबरों पर चली बहस के संदर्भ में पढ़िए और सोचिए कि हमारे देश में इसका प्रतिरोध कितना नाकाफी और वैचारिक रूप से कितना अधूरा है.

इन मुद्दों पर गौर करें जो जान पिल्गर और हमारे मुद्दे हैंः

जनता जो चीज़ नहीं जानती थी वह यह कि पेशेवर होने के लिए पत्रकारों को यह आश्वासन देना होता है कि जो समाचार और दृष्टिकोण वह देंगे वह आधिकारिक स्त्रोतों से ही संचालित और निर्देशित होंगे और यह आज भी नहीं बदला है। आप किसी भी दिन का न्यूयार्क टाईम्स उठाइए और राजनीतिक खबरों- विदेशी और घरेलू दोनों, के स्रोतों की जाँच करिए, आप पाएंगें कि वे सरकारों तथा अन्य स्थापित स्रोतों से ही निर्देशित हैं। पेशेवर पत्रकारिता का यही मूलभूत सार है।...

बीबीसी 1922 में, अमरीका में कार्पोरेट प्रेस के शुरु होने के थोडा़ पहले, शुरू हुआ। इसके संस्थापक जॉन रीथ थे जिनका मानना था कि निष्पक्षता और वस्तुनिष्ठता पेशेवर होने के मूलभूत सार हैं। उसी साल ब्रिटिश हुकूमत को घेर लिया गया था। श्रमिक संगठनों ने आम हड़ताल का आह्वान किया था तथा टोरियों को डर हो गया कि क्रांति होने जा रही है। तब नवीन बीबीसी उनके बचाव में आया। उच्च गोपनीयता में लार्ड रीथ ने टोरी प्रधानमंत्री स्टानले बाल्डविन के लिए यूनियन विरोधी भाषण लिखा और जब तक हड़ताल ख़त्म नहीं हो गई, लेबर नेताओं को अपना पक्ष रखने की अनुमति देने से इनकार करते हुए उन भाषणों को राष्ट्र के नाम प्रसारित करते रहे।

अतः एक मिसाल कायम की गई। निष्पक्षता एक निश्चित सिद्धांत था: एक ऐसा सिद्धांत जिसे स्थापित सत्ता को ख़तरा महसूस होते ही बर्खास्त कर दिया गया। और यह सिद्धांत तब से संभाल कर रखा लिया गया है।….

गोपनीय क्या है? यह सवाल अक्सर ही समाचार कक्षों, मीडिया अध्ययन के संस्थानों, पत्र पत्रिकाओं में पूछा जाता है। और इस सवाल का जवाब लाखों लोगों की जिंदगी के लिए बेहद महत्वपूर्ण होता है। पिछले साल 24 अगस्त को न्यूयार्क टाइम्स ने अपने संपादकीय में घोषणा की कि "आज जो हम जानते हैं अगर पहले जानते होते तो व्यापक सार्वजनिक विरोध से इराक पर आक्रमण को रोक दिया जाता"। इस परिप्रेक्ष्य में इस आश्चर्यजनक प्रतिपादन का कहना था कि पत्रकारों ने अपना काम न करके, बुश एवं उसके गैंग के झूठ को किसी तरह चुनौती देने तथा उसे उजागर करने के बदले में उसे स्वीकार करते हुए, प्रसारित करते हुए तथा उसकी हाँ मे हाँ मिलाकर जनता को धोखा दिया है, छला है। टाईम्स ने जो नहीं कहा वह यह कि उसके पास ही वह समाचार पत्र है और बाकी की मीडिया ने अगर झूठ उजागर किया होता तो आज लाखों लोग जिंदा होते। …

एक बहुत पुरानी उक्‍ति है कि युद्ध में 'सच' सबसे पहले घायल होता है। नहीं ऐसा नहीं है। पत्रकारिता सबसे पहले दुर्घटनाग्रस्त होती है। जब वियतनाम युद्ध समाप्त हो गया तब 'इनकांऊटर' पत्रिका ने युद्ध को कवर करने वाले प्रसिद्ध संवाददाता राबर्ट इलीगंट का एक आलेख छापा था। "आधुनिक इतिहास में पहली बार हुआ है कि, उन्होंने लिखा, "युद्ध के परिणाम का निर्धारण लडा़ई के मैदान में नहीं बल्कि मुद्रित पन्नों पर, और सबसे ऊपर टेलीविजन के पर्दे पर हुआ"। उन्होंने युद्ध में पराजय के लिए उन पत्रकारों को जिम्मेदार ठहराया जिन्होंने अपनी रिपोर्टिंग में युद्ध का विरोध किया। राबर्ट इलीगंट का दृष्टिकोण वाशिंगटन के लिए 'महाज्ञान की प्राप्ति' था और अभी भी है। इराक में, पेंटागन ने गडे़ हुए पत्रकारों को खोज निकाला क्योंकि उसका मानना था कि आलोचनात्मक रिपोर्टिंग ने वियतनाम में उसे हराया था।  

बिल्कुल विपरीत ही सच था। सैगन में, युवा रिपोर्टर के रूप में मेरे पहले दिन प्रमुख समाचार पत्रों तथा टेलीविजन कंपनियों के महकमे में मुझे बुलाया गया। वहां मैने पाया कि दीवार में बोर्ड टँगे हुए थे जिनमें कुछ वीभत्स तस्वीरें लगी हैं। इनमें से अधिकतर वियतनामियों के शरीर थे और कुछ में अमरीकी सैनिक किसी का अंडकोष या कान उमेंठ रहे हैं। एक दफ्तर में एक आदमी की तस्वीर थी जिसे यातना दी जा रही है। यातना देने वाले आदमी के ऊपर गुब्बारेनुमा कोष्ठक में लिखा था "वह तुम्हें प्रेस से बात करना सिखायेगा"। इनमें से एक भी तस्वीरें कभी भी प्रकाशित नहीं हुईं। मैने पूछा क्यों? तो मुझे बताया गया कि जनता इन्हें कभी स्वीकार नहीं करेगी। और उन्हें प्रकाशित करना वस्तुनिष्ठ या निष्पक्ष नहीं होगा। पहले पहल तो मैनें इस सतही तर्क को स्वीकार कर लिया। मैं खुद भी जर्मनी और जापान के बीच अच्छे युद्ध की कहानियों के बीच पला बढा़ था, कि एक नैतिक स्नान से एंग्लों अमरीकी दुनिया को सभी पापों से मुक्‍ति मिल गई थी। लेकिन वियतनाम में जब मैं लंबे समय तक रुका तो मैंने महसूस किया कि हमारे अत्याचार कोई अलग नहीं थे, यह कोई सन्मार्ग से विचलन नहीं था बल्कि युद्ध अपने आप में एक अत्याचार था। यह एक बडी़ बात थी, और यह बिरले (कदाचित) ही समाचार बन पाया। हलांकि सेना की रणनीति तथा उसके प्रभावों के बारे में कुछ बढि़या पत्रकारों ने सवाल किया था। लेकिन 'आक्रमण' शब्द का प्रयोग कभी नहीं किया गया। नीरस शब्द 'शामिल होना" (इन्वाल्वड) प्रयोग में किया गया। अमरीका वियतनाम में घिर (फंस गया) है। अपने उद्‍देश्यों में सुस्पष्ट, एक भयानक दैत्य, जो एशिया के दलदल में फ़ंस गया है, का गल्प निरंतर दोहराया गया। यह डेनियल इल्सबर्ग तथा सेमूर हर्ष जैसे सीटी फूंककर चेतावनी देने वालों पर छोड़ दिया गया था, जिन्होंने माय लाय नरसंहार को गर्त में पहुंचाया, कि वे घर लौटकर विध्वंसक सच के बारे में बताएं। वियतनाम में 16 मार्च 1968 को जिस दिन माय लाय नरसंहार हुआ था, उस दिन 649 रिपोर्टर मौजूद थे और उनमें से किसी एक ने भी इसकी रिपोर्टिंग नहीं की।

वियतनाम और इराक दोनों जगह, सुविचारित नीतियों तथा तौर तरीकों से नरसंहारों को अंजाम दिया गया। वियतनाम में, लाखों लोगों की जबरन बेदखली तथा निर्बाध गोलाबारी क्षेत्र (फ़्री फायर जोन) का निर्माण करके तथा इराक में अमरीकी दबाव के तहत 1990 से ही मध्ययुगीन नाकेबंदी के द्वारा, संयुक्‍त राष्ट्र बाल कोष के अनुसार, पांच साल से कम के करीब पाँच लाख बच्चों को मार दिया गया। वियतनाम और इराक दोनों जगह नागरिकों के खिलाफ़ सुनियोजित परीक्षण के बतौर प्रतिबंधित औजारों का इस्तेमाल किया गया। एजेंट औरेंज ने वियतनाम में अनुवांशिकी और पर्यावर्णीय व्यवस्था को बदल दिया। फौज ने इसे आपरेशन 'हेड्स' कहा। कांग्रेस को जब यह पता चला इसका नाम बदल कर दोस्ताना आपरेशन रैंच हैंड्स रख दिया गया और कुछ भी नहीं बदला। यही ज्यादा ध्यान देने की बात है कि इराक युद्ध में कांग्रेस ने कैसी प्रतिक्रिया जाहिर किया है। डेमोक्रेटों ने इसे थोडा़ धिक्कारा, इसे दुबारा ब्रांड बनाया और इसका विस्तार किया। वियतनाम युद्ध पर बनने वाली हालीवुड की फिल्में पत्रकारिता का ही एक विस्तार थीं। सोचे तक न जा सकने वाले का सामान्यीकरण। हां, कुछ फ़िल्में फौज की रणनीति के बारे में आलोचनात्मक रुख लिए हुए थीं लेकिन वे सभी, आक्रमणकारियों की चिंताओं पर अपने आप को केंद्रित करने के लिए सावधान थीं। इनमें से कुछ शुरुआती कुछ फिल्में अब क्लासिक का दर्जा पा चुकी हैं, इनमें से सबसे पहली है 'डीरहंटर', जिसका संदेश था कि अमरीका पीडित हुआ है, अमरीका को मार पडी़ है, अमरीकन लड़कों ने प्राच्य बर्बरताओं के खिलाफ अपना बेहतरीन कौशल दिखाया है। इसका संदेश सबसे ज्यादा घातक है क्योंकि डीरहंटर बहुत कुशलतापूर्वक बनाई तथा अभिनीत की गई है। मुझे कहना चाहिए कि यही एक मात्र ऐसी फिल्म है जिसके विरोध में मैं जोर से चीख़ने के लिए मजबूर हो गया। ओलीवर स्टोन की फिल्म प्लाटून को युद्धविरोधी माना जाता है, और इसमें बतौर मानव वियतनामियों की झलकियां दिखाई हैं लेकिन इसने भी अंततः इसी बात को प्रोत्साहित किया कि अमरीकी आक्रमणकारी 'शिकार' बने।..

फिलिस्तीन की चिरस्थायी त्रासदी, तथाकथित वाम की गहरी चुप्पियों तथा आज्ञानुकूलिता की बडी़ भूमिका के कारण जारी है। हमास को लगातार इजरायल के विध्वंस के लिए तैयार तलवार के रूप में व्याख्यायित किया जा रहा है। आप द न्यूयार्क टाइम्स, एशोसिएट प्रेस, बोस्टन ग्लोब को ही लीजिए। वे सभी इस उक्‍ति को स्तरीय घोषणा के बतौर इस्तेमाल करते हैं। और जबकि यह ग़लत है। हमास ने दस साल के लिए युद्ध विराम की घोषणा की है जिसकी रिपोर्टिंग लगभग नहीं की गई है। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि हमास में पिछले वर्षों में एक ऐतिहासिक विचारधारात्मक परिवर्तन (शिफ़्टिंग) हुआ है जो, जिसे इजराइल का यथार्थ कहते हैं उसे  मान्यता प्रदान करता है, लगभग अज्ञात है। और फिलिस्तीन के विध्वंस के लिए इजरायल जैसी तलवार है
वह अकथनीय ही है।

फिलिस्तीन की रिपोर्टिंग पर ग्लास्गो विश्‍वविद्यालय द्वारा आंखें खोल देने वाले अध्ययन किए गई हैं। उन्होंने ब्रिटेन में टी।वी। समाचार देखने वाले युवाओं का साक्षात्कार लिया। ९० प्रतिशत से ज्यादा लोगों का सोचना था कि फिलिस्तीनी अवैधानिक ढंग से बसे हुए हैं। डैनी स्चेक्टर के प्रसिद्ध मुहावरे के अनुसार "वे ज्यादा देखते हैं, बहुत कम वे जानते हैं"।

वर्तमान में सबसे भयानक चुप्पी परमाणु शस्त्रों तथा शीत युद्ध की वापसी पर है। रूसी स्पष्टतः समझते हैं कि पूर्वी यूरोप में तथाकथित अमरीकी सुरक्षा ढाल उन्हें नष्ट करने तथा नीचा दिखाने के लिए बनाई गई है। फिर  भी यहां पहले पन्नों में यही होता है कि पुतिन एक नया शीत युद्ध प्रारंभ कर रहे हैं। और पूरी तरह से विकसित नई अमरीकी परमाणु व्यवस्था, जिसे भरोसेमंद शस्त्रों की बदली (रेलिएबल वीपन्स रिप्लेसमेंट) कहते  हैं, जो लंबे समय से स्थगित महत्वाकांक्षा -- कृत्रिम युद्ध तथा परमाणु युद्ध के बीच की दूरियों को पाटने के लिए, बनाई (डिजाईन) गई है उसके बारे में चुप्पी है।



No comments:

Post a Comment