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Saturday, August 8, 2015

खुली आर्थिकी के 25 वर्ष: जरूरी जाँच का वक्त

खुली आर्थिकी के 25 वर्ष: जरूरी जाँच का वक्त

globalisation-and-economyमोदी सरकार के एक वर्ष पूरे होने पर आर्थिक मोर्चे पर जगी आशा का आकलन हो रहा है। डॉलर के मुकाबले, रुपये के कमजोर होने पर महंगाई बढने की चिंता व्यक्त की जा रही है। कहा जा रहा है कि मोदी, वैश्विक निवेशकों में विश्वास जगाने में असमर्थ साबित हो रहे हैं और चीन को भारत से ज्यादा मुफीद देश मान रहे हैं। किन्तु चीन की आर्थिकी एक मुकाम पर पहुँच कर थम गई है। अतः चीन, अपने उत्पाद के लिए नया भूगोल ढूँढ रहा है। इसी नाते वह भारत में निवेश कर रहा है। चीन में उत्पादन ज्यादा है, मजदूरों की कमी है। संभव है कि खुली आर्थिकी आगे चलकर भारतीय मजदूरों को चीन में नौकरियोँ के अवसर दिलाये। ऐसे तमाम अवसरों और पहलुओं का आकलन होना चाहिये। किंतु वैश्विक स्तर पर खुल चुकी आर्थिकी के भारतीय परिवेश पर असर का आकलन इससे भी ज्यादा जरूरी है। वैश्विक आर्थिकी के लिए भारत को दरवाजा खोले अब 25 वर्ष हो गये हैं। किसी भी प्रयोग को जाँचने के लिये 25 वर्ष पर्याप्त होते हैं। आर्थिक उदारीकरण के रूप में बड़े पैकेज, निवेश, आउटसोर्सिंग के मौके, सेवा क्षेत्र का विस्तार, वैश्विक स्तर पर प्रतिद्वंदिता के कारण ग्राहक को फायदे जैसे तात्कालिक लाभ से तो सब परिचित हैं ही। जरूरी है कि इनसे होने वाली हानि पर भी नजर डाल ली जाये।
विश्व व्यापार संगठन, विश्व इकोनॉमी फोरम, विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष आदि संगठन खुली आर्थिकी के हिमायती भी हैं और संचालक भी। ये अंतर्राष्ट्रीय संगठन कुछ देशों की सरकारों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों और न्यासियोँ के ऐसे गठजोड़ हैं, जो दूसरे देशों की हवा, पानी, मिट्टी की परवाह किए बगैर वहाँ परियोजनाओं को कर्ज और सलाह मुहैया कराते हैं; निवेश करते हैं। ऐसी परियोजनाओं से पर्यावरण के सत्यानाश के कई उदाहरण हैं। उन्नत बीज, खरपतवार, कीटनाशक, उर्वरक और ’पैक्ड फूड’ के जरिए भारत की खेती, खाना और पानी इन परियोजनाओं के नये शिकार बनते हैं। बीजों व उर्वरकों में मिलकर खरपतवार की ऐसी खेप आ रही है कि किसान उन्हें खोदते-खोदते परेशान है। उन्नत बीज वाली फसलों, खासकर सब्जियों में बीमारियों का प्रकोप इतना अधिक है कि न चाहते हुए भी किसान ’कीटनाशकम् शरणम् गच्छामि’ को मजबूर हो रहा है। भारत की जल विद्युत, नहरी और शहरी जलापूर्ति परियोजनाओं में अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की दिलचस्पी जगजाहिर है। अपने पर्यावरण पार्टनरों द्वारा मचाये स्वच्छता, प्रदूषण मुक्ति और कुपोषण के हो-हल्ले के जरिए भी ये अंतर्राष्ट्रीय संगठन ’आर ओ’, शौचालय, मलशोधन संयंत्र, दवाइयाँ और टीके ही बेचते हैं। ये कहते हैं कि कुपोषण मुक्ति के सारे नुस्खे इनके पास हैं। ये ’हैंड वाश डे’ के जरिए ’ब्रेन वाश’ का काम करते हैं। ये साधारण नमक को नकार कर, आयोडीनयुक्त नमक का कुतर्क परोसते हैं और तीन रुपये किलो के नमक की बाजार में 16 रुपये किलो कर देते हैं। जबकि वैज्ञानिक तथ्य है कि कुछ इलाकों को छोड़ कर भारत में आयोडीन की जरूरत की पूर्ति परंपरागत खानपान से हो जाती है।
करीब दो दशक पहले भारत में साधारण तेल की तुलना में, रिफांइड तेल से सेहत के अनगिनत फायदे गिनाये गये। डॉक्टर और कंपनियों से लेकर ग्राहकों तक ने इसके अनगिनत गुण गाये। हमारी गृहणियों ने भी शान से कहा, ’’कित्ता ही मंहगा हो; हमारे इनको को रिफाइंड ही पंसद है।’’ इस पसंद ने हमारे कोल्हुओं को ताला लगवा दिया। बाद में ‘विज्ञान पर्यावरण केन्द्र’ की रिपोर्ट में बताया गया था कि भारत के बाजार में बिक रहे रिफांइड तेलों में मानकों की पालना नहीं हो रही। लिए गये नमूनों में तेल को साफ करने में इस्तेमाल किए जाने वाले रसायन, तय मानक से अधिक स्तर तक मौजूद पाये गये, जो शरीर को खतरनाक बीमारी का शिकार बना सकते हैं। पिछले वर्षों में एक अमेरिकी शोध आया, ’’कोल्ड ब्रिज ऑयल से अच्छा कोई नहीं।’’ ’कोल्ड ब्रिज ऑयल’ यानी ठंडी पद्धति से निकाला गया तेल। कोल्हू यही तो करता है। कोल्हू में तेल निकालते वक्त आपने पानी के छींटे मारते देखा होगा। यही वह तरीका है, जिसे अब अमेरिका के शोध भी सर्वश्रेष्ठ बता रहे हैं और हमारे डॉक्टर भी।
पर्यावरण के क्षेत्र में देखें। पुर्नोपयोग के नाम पर बड़ी मात्रा में इलेक्ट्रानिक, प्लास्टिक और दूसरा कचरा विदेशों से आज भारत सहित एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमेरिका के देशों में भेजा जा रहा है। ये तीनों क्षेत्र, सशक्त होते ऐसे नये आर्थिक केन्द्र हैं, जिनसे दुनिया के परंपरागत आर्थिक शक्ति केन्द्रों को चुनौती मिलने की संभावना है। पहले किसी देश को कचराघर में तब्दील करना और फिर कचरा निष्पादन के लिए अपनी कंपनियों को रोजगार दिलाने का यह एक खेल है। इसके जरिये वे अपने कचरे के पुनर्चक्रीकरण का खर्च भी बचा लेते हैं। केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय की वर्ष 2015-16 की समिति ने विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को अपने कचरे का डंप एरिया बनाये जाने पर आपत्ति जताई है और विधायी तथा प्रवर्तन तंत्र विकसित करने की सिफारिश की है। सिफारिश में ई कचरे को तोड़ कर पुनर्चक्रीकरण प्रक्रिया के जरिये, कचरे के वैज्ञानिक निपटान पर जोर दिया गया है।
नई आर्थिक तरक्की वाले देशों में पर्यावरणीय क्षेत्र में काफी कुछ खोया है। हवा, जैव विविधता और मानव सेहत के लिए जरूरी इंतजाम किए बगैर शहरीकरण बढ़ाते जाना खतरनाक है। बावजूद इसके क्या यह सच नहीं है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के विकास कार्यक्रमों की पूरी श्रृंखला दुनिया को शहरीकरण की तरफ धकेल रही है ?
विश्व व्यापार संगठन समझौते का असर यह है कि एक तरफ गणेश, लक्ष्मी, दीपक से लेकर रोजमर्रा की जरूरत के तमाम चीनी सामानों ने भारत के कुटीर उद्योगों पर हमला बोल दिया है, दूसरी तरफ चीन भारत के नामी ब्रांड का अंतर्राष्ट्रीय बाजार तबाह करने में लगा है। अभी छः मई को राज्य सभा में सांसद राजीव शुक्ला ने बताया कि कोलकोता की एक गारमेंट कंपनी के उत्पाद के नाम, स्टीकर आदि का हूबहू नकली उत्पाद चीन में तैयार हो रहा है। असली कंपनी करीब 400 करोड़ रुपये का निर्यात कर रही है और चीन, उसी के नाम का नकली उत्पाद तैयार कर लगभग 900 करोड़ का निर्यात कर रहा है। कंपनी ने तमाम दूतावासों से लेकर भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय तक में शिकायत की। नतीजा अब तक सिफर ही है।
खुली हुई आर्थिकी के यदि कुछ लाभ हैं तो खतरे और भी ज्यादा। ये खतरे अनेक रूप धर कर आ रहे हैं। जरूरत, बाजार आधारित गतिविधियों को पूरी सतर्कता व समग्रता के साथ पढ़ने और गुनने की है। अपनी जीडीपी का आकलन करते वक्त प्राकृतिक संसाधन, सामाजिक समरसता और ’हैप्पीनेस इंडेक्स’ जैसे समग्र विकास के संकेतकों को नहीं भूलना चाहिए। पूछना चाहिए कि पहले खेती पर संकट को आमंत्रित कर, फिर सब्सिडी देना और खाद्यान्न आयात करना ठीक है या खेती और खाद्यान्न को संजोने की पूर्व व्यवस्था व सावधानी पर काम करना ?

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