Sustain Humanity


Monday, August 10, 2015

तेलंगाना में करमचेडू की आशंका

तेलंगाना में करमचेडू की आशंका

Posted by Reyaz-ul-haque on 8/10/2015 01:04:00 PM


आनंद तेलतुंबड़े ने तेलंगाना के पटपल्ली पर यह रिपोर्ट लिखी है, जहां पिछले करीब तीन महीनों से दलित मादिगा लोग बोया लोगों द्वारा जातीय उत्पीड़न के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं. उन्होंने इस दौरान पाया कि राज्य और पुलिस-प्रशासन ने उन पर हो रहे उत्पीड़न को रोकने के लिए कोई कार्रवाई तो नहीं की, लेकिन जब वे विरोध पर उतरे तो उनके खिलाफ कार्रवाई करने में कोई कोताही नहीं की गई. राज्य सरकार की एजेंसियों और प्रभुत्वशाली जाति बोया द्वारा जो माहौल बना दिया गया है, उसमें अपने जनसंहार की आशंका वहां के दलितों को सता रही है. अगर जल्दी ही, उन्हें इंसाफ नहीं मिला और उन्हें सताने वाले लोगों के खिलाफ कार्रवाई सुनिश्चित नहीं की गई तो हालात और खराब ही होंगे. यह रिपोर्ट, इसी तकाजे के तहत पेश की जा रही है, कि पटपल्ली के दलितों के समर्थन में एक बड़ी एकजुटता बनाई जा सके और उनके उत्पीड़नकारियों के खिलाफ कार्रवाई को यकीनी बनाया जा सके. तेलतुंबड़े इस संघर्ष में भाग ले रहे हैं और आगे भी इस आंदोलन पर उनकी रिपोर्ट और लेख पेश किए जाएंगे. अनुवाद: रेयाज उल हक. तस्वीर: द हिंदू

 

भारतीय संघ का सबसे नया राज्य तेलंगाना एक लंबे चले जनसंघर्ष के जरिए बना था, जिसमें बताया जाता है कि 600 से ज्यादा नौजवानों ने अपनी कुर्बानियां दी थीं. लेकिन अपने बनने के एक साल से भी कम वक्त में इसके गरीब तबके और खास कर दलितों की गलतफहमियां दूर हो रही हैं, जो इसको बनाने के लिए चले संघर्ष में अगले मोर्चे पर थे. हालांकि इसका नेतृत्व परंपरागत राजनेता के. चंद्रशेखर राव (केसीआर) कर रहे थे, लेकिन संघर्ष को भारी प्रगतिशील समर्थन हासिल था. यही वजह है कि केसीआर को भी एक गरीब-परस्त नजरिया अपनाने को मजबूर होना पड़ा था, जिसमें दलितों पर खास जोर दिया गया था. पिछले चुनाव के दरमियान उन्होंने बड़े-बड़े वादे किए जिनमें हरेक दलित परिवार को तीन एकड़ जमीन और दो बेडरूम वाले घर बिल्कुल मुफ्त देना शामिल था. जहां सीधे-सादे और सियासी तौर पर बिखरे हुए दलितों को लुभाने की कोशिशें गैरमामूली नहीं हैं, इसके बावजूद ये वादे गैरमामूली थे. लेकिन दलितों के योगदान को देखते हुए, यह मुमकिन लगा था, हालांकि राजनेताओं और जानकारों ने इसे अव्यावहारिक और लोगों को बेवकूफ बनाने वाला कह कर इसका मजाक उड़ाया. इसके बावजूद इसने कम से कम यह बात तो जाहिर कर दी कि केसीआर सरकार के तेलंगाना के दलितों को लेकर खास सरोकार रहेंगे. लेकिन पिछले दो महीनों में तेलंगाना की सबसे बड़ी दलित जाति पटपल्ली मादिगा के जारी संघर्ष ने इन उम्मीदों को पूरी तरह खत्म कर दिया है और बाकी दूसरों की तरह केसीआर सरकार के भी दलित-विरोधी चरित्र को उजागर किया है.

इस संघर्ष में दखल देने के लिए मुझे कुल निर्मूलना पोराता समिति (जाति उन्मूलन समिति) द्वारा बुलाया गया था, जो 1998 में अपनी स्थापना के समय से ही आंध्र प्रदेश और तेलंगाना राज्यों में जातीय उत्पीड़न के मुद्दों को उठाने में सक्रिय रहा है. इसने स्थानीय दलितों की रहनुमाई की और पटपल्ली दलित विक्टिम्स कमेटी फॉर स्ट्रगल फॉर जस्टिस की स्थापना के लिए प्रेरित किया और इस साझे बैनर के तहत संघर्ष शुरू किया. वे पटपल्ली दलितों के लिए इंसाफ की मांग करते हुए पेब्बेरु मंडल ऑफिस के सामने धरने पर बैठे रहे हैं, जिन्हें न सिर्फ प्रभुत्वशाली बोया समुदाय द्वारा बल्कि स्थानीय राज्य कर्मियों द्वारा भी उत्पीड़ित किया जाता है, जिन्होंने उनके ऊपर बदले में मुकदमे दर्ज करा रखे हैं. राज्यकर्मियों की मदद से मजबूत बने बोया लोगों ने दलितों को परेशान करना तेज कर दिया और इसकी खुलेआम धमकी दी कि अगर दलितों ने उनके हुक्म नहीं माने तो नतीजे गंभीर होंगे. पटपल्ली में तनाव इस कदर है कि दलितों को इसकी आशंका थी कि सरकार ने अगर कुछ नहीं किया और बोया लोगों को चुपचाप समर्थन देती रही तो कुछ खौफनाक घटना हो सकती है.

आदिमवाद का झरोखा

जो लोग यह पूछते हैं कि दलित ने क्यों दो हजार बरसों से उत्पीड़न को सहा है और विद्रोह नहीं किया उन्हें जवाब के लिए पटपल्ली जरूर आना चाहिए. इसकी एक वजह यकीनन यह है कि उन्होंने धर्म द्वारा तय की गई अपनी जगह को कबूल कर लिया है, लेकिन दूसरी वजह धर्म से खासी परे है और वो है ऊंची जातियों के प्रभुत्व की क्रूर ताकत. यह ताकत इस गांव में दिखाई देती है जो हैदराबाद-बंबई एक्सप्रेस वे से महज 15 किमी दूर है, जिसे देख कर आपको कैलिफोर्निया में होने का वहम हो सकता है. मौजूदा सिलसिला मई दिवस के दिन शुरू हुआ था. रघुराम एक मादिगा लड़का है जो तेलंगाना रोड ट्रांस्पोर्ट कॉरपोरेशन में एक बस कंडक्टर है और चालीसेक परिवारों में उन तीन खुशकिस्मत दलितों में से एक है जिनके पास कोई नियमित रोजगार है. रघुराम ने अपनी शादी के बाद, स्थानीय टीडीपी विधायक जी. जिन्ना रेड्डी के सामने अपने गांव के मंदिर में पूजा करने की इच्छा जताई, जो उसके मेहमानों में शामिल थे. विधायक ने उसे भरोसा दिलाया कि वो उसके साथ चलेंगे लेकिन जब वे लोग मंदिर तक पहुंचे, विधायक गायब हो गए. मादिगाओं ने यह सोचते हुए मंदिर में दाखिल होकर पूजा की कि उन्हें विधायक की सहमति हासिल है. अगले दिन जब रिवाज के मुताबिक रघुराम की मां बोया लोगों के बीच पान देने गईं तो उन्होंने उसे धमकी दी कि वे रघुराम को मार डालेंगे, जिसने मादिगा लोगों को मंदिर में ले जाने की जुर्रत की थी. मंदिर के पुजारी कृष्णामाचारी ने शुद्धि के लिए यज्ञ किया और बोया लोगों को फटकार लगाई कि उन्होंने मादिगा लोगों को देवताओं को दूषित करने दिया. रात में बोया लोगों ने एक बैठक की और मादिगाओं का सामाजिक बहिष्कार करने का फैसला किया. तब से पटपल्ली में उत्पीड़न की यह गाथा शुरू हुई. मादिगाओं ने निचले इलाके की अपनी बस्ती तक पहुंचने के लिए गांव में एक किलोमीटर तक बोया आबादी के बीच से गुजरना होता था. उन्हें छेड़ा गया, उनकी जाति का नाम लेकर गालियां दी गईं, उन पर पत्थर फेंके गए, छोटी-छोटी बातों पर उन पर हमले हुए और बाइक से टक्कर मारी गई.

4 मई को मादिगा के नौजवान पेब्बेरु गए और परजावाणी (लोगों की शिकायतें रखने का एक फोरम) में तहसीलदार को इस परेशान किए जाने के बारे में खबर दी. इसके जवाब में, तहसीलदार पांडु नायक ने पुलिस सब-इंस्पेक्टर (एसआई) प्रकाश यादव और अन्य पुलिसकर्मियों के साथ मादिगा टोले का दौरा किया, वहां एक पुलिस पिकेट बनाया और मंदिर के दरवाजे मादिगा लोगों के लिए खोल दिए. हालांकि जैसे ही तहसीलदार गांव से रवाना हुआ, 300-400 बोया नौजवानों का एक समूह आया और एसआई के सामने ही मादिगा लोगों पर हमले किया और उन्हें दलित बस्ती तक खदेड़ दिया. इसके बाद से, परेशान किए जाने और हमलों की घटनाओं में तेजी आ गई. इस तरह के रोजाना के कड़वे अनुभवों से बचने के लिए मादिगा लोगों ने 1 जून को अपने घरों को छोड़ कर पेब्बेरू-कोल्लापुर सड़क के करीब रिहाइशी प्लॉटों पर बसने का फैसला किया, जो उन्हें तब की आंध्र प्रदेश सरकार ने 2008 में सौंपा था. उन्होंने अपनी झोंपड़ियां खड़ी कीं, उन्हें पक्का बनाने के लिए इमारती सामान लेकर आए और वहां रहना शुरू कर दिया. हालांकि पुजारी और गांव के राजस्व अधिकारी (वीआरओ) ने बोया लोगों को भड़काया कि अगर मादिगा गांव के ऊपरी हिस्से में रहने लगे तो वे पूरे गांव को ही दूषित कर देंगे और बदशगुनी लाएंगे. उन्हें पुरानी बस्ती में वापस भेजने के लिए 3 जून को बोया सैकड़ों की तादाद में आए और मादिगा लोगों की झोंपड़ियों के बीच में चिन्ना स्वामी नाम के एक आदमी की लाश को गाड़ दिया, जिसकी मौत पिछले दिन हुई थी. मादिगा लोगों ने पुलिस से गुहार लगाई. डीएसपी वनपारथी के नेतृत्व में पुलिस, सर्किल इंस्पेक्टर, सब-इंस्पेक्टरों और साठेक पुलिसकर्मियों के साथ गांव में आई, लेकिन वह बोया लोगों को पुलिस की नजरों के सामने ही मादिगा लोगों की झोंपड़ियों के बीच में एक और आदमी गोडन्ना की लाश को गाड़ने से नहीं रोक पाई. लाचार होकर मादिगा लोग विरोध में पेब्बेरु-कोल्लापुर सड़क पर रास्ता रोको के लिए उतरे. जो पुलिस बोया लोगों को अपने लोगों की लाशें मादिगाओं की झोंपड़ियों के बीच में गाड़ते हुए बेचारगी से देखती रही थी, अब उसने गंभीर रूप से लाठी चार्ज किया. पेब्बेरू के एसआई जीतेंद्र रेड्डी ने रघुराम समेत 20 दलितों को हिरासत में लिया और उन्हें बहुत बुरी तरह पीटा. यहां तक कि मर्द पुलिसकर्मियों ने औरतों तक को नहीं बख्शा. जब मैं 19 जुलाई को उनसे मिला तो उनमें से अनेक अभी भी निजी तौर पर अपने जख्मों का इलाज करा रहे थे.

जाति का आतंक

संविधान द्वारा इसकी गारंटी दिए जाने के 65 साल के बाद, मंदिर में दाखिल होने की चाहत से शुरू हुआ यह सिलसिला नाइंसाफियों और आतंक के बरसों को उजागर करता है, जिन्हें दलित चुपचाप भुगतते रहे हैं. नए नए आवंटित रिहाइशी प्लॉटों के एकदम करीब नारायण मादिगा को 1 एकड़ 13 गुंठ का एक पट्टा आवंटित किया गया था. सारी औपचारिक कार्रवाइयों के पूरा हो जाने पर उन्होंने 2001 से उसमें खेती शुरू कर दी थी, लेकिन प्रभुत्वशाली बोया लोग इसे पचा नहीं पाए. उन्होंने अपने मरने वालों की लाशें उनके खेत में गाड़नी शुरू कर दीं और उन पर यादगारी स्मारक बनाने लगे. जबकि गांव के पार की उनकी परंपरागत श्मशान भूमि में कई पीढ़ियों के बाद महज 3-4 सीधे-सादे ढांचे खड़े हैं, इस नई श्मशान भूमि पर इस दरमियान दर्जन भर से ज्यादा स्मारक बन चुके हैं. नारायण ने तंग आकर आखिर में 2007 में खेती छोड़ दी. हम जब मादिगा बस्ती में गए, अनेक चीजों के बारे में पता लगा. गांव में पानी की एक टंकी थी, लेकिन उससे सिर्फ बोया घरों को ही आपूर्ति होती थी. दलितों के लिए अलग बोरवेल थे, जिसमें से खारा पानी भूमिगत पाइपों के जरिए दलित बस्ती में पहुंचता था. ये पाइप चार गड्ढों में खुलते थे, जिनमें कामचलाऊ टोंटियां लगी थीं जहां से दलित लोग पानी भर कर ले जाते थे. यह दृश्य इतना भयावह था कि हमें यकीन करने के लिए एक महिला से यह कहना पड़ा कि वे उसमें से पानी भर कर दिखाएं. दलित बस्ती के उस पार एक बड़ा पोखरा था, जिसके बारे में बताया गया कि उसने दलित जमीन को निगल लिया था. दलितों की कुल 54 एकड़ जमीन को डुबो दिया गया था, जिससे वे भूमिहीन मजदूर बन गए थे. बोया लोगों का आतंक इस कदर है कि मादिगा लोग असहमति का एक शब्द भी जुबान पर नहीं ला सके. खबर है कि उनकी जमीन पर बने पोखरे में मछलीपालन के लिए लगी बोली के जरिए पर 12 लाख रुपए आते हैं और उस पोखरे के पानी से बोया लोगों की जमीन की सिंचाई होती है. मादिगा लोगों को इससे यह हासिल होता है कि बरसात में उनके घरों में पानी भर आता है और उन्हें सांपों और दूसरे रेंगनेवाले जीवों के साथ गुजर करना पड़ता है. एक तरफ जहां बोया लोगों ने मादिगाओं को उनकी अपनी जमीन से बेदखल कर दिया है, उन्होंने गांव की साझी जमीन भी हड़प ली है और उस पर अर्ध-स्थायी गायघर और गोदामघर बना लिया है.

दिलचस्प बात यह है कि पटपल्ली की सरपंच एक मादिगा महिला सुभद्रा है, जो पहले गांव के विद्यालय में दोपहर का भोजन योजना के तहत खाना बनाती थी. बोया लोगों ने रसोइए के रूप में उसका विरोध किया, लेकिन ग्राम पंचायत की सरपंच के रूप में उसे कबूल कर लिया. बोया और मादिगा लोगों के बीच मौजूदा जातीय ध्रुवीकरण में उसका परिवार बोया लोगों की तरफ और आंदोलनकारी मादिगा लोगों के खिलाफ है. इसके उलट एक बोया पेद्दा वुसन्ना मादिगा लोगों की तरफ हैं, जिन्हें मादिगाओं के साथ साथ रिहाइशी प्लॉट आवंटित किया गया था. दिलचस्प बात यह है कि सुभद्रा भी मादिगा बोरवेल से पानी भरती हैं लेकिन प्रभुत्वशाली बोया लोगों के खिलाफ एक शब्द नहीं बोलतीं और पेद्दा वुसन्ना को उनकी ही जाति के लोगों ने सजा देते हुए उनकी झोंपड़ी गिरा दी और उनकी बीवी, बेटे और बेटी की गंभीर पिटाई की. आंदोलन के तेज होने पर इसकी भारी संभावना है कि राजनेता मादिगा दंदोरा भाड़े के हत्यारों को आंदोलनकारी मादिगाओं के खिलाफ लगा देंगे और इसे जाति के भीतर का एक झगड़ा बना कर रख देंगे. पटपल्ली समकालीन जातीय गतिकी की एक झलक देता है.

करमचेडू की आशंका

जबकि 17 जुलाई को हैदराबाद में प्रगतिशील समूह करमचेडू जनसंहार की तीसवीं बरसी को याद कर रहे थे, उसी समय पटपल्ली के मादिगा, बोया लोगों की धमकियों के मुताबिक अपने गांव के करमचेडु बनने के खौफ में जी रहे थे. प्रकासम जिले के करमचेडू के कम्मा लोगों ने छह मादिगा लोगों को मार डाला था और अन्य 20 को गंभीर रूप से जख्मी कर दिया. हो सकता है कि पटपल्ली के बोया लोग 2015 में करमचेडू के कम्मा लोगों जितने धनी न हों और इसी तरह मादिगा लोग करमचेडू के अपने साथियों जितने राजनीतिक रूप से सचेत न हों. लेकिन मादिगा लोगों के खिलाफ नफरत के मामले में बोया लोगों ने काफी बराबरी दिखाई है, जो कि उस पैमाने के उत्पीड़न के लिए जरूरी शर्त है. इससे भी ज्यादा, वे रेड्डियों और कम्मा लोगों से ज्यादा आक्रामक के रूप में जाने जाते हैं. पिछले दो महीनों के हमलों, बेइज्जतियों और अपमानों के सिलसिले तथा शांति के साथ धरने और रिले भूख हड़ताल के बावजूद सरकार ने हालात की गंभीरता को महसूस नहीं किया है. मादिगा लोगों के आंदोलन के हरेक दिन के साथ बोया लोगों का गुस्सा नई बुलंदी को छू रहा है और किसी भी पल भड़क कर खून-खराबे से भरे एक अत्याचार में तब्दील हो सकता है.

रायलसीमा और तटीय आंध्र के उलट तेलंगाना में जातीय अत्याचारों का इतिहास नहीं रहा है. भ्रामक रूप से इसकी वजह को औपनिवेशिक दौर से ही इलाके के रेडिकल आंदोलनों से जोड़ा जाता रहा है. लेकिन जैसाकि पटपल्ली ने उजागर किया है, यह प्रभुत्वशाली जातियों और दलितों के बीच ताकत की खौफनाक गैर बराबरी है, जिसने शायद किसी बड़े जातीय टकराव को रोके रखा था. जबकि केसीआर अवाम से और खासकर दलितों से किए गए अपने चुनावी वादे को पूरा करने में नाकाम हुए हैं, तो शायद वे तेलंगाना में अपना एक करमचेडू बनाना चाहते हों ताकि लोगों का ध्यान बंटाया जा सके. 


--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

No comments:

Post a Comment