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Saturday, August 15, 2015

कायनात कोई मजहबी मुल्क नहीं है यारो कि उसे मजहब से खारिज कर दो या फतवा कोई जारी कर दो उसके खिलाफ! हमें फिर उसी अहसास का इंतजार है कि इंसान आखिर आजाद है आजाद है इंसान आखिर! हम तो बस,दिलों में आग लगाने की फिराक में हैं! पलाश विश्वास

कायनात कोई मजहबी मुल्क नहीं है यारो कि उसे मजहब से खारिज कर दो या फतवा कोई जारी कर दो उसके खिलाफ!

हमें फिर उसी अहसास का इंतजार है

कि इंसान आखिर आजाद है

आजाद है इंसान आखिर!

हम तो बस,दिलों में आग लगाने की फिराक में हैं!

पलाश विश्वास


हमारी औकात पर मत जाइये जनाब कि सौदा मंहगा भी हो सकता है।यूं तो न पिद्दी हूं और न पिद्दी का शोरबा हूं लेकिन दूसरों की तरह अकेला हूं नहीं हूं।


जब भी बोलता हूं ,लिखता हूं,पांव अपने खेतो में कीटड़गोबर में धंसे होते हैं और घाटियों के सारे इंद्रधनुष से लेकर आसमां की सारी महजबिंयां साथ साथ,मेरी हर चीख में कायनात की आवाज है और चीखें भी कोई ताजा लाशे नहीं हैं।हर चीख के पीछे कोई नकोई मोहनजोदोड़ो यापिर हड़प्पा है या इनका या माया है जहां न मजहब है कोई और न सियासत कोई।


आत्ममैथून का भी शौकीन नहीं हूं और न शीमेल हूं कि आगा पीछा खुल्ला ताला।सारी दीवारें हम गिराते रहे हैं और तहस नहस करते रहे हैं सारे तिलिस्म हमीं तो हजारों हजार सालों से।


इंसान की उम्र न देखे हुजूर।हो कें तो इंसानियत की उम्र का अंदाजा

लगाइये।हो सकें तो कायनात की उम्र का अंदाजा भी लगाकर देख लें।बरकतें नियामते  रहे न रहे, रहे न रहे बूतों और बूतपरस्तों का सिलिसिला,कारवां न कभी थमा है और न थामने वाला है।


कुछ यू ही शमझ लें कि बेहतर कि इस कारवां का पहला इंसान भी मैं तो इस कारवां का आखिरी इंसान भी मैं ही तो हूं।


जिसका दिल  बंटवारे पर तड़पे हैं,वो टोबा टेकसिंह मैं ही ठहरा।

रब की सौं,गल भी कर लो कि बंटावारा खत्म हुआ नहीं है अभी।

न कत्ल का सिलसिला खत्म हुआ है कभी,न जख्मों की इंतहा।

मुहब्बत और नफरत के बीच दो इंच का फासला आग का दरिया।


उसी आग के दरिया में डूब हूं यारों,सीने में जमाने का गम है।

जो तपिश है,वह मेरे तन्हा तन्हा जख्म हरगिज नहीं है।

मेरा वजूद मेरे लोगों का सिलसिलेवार सारा जख्म है।

कि पानियों में लगी आग,पानियों का राख वजूद है।


यूं तो न पिद्दी हूं और न पिद्दी का शोरबा हूं लेकिन दूसरों की तरह अकेला हूं नहीं हूं।चीखें भी हरगिज इकलौती हरगिज नहीं होती।

न कोई चीख कहीं कभी दम तोड़ रही होती,चीख भी चीख है।

जुल्मोसितम की औकात बहुत है,सत्ता जुल्मोसितम है

सितम जो ढा रहे हैं,नफरत जो बो रहे हैं,उन्हें नहीं मालूम


कायनात कोई मजहबी मुल्क नहीं है यारो कि उसे मजहब से खारिज कर दो या फतवा कोई जारी कर दो उसके खिलाफ!


उसी कायनाक की वारिश कह लो,चाहे विरासत कह लो

चीखें हजारों साल की वे वारिशान,विरासतें भी वहीं।

मेरे वजूद की कोई उम्र होन हो,इतिहास मेरी उम्र है।


मैं कोई महाकवि वाल्तेयर नहीं हूं।फिरभी वाल्तेयर के डीएनए शायद हमें भी संक्रमित है कि अपना लिखा हमें दो कौड़ी का नहीं लगता।


कायनात कोई मजहबी मुल्क नहीं है यारो कि उसे मजहब से खारिज कर दो या फतवा कोई जारी कर दो उसके खिलाफ!

हमें फिर उसी अहसास का इंतजार है

कि इंसान आखिर आजाद है

आजाद है इंसान आखिर!

हम तो बस,दिलों में आग लगाने की फिराक में हैं!


बाकी उस माई के लाल का नाम भी बता देना यारो,जो मां के दूध का कर्जुतार सकै है।जो कर्ज उतार सकै पिताके बोझ का।जो कर्ज उतार सके वीरानगी और तन्हाईकी विरासतों का।जो दोस्तों की नियामतों का कर्ज भी उतार सकै है और मुहब्बत का कर्ज भी।वह रब कौई नहीं है कहीं जो वतन का कर्जउतार सकै है या फिर इंसानियत का कर्ज भी उतारे सके वह और कायनात का भी।कर्जतारु शख्स तो बताइये।


कल ही मैंने बंगाल में बैठकर बंगाली भद्रलोक वर्चस्व  के सीनें पर कीलें ठोंकते हुए बराबर लिख दिया हैः

হিন্দূরাষ্ট্রে হিন্দু হয়ে জন্মেছি,তাই বুঝি বেঁচে আছি

শরণাগত,শরণার্থী,বেনাগরিক. বেদখল

জীবন্ত দেশভাগের ফসল,তাই বুঝি বেঁচে আছি

ওপার বাংলায় লিখলেই মৃত্যু পরোয়ানা হাতে হাতে

এপার বাংলায় লেখাটাই আত্মমৈথুন নিবিড় নিমগ্ণ


বাপ ঠাকুর্দা দেশভাগের সেই প্রজন্মও চেয়েছিল

শেষদিন পর্যন্ত শুধু হিন্দু হয়ে বেঁচে থাকার তাকীদে

দেশভাগ মাথা পেতে নিয়ে তাঁরা সীমান্তের কাঁটাতার

ডিঙ্গিয়ে হতে চেয়েছিল হিন্দুতবের নাগরিক

আজও সেই নাগরিকত্ব থেকে বন্চিত আমরা বহিরাগত

বাংলার ইতিহাসে ভূগোলে চিরকালের বহিরাগত

শরণাগত,শরণার্থী,বেনাগরিক. বেদখল


দেশভাগ তবু শেষ হল না আজও,আজও দেশ ভাগ

হিন্দুরাষ্ট্রে হিন্দুত্বের নামে দেশভাগ,আজও অশ্পৃশ্য

অশ্পৃশ্য ছিল দেশভাগের সময় যারা৤


যাদের কাঁটাতারের সীমান্ত আজও তাঁদের

জীবন জীবিকায় মিলে মিশে একাকার

অরণ্যে দন্ডকারণ্যে আন্দামানে হিমালয়ে

সেই কাঁচাতার আজ গোটা হিন্দুত্বের রাজত্ব

যারা ধর্মান্তরণের ভয়ে দেশভাগ মেনে নিয়েছিল

আজ তাঁরা এই হিন্দু রাষ্ট্রেও ধর্মান্তরিত

অন্তরিণ জীবনে মাতৃভাষা মাতৃদুগ্ধ বন্চিত

দেশভাগের পরিচয়ে মৃত জীবিত আজও অশ্পৃশ্য

आत्ममैथुन का मैं शौकीन नहीं हूं।हालात बदलने के खातिर अगर हमारा लिखा बेमतलब है,तो उसे पढ़ना तो क्या,उसपर थूकना भी नहीं।हम न किसी संपादक के कहे मुकताबिक विज्ञापनों के दरम्यान फीलर बतौर माल सप्लाी करते हैं और न हमें किन्हीं दौ कौड़ी के आलोचकों और फूटी कौड़ी के प्रकाशकों की कोई परवाह है।


हम तो आपके दिलों में आग लगाने की फिराक में है ताकि आपके वजूद को भी सनद हो कि कहीं न कहीं कोई दिल भी धड़का करै है।


हमने प्रभाष जोशी से कहा था,जब उनने मुझसे पूछा था कि क्यों कोलकाता जाना चाहते हो,तो जवाब में हमने कहा था कि हमें हिसाब बराबर करने हैं।


जोशी जी ने न तब और न कभी पलटकर पूछा था कि कौन सा हिसाब,कैसा हिसाब ,किससे बराबर करने हैं हिसाब।


वे मेरे संपादक थे।


अजब गजब रिशता था हमारा भी उनसे।थोड़ी सी मुहब्बत थी,थोड़ी सी इज्जत थी ,नफरत भी थी,दोस्ती हो न हो,दुश्मनी बहुत थी।

हम हुए दो कौड़ी के उपसंपादक और वे हुए हिंदी पत्रकारिता के सर्वे सर्वा,वे रग रग पहचानते थे हम सभी को।हम भी उन्हे चीन्ह रहे थे।


हाईस्कूल पास करते ही 1973 में नैनीताल जीआईसी में दाखिला लेते ही मालरो़ड पर लाइब्रेरी के ठीक ऊपर दैनिक पर्वतीय में रोज कविता के बहाने टिप्पणियां छपवाने से लेकर नैनीताल समाचार और पिर दिनमान होकर रघुवीर सहाय जी की कृपा से पत्रकार बनते हुए एकदिन प्रभाष जोशी की रियासत के कारिंदे बन  जाने की कोी ख्वाहिश नहीं थी हमारी।


मुकाबला हार गया हूंं।बुरी तरह मैदान से बाहर हो गया हूं।जिंदगी फिर नये सिरे से शुरु भी नहीं कर सकता।फिर भी अबभी शेक्सपीअर और वाल्तेअर,ह्युगो,दास्तावस्की काफका और प्रेमचंद और मुक्तिबोध से मुकाबला है हमारा। यकीन करें।


हम पत्रकारिता में भले ही रोज गू मूत छानते परोसते हों,लेकिन साहित्य में जायका हमरी फितरत है अबभी।मौत के बावजूद।


साहित्य में जनपक्षधरता के सिवाय आत्ममैथून की किसी भी हरकत से मुझे सख्त नफरत है।


पंगा मैं न ले रहा होता जिंदगीभर कौड़ी दो कौड़ी के समझौते बी कर लेता,तो शायद जिंदगी कुछ आसान भी होती।


हमारी मजबूरी यह रही कि नैनीताल में हमें गजानन माधव मुक्तिबोध के ब्रह्मराक्षस ने दबोच लिया और दीक्षा देने के बाद भी वे ऐसे ब्रह्मराक्षस निकले जो पल चिन पल चिन मेरी हरकतों पर नजर रखते हैं।


किस्मत मैं नहीं मानता और न किसी लकीर का मैं फकीर हूं लेकिन किस्मत कोई चीज होती होगी तो देश के बंटवारे की संतान होने के साथ साथ मेरी किस्मत में उस ब्रह्मराक्षस की दीक्षा लिखी थी कि मं दिलों में आग लगाने वाला जल्लाद बनने की कोशिश में हूं।


उन्हीं ब्रह्मराक्षस,हमारे उन्हीं गुरुजी ने लिखा हैः

१५ अगस्त १९४७ को देश आजाद हुआ था. इन ६८ सालों में हम अजाद (अजाद या किसी की न सुनने वाला और मनमानी करने वाला कुमाउनी ) हो गये हैं. हमारी संसद हुड़्दंगियों के जमावड़े में बदल गयी है. और इसका कारण है हमारी मूल्यहीन राजनीति. हमारी मूल्यहीन न्याय व्यवस्था. मौका देख कर निर्णय लेने की आदत. कुल मिला कर 'अपने सय्याँ से नयना लडइहैं हमार कोई का करिहै कि मनोवृत्ति. जब अढ़्सठ साल में यह हाल है तो शताब्दी तक क्या होगा? देश विदेशी सत्ता से तो मुक्त हुआ पर अपने ही दादाओं ने उसे जकड़ लिया. सत्ता का मोह देशबोध पर हावी हो गया.


आजादी का जश्न जारी है तो हकीकत यह भी हैः

साथियो

जाति व्यवस्था का क्रूर परिणाम है जो मन्नू तांती के साथ घटित हुई है. अपने देश में दलितों की दशा एवं दिशा का यह जीता जागता प्रमाण आपके सामने है.

यह घटना बिहार राज्य के जिला लक्खीसराय गांव खररा की है। स्व. मन्नू तांती के साथ यह घटी है. केवल अपने पिछले चार दिनों की मजदूरी मांगने के कारण मन्नू तांती को गेहूं निकालने वाली थ्रेसर में जिन्दा पीस दिया गया. इस जघन्य हत्या का अंजाम उसके गांव के दबंग लोगों दिया.




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