लेखक समाज का प्रतिपक्ष कहां है?
Author: समयांतर डैस्क Edition : August 2015/samayantar
‘हिंदू समय में दिनकर'(जून) लिखते हुए रामाज्ञा शशिधर की कलम के साथ दिनकर के प्रति कोमल भावना अंत:सलिला-सी संचारित है। जो लोग दिनकर का जीवन और लेखन सधे गणित से संचालित नहीं मान पाते वे रामाज्ञा जी के अंदाज में बखानेंगे। प्रसिद्ध है कि दिनकर ने यशपाल के नेहरू विरोध के उदाहरण जवाहरलाल को रेखांकित करके दिए थे। नतीजा यशपाल का झूठा सच साहित्य अकादेमी पुरस्कार के दायरे से बाहर कर दिया गया। अपने ईर्ष्याभाव के लिए भी दिनकर जाने जाते हैं—बराबर।
बिहार में होने वाले आगामी चुनावो ंके लिहाज से दिनकर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने आप्त वचनों से यदि नवाजा है तो वोट बैंक की राजनीति के नाते ही। सवाल यह है कि ये नेता मामूली हों या प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचे हुए, साहित्यकारों और साहित्य से संवाद और सरोकार कितना घनिष्ट और संवेदनापूर्ण सचमुच रखते हैं? मध्य प्रदेश में निराला को ‘हिंदूवादी’ कवि घोषित कर दिया गया है। परंतु काफ ी कम्युनिस्ट विचारक और साहित्यपंथी भी तो निराला को हिंदुत्ववादी घोषित करते रहे हैं। रामविलास शर्मा पर यही आरोप था कि आखिरी दिनों में संघ के पालेवाले लेखन को समर्पित हो गए थे। त्रिलोचन भी ऐसी बदनामियों से कहां बच पाए थे।
सवाल यह है कि क्या साहित्यकारों और साहित्यिक-समाज की ऐसी प्रबल कोई सत्ता है जो सत्तासीन दलों की ऐसी इस्तेमाल-प्रवृत्ति का प्रतिपक्ष बनी हुई दिखायी पड़े! यहां-वहां की कलम घिसाई तो औपचारिकता या फिरनक्कारखाने में तूती बजा लेने की आत्ममुग्धता भर है।
-बंधु कुशावर्ती, लखनऊ इससे आगे के पेजों को देखने लिये क्लिक करें NotNul.com
बिहार में होने वाले आगामी चुनावो ंके लिहाज से दिनकर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने आप्त वचनों से यदि नवाजा है तो वोट बैंक की राजनीति के नाते ही। सवाल यह है कि ये नेता मामूली हों या प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचे हुए, साहित्यकारों और साहित्य से संवाद और सरोकार कितना घनिष्ट और संवेदनापूर्ण सचमुच रखते हैं? मध्य प्रदेश में निराला को ‘हिंदूवादी’ कवि घोषित कर दिया गया है। परंतु काफ ी कम्युनिस्ट विचारक और साहित्यपंथी भी तो निराला को हिंदुत्ववादी घोषित करते रहे हैं। रामविलास शर्मा पर यही आरोप था कि आखिरी दिनों में संघ के पालेवाले लेखन को समर्पित हो गए थे। त्रिलोचन भी ऐसी बदनामियों से कहां बच पाए थे।
सवाल यह है कि क्या साहित्यकारों और साहित्यिक-समाज की ऐसी प्रबल कोई सत्ता है जो सत्तासीन दलों की ऐसी इस्तेमाल-प्रवृत्ति का प्रतिपक्ष बनी हुई दिखायी पड़े! यहां-वहां की कलम घिसाई तो औपचारिकता या फिरनक्कारखाने में तूती बजा लेने की आत्ममुग्धता भर है।
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