… हम नहीं तोड़ेंगे
हिंदी के महाबली आलोचक नामवर सिंह का 90 वां जन्म दिन बहुत ही सादगी से मनाया गया। किंचित आश्चर्य और चिंता की बात यह थी कि चुनींदा मित्रों और भक्तजनों की 28 जुलाई की उस बैठक में स्वयं नामवर जी अनुपस्थित थे। वैसे साहित्य अकादेमी द्वारा प्रकाशित हूज हू ऑफ इंडियन राइटर्स 1999 में उनकी जन्म तिथि एक मई 1927 दी हुई है। हो न हो इसका संबंध साम्यवाद के उन बेहतर दिनों से होगा जब मई दिवस का विशेष महत्त्व हुआ करता था। और जब नामवर सिंह ने भाकपा के टिकट पर चुनाव लड़ा। जो भी हो हूज हू के हिसाब से वह 89 नहीं बल्कि 88 वर्ष दो माह के ही हो पाते हैं।
पर सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह रही कि इस अवसर पर एक बहुरंगी समाचार पाक्षिक ने उन पर खूबसूरत विशेषांक निकाला। इंडिया टुडे मार्का इस पत्रिका यथावत ने नामवर जी पर 17 पृष्ठ लगाए। यह देखकर हमारा हृदय बाग-बाग हो गया कि देखो जो काम कोई वामपंथी पत्रिका नहीं कर पाई – वैसे वामपंथी पत्रिकाएं रह भी कहां गई हैं जो हर पखवाड़े निकलती हों – वह काम एक ऐसे पत्रिका ने कर दिखाया जिसका मालिक भाजपा सांसद है और संपादक बनारस से तो हैं साथ में पुराने स्वयंसेवक भी हैं।
संपादक रामबहादुर राय से नामवर सिंह का संबंध बनारस से ही था या दिल्ली आकर हुआ, यह हम नहीं जानते पर बनारसी-बनारसी भाई-भाई वाला मामला तो है ही। वह रामबहादुर राय द्वारा चलाई जा रही संस्था प्रभाष परंपरा न्यास के साथ नजदीक से जुड़े हैं। यह माना जाता है कि प्रभाष जोशी बाबरी मस्जिद से पहले तक आरएसएस के निकट थे पर उस बर्बरता से आहत हो वह संभले थे। पर लगता है राय ने जोशी जी को फिर से आरएसएस की चांदनी के अंतर्गत ले लिया है। ठीक वैसे ही जैसे कि भाजपा गांधी से लेकर कामराज तक को हड़पने में लगी हुई है।
पर हिंदी साहित्य के वरिष्ठों की एक और परंपरा भी रही है। वह है उनकी उदारता की। जैसे पिछली एनडीए सरकार के दौरान रामविलास शर्मा को आरएसएस के मुखपत्र पांचजन्य ने खासी धज के साथ छापा था। वहां भी उनका साक्षात्कार ही था। उसके बाद आरएसएस ने एक और बनारसी त्रिलोचन शास्त्री को सम्मान दिया, जब हरिद्वार में गंगा घाट पर टहलते हुए चित्र सहित उनका साक्षात्कार छापा था।
क्या अपने आप में यह गनीमत नहीं है कि नामवर सिंह ने मात्र भाजपा एमपी की मिल्कियतवाली पत्रिका को साक्षात्कार दिया है और कम्युनिस्ट पार्टी के बारे में एकआध बातें ही कही हैं। अब अगर संपादक महोदय ने साथ में कुछ मसला लगा दिया है तो इससे पहले से ही धूल-धूसरित हुए कम्युनिस्टों को क्या फर्क पड़ने वाला है! फिलहाल मुलहायजा फरमाइये:
नामवर सिंह के व्यक्ति चित्र में रामबहादुर राय लिखते हैं: ”इससे (यानी ख्याति से) नामवर सिंह कुछ लोगों के लिए आंख की किरकिरी बन गए। जहां विश्वविद्यालय के एक समूह में उनसे जलन थी वहीं कम्युनिस्ट पार्टी ने उनकी शोहरत को चुनावी बाजार में भुनाने की सोची। एक बातचीत में नामवर सिंह ने कहा था – मार्क्सवाद मार-मार कर हकीम बना देता है। तब मार्क्सवाद की भारत में एक ही संतान थी – सीपीआई। दूसरी संतान बहुत बाद में अस्तित्व में आई। वे हकीम और हाकिम दोनों बन गए थे। इसलिए सीपीआई ने उनको उम्मीदवार बनाया। ”
ऐसा सुनने में नहीं आता कि कम्युनिस्ट पार्टियों ने यों ही लौंडे-लपाड़ों को पकड़ कर उनकी लोकप्रियता भुनाने के लिए कभी टिकट दिया हो। सुधि जन ही इसका उत्तर दे सकते हैं। हम तो सिर्फ बधाई देते हैं – नामवर जी और संपादक जी को भी। इससे आगे के पेजों को देखने लिये क्लिक करें NotNul.com
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