रिपोर्ट
9 जून 2015 को बैठे-बिठाए देश के अखबारों-चैनलों को एक बड़ी खबर मिलनी थी, क्योंकि 8 जून की रात पलामू के सतबरवा (बकोरिया) में 12 लोगों को कथित मुठभेड़ में मरना था। हमेशा की तरह मीडिया में एक ‘रेडीमेड’ वाक्य के साथ खबर चलनी थी- ‘और पुलिस को देखते ही नक्सलियों ने गोलियां चलानी शुरू कर दीं। जवाबी कार्रवाई में ‘इतने’ नक्सली मारे गए।’ और 9 जून को ‘इतने’ की जगह पर ’12’ भरा गया था।’
हत्याओं के बारे में एक दिलचस्प तथ्य यह है कि इसका संपूर्ण सच अमूमन दो पक्षों को ही पता होता है। एक जिसकी हत्या होती है, दूसरा हत्यारा। हत्याएं जहां खत्म होती हैं, सवाल वहीं से शुरू होते हैं।
मरने वाले ने क्या किया कि उसे मरने की हद में आना पड़ा, मारने वाले का हासिल क्या रहा? वह आखिरी बात जो मार दिए जाने के पहले मरने वाले ने कहनी चाही, वह आखिरी बात जिसे कह लेने के बाद हत्यारे ने अपना काम खत्म किया। ये तमाम बातें मर जाने वाला मर जाने की वजह से नहीं बता पाता और हत्यारा अपने हित में इन्हें जमींदोज रखना चाहता है।
बाद में हम, आप इन हत्याओं की बाबत अनुमानों के पुल पर चढ़कर पानी में बस कंकड़ मार रहे होते हैं। पर कई मर्तबा हत्यारे या तो जल्दबाजी में, अपने घोर आत्मविश्वास में या काहिली में कई गड़बड़ियां कर जाते हैं। इन्हीं गड़बड़ियों की उंगली पकड़कर उस सच के आसपास जाया जा सकता है, जिसे हत्यारे पूरी ताकत और शातिरपने से छुपाना चाह रहे होते हैं।
9 जून 2015 को बैठे-बिठाए देश के अखबारों-चैनलों को एक बड़ी खबर मिलनी थी, क्योंकि 8 जून की रात पलामू के सतबरवा (बकोरिया) में 12 लोगों को कथित मुठभेड़ में मरना था। हमेशा की तरह मीडिया में एक ‘रेडीमेड’ वाक्य के साथ खबर चलनी थी- ‘और पुलिस को देखते ही नक्सलियों ने गोलियां चलानी शुरू कर दीं। जवाबी कार्रवाई में ‘इतने’ नक्सली मारे गए।’ और 9 जून को ‘इतने’ की जगह पर ’12’ भरा गया था। इससे आगे के पेजों को देखने लिये क्लिक करें NotNul.com
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