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Saturday, August 8, 2015

बौद्धिक दरिद्रता के वारिस

बौद्धिक दरिद्रता के वारिस

संपादकीय
से विडंबना कहा जाए या त्रासदी कि वर्तमान सरकार उन बौद्धिक संस्थाओं के लिए, जिन्हें लेकर उसका राजनीतिक और बौद्धिक संगठन जरूरत से ज्यादा संवेदनशील है, ऐसे व्यक्तियों को भी नहीं ढूंढ पा रहा है जो इन संस्थाओं का पद संभालने के लिए उपयुक्त हों।
यह कैसी विडंबना है कि वह सत्ताधारी दल जिसने इतने विशाल देश में, इतने बड़े (दो तिहाई) बहुमत से सत्ता पाई हो, उसे प्रतिभाओं और अनुभव के ऐसे विकट अकाल का सामना करना पड़ रहा हो?
गजेंद्र सिंह चौहान प्रसंग ने भाजपा सरकार और संघ परिवार की सीमाओं को स्पष्ट कर दिया है। ये सीमाएं दो तरह की हैं। पहली यह कि उनके साथ जो लेखक, कलाकार और बुद्धिजीवी हैं वे किस औसत दर्जे के हैं, और दूसरा भाजपा नेतृत्ववाली सरकार और संघ परिवार अपनी सोच में किस हद तक संकीर्ण हैं। या इस हद तक भयाक्रांत हैं कि अपने दायरे से बाहर के किसी भी व्यक्ति पर विश्वास करने को ही तैयार नहीं हैं। आखिर वे प्रतिभाशाली और सक्षम लोगों से इतना डरे हुए क्यों हैं? ऐसा क्यों है कि देश की फिल्म कला की शिक्षा देने वाली सर्वोच्च संस्था, जिसका भारतीय फिल्म उद्योग और रचनात्मकता को महत्त्वपूर्ण योगदान है और जिसके शीर्ष पर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ख्याति के लोग रहे हों, फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एफटीआईआई) के लिए उन्हें एक ऐसा आदमी ही मिला है जिसका आकलन तीसरे दर्जे के अभिनेता से ज्यादा नहीं हो रहा है। वैसे भाजपा के साथ फिल्म उद्योग के जो कलाकार जुटे हैं ये सभी कुल मिलाकर व्यावसायिक फिल्मों तक ही सीमित हैं, यह जरूर है कि ये व्यावसायिक सिनेमा की मुख्यधारा से तो जुड़े रहे ही हैं। दुर्भाग्य से गजेंद्र चौहान की नियुक्ति के मामले में भाजपा सरकार किसी की बात सुनने को तैयार नहीं है।
एफटीआइआइ में देश भर से चुने हुए छात्र आते हैं और ये छात्र मात्र व्यावसायिक सिनेमा में झंडे गाड़ने के उद्देश्य से ही इस संस्था में दाखिला नहीं लेते हैं। उनकी हड़ताल को लगभग डेढ़ महीना होने जा रहा है। सरकार डराने-धमकाने से लेकर हर तरह का हथकंडा अपना चुकी है। देश भर में छात्रों का समर्थन लगातार बढ़ रहा है। जानी-मानी फिल्म हस्तियों से लेकर बुद्धिजीवी तक खुलकर सामने आ रहे हैं पर सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंग रही है। यहां तक कि वह उन लोगों, जो स्वयं सत्ताधारी दल का हिस्सा हैं – जैसे कि शत्रुघ्न सिन्हा या अनुपम खेर की भी सुनने को तैयार नहीं है। आखिर ऐसा क्यों है? क्या यह मात्र सत्ता के मद के कारण है? किसी दबाव, जैसे कि आरएसएस के चलते है जिससे गजेंद्र चौहान का संबंध है? या यह रणनीतिगत कारणों से है?
सरकारी हठधर्मिता के दो पक्ष हो सकते हैं। पहला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दबाव कि चाहे कुछ हो उनके आदमियों को सत्ता के साथ जोड़ा जाना चाहिए। आरएसएस के साप्ताहिक ऑर्गेनाइजर (19 जुलाई) ने उन लोगों को जो चौहान का विरोध कर रहे हैं हिंदू विरोधी और मानसिक रूप से असंतुलित घोषित कर दिया है। यानी सरकार की इतनी हिम्मत नहीं है कि वह आरएसएस की अनदेखी कर सके। पर इससे जनता तक यह संदेश पहुंच रहा है कि यह सरकार अपने आप कोई निर्णय लेने की स्थिति में नहीं है। यानी, कम से कम सांस्कृतिक मामलों में इसका नियंत्रण कहीं और से हो रहा है। अनुषांगिक संदेश यह है कि सरकार उस पर थोपे इन आदमियों का, चाहे वे कितने ही अनुपयुक्त क्यों न हों, हर हाल में समर्थन कर रही है। यह हठधर्मिता के अलावा पक्षपात का निकृष्टतम उदाहरण है।
हठधर्मिता का दूसरा पक्ष नरेंद्र मोदी और उनके सलाहकारों की यह समझ है कि किसी भी निर्णय पर पुनर्विचार करना हार मानना है। यह अपने आप में तानाशाही न भी कहें तो भी अत्यंत पिछड़ी मानसिकता का द्योतक है। इसी तरह किसी व्यक्ति या संस्था में इस तरह का विश्वास होना कि उससे कोई गलती हो ही नहीं सकती या किसी दूसरे को उसकी गलती पर अंगुली उठाने का कोई अधिकार नहीं है, अलोकतांत्रिक मानसिकता का सबसेे बड़ा प्रमाण है? दूसरे शब्दों में यह स्वयं को अतिमानव मानने जैसा है। हर व्यक्ति या संस्था को अपनी कमियों और गलतियों से सीखना होता है। यह एक मानवीय और लोकतांत्रिक प्रक्रिया है। एफटीआइआइ को लेकर सरकार के निर्णय पर विभिन्न लोकतांत्रिक मंचों में खासी चर्चा हो चुकी है। जिनसे स्पष्ट हो चुका है कि सरकार ने इस मामले में खासी बड़ी गलती की है। इस पर भी उसका अपनी बात पर अड़ना आत्मघाती और हास्यास्पद भी है। जो स्थिति पैदा हो गई है उसके बाद भी अगर वह अपने चहेते को एफटीआइआइ पर थोपने में सफल भी हो लेती है तो भी निश्चित है कि इस संस्थान में स्थिति सामान्य नहीं हो पाएगी। इसका दूसरा परिणाम यह होगा कि इस संस्थान से प्रतिभाशाली छात्र जुड़ेंगे ही नहीं। दूसरी ओर अगर वह अपने निर्णय को बदलने में अंतत:, जैसे कि अगले एक आध महीने बाद, मजबूर होती है तो उसकी साख पर जो बट्टा लगेगा उसके दूरगामी परिणाम होंगे।
इस प्रसंग में मोदी सरकार के गृहमंत्री राजनाथ सिंह की हाल ही में, गोकि अलग संदर्भ में, कही इस बात को याद किया जा सकता है कि ”हमारी सरकार में इस्तीफा नहीं दिया जाता।ÓÓ पर सरकार भूल रही है कि गलतियों, और वे भी ऐसी जो जन-जन की निगाह में हों, पर अड़ना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने से कम नहीं साबित होगा। उसका खामियाजा सरकार संसद के ठप होने के रूप में भुगत रही है। आरोपों को प्रत्यारोपों से काटने की रणनीति सीधे-सीधे सिद्ध करती है कि आप अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, भ्रष्टाचार को तो उचित ठहरा ही रहे हैं बल्कि जो भी कदम आप उठा रहे हैं उसके पीछे देशहित नहीं बल्कि बदले की भावना ही सर्वोपरी रहती है।
पर ये सब तर्क-वितर्क तो मूलत: औचित्य-अनौचित्य के इर्द-गिर्द के हैं। असली सवाल जो इस विवाद ने उठाया है और इन दिनों कम से कम अंग्रेजी प्रिंट मीडिया में गर्मा-गर्म बहस का विषय है, वह कहीं ज्यादा गंभीर है। सवाल है, आखिर भारतीय दक्षिण पंथ के पास ऐसे बुद्धिजीवी क्यों नहीं हैं जिनकी सार्वजनिक मान्यता निर्विवाद हो? या उनकी पूरी सोच को सामयिक वैचारिक आधार देने वाले ऐसे लोग क्यों नहीं हैं जो कला, साहित्य, फिल्म, नाटक, शिक्षा, मानविकी, अर्थशास्त्र, विज्ञान और चिंतन आदि के क्षेत्र में सक्रिय हों? जो हैं वे कुल मिलाकर दीनानाथ बत्रा, वाई सुदर्शन राव, बलदेव शर्मा, चंद्रकला पड़िया या पहलाज निहलाणी जैसे लोगों तक क्यों सीमित हो जाते हैं? या यह भी सवाल हो सकता है कि लगभग एक सदी पुरानी परंपरा होने के बावजूद हिंदूवादी विचारधारा, सावरकर जैसे इक्के-दुक्के अपवादों के अलावा बुद्धिजीवी पैदा करने में असफल क्यों नजर आती है?
दूसरी ओर भारतीय प्रगतिशील आंदोलन की परंपरा पर नजर डालें। उसने अपने 90 वर्षों के इतिहास में एक से बढ़कर एक कलाकार, फिल्मकार, नाट्यकर्मी, साहित्यकार, अर्थशास्त्री, समाजविज्ञानी और चिंतक पैदा किए हैं और कर रहा है। संयोग देखिए भाजपा के मूल संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, दोनों का जन्म सन् 1925 में ही हुआ था।
इस संकट का दूसरा पहलू यह है कि अगर सरकार का यही रवैया रहा, जिसके बदलने की कोई संभावना नहीं लग रही है, तो भाजपा सरकार अपना कार्यकाल खत्म होने से पहले भारतीय लोकतंत्र की उन सभी संस्थाओं का विनाश कर जाएगी जो अपनी सारी सीमाओं के बावजूद समकालीन चुनौतियों को समझने और व्याख्यायित करने की कोशिश करती रही हैं। गत माह के लोकसभा के हंगामे के बीच राज्य मंत्री श्रीप्रसाद यासो नायक ने बतलाया था कि सीएसआइआर (विज्ञान एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद) आरएसएस की नागपुर स्थित संस्था गौ विज्ञान अनुसंधान केंद्र के साथ मिल कर गोमूत्र के गुणों पर अनुसंधान कर रहा है। इस तरह के विवेकहीन अवैज्ञानिक अनुसंधानों की शुरुआत वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के दौरान हुई थी। भाजपा शासित राज्यों में जो हो रहा है वह भी कम निराशाजनक नहीं है। भोपाल का भारत भवन आज छुट्ट भईयों का अड्डा हो गया है। जयपुर का पत्रकारिता विश्वविद्यालय इसलिए बंद किया जा रहा है क्योंकि वहां उदार मानसिकता के लोग हैं। इसी तरह का व्यवहार इंडियन स्टेटिस्टिकल इंस्टीट्यट के साथ भी हुआ है। इसके अलावा टाटा इंस्टीट्यूट आफ सोशल साइंसेज, आइआइएम और नेशनल म्यूजियम इसी तरह के संकटों का समाना कर रहे हैं।
इसका कारण संभवत: यह है कि हर संगठन की सीमा उसकी अपनी आधारभूत संरचना होती है। यानी जो तत्व उसकी शक्ति होते हैं वही उसकी कमजोरी भी बनते हैं। दूसरे शब्दों में भाजपा की हिंदूवादी विचारधारा अगर उसे सत्ता में पहुंचाने में सफल हुई है तो उसकी सीमा भी वही है। यानी उसके पतन का कारण भी बनेगी।
दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि किसी समाज में कौन-सा चिंतन फले-फूलेगा इसका फैसला भी अंतत: उस समाज की भौतिक स्थितियां ही करती हैं। यह सही है कि आज एक दक्षिणपंथी राजनीतिक दल देश की सत्ता संभाले है पर अगर इसे सही वैचारिक आधार नहीं मिलेगा तो यह दल भविष्य में ज्यादा दूर नहीं जा पाएगा। क्योंकि अंतत: किसी भी गतिशील समाज को ऐसा चिंतन चाहिए जो उसे शेष दुनिया के समानांतर आगे ले जा सके। भारतीय समाज जिस तरह की विविधता – सांस्कृतिक, धार्मिक और भौगोलिक – से निर्मित है उसमें संकीर्णता नहीं चल सकती।
भाजपा और उसके अनुषांगिक संगठनों की सीमा यह है कि वे मूलत: सामाजिक यथास्थिति और धार्मिक बहुमत के पक्षपाती हैं। ये ऐसे तत्व हैं जो समाज में स्थिरता नहीं पैदा कर सकते। दूसरा, समकालीन उच्च प्रौद्योगिकी प्रचालित हर पल सिमटती दुनिया में, जहां धार्मिक, नस्ली और अंतर- सांस्कृतिक मिश्रण की गति लगातार बढ़ती जा रही हो, किसी भी तरह की सामाजिक संकीर्णता आखिर कैसे चल सकती है।
इसलिए चरम प्रश्न यह है कि सामान्य बौद्धिकता तक की जो दरिद्रता हिंदूवादी संगठनों में नजर आ रही है वह क्यों है? इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि ज्ञान भविष्य की ओर देखता है और हमें प्रगति की ओर ले जाता है। अनुसंधान मूलत: हमारी पूर्व मान्यताओं को बदलते हैं और यथार्थ को विश्लेषित करते हैं। इसलिए वे लगातार स्थापित मूल्यों और समझ को चुनौती दे रहे होते हैं। जबकि धर्म आधारित ज्ञान यथास्थिति का पोषक होता है। आज 21वीं सदी में अगर कोई कहे कि वह ढाई हजार साल पुराने अर्थशास्त्र (कौटिल्य) या दो हजार साल पुराने मनुस्मृति के सिद्धांतों पर चलना चाहता है या चरक संहिता चिकित्साशास्त्र का अंतिम ग्रंथ है, तो इससे ज्यादा हास्यास्पद बात क्या हो सकती है! इसी तरह कोई कहे कि पुरातन भारत में स्टेम सेल तकनीक थी या परखनली शिशु पैदा करने की क्षमता थी जिसके चलते सौ कौरव पैदा हुए तो इस पर सिर्फ हंसा जा सकता है। ज्ञान का क्रमिक विकास होता है। वह एक दिन में नहीं जन्मा है। दूसरा हर बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धि के पीछे कई छोटे-छोटे आविष्कार छिपे होते हैं। योरोप में ज्ञान-विज्ञान का विकास इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। जो बात पश्चिम से सीखने की है वह यह है कि धर्म को चुनौती दिए बगैर कोई समाज प्रगति नहीं कर सकता। पश्चिम ने जो ज्ञान अर्जित किया, जिस तरह से उसे प्रौद्योगिकी में बदला उसने उनके समाजों को ही नहीं बदला बल्कि दुनिया को बदल दिया है। पर हमारे दक्षिण पंथी खेमे की सीमा यह है कि वह पश्चगामी है। पर वह अपने इतिहास को वस्तुनिष्ठ तरीके से नहीं देखना चाहता। जिन स्थापनाओं और मान्यताओं को चुनौती दी जानी चाहिए, यह उन्हें महिमा मंडित करता है। वह भूल जाता है कि हमने अपने यहां किसी भी भौतिकवादी परंपरा को पनपने ही नहीं दिया बल्कि लोकायतों और बौद्धों को समूल नष्ट कर दिया और सांख्य दर्शन के सहारे वैतरणी पार करने में लगे रहे। ये मान्यताएं मिथ्या और ज्ञान-विज्ञान विरोधी हैं कि प्राचीन भारत में सारा ज्ञान उपलब्ध था। ज्ञान समाजों को किस तरह शक्तिशाली बनाता है इसका सबसे अच्छा उदाहरण इंग्लैंड है जिसने इतना छोटा देश होने के बावजूद इस महादेश को दो सौ वर्ष तक अपना गुलाम बनाए रखा था। इस सत्ता के पीछे मात्र वीरता नहीं थी। उनका अमोघ अस्त्र था तकनीकी ज्ञान। दूसरे शब्दों में मात्र विशाल भौगोलिक आकार और जनसंख्या आपको ताकतवर नहीं बनाती। न ही विगतकामी मंशाओं से आप आगे बढ़ सकते हैं। यह समझना भी जरूरी है कि हम सभ्यता के जिन शिखरों पर पहुंचे हैं वहां से पीछे भी नहीं जाते हैं। ऐसा कोई उदाहरण नहीं है कि मानव सभ्यता में जिस ज्ञान को एक बार पा लिया गया हो वह समूल नष्ट हो गया हो। वही ज्ञान इतिहास में लुप्त होते हैं जो अपनी प्रासंगिकता खो देते हैं। दूसरे शब्दों में वे समाज जो ठहरे हुए ज्ञान में भविष्य तलाशते हैं अपनी प्रासंगिकता को नहीं बचा पाते हैं।
स्पष्टत: भारतीय दक्षिण पंथ जिसका नेतृत्व आज कुल मिलाकर भाजपा के हाथ में है पश्चिमी दक्षिणपंथ से कई मायनों में अलग है। वहां दक्षिणपंथी विचारधारा मूलत: दो बातों पर टिकी है – पहली, आर्थिक चिंतन या नीतियों पर और दूसरा स्थापित सामाजिक परंपराओं और मूल्यों की पक्षधरता पर। पर धर्म से उसका कोई संबंध नहीं है। कई मामलों में पश्चिमी दक्षिणपंथ भारतीय दक्षिणपंथ तो छोड़िए भारतीय मध्यमार्गी दलों से भी ज्यादा प्रगतिशील दिखलाई देता है।
चूंकि भारतीय दक्षिणपंथ का आधार कुल मिलाकर धर्म है, नतीजा यह है कि उसके पास आधुनिक समाज को लेकर कोई दृष्टि नहीं है। वह भारतीय समाज को एक धर्म विशेष पर आधारित करना चाहता है और बहुत हुआ तो रामराज्य की स्थापना। यह रामराज्य क्या है स्वयं यह स्पष्ट नहीं है। इसका कारण यह है कि किसी भी हिंदूवादी व्यवस्था में जातीय समीकरणों का किस तरह से निपटारा होगा इसका जवाब कम से कम इन संगठनों के पास तो नहीं ही है। उत्तर तो खैर इस बात का भी नहीं है कि आखिर उनकी योजना में स्त्रियों की क्या स्थिति होगी?
जहां तक अर्थव्यवस्था या आर्थिक नियोजन का सवाल है उसका भी कोई मौलिक ढांचा दक्षिणपंथियों के पास नहीं है। बल्कि इसको लेकर तो वे विभाजित हैं। स्वदेशी जागरण मंच जैसे संगठनों की मांगें और सरकार की कथनी-करनी एक दूसरे के विपरीत हैं। सरकार कुल मिलाकर प्रचलित पूंजीवादी आर्थिक चिंतन के माध्यम से ही देश का उद्धार करने की जुगत में है। यह किसी से छिपा नहीं है पूंजीवादी नीतियां हमारे समाज के टकरावों और संघर्षों को और तेज कर रही हैं। वैसे भी मोदी की भाजपा सरकार और विगत कांग्रेस नेतृत्ववाली यूपीए सरकार में एकमात्र अंतर यह है कि पिछली सरकार जिन नीतियों को लागू नहीं कर पा रही थी मोदी की भाजपा सरकार उन्हीं पूंजीवादी नीतियों को नाम बदल कर तेजी से लागू करने को अपना मिशन माने बैठी है।
यहां सवाल हो सकता है कि आखिर इतनी सारी सीमाओं के बावजूद एक ऐसा दक्षिणपंथी दल सत्ता में कैसे आया? इसका जवाब यह है कि देश की मध्यमार्गी राजनीतिक पार्टी के कारण, जो अपने नेतृत्व की सीमा, परिवारवाद, भ्रष्टाचार और अवसरवाद में इतना उलझ चुकी थी कि लोग परिवर्तन चाहते थे। जहां तक इसके अवसरवाद का सवाल है इसने एक सीमा से आगे सामाजिक परिवर्तनों के लिए कोई सक्रिय भूमिका नहीं निभाई। जातिवाद और सांप्रदायिकता जैसे सवालों को सुलझाने की जगह कांग्रेस ने सप्रयास इनसे संतुलन बनाए रखा। बाबरी मस्जिद जैसे प्रश्न को जिलाए रखने में उसकी भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है। इसी तरह शाहबानो वाले सवाल पर उसने जो भूमिका निभाई उसने भारतीय समाज को विभाजित करने और इस पार्टी के चरित्र को लेकर प्रगतिशील तबकों में गहरी शंका पैदा कर दी। दूसरा कांग्रेस के लगभग आधे दशक के शासन ने किसी भी ऐसे दूसरे दल को पनपने नहीं दिया जो उसकी जगह ले सके। वामपंथी दलों के पतन में कांग्रेस की बड़ी भूमिका रही है। रही-सही कसर दुनिया में पूंजीवाद के वर्चस्व ने पूरी कर दी है।
कहने का तात्पर्य यह है कि भाजपा की विगत चुनावों में जीत सिर्फ हिंदुत्व की जीत नहीं है। धर्म उसे वोट लेने में तो कुछ और समय तक मदद कर सकता है पर वह उसे बुद्धिजीवी और चिंतक नहीं दिलवा सकता। इसलिए अंतत: भाजपा का भविष्य इस बात से निर्धारित होगा कि उसने प्रशासनात्मक स्तर पर कितनी उपलब्धियां हासिल कीं। पर उसका नेतृत्व जिस तरह से देश की संस्थाओं को बर्बाद कर रहा है लगता नहीं कि जनता के सामने प्रस्तुत करने के लिए अगले चुनावों में उसके पास कुछ होगा।
हमने इस लेख के शुरू में सवाल किया था कि आखिर वे (भाजपा नेतृत्व) प्रतिभाशाली और सक्षम लोगों से इतना डरे हुए क्यों हैं? इसका उत्तर तब तक नहीं मिल सकता जब तक कि हमारी समझ में यह न आ जाए कि भाजपा और आरएसएस का डर मात्र बुद्धिजीवियों से ही नहीं है। उनका डर कुल मिलाकर ज्ञान से है क्योंकि ज्ञान की हर शाखा उनके लिए चुनौती पैदा करती है और यह चुनौती समय के साथ बढ़ती जा रही है। इससे आगे के पेजों को देखने  लिये क्लिक करें NotNul.com

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