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Sunday, October 31, 2021

यूजीसी कार्यक्रम में अंग्रेजी के प्राध्यापकों के साथ सामाजिक यथार्थ और हाशिये की हिस्सेदारी,जलवायु न्याय पर संवाद

 

पलाश विश्वास







यूजीसी के कार्यक्रम में  साहित्य,सामाजिक यथार्थ,हाशिये के लोग और प्रेरणा अंशु के मिशन पर संवाद के लिए  देश विदेश के अंग्रेजी साहित्य के प्राध्यापकों का आभार।


आज बेहद थका हुआ हूँ। अरविन्द और अभिजीत के निधन के बाद ज्योतिनाथ भी नहीं रहे। 


कल  जयपुर से प्रेरणा अंशु आये हिंदी के 85 साल के प्रसिद्ध साहित्यकार हेतु  भारद्वाज जी से लम्बी बात हुई।एक दो दिन में शेयर करता हूँ।


ज्योतिनाथ की अंत्येष्टि शुरू होते ही मुझे दफ्तर लौटना पड़ा। यूजीसी के कार्यक्रम के तहत देश विदेश के अंग्रेजी प्राध्यापकों को सम्बोधित करने के लिए।


इधर अंग्रेजी में संवाद का अभ्यास नही है। शुरू में थोड़ी हिचक और जड़ता थी। 


अकादमिक भाषण था और ग्लोबल ऑडिएंस, इसलिए नाप तौलकर बोलना पड़ा।


हमारे मिशन और सरोकार से लेकर पुलिनबाबू के जीवनसंघर्ष, साहित्य की चुनौतियाँ,सामाजिक यथार्थ के बदलते रूप,जाति, नस्ल,वर्ग,पितृसत्त्ता,बोली ,भाषा, रेनेसां,बंगाल का नवजागरण, यूरोप,अमेरिका की क्रांतियों,रूस चीन की क्रांतियों,आदिवासी विद्रोहों और किसान आंदोलनों के संदर्भ में साहित्य की भूमिका पर विस्तार से बातें रखीं।


हमने सामाजिक यथार्थ के साथ अर्थव्यवस्था, पर्यावरण,ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु न्याय को भी जोड़ने की दलीलें रखीं। अभिव्यक्ति के संकट,असहमति और असहिष्णुता,असमानता,अन्याय,दमन और शरणार्थी,विस्थापन पर भी अपनी बातें रखीं।


आदिवासी,स्त्रीमुक्ति,पिछड़ा और दलित साहित्य की भी चर्चा की।


प्रेरणा अंशु के हमारे मिशन और महत्वपूर्ण अंकों के साथ वंचितों की हिस्सेदारी पर भी प्राध्यापकों ने धैर्य से हमारी बात सुनी। प्रश्नोत्तर सेशन घण्टेभर चला।


दिनेशपुर जैसी छोटी सी जगह में चल रहे हमारे प्रयास का अंग्रेजी विद्वत समाज और यूजीसी,मुम्बई विश्व विद्यालय ने इतना महत्व दिया,यह प्रेरणा अंशु परिवार की संस्थागत उपलब्धि है। 


हिंदी समाज में और खासतौर पर हिंदी पट्टी में हमें इतनी ही वरीयता मिले और आप सभी का सहयोग जारी रहे,तो शायद हम बेहतर काम कर सकेंगे।


इस कार्यक्रम का वीडियो मुम्बई विश्वविद्यालय से मिलते ही शेयर करूँगा ताकि इस पर हिंदी में भी संवाद किया जा सके।


आज इससे ज्यादा लिख नहीं सकता।

Monday, October 18, 2021

बाजार के जश्न के खिलाफ मेरा लिखना

 पलाश विश्वास




प्रिय मित्रों,नमस्कार

जोहार

मेरा लेखन निरिन्तर जारी रहने वाला संवाद है,जो अक्सर आधा अधूरा होता है। सहमति असहमति के लोकतंत्र के मुताबिक मिट्टी से सरोबार। जिसमें भाषाई दक्षता की चकाचौंध नहीं होती। इसलिए मैं किताबें छपवाने के चक्कर में नहीं पड़ता।


 लिखने का अंतिम लक्ष्य संवाद हैं तो वह अनौपचारिक और आधा अधूरा भी हो सकता है।


1994 से 2001 तक देश के विभिन्न हिस्सों में मेरा उपन्यास अमेरिका से सावधान धारावाहिक या आंशिक जो छपता रहा,वह भी एक संवाद था।


पाठकों,लेखकों,कवियों,सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ।इस संवाद में व्यापक भागेदारी भी थी। लेकिन हालात तेजी से बदलते चले गए और देखते देखते मेरा देश अमेरिका हो गया।वैश्विक पूंजी और एकाधिकार कारपोरेट विश्व व्यवस्था का उपनिवेश। मुक्तबाजार।


यह उपन्यास अधूरा रह गया क्योंकि संवाद अधूरा रह गया। तब से अब तक जहां भी जाता रहा हूँ,कोई न कोई पूछता ही है-अमेरिका से सावधान का क्या हुआ। कैसी सावधानी।देश अमेरिका हो गया तो इस उपन्यास का औचित्य ही क्या रह गया है?


 दशकों बाद धनबाद के पुराने मित्र ,कवि अनवर शमीम से बात हुई तो बोले,यह उपन्यास तो छपना ही चाहिए।


धनबाद और जमशेदपुर में तीन साल तक दैनिक आवाज़ में यह उपन्यास धारावाहिक छपा तो झारखण्ड के लोगों को लगता है कि उपन्यास उनके हाथों में होना चाहिए।


मुझे लगता था कि लोग भूल गए होंगे कि दो दशक पहले तक मैं भी उपन्यास, कविताएं, कहानियां,यात्रा वृत्तांत,डायरियां,रपटें लिखा करता था। 


प्रेरणा अंशु के माध्यम से पुराने मित्रों,साथियों से नए सिरे से संवाद शुरू हुआ है। 


झारखण्ड,ओडिशा,महाराष्ट्र,बंगाल,बिहार,राजस्थान,गुजरात,पंजाब,हरियाणा और उत्तर प्रदेश में प्रेरणा अंशु के पहुंचने से रोज कहीं न कहीं से टूटे संवाद का सिलसिला फिर शुरू हो जाता है।


 अभी  हाल में धनबाद के सीएफआरआई से गौतम गोस्वामी का फोन आया। 


वहां मैं 1981 में गया था। तब मैं कोयला खदानों और खनन पर काम कर रहा था। cfri में तब कोयले को लेकर वैज्ञानिक तरह तरह के शोध कर रहे थे। मुझे उन लोगों ने आमंत्रित किया था। तब से गोस्वामी जी वहीं जमे हुए हैं।


गौतम गोस्वामी जी ने भी वही सवाल पूछा,अमेरिका से सावधान का क्या हुआ?


आज दो खास लेखिकाओं से लम्बी बातचीत हुई। बेबी हालदार और इंदिरा किसलय से। लेखन के सरोकार के सवाल पर संवाद चला।


बेबी हालदार ने नवम्बर के आजीविका अंक के लिए अपनी आपबीती बांग्ला में लिखकर भेजी है।  उसीके अनुवाद और सम्पादन के सिलसिले में शुरू हुआ संवाद। जो फिर इंदिरा जी के साथ बातचीत में जारी रहा।


बुनियादी सवाल फिर वही है- लिखने का आखिर क्या मकसद है? यह बात सिरे से साफ होनी चाहिए।


जसिंता की बात चली। यह लड़की गज़ब की कविताएं लिखती हैं। गद्य भी मजबूत है।पूरी दुनिया में खूब चर्चित है।विदेश यात्राओं पर आती जाती है। विदेशी मीडिया में उनकी चर्चा होती रहती है। लेकिन आसमान की ऊंचाइयां छूने के बावजूद उसके पांव मजबूती से जमीन में जमे होते हैं। 


उसकी कलम में मिट्टी,जंगल,पहाड़, नदी,झरने,झील,तालाब सब एकाकार है। 


वह कभी भी जंगल और पहाड़ में  किसी  गांव में डेरा डालकर अकेली रहती है।खुद खाना बनाती है। जहरीले सांपों और जानवरों का मुकाबला करती है और आम जनता के साथ उनके मोर्चे पर लामबंद हो जाती है।


उसकी रचना वही से शुरू होती है।


निर्मला पुतुल मुर्मू संताल परगना के दुमका की एक संताल लड़की है,जिसके पुरखे चाँद भैरव, सिधो कान्हू जैसे लोग है। 


लोगों को अब भी यकीन नहीं आता कि डंठल परगना की यह लड़की इतनी बेहततीन कवितायन कैसे लिखती हैं। यानी कुलीनत्व लिखने के लिए जैसे अनिवार्य है।


हमने दार्जीलिंग के चाय बागानों की दो युवा कवयित्रियों अर्चना विश्वकर्मा और शिखा मिंज की कविताएं छपी हैं। गुमला जिले के गांवों की दो लड़कियों ज्योति लकड़ा और पार्वती तिर्की की कवितायन भी छपी हैं। बस्तर की लड़की प्रीति मांझी की भी।


सीमेंट के जंगल में कविता की कोई जमीन नहीं होती। कविता के लिए मिट्टी,पानी,बोली,लोक जरूरी हैं।वहीं से नये मुहावरे,नई भाषा और नई शैली का जन्म होता है। लेकिन मठों के वाशिंदे यह मानने को।कतई तैयार नहीं

 है।हम उन्हें वन्दना टेटे या आलोका कुजूर या रेखा सहदेव या जसिंता की या ऐसी ही किसी आम लड़की की कविताओं से हर अंक में गलत साबित कर रहे हैं।


मुक्त बाजार राजनीति और राजसत्ता का भविष्य तय करता है। कायदे कानून बदलता है।अर्थ व्यवस्था के सारे पैमाने और परिभाषाएं,प्राथमिकताएं बदल दी है। सबकुछ बाजार के नियम से चलता है।


बाजार ही धर्म है और बाजार ही सर्वशक्तिमान ईश्वर।


मुक्त बाजार ने साहित्य, कला, माध्यम, विधा,रंगकर्म,संगीत,चित्रकला, पत्रकारिता,समाज सेवा,

सिनेमा और लोकसंस्कृति को भी सिरे से बदल दिया है।


विज्ञान और तकनीक को बदल दिया है।


फिरभी सबकुछ बाजार के नियम से नहीं चलेगा।

युवा आदिवासी कवयित्रियों की कविताये यही कहती है और प्रेरणा अंशु का भी यही कहना है।


बेबी हालदार का लेखन और इंदिरा किसलय का रचनाकर्म भी यही कहते हैं।


आपका क्या कहना है?


फोन पर संवाद करने वाले लिखकर सहमति असहमति जताए तो यह बहस नई दिशा खोल सकती है।


हम बाजार का नियम तोड़ने वाले हर रचनाकार के साथ हैं।

Thursday, October 7, 2021

हमारी अपनी मर्जी हुई छोटी सी नदी की कथा।पलाश विश्वास

 हमारी अपनी मरी हुई छोटी सी नदी की कथा

पलाश विश्वास


हमारे गांव के चारों तरफ इस नदीं की शाखाएं बहती थीं।जिसमें बारहों महीने पानी हुआ करता था। बेशुमार  मछलियां, कछुए और केकड़े,सांप और पक्षी हुआ करते थे।जीव वैचित्र्य और जीवन से भरपूर।


दोनों किनारे जंगल हुआ करते थे। जहां लोमड़ी, हिरन, खरगोश से लेकर बाघ का डेरा होता था।घास,सरकंडे के जंगल हुआ करते थे। आस पास आबाद जंगल के बचे हुए बड़े बड़े पेड़ पलाश के हुआ करते थे।जिनके फूल चटख लाल हुआ करते थे।जब मैं जन्मा तब तराई आबाद हो ही रह था और जंगल के बीचोंबीच जन्मे हम। 


पलाश की बहार को देखकर ओडाकांदी के हरिचाँद गुरुचाँद ठाकुर की परिवार से आई   शायद तीसरी चौथी तक पढ़ी लिखी मेरी ताई हेमलता ने मेरा नाम रख दिया पलाश।


पलाश के पेड़ों के अलावा वट,पीपल,शेमल के विशाल पेड़ खेतों के बीच नदी के किनारे,गांव में भी जहां तहां बिखरे पड़े थे।


बसंतीपुर मतुआ और तेभागा आंदोलनों में,शरणार्थी और किसान आंदोलनों में शामिल आंदोलन के साथियों का गांव है।जहां सारे लोग हिन्दू जरूर थे क्योंकि ये तमाम लोग भारत विभाजन के कारण हिन्दू होने के कारण, भारत में वंचितों की लड़ाई दो सौ साल से लगातार लड़ते रहने के अपराध में पूर्वी बंगाल से खदेड़कर बंगाल के बाहर भारत वर्ष के 22 राज्यों के आदिवासिबहुल पहाड़ों,जंगलों और द्वीपों में छितरा दिए गए ताकि इनकी पहचान,  इनकी मातृभाषा,इनकी संस्कृति और अविभाजित बंगाल और भारत में इनकी नेतृत्वकारी राजनीतिक हैसियत और लगातार संघर्ष करने की क्रान्तिकारी ताकत को खत्म कर दिया जाए। 


बसंतीपुर का नाम आंदोलनकारी बसंतीपुर के पुरखों ने  मेरी मां के नाम पर रख दिया।जबकि इस गांव में हमारे अपना कोई रिश्तेदार नहीं था। कुल मिलाकर 5 परिवार हमारी जाति नमोशूद्र,एक परिवार नाई, दो परिवार ब्राह्मण , दो परिवार कैवर्त और बाकी सभी पौंड्र क्षत्रिय थे। हमारा परिवार और गांव के एक और परिवार के अलावा, दुर्गापुर के जतिन विश्वास और प्रफुल्लनगर के बैंक मैनेजर  Shankar Chakrabartty के परिवार के अलावा ज्यादातर लोग बंगाल के सुंदरवन इलाके के बरीशाल, जोगेन मण्डल का जिला,या खुलना के थे। एक गांव पीपुलिया नम्बर एक के लोग फरीदपुर, हरिचांद गुरुचाँद और मुजीबुर्रहमान के जिले के थे।


 राजवंशियों का एक गांव खानपुर नम्बर एक था। फिर भी दिनेशपुर के 36 गांवों का यह इलाका एक संयुक्त परिवार था।


 बंगालियों के अलावा पहाड़ी,बुक्सा,सिख, देशी गांवों के हर परिवार से हम लोगों का कोई न कोई सम्बन्ध था।


 एकदम मिनी भारत था तराई का पूरा इलाका।विविधता और बहुलता का लोकतंत्र था।मुसलमान गांव भी

 पुराने थे,जिनसे अच्छे ताल्लुकात थे।


हमारे गांव की तरह तराई का हर गांव जंगल के आदिम।गन्ध से सराबोर था और हर गांव की अपनी अपनी नदियां थीं।


सत्तर सालों में तराई अब सीमेंट का जंगल है। जंगल खत्म हैं तो नदियां भी मर गई। इन्हीं नदियों के पानी और मूसलाधार बरसते मानसून से तराई के खेतों से सचमुच सोना उगलता था। अब सिर्फ बिजली का भरोसा है।


खेत सुख रहे हैं और हमारी कोई नदी नहीं है।

न पानी है और न आक्सीजन।


इन्ही नदियों के पार कीचड़ पानी से लथपथ था हमारा बचपन। पैदल हरिदासपुर दिनेशपुर के स्कूल खेतों के मेड़ों से जाते आते थे। अक्सर स्कूल से आते हुए नदी नाले में मछलियां नगर आयी तो उतर जाते पानी में।अपनी।कमीज को थैला बनाकर मछलियां लेकर घर लौटते।खूब डांट पड़ती। पिटाई भी होती। 


नदी से होकर धान के खेतों में हमारी तैराकीं चलती।खेत खेत धान बर्बाद हो जाता।सिर्फ गांव के प्रधान maandaar बाबू से हम डरते।पिताजीसे भी सभी।डरते थे,लेकिन वे अक्सर गांव में होते न थे। 


जिनके खेत बर्बाद होते थे,वे भी।किसीसे शिकायत नहीं करते थे।फिर   रोपते थे धन और हमें प्यार से हिदायत दी जाती- अबकी बार धान के खेत में तैरना मत।


इतना प्यार कहाँ मिलेगा?

इतनी आज़ादी कहाँ मिलेगी?


मेड मेड गांव गांव आते जाते थे। इन्हीं मेड़ों से बारात आती जाती थी।शादी के बाद सबसे पहले दूल्हा दुल्हन मुकुट के साथ,उसके पीछे पीछे बच्चे और बाराती।


 बाज़ार जाते थे खेत खेत होकर बैलगाड़ी में। कभी कभी कीचड़ पानी में बैल भैंस के पांव धंस जाते थे तो पूरे गांव को एकजुट होकर उन्हें निकालना होता था।हर घर में गाय,बैल,भैंस,बकरियां होती थीं।


नदीकिनारे जंगल में हम बच्चों को उनको चराना होता था। पशुओं को चराने और खेती के कामकाज में हाथ बंटाने के साथ हमारी पढ़ाई बहुत मुश्किल थी।


नदी किनारे हम आजाद पंछी थे।उन्ही पक्षियों की तरह बड़े बड़े पेड़ों की डालियों पर हमारा बसेरा था। खेलने कूदने का मैदान भी वही। हमारे सारे सपने नदी से शुरू होते थे।नदी में ही डूब जाते थे।


 इसी नदी की सोहबत में हमने हिमालय के शिखरों को छूना सीखा।पढ़ना लिखना सीखा। 


हमारी दोस्ती,रिश्तेदारी को भी खेतो की तरह सींचती थी यह नदी।


इस मरी हुई नदी में आषाढ़ सावन में भी पानी नहीं है एक बूंद। हमारे खेत बिजली से चलने वाले पम्पसेट सींचते थे।जहां तहां मेड़ों पर बिजली के तार। बिजली की बजह से खेतों के किसीतरह पानी में जाना भी मुश्किल।


भतीजा टूटल खेत फावड़े से तैयार कर रहा है तो ट्रैक्टर भी चल रहा है।पड़ोस के खेत में एमए पास सिडकुल में कामगार,सामाजिक कार्यकर्ता तापस सरकार धान की निराई में लगा है।


खेत के इस टुकड़े में हमारा धान अभी लगा नहीं है। पद्दो गायों के लिए घास काटकर घर गया है और टुटुल खेत में है।


नदी किनारे आज भी बच्चे खेलते हैं,लेकिन न पेड़ है, न जंगल, न चिड़िया है, न मछलियां,न केकड़े, न कछुए और न ही सांप,केंचुए और कीड़े मकोड़े।


इसी नदी को हाईस्कूल में जीवविज्ञान पढ़ते हुए हमने प्रयोगशाला बना रखा था। डिसेक्शन बॉक्स से औजार निकालकर राणा तिगृणा मेंढक को पकड़कर चीड़फाड़ करके हम विज्ञान सीखते थे तो भैंस की पीठ पर सवार होकर सवाल हल करते थे।


आज के बच्चे ऐसा कर सकते है?