___पात्रता और उसका आधार ___
पात्रता, क्षमता और योग्यता तीनों व्यक्ति के विकास के अलग-अलग स्तर हैं. पात्रता अर्जित की जाती है. जन्म, कुल या जाति के आधार पर कोई पात्रता नहीं हो सकती. पात्रता जन्मजात नहीं होती है. पात्रता अपने लिये लक्ष्य निर्धारित कर लेने के बाद उसे साकार करने के लिये कठोर श्रम और सतत साधना द्वारा ही अर्जित की जा सकती है. तभी व्यक्ति सक्षम होता है और क्षमता ही योग्यता का आधार बनाती है.
वर्तमान जनविरोधी व्यवस्था इस पात्रता को व्यक्ति के जन्म, जाति, रिश्वत और पैरवी में देखती है और हमको भी दिखाती है. परन्तु मैं अर्जित पात्रता के साकार उदहारण की बात कर रहा हूँ. मेडिकल साइंस में पी.जी. में अपने पूरे इंस्टिट्यूट में टॉप करने वाले छात्र ने अधिकतम श्रम तो किया ही था. उसमें बार-बार एम.सी.एच. का रिटेन निकालने की पात्रता तो है. परन्तु उसके पीछे इंटरव्यू में सोर्स लगाने वाला जैक नहीं है. इसलिये यह तन्त्र उसे हर बार छोड़-छोड़ दे रहा है. और पात्रता भी उसने जन्म या जाति के सहारे यूँ ही नहीं अर्जित की थी. अपितु वर्षों तक पढ़ने में रात-दिन एक कर दिया और तब जाकर मेरी दृष्टि में उसकी पात्रता बनी.
गत वर्ष बम्बई में रिटेन निकालने के बाद हुए पिछले इन्टरव्यू में उसकी पैरवी करने वाला कोई सोर्स न होने के चलते हुए अन्याय के बाद मैंने यह कविता लिखी थी. और दिल्ली में इस वर्ष फिर रिटेन निकालने के बाद हुए इन्टरव्यू में छाँट दिये जाने के बाद मैं आज फिर अपने कथन को दोहरा रहा हूँ. मेरे कथन में इस मामले मे मामला जाति, जन्म और रिज़र्वेशन का है ही नहीं. यहाँ मामला रिश्वत, सोर्स और पैरवी की पहुँच के चलते हो रहे अन्याय का है. 25.5.15.
____"बिलबिलाती जा रही है आज मेधा..." – गिरिजेश____
लगे थे चुपचाप कितने वर्ष
जब था साधना में लीन
तन-मन अनवरत मेरा,
तो उगी थी एक मेधा इस तरह
जैसे उगा सूरज, दिशा पूरब
लाल हो कर निखर आयी.
और मेधा बढ़ी, बढ़ती गयी आगे,
तोड़ कर अवरोध पथ के,
ख़ूब मेहनत से पढ़ाई की,
जगी वह रात-दर-हर रात,
खपाये साधना में दिन, गुज़ारे वर्ष,
खुली आँखों बसे थे स्वप्न
केवल सफलता के,
सफल हो कर बनेगी और सक्षम,
और उसके बाद बेहतर कर सकेगी,
सदा सेवा दुखी, पीड़ित मनुजता की.
निकाला रिटेन जब प्रतियोगिता का,
हुए हर्षित सभी परिजन,
दिया सबने बधाई,
उमग आये सभी के मन,
लगा सबको कि अब साकार होंगे,
स्वप्न जो अब तक बसे थे,
सभी आँखों की चमक में.
और आया आख़िरी अवरोध को भी
पार करने का जो मौका,
तब सभी ने दी दुआएँ...
हुआ इण्टरव्यू,
बहुत-से प्रश्न पूछे गये,
दिये उत्तर सही सब के.
मुदित था मन
कर रहा केवल प्रतीक्षा
चयन के परिणाम का अब.
और जब परिणाम आया,
हुआ अचरज,
अरे कैसे हुआ ऐसा !
क्यों नहीं हो सका उस का ही चयन !
चयन कैसे और क्यों कर हो गया
उन सभी का ही
था कि जिनके पास स्थानीयता का,
या पहुँच की पैरवी का,
या कि पैसे की चमक का,
कुटिल बल –
जिसने ख़रीदा
उन दिमागों को
जिन्होंने घोषणा की.
और बैसाखी लगे कन्धे खड़े थे,
जो कदम चल ही नहीं सकते कभी भी,
उन्हें घोषित कर विजेता,
तन्त्र के उद्घोषकों ने,
कर दिया वध न्याय का ही !
गूँजता है महज़ अब
मथ रहा मन को हमेशा ही
घोषणा का दम्भ-पूरित स्वर,
और मेधा बिलबिलाती जा रही है...
सहन होती नहीं अब यह दुर्व्यवस्था,
क्या बचा है भ्रम तनिक भी
न्याय को लेकर व्यवस्था के विषय में !
कौन-सा लक्षण दिखाई दे रहा है मनुजता का !
एक भी तो नहीं मुझको दिख रहा है.
है लगाना मुझे भी अब ज़ोर
सबके साथ मिल कर
ताकि मटियामेट हो
यह जन-विरोधी दुर्व्यवस्था !
20.7.14. (10.30.a.m.)
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