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Monday, May 25, 2015

Neelabh Ashk दो कविताएं


दो कविताएं

मकड़ी

मैं वह मकड़ी हूं जो भूल गयी है
जाल बुनना

बहुत कोशिश करने पर भी
नाभि से थोड़ा-सा रेशा ही निकल पाता है
जिस पर ठीक से लटका भी नहीं जा सकता
झूलने की तो बात ही दूर रही.

कीड़े मुंह चिढ़ाते हुए, बकरा बुलाते हुए* 
पास से निकल जाते हैं
हवा से हर पल यह अन्देशा रहता है 
कि उड़ा ले जायेगी कम्बख़्त
और इस पेड़ की डालियां भी तो इतनी दूर-दूर हैं
नगर निगम की कृपा से 
इस रेशे का पुल बनाना भी सम्भव नहीं 
जिस पर मै जा सकूं
इस लोक से उस लोक तक
सही-सलामत
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*बकरा बुलाना -- पंजाबी मुहावरा है. कलाई उलटी करके मुंह पर रख कर ज़ोर से भक-भक की आवाज़ निकालना, जो अवज्ञा और चुनौती की निशानी मानी जाती है

मारा गया

जिस रास्ते से भी जाऊं
मारा जाता हूं

मैंने सीधा रास्ता लिया
मारा गया
मैंने लम्बा रास्ता अख़्तियार किया
मारा गया
मैंने प्रेम की डगर थामी
मारा गया
मैंने नफ़रत का रास्ता पकड़ा 
मारा गया
मैंने कोई रास्ता नहीं अपनाया
मारा गया

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