बड़े बड़े झूठ: आनंद तेलतुंबड़े
Posted by Reyaz-ul-haque on 9/30/2015 12:49:00 PM
‘पर्याप्त पुनरावृत्ति से लोगों की मनोवैज्ञानिक समझ बनाकर यह साबित करना नामुमकिन है कि एक चौकोर वर्ग, असल में एक गोलाकार चक्र है. ये महज शब्द हैं और शब्दों को तब तक तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है जब तक कि वे विचारों का जामा पहनाकर उन्हें बदल ना दे.’-जोसेफ गोएबल्स
आईआईटी मद्रास प्रशासन द्वारा आंबेडकर पेरियार स्टडी सर्किल (एपीएससी) पर लगाए गए प्रतिबंध पर छिड़े विवाद के बीच में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर ने प्रतिबंध का विरोध करने वालों को कम्युनिस्ट बताते हुए एक लंबा लेकिन भ्रमित संपादकीय अनमास्किंग स्यूडो आंबेडकराइट्स लिखा. इस प्रतिबंध ने देश और देश के बाहर विरोध को जन्म दिया था. संपादकीय ने विरोध करने वालों पर आंबेडकर को नहीं जानने का इल्जाम लगाया और कहा कि आंबेडकर हिंदूपरस्त थे और कम्युनिस्टों के खिलाफ थे. बेशक इसने एपीएससी पर प्रतिबंध को जायज ठहराया। दिलचस्प बात यह थी कि अपने मूल मुद्दे पर जोर डालने के लिए संपादकीय एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट एक उद्धरण से शुरू होता है, जिसे आखिरकार आंबेडकर डॉट ओआरजी पर मेरे द्वारा पेश किए गए डिजिटल संस्करण से बड़े आलस के साथ उठाया गया था (न कि मूल पाठ से), और उसे मोटे अक्षरों में छापा गया: ‘ब्राह्मणवाद वह जहर है जो हिंदू धर्म को बर्बाद कर देगा. अगर आप ब्राह्मणवाद को खत्म करते हैं तभी आप हिंदू धर्म को बचने में कामयाब हो पाएंगे.’ अगर किसी भी तरह से एक झूठ को दोहराते रहने की गोएबलीय मंशा को परे भी कर दें, तो किसी को भी इस पर हैरानी होगी कि एक ऐसे उद्धरण का इस्तेमाल ही क्यों किया गया, जिसमें हिंदू धर्म के लिए तारीफ या हमदर्दी की झलक तक नहीं है. 1936 में सुधारवादी हिंदुओं से मुखातिब आंबेडकर ने यह समझाने की कोशिश की थी हिंदू धर्म को कौन सी बीमारी खाए जा रही है और कहा था कि ब्राह्मणवाद ही वह बीमारी है. सवाल यह उठता है कि क्या ब्राह्मणवाद को हिंदू धर्म से अलगाया जा सकता है? असल में, वे एक ही चीज के दो अलग अलग नाम हैं, जैसा कि खुद आंबेडकर ने ही कहीं दूसरी जगह साफ भी किया है. ऐतिहासिक तौर पर देखें तो हिंदू धर्म जैसी कोई चीज नहीं है; यह सिंधु नदी की दूसरी ओर मौजूद धर्म यानी ब्राह्मणवाद के लिए इस्तेमाल में लाया गया एक मध्ययुगीन शब्द है.
बड़े बड़े झूठ
बाबासाहेब आंबेडकर: राइटंग्स एंड स्पीचेज के पहले खंड के 78वें पन्ने पर मौजूद उस उद्धरण पर कूद कर जाने से पहले, संपादक को इस किताब की भूमिका में ही आंबेडकर का एक बेहतर उद्धरण मिल सकता था: ‘मुझे तसल्ली होगी अगर मैं हिंदुओं को इस बात का अहसास करा सका कि वे भारत के बीमार लोग हैं और उनकी बीमारी दूसरे भारतीयों की सेहत और खुशहाली के लिए खतरे की वजह है.’ यह इतना बता देने के लिए काफी है कि आंबेडकर हिंदुओं और हिंदू धर्म के लिए क्या सोचते थे. अगर आरएसएस सुनने को उत्सुक ही है तो अपने आखिरी दिनों तक खुद को विकसित करते रहने वाले आंबेडकर ने कहा था: ‘अगर हिंदू राज हकीकत बन गया, तो इसमें संदेह नहीं कि यह इस मुल्क के लिए सबसे बड़ी तबाही होगा. हिंदू लोग चाहे जो कहें, यह लोकतंत्र के साथ नहीं चल सकता है. हिंदू राज को किसी भी कीमत पर रोकना होगा.’ [पूर्वोक्त, खंड 8, पृ.358]. यह बात आंबेडकर ने अपनी किताब थॉट्स ऑन पाकिस्तान ऑर पार्टिशन ऑफ इंडिया में कही थी, जो आंबेडकर में काट-छांट करके उन्हें मुसलमानों से नफरत करने वाला बताने के लिए, आखिरकार आरएसएस की पसंदीदा किताब है. आंबेडकर की एक और किताब, हिंदू धर्म का दर्शन हिंदू धर्म के ‘एक जीवन शैली’ होने के दावे का जायजा लेती है और इसे ‘आजादी, बराबरी, भाईचारे’ के खिलाफ तथा इंसाफ और उपयोगिता के लिहाज से इसकी खामियों के आधार पर इसे पूरी तरह खारिज करते हैं. जब वे यह लिख रहे थे ‘हिंदू धर्म ज्ञान को फैलाने को बढ़ावा देना तो दूर, अंधकार का सिद्धांत है’ या ‘हिंदू धर्म का दर्शन ऐसा है कि इसे इंसानियत का धर्म नहीं कहा जा सकता है’ तो वे यकीनन हिंदुओं की तारीफ तो नहीं ही कर रहे थे. बेशक, ये बातें गोएबल्स के भक्तों को अपना यह झूठ फैलाते रहने से नहीं रोक सकेंगी कि आंबेडकर एक महान हिंदू थे.
संपादकीय एक और हास्यास्पद कहानी सुनाता है कि एपीएससी पर प्रतिबंध का विरोध करने वाले कम्युनिस्ट थे. क्या आईआईटी के निदेशक को उनकी इस अलोकतांत्रिक कार्रवाई के खिलाफ लिखने वाले देश के जाने-माने वैज्ञानिक लोग कम्युनिस्ट हैं? जैसा कि संयुक्त राज्य अमेरिका में उदारवादियों को कम्युनिस्ट कहा जाता है, यहां आरएसएस तार्किक और लोकतांत्रिक लोगों को कम्युनिस्ट कहता है! भारत के कैंपस कभी भी कम्युनिस्ट नहीं रहे, जैसा कि आरएसएस का इल्जाम है. अगर ऐसा रहा होता तो आरएसएस कभी भी अपने कोटर से निकल पाने में कामयाब नहीं हुआ होता. बहरहाल, आंबेडकर के बारे में यह जो बड़ी बात कहता है वो ये है कि आंबेडकर कम्युनिस्ट विरोधी थे.
यह सही है कि खुद आंबेडकर ने ही कहा था कि वे कम्युनिस्टों के खिलाफ हैं. हालांकि आरएसएस को यह अच्छे से पता होगा कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा था. उन्होंने ऐसा इसलिए कहा था कि उन्होंने देखा कि वे उसी [आरएसएस] के कुल-खानदान से हैं- वे कम्युनिस्ट ब्राह्मण लड़कों का एक गिरोह थे जो मार्क्सवादी उसूलों की रटंत लगाते थे लेकिन जातियों की जमीनी हकीकत को नजरअंदाज करते हुए ब्राह्मणवादी चरित्र दिखाते फिरते थे.
उनका कम्युनिस्ट-विरोधी रुख असल में तब के बंबई के कम्युनिस्टों के साथ हुए उनके कड़वे अनुभव से जन्मा था, जिन्होंने उनके कहने के बावजूद अपने तहत आने वाले कपड़ा मिलों में दलित मजदूरों के खिलाफ भेदभाव के व्यवहार को सुधारा नहीं. तब दलितों के लिए अलग सुराहियां होती थीं और उन्हें बेहतर मजदूरी वाले बुनाई विभाग में काम करने की आजादी नहीं थी, क्योंकि उसमें टूटे हुए धागों को थूक की मदद से जोड़ना पड़ता था. आंबेडकर ने हड़ताल में अपने शामिल होने की पूर्वशर्त के रूप में उनसे इस व्यवहार को रोकने को कहा, लेकिन उन्होंने महीनों तक इसकी अनदेखी की. जब उन्होंने हड़ताल तोड़ने की धमकी दी, केवल तभी जाकर वे माने. इसके बावजूद आंबेडकर 1938 की ऐतिहासिक हड़ताल में उनके साथ शामिल हुए, लेकिन वह खाई पाटी नहीं जा सकी. कम्युनिस्टों ने 1952 के आम चुनाव में एक खुला आंबेडकर विरोधी रवैया अपनाया और इन वजहों से आंबेडकर ने कम्युनिस्ट विरोधी बातें कहीं.
इस तरह जहां आंबेडकर का कम्युनिस्ट विरोध ज्यादातर जाति के मामले में कम्युनिस्टों के व्यवहार से प्रभावित हुआ, वहीं उनके लेखन में इस बात के भी उतने ही सबूत मौजूद हैं जो कम्युनिज्म के लिए उनकी हमदर्दी की तरफ भी इशारा करते हैं. यह सही है कि वैचारिक लिहाज से अपने शुरुआती दिनों से फेबियनवाद से गहरे प्रभावित रहे आंबेडकर मार्क्सवादी नहीं थे. उन्होंने मार्क्सवाद से अपनी असहमतियों को जाहिर किया है, लेकिन कभी भी उन्होंने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद, ऐतिहासिक भौतिकवाद और वैज्ञानिक समाजवाद के इसके बुनियादी सिद्धांत के स्तर पर जाकर बहस नहीं की. उन्होंने बजाहिर तौर पर ‘आधार-अधिरचना’ के चुनौती दिए जा सकने वाले जड़ सिद्धांत को भी चुनौती नहीं दी, जिसकी जाति को लेकर कम्युनिस्ट व्यवहार को बनाने में अहम भूमिका है. इसके बजाए, उन्होंने खुद को भी [आधार-अधिरचना के] इस फंदे में गिर जाने दिया और उन्होंने यह साबित करने में भारी मेहनत की कि हमेशा ही, राजनीतिक क्रांतियों से पहले धार्मिक क्रांतियां होती हैं. इस तरह दुर्भाग्य से उन्होंने असल में जातियों को अधिरचना यानी ऊपरी ढांचे का हिस्सा मान लिया. आंबेडकर सिर्फ एक बार अपेक्षाकृत विस्तृत बहस में गए और तभी उन्होंने, अपनी मृत्यु से महज एक महीना पहले, काठमांडु में मार्क्सवाद की बौद्ध धर्म के साथ तुलना की थी. उन्होंने साफ साफ कहा था कि बौद्ध धर्म और मार्क्सवाद, दोनों का मकसद एक ही था, लेकिन उन्हें हासिल करने के रास्ते अलग अलग थे. इसे समझाते हुए उन्होंने मार्क्सवाद में दो मुद्दों पर खामियां देखीं: एक कि मार्क्सवाद अपनी पद्धति के रूप में हिंसा का इस्तेमाल करता है और दूसरा कि यह लोकतंत्र में यकीन नहीं करता. हालांकि यहां भी वे मार्क्सवाद के सिद्धांत के बजाए, उसके व्यवहार को ही ध्यान में रख कर बोल रहे थे, लेकिन इससे यह बात साफ हो जाती है कि उन्हें किन बातों पर मार्क्सवाद से दिक्कत थी. चूंकि मकसद के मामले में मार्क्सवाद से उनकी कोई असहमति नहीं थी, तो उनकी बेकरारी इसकी बराबरी का एक ऐसा विकल्प खोजने की थी, जिसमें मार्क्सवाद की खामियां न हों। उन्होंने खुद को इस बात का कायल किया कि यह विकल्प बौद्ध धर्म था. ऐसे में, आरएसएस के लिए यह साफ हो जाना चाहिए कि आंबेडकर को कम्युनिस्ट-विरोधी और भगवापरस्ती के रंग में रंगना उसी के लिए भारी पड़ सकता है.
संपादकीय एक और हास्यास्पद कहानी सुनाता है कि एपीएससी पर प्रतिबंध का विरोध करने वाले कम्युनिस्ट थे. क्या आईआईटी के निदेशक को उनकी इस अलोकतांत्रिक कार्रवाई के खिलाफ लिखने वाले देश के जाने-माने वैज्ञानिक लोग कम्युनिस्ट हैं? जैसा कि संयुक्त राज्य अमेरिका में उदारवादियों को कम्युनिस्ट कहा जाता है, यहां आरएसएस तार्किक और लोकतांत्रिक लोगों को कम्युनिस्ट कहता है! भारत के कैंपस कभी भी कम्युनिस्ट नहीं रहे, जैसा कि आरएसएस का इल्जाम है. अगर ऐसा रहा होता तो आरएसएस कभी भी अपने कोटर से निकल पाने में कामयाब नहीं हुआ होता. बहरहाल, आंबेडकर के बारे में यह जो बड़ी बात कहता है वो ये है कि आंबेडकर कम्युनिस्ट विरोधी थे.
यह सही है कि खुद आंबेडकर ने ही कहा था कि वे कम्युनिस्टों के खिलाफ हैं. हालांकि आरएसएस को यह अच्छे से पता होगा कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा था. उन्होंने ऐसा इसलिए कहा था कि उन्होंने देखा कि वे उसी [आरएसएस] के कुल-खानदान से हैं- वे कम्युनिस्ट ब्राह्मण लड़कों का एक गिरोह थे जो मार्क्सवादी उसूलों की रटंत लगाते थे लेकिन जातियों की जमीनी हकीकत को नजरअंदाज करते हुए ब्राह्मणवादी चरित्र दिखाते फिरते थे.
उनका कम्युनिस्ट-विरोधी रुख असल में तब के बंबई के कम्युनिस्टों के साथ हुए उनके कड़वे अनुभव से जन्मा था, जिन्होंने उनके कहने के बावजूद अपने तहत आने वाले कपड़ा मिलों में दलित मजदूरों के खिलाफ भेदभाव के व्यवहार को सुधारा नहीं. तब दलितों के लिए अलग सुराहियां होती थीं और उन्हें बेहतर मजदूरी वाले बुनाई विभाग में काम करने की आजादी नहीं थी, क्योंकि उसमें टूटे हुए धागों को थूक की मदद से जोड़ना पड़ता था. आंबेडकर ने हड़ताल में अपने शामिल होने की पूर्वशर्त के रूप में उनसे इस व्यवहार को रोकने को कहा, लेकिन उन्होंने महीनों तक इसकी अनदेखी की. जब उन्होंने हड़ताल तोड़ने की धमकी दी, केवल तभी जाकर वे माने. इसके बावजूद आंबेडकर 1938 की ऐतिहासिक हड़ताल में उनके साथ शामिल हुए, लेकिन वह खाई पाटी नहीं जा सकी. कम्युनिस्टों ने 1952 के आम चुनाव में एक खुला आंबेडकर विरोधी रवैया अपनाया और इन वजहों से आंबेडकर ने कम्युनिस्ट विरोधी बातें कहीं.
इस तरह जहां आंबेडकर का कम्युनिस्ट विरोध ज्यादातर जाति के मामले में कम्युनिस्टों के व्यवहार से प्रभावित हुआ, वहीं उनके लेखन में इस बात के भी उतने ही सबूत मौजूद हैं जो कम्युनिज्म के लिए उनकी हमदर्दी की तरफ भी इशारा करते हैं. यह सही है कि वैचारिक लिहाज से अपने शुरुआती दिनों से फेबियनवाद से गहरे प्रभावित रहे आंबेडकर मार्क्सवादी नहीं थे. उन्होंने मार्क्सवाद से अपनी असहमतियों को जाहिर किया है, लेकिन कभी भी उन्होंने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद, ऐतिहासिक भौतिकवाद और वैज्ञानिक समाजवाद के इसके बुनियादी सिद्धांत के स्तर पर जाकर बहस नहीं की. उन्होंने बजाहिर तौर पर ‘आधार-अधिरचना’ के चुनौती दिए जा सकने वाले जड़ सिद्धांत को भी चुनौती नहीं दी, जिसकी जाति को लेकर कम्युनिस्ट व्यवहार को बनाने में अहम भूमिका है. इसके बजाए, उन्होंने खुद को भी [आधार-अधिरचना के] इस फंदे में गिर जाने दिया और उन्होंने यह साबित करने में भारी मेहनत की कि हमेशा ही, राजनीतिक क्रांतियों से पहले धार्मिक क्रांतियां होती हैं. इस तरह दुर्भाग्य से उन्होंने असल में जातियों को अधिरचना यानी ऊपरी ढांचे का हिस्सा मान लिया. आंबेडकर सिर्फ एक बार अपेक्षाकृत विस्तृत बहस में गए और तभी उन्होंने, अपनी मृत्यु से महज एक महीना पहले, काठमांडु में मार्क्सवाद की बौद्ध धर्म के साथ तुलना की थी. उन्होंने साफ साफ कहा था कि बौद्ध धर्म और मार्क्सवाद, दोनों का मकसद एक ही था, लेकिन उन्हें हासिल करने के रास्ते अलग अलग थे. इसे समझाते हुए उन्होंने मार्क्सवाद में दो मुद्दों पर खामियां देखीं: एक कि मार्क्सवाद अपनी पद्धति के रूप में हिंसा का इस्तेमाल करता है और दूसरा कि यह लोकतंत्र में यकीन नहीं करता. हालांकि यहां भी वे मार्क्सवाद के सिद्धांत के बजाए, उसके व्यवहार को ही ध्यान में रख कर बोल रहे थे, लेकिन इससे यह बात साफ हो जाती है कि उन्हें किन बातों पर मार्क्सवाद से दिक्कत थी. चूंकि मकसद के मामले में मार्क्सवाद से उनकी कोई असहमति नहीं थी, तो उनकी बेकरारी इसकी बराबरी का एक ऐसा विकल्प खोजने की थी, जिसमें मार्क्सवाद की खामियां न हों। उन्होंने खुद को इस बात का कायल किया कि यह विकल्प बौद्ध धर्म था. ऐसे में, आरएसएस के लिए यह साफ हो जाना चाहिए कि आंबेडकर को कम्युनिस्ट-विरोधी और भगवापरस्ती के रंग में रंगना उसी के लिए भारी पड़ सकता है.
और झूठ का कारोबार
एक तरफ आरएसएस आंबेडकर को एक भगवा प्रतीक के रूप में अपनाने के लिए बेकरार रहा है, लेकिन दूसरी तरफ यह उनके रेडिकल विचारों को बर्दाश्त नहीं करता, जैसा कि एपीएससी के वाकए से साफ जाहिर है. संपादकीय ने एपीएससी पर पाबंदी को एक स्वायत्त संस्थान द्वारा की गई एक दंडात्मक कार्रवाई के रूप में जायज ठहराया है, जिसका सरकार से कोई लेना देना नहीं है. इसका यह सोचना पूरी तरह से अपमानजनक है कि भारतीय लोग भाजपा की मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी के संदिग्ध तौर-तरीकों के बारे में नहीं जानते. इस पद के लिए पूरी तरह से नाकाबिल, प्रधानमंत्री के ‘विशेषाधिकार’ के रूप में नियुक्त, ईरानी इसी ‘विशेषाधिकार’ का इस्तेमाल करते हुए (अपनी तरह के) उतने ही नाकाबिल लोगों को अकादमिक अहमियत के राष्ट्रीय संस्थानों में नियुक्त करती रही हैं. येल्लाप्रगदा सुदर्शन राव की विवादास्पद नियुक्ति दोहराने के लिहाज से काफी जगजाहिर है: वे आरएसएस के अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना (एबीआईएसवाई) के आंध्र प्रदेश अध्याय के मुखिया थे जिनका शोध का कोई इतिहास नहीं है, उन्हें प्रतिष्ठित भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद (आईसीएचआर) का मुखिया बना दिया गया. अपने हिंदुत्व और ब्राह्मणवाद का गर्व से प्रदर्शन करने वाले राव ने आशंका के मुताबिक तीन इतिहासकारों को आईसीएचआर के पैनल का सदस्य बनाया: उनमें सभी एबीआईएसवाई से जुड़े हैं, नारायण राव उसके राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं, ईश्वर शरण विश्वकर्मा उसके अखिल भारतीय महासचिव हैं और निखिलेश गुहा उसके बंगाल अध्याय के मुखिया हैं. ईरानी धड़ल्ले से शीर्ष संस्थानों में हिंदुत्वपरस्त या भाजपापरस्त व्यक्तियों की नियुक्ति कर रही हैं. आईआईएएस, शिमला के अध्यक्ष के रूप में चंद्रकला पाडिया, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में गिरीश चंद्र त्रिपाठी, वीएनआईटी, नागपुर के अध्यक्ष के रूप में विश्राम जामदार की नियुक्तियां मीडिया में आई कुछेक मिसालें हैं. आईआईटी दिल्ली के निदेशक; आईआईटी मुंबई के निदेशक मंडल के अध्यक्ष अनिल काकोडकर, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति और मंत्रालय के अनेक अधिकारियों के साथ उनके मानव संसाधन विकास मंत्रालय के हालिया विवाद, आरएसएस के हिंदुत्व के एजेंडे को लागू करने में उनके मनमानी से भरे तरीकों को दिखाते हैं. इसको मद्देनजर, एक गुमनाम शिकायत पर उनके द्वारा गौर किया जाना और आईआईटी मद्रास द्वारा भारी सरगर्मी के साथ एपीएससी पर पाबंदी लगाने की कार्रवाई यकीनन ही एक मामूली प्रशासनिक कार्रवाई नहीं है.मुद्दे पर जब बहस तेज हुई, तो इसके सारे तथ्य खुल कर सामने आए. एपीएससी द्वारा जिस तथाकथित दिशा-निर्देश के बारे में बताया जा रहा था कि एपीएससी ने उसका उल्लंघन किया है, वे दिशा निर्देश असल में उस कथित उल्लंघन के वाकए के बाद लागू किए गए. उन्हें एपीएससी की उस बैठक के चार दिनों के बाद, 18 अप्रैल को जारी किया गया था. उनकी मान्यता वापस लेने वाले डीन ने पहले आंबेडकर और पेरियार के नामों पर अपनी नाखुशी जताई थी, और पर्याप्त रूप से अपने ब्राह्मणवादी झुकाव को जाहिर किया था. अजीबोगरीब रूप से यह इल्जाम लगाया गया कि एपीएससी की गतिविधियां छात्रों को दो गुटों में बांट रही थीं. हालांकि यह तथ्य अपनी जगह पर कायम है कि हिंदुत्व की विचारधारा का प्रचार करने वाले विवेकानंद स्टडी सर्किल, आरएसएस शाखाएं, हरे रामा-हरे कृष्णा, वंदे मातरम, ध्रुव जैसे छात्र संगठन खुलेआम सांप्रदायिक आधार पर छात्रों को बांट रहे हैं, जिन्हें आईआईटी प्रशासन से अनेक तरह सरपरस्ती हासिल होती रही है. क्या हिंदुत्व संगठनों के प्रभाव में, अलग शाकाहारी मेस बनाने का आईआईटी मद्रास का फैसला छात्रों को बांटने वाला नहीं हैॽ असल में, एपीएससी ने इस कदम के खिलाफ 2014 में ‘व्हीट ऑर मीट, डोन्ट सेग्रीगेट’ अभियान चलाया था. जो भी हो, इतनी बदनामी के बाद आईआईटी प्रशासन को आरएसएस के फासीवादी खेल के खिलाफ विरोध जताने वालों की मांग के आगे झुकते हुए पीछे हटना पड़ा और एपीएससी की मान्यता को बहाल करना पड़ा.
एपीएससी की जीत ने अनेक कैंपसों में ऐसे ही स्टडी सर्किल की शुरुआत करने और हिंदुत्व के संदेश का प्रतिरोध करने के लिए प्रेरित किया है. प्रतिष्ठित फिल्म ऐंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया का एक और कैंपस भी ऐसी एक और हिंदुत्व नियुक्ति के प्रतिरोध में सुलग रहा है. शाबास छात्रो, सिर्फ आप लोग ही भारत के लिए सचमुच के अच्छे दिन ला सकते हैं!
अनुवाद: रेयाज उल हक
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