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Monday, May 11, 2015

हिंदी पत्रकारिता को सींचनेवाले बांग्लाभाषी मनीषी कृपाशंकर चौबे

हिंदी पत्रकारिता को सींचनेवाले बांग्लाभाषी मनीषी
कृपाशंकर चौबे

कोलकाता हिंदी पत्रकारिता की ही जन्मस्थली नहीं है, वह चार दूसरी भाषाओं-उर्दू ('जाम ए जहाँनुमा'), फारसी ('मिरात-उल-अखबार'), अँग्रेजी ('हिकीज बंगाल गजट आर कैलकटा जनरल एडवटाइजर') और बांग्ला पत्रकारिता ('दिग्दर्शन'/ 'बंगाल गजट') की जन्मस्थली भी है। हिंदी पत्रकारिता के प्रति बंगाल हर काल खंड में उदार रहा है। तथ्य है कि अनेक बांग्लाभाषियों ने अपनी हड्डियाँ गलाकर हिंदी पत्रकारिता की समृद्ध विरासत खड़ी की। भारतीय भाषाई प्रेस के जनक बांग्लाभाषी राजा राम मोहन राय ही थे। वे 19वीं सदी के प्रारंभ में उन भद्र बंगाली सज्जनों में थे जो अँग्रेजों के संपर्क में सबसे पहले आए। उन्होंने फ्रांसीसी क्रांति जैसी पश्चिमी उदारवादी विचारधारा से प्रेरणा ग्रहण की और उसे सामाजिक सुधार के संदर्भ में भारतीय परिप्रेक्ष्य में ढाला। राजा राम मोहन राय ने लार्ड विलियम बेंटिक की सहायता से महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष किया और कानून बनवाकर सती प्रथा को अवैध करार दिया और इस मुद्दे पर सामाजिक नवजागरण लाने के लिए उन्होंने पत्रकारिता को माध्यम बनाया। उन्होंने हिंदी, बांग्ला, अँग्रेजी और फारसी भाषाओं की पत्रकारिता के लिए जो रचनात्मक संघर्ष किया, वह इतिहास स्वीकृत तथ्य है। उन्होंने हिंदी, बांग्ला तथा फारसी में 10 मई 1829 को साप्ताहिक 'बंगदूत' निकाला। यह साप्ताहिक 82 दिनों तक ही चल पाया किंतु उस अल्प समय में ही उसने अपनी अलग पहचान बना ली। 'बंगदूत' का 10 मई 1829 का अंक कोलकाता के बंगीय साहित्य परिषद, कोलकाता में जतन के साथ सहेजकर रखा गया है।

राजा राममोहन राय की प्रेरणा से ही गंगाधर भट्टाचार्य ने 1816 में कलकत्ता से 'बंगाल गजट' का प्रकाशन प्रारंभ किया। किसी भी भारतीय द्वारा प्रकाशित होनेवाला वह पहला पत्र था। राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के खिलाफ 'एशियाटिक जर्नल' के जुलाई 1819 के अंक में लेख लिखा। उन्होंने 1821 में द्विभाषी 'ब्रह्मैनिकल मैग्जीन' निकाली। उसके तीन अंक ही निकले किंतु हर अंक में राममोहन राय ने लेख लिखकर धार्मिक कुरीतियों पर हल्ला बोला था। राम मोहन राय की ही प्रेरणा से 4 दिसंबर 1821 को ताराचंद दत्त तथा भवानीचरण बंद्योपाध्याय ने बांग्ला साप्ताहिक 'संवाद कौमुदी' का प्रकाशन प्रारंभ किया। राजा राममोहन राय ने 'संवाद कौमुदी' को सती प्रथा के खिलाफ अभियान बना डाला। 'संवाद कौमुदी' ने पारिवारिक रीति-रिवाजों तथा तीज-त्यौहारों व धार्मिक कर्मकांडों पर ज्यादा धन खर्च किए जाने का डटकर विरोध किया।
राजा राम मोहन राय ने 20 अप्रैल 1822 को कलकत्ता से ही फारसी भाषा का 'मिरात उल अखबार' निकालना शुरू किया। इसके पहले संपादकीय मंतव्य में राममोहन राय ने लिखा - 'कुछ अँग्रेज देश और विदेश के समाचार प्रकाशित करते हैं किंतु इससे केवल वे ही लोग लाभ उठा पाते हैं जो अँग्रेजी जानते हैं। जो लोग अँग्रेजी नहीं जानते, वे खबरों को दूसरों से पढ़वाते हैं या 'फिर उनसे अनजान बने रहते हैं। ऐसी दशा में मुझे फारसी में एक साप्ताहिक अखबार प्रकाशित करने की आवश्यकता प्रतीत हुई। बहुत से लोग फारसी जानते हैं, अतएव यह अखबार बहुत से लोगों तक पहुँचेगा। इस अखबार के प्रकाशन से मेरा अभिप्राय न तो धनाढ्य व्यक्तियों की न अपने मित्रों की प्रशंसा करना है और न मुझे यश और कीर्ति की अभिलाषा है। संक्षेप में इस पत्र के प्रकाशन से मेरा अभिप्राय यह है कि जनता के समक्ष ऐसी बातें प्रस्तुत की जाएँ जिनसे उनके अनुभवों में वृद्धि हो, सामाजिक प्रगति हो, सरकार को जनता की स्थिति मालूम रहे और जनता को सरकार के कामकाज और नियम-कानूनों की जानकारी मिलती रहे।'1
'मिरात उल अखबार' हर शुक्रवार को प्रकाशित होता था। इस अखबार का मूल्यांकन करते हुए कलकत्ता जर्नल ने लिखा था - 'देशी भाषाओं में प्रकाशित समाचार पत्रों में अन्य कोई पत्र इतना अच्छा नहीं निकलता जितना कि 'मिरात उल अखबार'।' यह अखबार सालभर ही निकल सका। 4 अप्रैल 1823 को 'मिरात उल अखबार' का अंतिम अंक निकला जिसकी संपादकीय में राममोहन राय ने लिखा - 'शपथ पत्र पर विश्वास दिलाने के बाद भी जब प्रतिष्ठा को आघात लगता है और हर समय यह लाइसेंस रद्द करने का भय बना रहता है, तब दुनिया के समक्ष मुंह दिखाने लायक नहीं होता। इससे मन की शांति भी भंग होती है। स्वभावतः मनुष्य से गलती होती है। अपनी भावना को अभिव्यक्ति देते समय जिन शब्दों और मुहावरों का प्रयोग किया जाता है, तो उनका अपने पक्ष में अर्थ निकालकर शासन के रोष का सामना करना पड़ता है।'2
श्याम सुंदर सेन और ' समाचार सुधावर्षण '
जिस तरह हिंदी का पहला साप्ताहिक 'उदंत मार्तंड' कलकत्ता से 30 मई 1826 को युगल किशोर शुक्ल द्वारा प्रकाशित किया गया, उसी तरह हिंदी का पहला दैनिक 'समाचार सुधावर्षण' भी कलकत्ता से ही 8 जून 1854 को निकला जिसके संपादक श्याम सुंदर सेन थे। यह अखबार हिंदी-बांग्ला भाषा सेतु बंधन का अनोखा उदाहरण था। यह हिंदी और बांग्ला दोनों में निकलता था। आरंभ के दो पृष्ठ हिंदी में और बाकी पृष्ठ बांग्ला में निकलते थे। यह अखबार रविवार को छोड़कर प्रतिदिन निकलता था। इसका आकार 18 गुणा 12 इंच था। हर पृष्ठ चार कालम में बंटा होता था। 'समाचार सुधावर्षण' का मासिक मूल्य दो रुपए, सालाना चौबीस रुपए, पेशगी सालाना बीस रुपए और छह महीने की पेशगी दस रुपए था। यह अखबार 1873 तक निकला। उस जमाने में इतने दिनों तक किसी दैनिक अखबार का निकलना ही अपने-आप में एक बड़ी बात थी। 'समाचार सुधावर्षण' की विषय वस्तु समृद्ध थी और इसकी भाषा भी अपेक्षाकृत परिष्कृत थी। 1854 से 8 जनवरी 1956 तक पहले पृष्ठ में ही अग्रलेख छपता था। विज्ञापन बढ़ जाने के कारण अग्रलेख दूसरे, तीसरे या चौथे पृष्ठ पर छप जाया करता था। देश-विदेश के रोचक समाचारों के साथ ही युद्ध विवरण इसमें छपता था। अँग्रेजों के अनैतिक आचरण की भी बेबाक आलोचना की जाती थी।

इस अखबार के संपादक श्याम सुंदर सेन भारतीय समाचार पत्रों की आजादी के अनन्य सेनानी थे। 1857 के सिपाही विद्रोह में मीडिया की भूमिका की जब भी चर्चा होगी तो श्याम सुंदर सेन का उल्लेख अनिवार्यतः आएगा। 'समाचार सुधावर्षण' ने लगातार ब्रिटिश सेना के अत्याचारों की खबर साहस के साथ प्रकाशित की। 26 मई 1857 के अंक में अखबार ने लिखा - "हाल ही में अँग्रेजों ने हमारे धर्म को नष्ट करने का प्रयास किया। अतः ईश्वर उन पर क्रुद्ध है। ऐसा आभास मिलता है कि ब्रिटिश साम्राज्य का अब अंत आ गया। जब दास मालिक को जवाब देने लगता है तब समझ लो मालिक का अंत निकट है। साम्राज्य पर जब संकट पड़ा तब गवर्नर ने अनेक वायदे किए। लेकिन विद्रोही सेना का उन वायदों पर कोई विश्वास नहीं। वे युद्ध को समाप्त करने के पक्ष में नहीं। सच्ची बात तो यह है कि युद्ध में दम आ रहा है और अनेक क्षेत्रों की जनता सेना में मिल रही है।"3 5 जून 1857 के अंक में 'समाचार सुधावर्षण' ने लिखा कि मेरठ और दिल्ली के विद्रोह ने गवर्नर को इतना भयभीत कर दिया है कि उसने अपने सुरक्षा कर्मियों की संख्या बढ़ा दी और राजनिवास के सभी रास्तों को प्रतिदिन रात आठ बजे बंद करने का आदेश दिया। गवर्नर की दयनीयता का आलम यह है कि वह प्रतिदिन दमदम, बैरकपुर में जाकर सिपाहियों से दोनों हाथ जोड़कर कहता-मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगा जिससे आपके धर्म को ठेस पहुँचे। आपका धर्म जो कहे, वही करिए, इसके लिए आपको कोई नहीं रोकेगा। श्याम सुंदर सेन ने समाचार सुधावर्षण के 5, 9 और दस जून 1857 के अंकों में भी विप्लवी सेना की तैयारी और प्रगति के समाचारों को प्रकाशित किया था। उन समाचारों से ब्रिटिश सरकार इतनी डर गई कि गवर्नर जनरल ने 12 जून 1857 को श्याम सुंदर सेन पर मुकदमा चलाने का निश्चय किया।
दिल्ली के अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर ने जब 25 अगस्त 1857 को घोषणा पत्र जारी किया तो उसे भी श्याम सुंदर सेन ने प्रमुखता से प्रकाशित किया। वह घोषणा पत्र भारत के पहले स्वाधीनता संग्राम का विरल दस्तावेज है। उस घोषणा पत्र में बहादुर शाह जफर ने कहा था - "खुदा ने जितनी बरकतें इंसान को अता की हैं, उसमें सबसे कीमती बरकत आजादी है। क्या वह जालिम फिरंगी जिसने धोखा देकर हमसे यह बरकत छीन ली है, हमेशा के लिए हमें उससे महरूम रखेगा? क्या खुदा की मर्जी के खिलाफ इस तरह का काम हमेशा जारी रह सकता है? नहीं, कभी नहीं, फिरंगियों ने इतने जुल्म किए हैं कि उनके गुनाहों का प्याला लबरेज हो चुका है। यहाँ तक कि हमारे पाक मजहब का नाश करने की नापाक ख्वाहिश भी उनमें पैदा हो गई है। क्या तुम अब भी खामोश बैठे रहोगे? खुदा यह नहीं चाहता कि तुम खामोश रहो क्योंकि खुदा ने हिंदुओं-मुसलमानों के दिलों में उन्हें मुल्क से बाहर निकालने की ख्वाहिश पैदा कर दी है और खुदा के फजल और तुमलोगों की बहादुरी के प्रताप से जल्द ही अँग्रेजों को इतनी कामिल शिकस्त मिलेगी कि हमारे इस मुल्क हिंदुस्तान में उनका जरा भी निशान न रह जाएगा। हमारी फौज में छोटे और बड़े की तमीज भुला दी जाएगी और सबके साथ बराबरी का बर्ताव किया जाएगा क्योंकि इस पाक जंग में अपने धर्म की रक्षा के लिए जितने लोग तलवार खीचेंगे, वे सब एक समान यश के भागी होंगे। वे सब भाई हैं। उनमें छोटे-बड़े का कोई भेद नहीं। इसलिए मैं अपने तमाम हिंदू भाइयों से कहता हूँ - उठो और ईश्वर के बताए इस परम कर्तव्य को पूरा करने के लिए मैदान ए जंग में कूद पड़ो।"4
1857 में ही लार्ड केनिंग ने लेखन व मुद्रण की आजादी पर अंकुश लगाने के लिए एडम रेगुलेशन लगा दिया था। उसी के तहत समाचार सुधावर्षण पर मुकदमा चला। लेकिन श्याम सुंदर सेन ने तर्क दिया कि उस समय तक भारत का वैधानिक शासक मुगल बादशाह था और जिसे देश का शासक माना जाता हो, उसके फरमान को छापना देशद्रोह की तकनीकी परिभाषा के अंतर्गत नहीं आता। इस घटना के बाद भी श्यामसुंदर सेन जहाँ भी अँग्रेज सरकार का प्रतिकार हो रहा रहा था, उसके समाचार 'समाचार सुधावर्षण' में छापते रहे।
'समाचार सुधावर्षण' ने 19 सितंबर 1858 के अंक में लिखा - कैप्टन मेह के नेतृत्व में अतिरिक्त सेनाएँ दमदम आ गई हैं और 19वीं रेजीमेंट का एक भाग मेजर हक के नेतृत्व में चिनपुरा भेजा गया है। 29 सितंबर 1858 के अंक में समाचार सुधावर्षण में कहा गया है - "कैप्टन मिनी के 19 सितंबर को रीवा से लिखे गए पत्र से पता चलता है कि कमांडर माइकेल ने मेहू राज्य से सेनाएँ लेकर तात्या टोपे की सेनाओं पर हमला किया। हम लोग लड़ाई जीत गए हैं, विद्रोही हार गए हैं और हमने उनकी कुछ तोपें अपने कब्जे में कर ली हैं। विद्रोही इधर-उधर बिखर गए हैं और उत्तर पूर्व की ओर भाग रहे हैं। हमारी घुड़सवार सेना, जिसके पास बंदूकें और हथियार हैं, पैदल सेना के साथ उनका पीछा कर रही हैं। ये विद्रोहियों के अंतिम दिन हैं। ब्रिगेडियर कारपेंटर ने उनके छिपने की जगहों को नष्ट कर दिया है और उनके एक सरदार रामनाथ सिंह को घायल कर दिया है।" समाचार सुधावर्षण की एक अन्य खबर में कहा गया है - कैप्टन माइकेल ने महू क्षेत्र की सेनाओं के साथ तात्या टोपे के सहयोगियों पर राजगढ़ और रीवा में आक्रमण किया और बीस या तीस तोपें कब्जे में कर लीं पर उनका कोई आदमी हताहत नहीं हुआ है। कहने की जरूरत नहीं कि 1857-58 के दौरान श्याम सुंदर सेन ने अपनी साहसपूर्ण पत्रकारिता से हिंदी पत्रकारिता को वह गौरवशालीपरंपरा दी जिसे हमेशा याद किया जाता रहेगा। श्याम सुंदर सेन ने हिंदी पत्रकारिता के संग्राम को जो दिशा दी, वह सदैव पत्रकारिता के लिए प्रेरणादायी रही। कोलकाता के बंगीय साहित्य परिषद में 'समाचार सुधावर्षण' के चुनिंदा अंक उपलब्ध हैं।

अमृतलाल चक्रवर्ती की पत्रकारिता
अमृतलाल चक्रवर्ती (1863-1936) बांग्लाभाषी होते हुए भी हिंदी के अनन्य सेवी थे। 24 परगना के नादरा गाँव में 1963 में जन्मे अमृतलाल चक्रवर्ती की प्रारंभिक शिक्षा संस्कृत में हुई। गाजीपुर (उत्तर प्रदेश) में अपने मामा के पास काफी दिनों तक रहने और वहाँ स्कूल में पढ़ने के कारण हिंदी पर उनका अधिकार हो गया तो भोजपुरी पर भी। वे भोजपुरी बोल भी लेते थे। हिंदी, अँग्रेजी, फारसी और संस्कृत पर भी उनका अधिकार था और बांग्ला तो खैर उनकी मातृभाषा ही थी। अमृतलाल चक्रवर्ती ने औपचारिक शिक्षा पूरी करने से पूर्व ही इलाहाबाद में प्रकाशित 'प्रयाग-समाचार' पत्र से पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया। कुछ दिन कालाकांकर से प्रकाशित राजा रामपाल सिंह के पत्र 'हिंदोस्थान' में भी वे रहे। कालाकांकर में रहते हुए अमृतलाल चक्रवर्ती को शिक्षा पूरी करने का मन हुआ सो घर गए, फिर कालाकांकर नहीं लौटे। कोलकाता जाकर उन्होंने कानून की डिग्री ली, लेकिन वकालत में नहीं गए। योगेंद्रचंद्र बसु ने 1890 में जब 'हिंदी बंगवासी' निकाला तो उसके संपादन का दायित्व अमृतलाल चक्रवर्ती को सौंपा। यह अखबार डबल रायल आकार के दो बड़े पन्नों में हर हफ्ते प्रकाशित होता था। इसका वार्षिक मूल्य दो रुपए था और प्रसार संख्या दो हजार। उस जमाने में यह संख्या अपने आप में एक कीर्तिमान मानी जाती थी।

'हिंदी बंगवासी' को निकले एक साल ही हुआ था कि अँग्रेज सरकार ने एज आफ कांसेट बिल पारित कर दिया। अमृतलाल चक्रवर्ती ने हिंदी बंगवासी में इसका पुरजोर विरोध किया। सरकार ने उनपर राजद्रोह का मुकदमा चलाया। उन्हें तीन दिनों तक जेल में रहना पड़ा। इस घटना से 'हिंदी बंगवासी' की प्रसिद्धि बढ़ गई। इसकी प्रसार संख्या और बढ़ गई। अमृतलाल चक्रवर्ती दस वर्षों तक हिंदी बंगवासी के संपादक रहे। हिंदी बंगवासी ने हिंदी पत्रकारिता में कई नए प्रयोग किए। समाचारों को विषय और स्थान के अनुसार समायोजित करने की शुरुआत हिंदी बंगवासी ने ही की। तीसरे पृष्ठ का नाम होता था - कलकत्ता और मुफस्सिल। इस पृष्ठ पर कलकत्ता और आस-पास की खबरें छापी जाती थीं। इसमें समाचार भेजनेवाले का नाम भी छापा जाता था। प्रेषक अपना नाम छपने के कारण बेहद सजग रहता था। हिंदी बंगवासी ने विज्ञापन का भी नया तरीका अपनाया। कलकत्ता से बाहर जानेवाली गाड़ियों पर अखबार का पोस्टर चिपका दिया जाता था। अखबार के हर अंक में महापुरुषों की जीवनी सचित्र प्रकाशित होती थी। हर अंक में कोई न कोई कहानी भी छपती थी। अखबार अनुवाद छापने को लेकर भी उदार था। बांग्ला भाषा के महाभारत का अनुवाद हिंदी बंगवासी ने छापकर खासी लोकप्रियता बटोरी। सबसे बड़ी बात यह है कि पूरे अखबार की वर्तनी एक होती थी। अंबिका प्रसाद वाजपेयी ने लिखा है - पत्रकारिता का प्राथमिक विद्यालय था हिंदी बंगवासी। पत्रकार के लिए भाषा की एकरूपता पहली आवश्यकता है। एक शब्द जिस रूप में एक जगह लिखा गया है, उसी रूप में सर्वत्र लिखा जाना चाहिए। यह बात हिंदी बंगवासी में कुछ दिन काम करने से आ जाती थी।
अमृतलाल चक्रवर्ती ने दस साल तक संपादन करने के बाद हिंदी बंगवासी के संचालकों की नीति से असंतुष्ट होकर संपादक पद छोड़ा और श्री वेकटेश्वर समाचार का संपादन करने लगे। उनके संपादन काल में श्री वेंकटेश्वर समाचार ने बहुत प्रसिद्धि पाई। वहाँ भी संपादक के काम में मालिकों के दखल के विरोध में ही श्री चक्रवर्ती को हटना पड़ा। घटना इस प्रकार है - संपादक के पास मालिक से एक मजमून पर एक आदेश प्राप्त हुआ जिसमें लिखा था - आज्ञा श्रींमान छापो। अमृतलाल चक्रवर्ती ने उसे इस टीप के साथ लौटा दिया कि पत्र का विषय और उसे छापने न छापने के संबंध में विचार किए बिना केवल आदेश के कारण वह न छापा जाएगा। अखबार के मालिक सेठ खेमराज इससे बहुत नाराज हुए। उन्होंने श्री चक्रवर्ती को संपादक पद छोड़ने को कहा, साथ ही बालमुकंद गुप्त से संपादक बनने की प्रार्थना की। गुप्त जी ने मना करते हुए उन्हें नसीहत दी कि संपादक के काम में मालिक को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
बालमुकुंद गुप्त जब भारतमित्र के संपादक बने तो अमृतलाल चक्रवर्ती को वहाँ ससम्मान ले गए। अमृतलाल चक्रवर्ती 1907 से 1910 तक भारत मित्र के संपादक रहे। अमृतलाल चक्रवर्ती ने मासिक उपन्यास कुसुम, कलकत्ता समाचार, श्री सनातन धर्म, फारवर्ड, निगभागम चंद्रिका, उपन्यास तरंग और श्रीकृष्ण संदेश पत्रों में भी काम किया। अमृतलाल चक्रवर्ती ने चालीस वर्षों तक हिंदी पत्रकारिता की सेवा की। उस समय के हिंदी सेवी किन कठिनाइयों में काम करके राष्ट्र भाषा का ध्वज उठाए रहते थे, इसकी एक झलक अमृतलालजी के जीवन से मिलती है। उन्हें 1925 में वृंदावन के सोलहवें अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का सभापति बनाया गया था। उस समय उनके पास न तो किराए के पैसे थे, न पहनने के ठीक कपड़े। बड़े आग्रह पर मतवालासंचालक महादेव प्रसाद सेठ से उन्होंने कुछ आर्थिक सहायता स्वीकार की किंतु इस शर्त पर कि वे बदले में उनका कोई काम कर देंगे।
अमृत लाल चक्रवर्ती ने कहा था - दरिद्रता मेरी चिरसंगिनी है, जिसका बड़ा लाडला है स्वाभिमान और छोटी लाडली है भावुकता। शिवपूजन सहाय द्वारा सरस्वती में लिखी गई उनकी जीवनी के मुताबिक अमृतलाल चक्रवर्ती के पास हमेशा दो धोती और दो पंजाबी कुर्ता ही होता था। ओढ़ने के लिए एक फटा-पुराना कंबल और बिछाने के लिए एक टूटी चटाई के अलावा कुछ न था। अमृतलाल चक्रवर्ती कीवह कोरी भावुकता ही तो थी कि राजपूताने की आठ सौ रुपए की मिल की मैनेजरी छोड़कर चंद रुपए की अखबारनवीसी की लेकिन पत्रकारिता भी उन्होंने अपनी शर्तों पर की। समाचार पत्रों के संचालकों की स्वेच्छाचारिता को उन्होंने कभी बर्दाश्त नहीं किया और उनके जीवन में ऐसे अनेक प्रसंग आए कि नौकरी को लात मारकर उन्होंने अपने स्वाभिमान की रक्षा की। मणिमय के यशस्वी संपादक राम व्यास पांडेय ने लिखा है कि यदि अमृतलाल चक्रवर्ती राष्ट्रभाषा हिंदी को छोड़कर अपनी मातृभाषा बांग्ला में लिखते तो बंगाली उन्हें कंगाली न होने देते। चक्रवर्ती जी यदि चाहते तो वकालत के द्वारा पैसे का पहाड़ खड़ा कर लेते और एक अदद नौकरी के लिए उन्हें दर-दर न भटकना पड़ता। न पत्नी का सोने का हार बेचना पड़ा न उन्हें साग-सब्जी भी बेचनी पड़ती और गाँव के लोग उन्हें कुजाति छांटने की धमकी भी न देते।5 अभावों में भी अमृतलाल चक्रवर्ती ने अपनी अखंड शब्द साधना को मद्धिम न पड़ने दिया।
शारदा चरण मित्र और ' देवनागर '
जस्टिस शारदा चरण मित्र (17 दिसंबर, 1848-1917) बंगाल के ऐसे मनीषी थे जिन्होंने भारत जैसे विशाल बहुभाषा-भाषी और बहुजातीय राष्ट्र को एक सूत्र में बाँधने के उद्देश्य से 1905 में 'एक लिपि विस्तार परिषद' की स्थापना की थी। इस संस्था का एक मात्र उद्देश्य भारतीय भाषाओं के लिए एक लिपि को सामान्य लिपि के रूप में प्रचलित करना था। जाहिर है कि शारदा चरण मित्र ने देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता और व्यापकता को भली भाँति समझ लिया था और इसीलिए वे इसे भारतीय भाषाओं की सामान्य लिपि बनाना चाहते थे। एक लिपि विस्तार परिषद के लक्ष्य को आंदोलन की शक्ल देते हुए शारदा चरण मित्र ने परिषद की ओर से 1907 में 'देवनागर' नामक मासिक पत्र निकाला था जो बीच में कुछ व्यवधान के बावजूद उनके जीवन पर्यन्त यानी 1917 तक निकलता रहा। 'देवनागर' के पहले संपादक यशोदानंदन अखौरी थे। इसके मुखपृष्ठ पर यह वाक्य छपा रहता था - 'भारतीय चित्र-विचित्र भाषाओं के लेखों से विभूषित एक अद्वितीय सचित्र मासिक पत्रिका।' 'देवनागर' के प्रवेशांक में उसके उद्देश्यों के बारे में इस तरह प्रकाश डाला गया, "जगद्विख्यात भारतवर्ष ऐसे महाप्रदेश में जहाँ जाति-पांति, रीति-नीति, मत आदि के अनेक भेद दृष्टिगोचर हो रहे हैं, भाव की एकता रहते भी भिन्न-भिन्न भाषाओं के कारण एक प्रांतवासियों के विचारों से दूसरे प्रांतवालों का उपकार नहीं होता। इसमें संदेह नहीं कि भाषा का मुख्य उद्देश्य अपने भावों को दूसरे पर प्रकट करना है, इससे परमार्थ ही नहीं समझना चाहिए, अर्थात मनुष्य को अपना विचार दूसरे पर इसलिए प्रकट करना पड़ता है कि इससे दूसरे का भी लाभ हो किंतु स्वार्थ साधन के लिए भी भाषा की बड़ी आवश्यकता है। इस समय भारत में अनेक भाषाओं का प्रचार होने के कारण प्रांतिक भाषाओं से सर्वसाधारण का लाभ नहीं हो सकता। भाषाओं को शीघ्र एक कर देना तो परमावश्यक होने पर भी दुस्साध्य सा प्रतीत होता है। इस पत्र का मुख्य उद्देश्य है भारत में एक लिपि का प्रचार बढ़ाना और वह एक लिपि देवनागराक्षर है। देवनागर का व्यवहार चलाने में किसी प्रांत के निवासी का अपनी लिपि व भाषा के साथ स्नेह कम नहीं पड़ सकता। हाँ, यह अवश्य है कि अपने परिचित मंडल को बढ़ाना पड़ेगा। पहले इस पत्र को पढ़ने में पाठकों को बड़ी नीरसता जान पड़ेगी किंतु इस दूरदर्शिता, उपयोगिता तथा आवश्यकता का विचार कर सहृदय पाठकगण अनंत भविष्यत के गर्भ में पड़े हुए पचास वर्ष के अनंतर उत्पन्न होने के शुभ फल की आशा से इस क्षुद्र भेंट को अंगीकार करेंगे।"6


देवनागर में बांग्ला, उर्दू, नेपाली, उड़ीया, गुजराती, मराठी, कन्नड़, तमिल, मलयालम और पंजाबी आदि की रचनाएं देवनागरी लिपि में लिप्यंतरित होकर छपती थीं। उस पत्र में पं. रामावतार शर्मा, डा. गणेश प्रसाद, शिरोमणि अनंतवायु शास्त्री, अक्षयवट मिश्र, कोकिलेश्वर भट्टाचार्य और पांडेय लोचन प्रसाद जैसे विशिष्ट लोग लिखते थे। देवनागर में प्रकाशित रिपोर्टों से पता चलता है कि अनेक अहिंदीभाषी विद्वान खुलकर देवनागरी तथा हिंदी का पक्ष-समर्थन करने लगे थे। सोचनेवाली बात है कि शारदाचरण मित्र ने देवनागरी तथा हिंदी के पक्ष में उस काल में किस तरह अन्य प्रांतों में भी एक अनुकूल वातावरण का निर्माण किया था।
'देवनागर' का परिवेश भारत व्यापी था। गोपाल कृष्ण गोखले, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, मोतीलाल घोष जैसे मनीषियों ने भी 'देवनागर' के प्रयास की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। बाल मुकुंद गुप्त ने 'भारत मित्र' में लेख लिखकर 'देवनागर' के प्रयास की सराहना की थी और शारदा चरण मित्र के आंदोलन के औचित्य को प्रकाशित किया था। गुप्त जी ने 'जमाना'के अप्रैल-मई 1907 के अंक में भी देवनागरी के पक्ष में लंबा लेख लिखा था। शारदा चरण मित्र को विश्वास था कि पाँच वर्ष में न हो, दस वर्ष में न हो, किंतु किसी न किसी समय संपूर्ण भारतवर्ष में एक लिपि प्रचलित होगी ही और तब भारतीय भाषाएँ और साहित्य एक हो जाएँगी। शारदा चरण मित्र ने कहा था - "इस समय हमलोग अन्य प्रदेश के साहित्य में प्रायः निपट अनभिज्ञ हैं, इस समय कितने ही विद्वान बंगाली लोग तुलसीदास के भी प्रबंध नहीं पढ़ सकते। यह क्या सामान्य दुःख की बात है, महाकवि चंद के ग्रंथों की बड़े-बड़े काव्यों के साथ तुलना की जाती है, यह राजपूत लोगों का इलियड है किंतु कितने ही इसे जानते तक नहीं। इधर राजनीतिक विषय को लेकर समस्त भारतवर्ष को आलोड़ित करने की कामना तो हम करते हैं किंतु आपस की भाषाओं को समझने के लिए कोई प्रधान उपाय करने के विषय में हमलोग कुछ भी चेष्टा नहीं करते।" 7
'देवनागर' की दृष्टि व्यापक थी। उसकी व्यापकता का अंदाजा पत्र में चित्र-विचित्र शीर्षक से प्रकाशित टिप्पणियों को ही देखकर लगाया जा सकता है। शारदा चरण मित्र की दृष्टि केवल भारत पर नहीं थी, अपितु संपूर्ण पूर्वी एशिया पर थी। इस संदर्भ में देवनागर में प्रकाशित उनके लेख 'भारतवर्ष में बौद्ध धर्म' की ये पंक्तियां द्रष्टव्य हैं-वस्तुतः समस्त प्राचीन और मध्य एशिया में अभी एक ही धर्म प्रचलित है और उसे हिंदू अथवा भारतवर्ष का धर्म कहना चाहिए। बाहर से कुछ विभिन्नता दिखने पर भी मूल और अंतःप्रकृति सबकी एक है। बौद्ध धर्म भारत का धर्मज्ञान है। बौद्ध धर्म में आस्था प्रदर्शित कर हम प्राचीन और मध्य एशिया में भी एकता स्थापित कर सकेंगे। शारदा चरण मित्र 1904 से 1908 तक कलकत्ता हाईकोर्ट के न्यायाधीश रहे। देवनागरी के भारतव्यापी प्रचार-प्रसार के लिए शारदाचरण मित्र इतने कटिबद्ध थे कि देवनागर वे लगातार घाटे में निकालते रहे और उस घाटे को अपने निजी कोष से भरते रहे।
रामानंद चट्टोपाध्याय और ' विशाल भारत '
बंगाल के जिन मनीषियों ने हिंदी की अप्रतिम सेवा की, उनमें एक प्रमुख नाम रामानंद चट्टोपाध्याय (1865-1943) का है। रामानंद बाबू ने घाटा सहकर भी हिंदी मासिक 'विशाल भारत' निकाला और उसके संपादकों को पूरी स्वतंत्रता दी। वैसे अँग्रेजी और बांग्ला की पत्रकारिता में भी उनका बड़ा अवदान है। रामानंद बाबू 1895 में जब कायस्थ पाठशाला इलाहाबाद में प्रिंसिपल बने तो उस कालेज से 'कायस्थ समाचार' नामक एक उर्दू पत्र प्रकाशित होता था। इसका संपादनभार रामानंद बाबू पर ही आया। उन्होंने उसका रूप ही बदल दिया, उर्दू के स्थान पर उसे अँग्रेजी का पत्र बना दिया तथा उसका उद्देश्य शिक्षाप्रचार रखा। इलाहाबाद जाने से पहले रामानंद बाबू प्रथम श्रेणी में एम.ए. करने के बाद 1887 में कलकत्ता के सिटी कालेज में प्राध्यापक बने थे। उसी दौरान वे केशवचंद्र सेन के संपर्क में आए और ब्रह्मसमाजी हो गए थे।
रामानंद बाबू ने 1901 में इंडियन प्रेस के चिंतामणि घोष के सहयोग से बांग्ला मासिक 'प्रवासी' निकाला। उसके कुछ समय बाद मतभेद के कारण उन्हें कायस्थ कालेज से इस्तीफा देकर कलकत्ता वापस आना पड़ा। बंग-भंग के समय चले आंदोलन से रामानंद बाबू खुद को अलग न रख सके। अतः 1907 में फिर इलाहाबाद आए और 'माडर्न रिव्यू' प्रकाशित करने लगे। 'मार्डन रिव्यू' की गिनती अँग्रेजी संसार के आधे दर्जन श्रेष्ठ पत्रों में की जाती थी। कई प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय लेखक 'माडर्न रिव्यू' में लेख लिखने में अपना गौरव मानते थे। रामानंद बाबू ने ही सबसे पहले रवींद्रनाथ टैगोर को अँग्रेजी जगत के सम्मुख प्रस्तुत किया। रवि बाबू की सबसे पहली अँग्रेजी रचना 'माडर्न रिव्यू' में ही प्रकाशित हुई। अमेरिका के पादरी जे.टी.संडरलैंड की पुस्तक 'इंडिया इन बॉण्डेज' को उन्होंने 'माडर्न रिव्यू' में धारावाहिक रूप में और बाद में 'प्रवासी' प्रेस से पुस्तक रूप में प्रकाशित की। यह पुस्तक जब्त कर ली गई और रामानंद बाबू को पुस्तक के प्रकाशन के लिए दंडित होना पड़ा। सर यदुनाथ सरकार और मेजर वामनदास बसु के ऐतिहासिक शोध विषयक लेख 'माडर्न रिव्यू' में छपे। 'माडर्न रिव्यू' के कुछ अंकों ने ही देश- विदेश में अपना प्रभाव फैला लिया। उनके बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर तथा उनकी आलाचनाओं से विचलित होकर तत्कालीन सरकार ने उन्हें तुरंत उत्तर प्रदेश छोड़ने का आदेश दिया अत: वे पुन: कोलकात्ता वापस आ गए।
रामानंद बाबू के पत्रकार और गद्यलेखक रूप को देशव्यापी ख्याति मिली। उनकी शैली तेजयुक्त, प्रवाहपूर्ण और निर्लिप्त थी। रामानंद बाबू की तीन पुस्तकें - 'राजा राममोहन राय', 'आधुनिक भारत' तथा 'स्वशासन की ओर' भी बहुत चर्चित कृतियाँ रही हैं। रामानंद बाबू कुशल पत्रकार और लेखक ही नहीं, वरन्‌ सच्चे समाजसुधारक भी थे। 1826 में राष्ट्रसंघ (लीग ऑव नेशन्स) की बैठक में उपस्थित होने के लिए रामानंद बाबू आमंत्रित किए गए। उस बैठक में वे अपने ही खर्च से गए। सरकारी खर्च से यात्रा करना इसीलिए अस्वीकार कर दिया ताकि उनके स्पष्ट और निर्भीक विचारों पर किसी प्रकार भी आर्थिक दबाव की आँच न आने पाए। 1929 में लाहौर कांग्रेस के अवसर पर जात-पाँत तोड़क मंडल के अधिवेशन का सभापतित्व उन्होंने किया।
'प्रवासी' और 'माडर्न रिव्यू' के संपादक रामानंद बाबू हिंदी की व्यापकता से भली-भांति वाकिफ थे। देश के ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक अपने विचार पहुँचाने के लिए 1928 में उन्होंने हिंदी मासिक 'विशाल भारत' निकाला। बनारसी दास चतुर्वेदी उसके संस्थापक संपादक हुए। जनवरी 1928 में 'विशाल भारत' का प्रवेशांक निकला। 144 पृष्ठों का। साहित्य, समाज सुधार, राजनीति, इतिहास और अर्थशास्त्र पर पठनीय लेखों से सुसज्जित। प्रवेशांक में चतुर्वेदी जी ने पत्र के उद्देश्य के बारे में लिखा - 'विशाल भारत' के संचालक श्री रामानंद चट्टोपाध्याय लगभग चालीस वर्षों से पत्र-संपादन का कार्य कर रहे हैं। हिंदी जनता को उनके 'माडर्न रिव्यू' तथा 'प्रवासी' का परिचय देने की आवश्यकता नहीं। जिन सिद्धांतों तथा विचारों का प्रचार आप अँग्रेजी तथा बांग्ला पत्र द्वारा करते हैं, उन्हीं को अब आप राष्ट्रभाषा हिंदी द्वारा जनता के सम्मुख रखना चाहते हैं। 'विशाल भारत' की आयोजना का एक मात्र उद्देश्य यही है।8 बनारसी दास चतुर्वेदी के संपादन में 'विशाल भारत' जल्द की हिंदी का सर्वश्रेष्ठ मासिक बन गया। शुरू के तीन वर्षों में ही उसने साहित्यांक, प्रवासी अंक तथा कला अंक जैसे विशेषांक निकालकर अपनी धाक जमा ली।
कतिपय मामलों पर बनारसी दास चतुर्वेदी से रामानंद बाबू के मतभेद हुए किंतु कभी भी रामानंद बाबू ने बनारसी दास जी की संपादकीय स्वायत्तता में हस्तक्षेप नहीं किया। रामानंद बाबू जब सूरत में हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने तो 'विशाल भारत' में उनकी कटु आलोचना छपी। रामानंद बाबू ने उसका उत्तर लिखकर दिया और उसे भी चतुर्वेदी जी ने छापा। 1937 में बनारसी दास चतुर्वेदी के आग्रह पर 'विशाल भारत' का संपादन करने के लिए अज्ञेय कलकत्ता आ गए। अज्ञेय 'विशाल भारत' में डेढ़ वर्ष तक रहे पर उस अल्प अवधि में ही उन्होंने अपनी अमिट छाप छोड़ी।
अज्ञेय का भी रामानंद बाबू से विरोध हुआ। हिंदी के स्वाभिमान के सवाल पर। उस प्रसंग का विवरण खुद अज्ञेय ने 'कलकत्ते की याद' शीर्षक लेख में इस तरह दिया है - " प्रवासी तथा माडर्न रिव्यू में रामानंद चट्टोपाध्याय की कुछ टिप्पणियां प्रकाशित हुईं जिनमें हिंदी के प्रति अवज्ञा का भाव था। इससे क्लेश तो बहुत से लोगों को हुआ, लेकिन बोला कोई नहीं क्योंकि रामानंद बाबू की और उनके द्वारा संपादित पत्रों की बहुत धाक थी। अपनी अनुभवहीनता में मुझे लगा कि उनके आरोपों का खंडन आवश्यक है और मैंने 'विशाल भारत' की संपादकीय टिपप्णियों में उनके तर्कों का उत्तर भी दे दिया। सप्ताह-भर बाद मुझे रामानंद बाबू का हाथ का लिखा पत्र मिला। उन्होंने मेरे तर्कों का जवाब तो दिया ही था, पत्र के अंत में उन्होंने दो बातें और लिखी थीं। एक तो उन्होंने मुझे याद दिलाया था कि वह स्वयं बंगाली होकर हिंदी का साहित्यिक पत्र निकाल रहे हैं और लगातार उस पर घाटा उठा रहे हैं। उन्होंने मुझसे पूछा था कि बहुत से हिंदीभाषी धनिक और सेठ भी तो हैं, क्या एक भी ऐसा हिंदी भाषी व्यक्ति है जो बांग्ला में पत्र निकाल रहा हो-उस पर घाटा उठाना तो दूर? दूसरे, उन्होंने मुझे स्मरण दिलाया था कि 'विशाल भारत' प्रवासी प्रेस से निकलता है जिसके मालिक वे स्वयं हैं। क्या कोई दूसरा ऐसा मालिक भी होगा जो अपने संगठन के किसी कर्मचारी को यह अधिकार दे कि वह उसी के पत्र में उसी की आलोचना करे। पत्र के उत्तर में मैंने लिखा कि 'विशाल भारत' की टिप्पणी में जो कुछ लिखा गया है, उसे मैं ठीक मानता हूं और उनके पत्र के बाद भी मुझे कुछ बदलने की आवश्यकता नहीं जान पड़ी। इस बात को मैंने स्वीकार किया कि हिंदी पत्रकारिता में उन्होंने जो योगदान किया है, उसके तुल्य किसी हिंदी भाषी ने बांग्ला के लिए कुछ नहीं किया और यह भी मैंने स्वीकार किया कि 'विशाल भारत' के संपादक को उन्होंने जो स्वतंत्रता दी है, उसके लिए भी उनका सम्मान होना चाहिए। मैंने यह भी जोड़ दिया कि मेरे मन में श्रद्धा और भी अधिक होती अगर यह बात स्वयं उन्होंने मुझे न लिखी होती और दूसरे ही उसका उल्लेख करते।"इस पत्र प्रकरण के बाद अज्ञेय लिखते हैं - 'मैं अपने को उतना ही स्वाधीन मानता रहा जितना पहले मानता था और जितना संपादक के नाते अपने को हमेशा रखता रहा हूं।' संपादकीय स्वतंत्रता का जो सम्मान रामानंद बाबू करते थे, उसका यह एक उदाहरण है। 'विशाल भारत' ने जो श्रेष्ठता तथा ऊंचाई अर्जित की, उसके पीछे एक कारण यह भी था कि रामानंद बाबू संपादकीय स्वतंत्रता का पूरा सम्मान करते थे। उनकी इस भूमिका को कभी लघु करके नहीं देखा जा सकता।
चिंतामणि घोष और ' सरस्वती '
इंडियन प्रेस, प्रयाग के मालिक चिंतामणि घोष ने प्रथम सर्वश्रेष्ठ मासिक 'सरस्वती' द्वारा और हिंदी के अनेक ग्रंथों को छापकर हिंदी साहित्य की जितनी सेवा की है, उतनी सेवा हिंदी भाषा भाषी किसी प्रकाशक ने शायद ही की होगी। चिंतामणि घोष ने 1884 में इंडियन प्रेस की स्थापना की और 1899 में नागरी प्रचारिणी सभा से प्रस्ताव किया कि सभा एक सचित्र मासिक पत्रिका के संपादन का भार ले जिसे वे प्रकाशित करेंगे। नागरी प्रचारिणी सभा ने इसका अनुमोदन तो कर दिया किंतु संपादन का भार लेने में अपनी असमर्थता जताई। अंत में संपादन का भार एक समिति को सौंपने पर सहमति बनी। इस समिति में पाँच लोग थे। वे थे बाबू श्याम सुंदर दास, बाबू राधाकृष्ण दास, बाबू कार्तिक प्रसाद, बाबू जगन्नाथ दास और किशोरीलाल गोस्वामी। और इस तरह 'सरस्वती' की योजना को अंतिम रूप मिला। जनवरी 1900 में इसका प्रकाशन प्रारंभ हुआ। प्रवेशांक के मुखपृष्ठ पर पाँच चित्र थे-सबसे ऊपर वीणावादिनी सरस्वती का चित्र था। ऊपर बाईं ओर सूरदास और दाईं ओर तुलसीदास तथा नीचे बाईं ओर राजा शिव प्रसाद सितारेहिंद और बाबू हरिश्चंद्र के चित्र थे। पत्रिका के नाम के नीचे लिखा रहता था-काशी नागरी प्रचारिणी सभा के अनुमोदन से प्रतिष्ठित। पत्रिका के प्रकाशक चिंतामणि बाबू ने पत्रिका का नीति वक्तव्य इस तरह घोषित किया था, "परम कारुणिक सर्व शक्तिमान जगदीश्वर की असीम अनुकम्पा ही से ऐसा अनुपम अवसर आकर प्राप्त हुआ है कि आज हम लोग हिंदी भाषा के रसिक जनों की सेवा में नए उत्साह से उत्साहित हो एक नवीन उपहार लेकर उपस्थित हुए हैं जिसका नाम सरस्वती है। इसके नवजीवन धारण करने का केवल यही मुख्य उद्देश्य है कि हिंदी रसिकों के मनोरंजन के साथ ही भाषा के सरस्वती भंडार की अंगपुष्टि, वृद्धि और यथार्थ पूर्ति हो तथा भाषा सुलेखकों की ललित लेखनी उत्साहित और उत्तेजित होकर विविध भावभरित ग्रंथराजि को प्रसव करे।"10
'सरस्वती' के एक साल बीतते न बीतते यह स्पष्ट हो गया कि संपादक मंडल से काम नहीं चलेगा तो जनवरी 1901 से बाबू श्याम सुंदर दास उसके संपादक हो गए। 1902 के आखिर में बाबू श्याम सुंदर दास ने आगे से संपादन करने में असमर्थता जताई और उन्होंने सरस्वती प्रेस के मालिक चिंतामणि घोष से नए संपादक के रूप में महावीर प्रसाद द्विवेदी का नाम सुझाया। चिंतामणि घोष द्विवेदी जी के महत्व से परिचित थे। उन्होंने द्विवेदी जी को आमंत्रित किया और द्विवेदी जी ने रेलवे की पौने दो सौ रुपए की स्थापित नौकरी छोड़कर इक्कीस रुपए मासिक के वेतन पर 'सरस्वती' के संपादन का दायित्व स्वीकार किया। द्विवेदी जी जितने बड़े कवि, निबंधकार, समीक्षक और अनुवादक थे, उतने ही श्रेष्ठ संपादक भी सिद्ध हुए। इसीलिए उस युग को द्विवेदी युग के नाम से जाना जाता है। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 1903 के जनवरी महीने में 'सरस्वती' का संपादक बनने के साथ ही उसे ज्ञान के सभी अनुशासनों का खुला मंच तो बनाया ही, यह भी सुनिश्चित किया कि प्रकाशन के पूर्व हर रचना की भाषा व्याकरण की दृष्टि से शास्त्रसम्मत हो। उन्होंने भरसक कोशिश की कि पूरी पत्रिका एक ही वर्तनी में निकले।
द्विवेदी जी ने 1904 में जब नागरी प्रचारिणी सभा की खोज संबंधी रिपोर्ट की आलोचना की तो सभा ने पत्रिका के प्रकाशक चिंतामणि घोष को लिखा कि पत्रिका से सभा का अनुमोदन हटा लिया जाए। चिंतामणि घोष संपादक की स्वतंत्रता के इतने बड़े हिमायती थे कि उन्होंने द्विवेदी जी को कुछ कहने से ज्यादा बेहतर सभा से नाता तोड़ना समझा। 1905 में नागरी प्रचारिणी सभा के 12वें वार्षिक विवरण में पृष्ठ 38 पर इसका इस तरह उल्लेख किया गया है, "मासिक पत्रों में अब सबसे श्रेष्ठ सरस्वती है। यद्यपि कई कारणों से अब इस पत्रिका के साथ इस सभा का कोई संबंध नहीं है। सभा को दुःख है कि सरस्वती के प्रकाशक ने उसमें अपवादपूर्ण लेखों को रोकना उचित न जानकर नागरी प्रचारिणी सभा से अपना संबंध तोड़ना उचित समझा।"11
भाषा-परिमार्जन के साथ ही सर्जनात्मक साहित्य की हर विधा से लेकर साहित्य समालोचना के लिए द्विवेदी जी के संपादन में 'सरस्वती' ने युगांतकारी भूमिका निभाई। उदाहरण के लिए सिर्फ कहानी विधा को लें तो रामचंद्र शुक्ल की कहानी 'ग्यारह वर्ष का समय' 1903 में द्विवेदी जी के संपादन में 'सरस्वती' में ही छपी। बंग महिला (राजेंद्रबाला घोष) की कहानी 'कुंभ की छोटी बहू' 'सरस्वती' के सितंबर 1906 के अंक में छपी। 'सरस्वती' में 1909 में वृंदावन लाल वर्मा की कहानी 'राखी बंद भाई' और 1915 में प्रेमचंद की पहली हिंदी कहानी 'सौत' और 1916 में उन्हीं की बहुचर्चित कहानी 'पंच परमेश्वर' छपी। 1915 में चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी 'उसने कहा था' 'सरस्वती' में छपी। किशोरीलाल गोस्वामी की कहानी 'इंदुमती' और 'गुलबहार' तथा भगवान दास की कहानी 'प्लेग की चुड़ैल' पहले ही 'सरस्वती' में छप चुकी थीं। 'सरस्वती' की संपादकीय टिप्पणियां और समालोचनाएं महावीर प्रसाद द्विवेदी स्वयं लिखते थे और उनकी समालोचना की साख इतनी थी कि जिस भी किताब की वे प्रशंसा कर देते थे, उसकी प्रतियाँ देखते-देखते बिक जाती थीं।
साहित्य की विधाओं-कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध, जीवनी, आलोचना के समांतर समाज शास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र, नागरिक शास्त्र, इतिहास और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान को भी पत्रिका में महत्व दिया और इस तरह उसका फलक विस्तृत कर दिया। अनेक रचनाकारों को सबसे पहले द्विवेदी जी ने ही अवसर दिया और जिनकी कविता या कहानी या लेख 'सरस्वती' में छपते थे, वे भी चर्चा में आ जाते थे। 'सरस्वती' के रचनाकारों में श्याम सुंदर दास, कार्तिक प्रसाद खत्री, राधा कृष्ण दास, जगन्नाथ दास रत्नाकर, किशोरीलाल गोस्वामी, संत निहाल सिंह, माधव राव सप्रे, राम नरेश त्रिपाठी, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध, मैथिली शरण गुप्त, गया प्रसाद शुक्ल स्नेही, जय शंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, महादेवी वर्मा, राय कृष्ण दास, माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, रामधारी सिंह दिनकर जैसे साहित्यकार शामिल थे।
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने दिसंबर 1920 में 'सरस्वती' से विदा ली। उनका अंतिम संपादकीय 'संपादक की विदाई' शीर्षक से जनवरी 1921 की 'सरस्वती' में छपा। उसमें द्विवेदी जी ने लिखा, "सरस्वती को निकलते पूरे 21 वर्ष हो चुके। जिस समय उसका आविर्भाव हुआ था, उस समय हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य की क्या दशा थी, यह बात लोगों से छिपी नहीं है। जिन्होंने उस समय को भी देखा है और जो इस समय को भी देख रहे हैं। 'सरस्वती' के आकार-प्रकार, उसके ढंग और लेखन शैली आदि को लोगों ने बहुत पसंद किया-अच्छी मासिक पुस्तक में जो गुण होने चाहिए, उसका शतांश भी मुझमें नहीं।..." इसी टिप्पणी में द्विवेजी जी ने चिंतामणि घोष के बारे में लिखा था, "मैं सेवा का अर्थ अच्छी तरह जानता हूँ। अतएव मैं कह सकता हूँ कि मैंने सेवा भाव से प्रेरित होकर सरस्वती का संपादन नहीं किया। हिंदी की सेवा मैंने तो नहीं, चिंतामणि घोष ने अवश्य की है। जन्मभूमि उनकी बंगदेश है और मातृभाषा बांग्ला। यदि उनमें उदारता की मात्रा इतनी अधिक न होती तो सरस्वती का विसर्जन कभी का हो गया होता।" 'सरस्वती' 1975 तक निकलती रही। दिसंबर 2013 में इलाहाबाद में चिंतामणि घोष की प्रतिमा लगाकर देश ने उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की। इलाहाबाद में घोष बाबू की प्रतिमा का अनावरण राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने किया।
इस तरह हम पाते हैं कि हिंदी पत्रकारिता को आदि काल से ही बांग्लाभाषी सींचते आ रहे हैं। निकट अतीत में 'माया' जैसी राष्ट्रीय पत्रिका इलाहाबाद के जिस मित्र प्रकाशन समूह से छपती थी, उसके कर्ता-धर्ता बांग्लाभाषी क्षितिंद्र मोहन मित्र ही थे। 'रविवार' जैसी पत्रिका आनंद बाजार पत्रिका समूह से ही निकली थी। 'संडे इंडियन' तथा 'राष्ट्रीय सहारा' निकालनेवाले भी मूलतः बांग्लाभाषी हैं। परितोष चक्रवर्ती और कल्लोल चक्रवर्ती से लेकर सुमन चट्टोपाध्याय तक दर्जनों बांग्लाभाषी हिंदी पत्रकारिता को नई धार देने में जुटे हुए हैं।

संदर्भ
1. भारतीय पत्रकारिताः नींव के पत्थर, डा. मंगला अनुजा, मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी, संस्करण-1996, पृष्ठ-15
2. वही, पृष्ठ-16
3. वही, पृष्ठ-72
4. 1857, नवजागरण और भारतीय भाषाएँ , सं. शंभुनाथ. प्रकाशक-केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा, संस्करण-2008, पृष्ठ-228
5. हिंदी साहित्यः बंगीय भूमिका, सं.- डा. कृष्णबिहारी मिश्र व राम व्यास पांडेय, मणिमय, कोलकाता, संस्करण-1983, पृष्ठ-102
6. हिंदी पत्रकारिताः जातीय चेतना और खड़ी बोली साहित्य की निर्माण-भूमि, कृष्ण बिहारी मिश्र, भारतीय ज्ञानपीठ, संस्करण-2004, पृष्ठ-321
7. हिंदी पत्रकारिताः जातीय चेतना और खड़ी बोली साहित्य की निर्माण-भूमि, कृष्ण बिहारी मिश्र, भारतीय ज्ञानपीठ, संस्करण-2004, पृष्ठ-331
8. पहला संपादकीय, विजय दत्त श्रीधर, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-2011, पृष्ठ-70
9. हिंदी साहित्यः बंगीय भूमिका, सं.- डा. कृष्णबिहारी मिश्र व राम व्यास पांडेय, मणिमय, कोलकाता, संस्करण-1983, पृष्ठ-397
10. भारतीय पत्रकारिताः नींव के पत्थर, डा. मंगला अनुजा, मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी, संस्करण-1996, पृष्ठ-215-216
http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=6578&pageno=1

कृपाशंकर चौबे  लेखक को जानिए 
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