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Sunday, August 22, 2021

Bengali people do not deserve survival.Palash Biswas

 Bengalies do not deserve survival

Palash Biswas




I am enlightened by Partha Banerjee speaking live on writings.It was a very relevant talk. I have commented on some specific points and I would like the urgent. Discussion on language,literature and culture to continue.


Banglore inherited colonial racist superiority complex. The know everything in the world but do not understand much about Bengali language, literature and culture. Because they have been uprooted in their homeland,they lack originality, courage, honesty and let me say,the command of language.


Because of colonial and communal psyche , they have disowned the refugees from East Bengal,though they show their love for Bangladesh. They have to do nothing about the outcaste Bengali refugees evicted and ejected out of Bengali  history and geography. It is greater disadvantage to lose the majority of Bengaluru as they have lost their identity.


I dare to be outspoken as West Bengal based Bengaluru do not have enough respect for other Indian languages, not even the Bengali dialects,the diversity and plurality of this geopolitics.


Vibhuti Bhushan Bandopaddhyay is perhaps the only creative writer in the world who has not created villains in his works. Aaranyak is worth nobel prize.


The Benglies who have disowned the partition victims ,their own blood have lost the vision as well as philosophy apart from the originally which were the assets of Tagore, Sharat, Shamsuddin,Nazrul, Vibhuti, Tarashankar and Manik Bandopaddhyay.


Bengalies belong to the human species which has finished and do not deserve survival. Iam sorry.

Thursday, August 19, 2021

इसे कहते हैं ज़िंदा दफनाना।पलाश विश्वास

 

इसे कहते हैं ज़िंदा दफनाना

पलाश विश्वास



आज फिर कोलकाता से गुरुजी जयनारायण का फोन आया। कोलकाता जनसत्ता में सिर्फ मार्केटिंग विभाग है। दो इंजीनियर हैं। बिल्डिंग है,सम्पादकीय नहीं है।प्रेस लखनऊ चला गया।दिल्ली से पीडीएफ आता है।


कोलकाता महानगर ने हिंदी,बांग्ला,ओड़िया, उर्दू, गुरमुखी और उर्दू,किसी भी भाषा के अखबार में किसी की स्थायी नौकरी नहीं है।सभी पत्रकार संविदा पर है।


योग्य,प्रशिक्षित और पढ़े लिखे पत्रकारों में कोलकाता में दिहाड़ी मजदूरी तो क्या बीस रुपये का भी काम नहीं है।


जिंदगीभर किसी और पेशा या नौकरी की कोशिश न करके 5 दशक पत्रकारिता को मिशन मानकर सबकुछ दांव पर लगाकर सबकुछ हारने के बावजूद अपने फैसले पर कभी अफसोस नहीं रहा।


जनसत्ता में या किसी भी अखबार में डेस्क पर काम करने वाले दिहाड़ी मजदूर से बुरी हालत में होते हैं। सम्पादक ऐसे लोग बनाये जाते हैंजिन्होने एक दिन भी अखबार नहीं निकला। उपसम्पादक के लिए आईएएस जैसी परीक्षा,लेकिन तमाम बड़े पदों के लिए बिना परीक्षा,बिना अनुभव वर्चस्ववादी तबके के खास जाति के लोग सीधे सम्पादक बना दिये जाते हैं। यही जीवन के हर क्षेत्र का किस्सा है।


मीडिया में बचे हुए साथियों की इस दुर्गति और आदरणीय प्रभाष जोशी के अखबार जनसत्ता की इस दशा पर बहुत दुखी हूं।


ओम थानवी ने हमारी कभी सुनी नहीं। लेकिन उनके जमाने में भी यह हाल नहीं हुआ।


जाति, वर्ण और नस्ल देखकर सम्पादक चुनने की परंपरा ने जनसत्ता जैसी संस्था, नई दुनिया जैसे अखबार और पूरी हिंदी पत्रकारिता का बेड़ा गर्क कर दिया।


कोलकाता में जिस तरीके से मुझे मेरी औकात में रखने की तिकड़में भिड़ाई गई और हार न मानते हुए प्रभाष जी से और बाकी सम्पादकों और मैनेजरों से लड़ते भिड़ते हुए हम जनपक्षधर पत्रकारिता का विकल्प बनाने की कोशिश करते रहे, उसकी कथा कम रोमांचक और कम दुःखद नहीं है। हमने कभी किसीको बख्शा भी नहीं है।


इंडिया इंटरनेशनल सेंटर दिल्ली हो या हंस का पन्ना या कोलकाता,हम पिछले बीस साल से हिंदी समाज से अपनी गौरवशाली विरासत सहेजने की अपील करते रहे हैं। बांग्ला समाज से तो हम बहिस्कृत थे ही। वहां का कूलित वर्चस्व तो निरंकुश है ही।


बदलाव की उम्मीद तो फिर भी गाय पट्टी से ही थी क्योंकि यहां सामाजिक ताकतें और लोक अभी ज़िंदा है।बस,यही पूंजी है,जिसके भरोसे न सिर्फ ज़िंदा हूँ, हाशिये पर होबे के बावजूद सक्रिया हूँ।


पत्रकारिता के मिशन और साहित्य का क्या हुआ,कहने की जरूरत नहीं है,लेकिन हमारा मिशन जारी है।


मुख्यधारा की पत्रकारिता में जो पेशेवर लोकतंत्र रहा है, उसका असल चेहरा यही है। इसमें काम करना पहले कठिन था,अब असम्भव। इसीलिए हम लोग सत्तर के दशक से वैकल्पिक मीडिया बनाने का प्रयास करते रहे हैं।


जनसत्ता में देशभर के जनपक्षधर जुझारू पत्रकारों को बुलाकर उन्हें अच्छे वेतन देकर फ्रिज में डालने की रीति रही है। व न किसी दूसरे अख़बर्बमें लिख सकते थे अपने अखबार में। समझौता दूसरे अखबारों में न लिखने का होता था और अपने अखबार में सिर्फ रिपोर्टर और प्रधान संपादक लिख सकते थे।डेस्क के लोगों से कहा जाता था कि सम्पादक लिख नहीं सकता।डेस्क से रिपोर्टर बनते नहीं। उनकी दक्षता से अखबार चलता,लेकिन उन्हें हर हाल में लिखने का कोई मौका भी नहीं दिया जाता।पहले से बनी उनकी पहचान और हैसियत खत्म कर दी जाती। हम वैकल्पिक मीडिया और ब्लॉगिंग से अब तक जिंदा हैं और हमारी जनपक्षधरता बची हुई है।लेकिन इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। वेटनबन्द होते ही सामाजिक आर्थिक असुरक्षा के अंधकार के सिवाय कुछ नहीं बचता।


आपके शहर और सूबे में पत्रकारों और पत्रकारिता के क्या हाल हैं?सबकुछ ठीक ठाक? अच्छे दिनों की तरह?