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Thursday, May 14, 2015

कनहर बांध – मुन्सिफ का सच सुनहरी स्याही में छिप गया/ वैसे वो जानता है ख़तावार कौन है

कनहर बांध – मुन्सिफ का सच सुनहरी स्याही में छिप गया/ वैसे वो जानता है ख़तावार कौन है

Posted:Wed, 13 May 2015 15:13:20 +0000
कनहर बांध के मामले में एन.जी.टी. (हरित कोर्ट) द्वारा सरकार का पर्दाफाश लेकिन निर्णय विरोधाभासी कनहर बांध- नये निर्माण पर रोक, नए सिरे से पर्यावरण – वन अनुमति आवश्यक कनहर बांध के मामले में उच्च...

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कनहर बांध – मुन्सिफ का सच सुनहरी स्याही में छिप गया/ वैसे वो जानता है ख़तावार कौन है

कनहर बांध के मामले में एन.जी.टी. (हरित कोर्ट) द्वारा सरकार का पर्दाफाश लेकिन निर्णय विरोधाभासी

कनहर बांध- नये निर्माण पर रोक, नए सिरे से पर्यावरण – वन अनुमति आवश्यक

कनहर बांध के मामले में उच्च स्तरीय जांच कमेटी का गठन

aklu1-300x200 कनहर बांध - मुन्सिफ का सच सुनहरी स्याही में छिप गया/ वैसे वो जानता है ख़तावार कौन है
घायल अकलू चेरो- फोटो – विष्णु गुप्त
उ0प्र0 के सोनभद्र जिले में गैरकानूनी रूप से निर्मित कनहर बांध व अवैध तरीके से किए जा रहे भू-अधिग्रहण का मामला पिछले एक माह से गर्माया हुआ है। जिसमें अम्बेडकर जयंती के अवसर पर प्रर्दशन कर रहे आदिवासी आंदोलनकारी अकलू चेरो पर चलाई गई गोली उसके सीने से आर-पार हो गई व कई लोग घायल हो गए। इसके बाद फिर से 18 अप्रैल को आंदोलनकारियों से वार्ता करने के बजाय गोली व लाठी चार्ज करना एक शर्मनाक घटना के रूप में सामने आया है। जिससे आम समाज काफी आहत हुआ है। संविधान व लोकतंत्र को ताक पर रखकर सरकार व प्रशासन द्वारा इस घोटाली परियोजना में करोड़ों रूपये की बंदरबांट करने का खुला नजारा जो सबके सामने आया है, वो हमारे सामाजिक ताने-बाने के लिए एक बड़ी चिंता का विषय बन गया है, जिसमें निहित स्वार्थी और असामाजिक तत्व पूरे तंत्र पर हावी हो गए हैं।
कनहर बांध विरोधी आंदोलनकारियों का लगातार यही कहना था कि कनहर बांध का गैरकानूनी रूप से निर्माण किया जा रहा है, अब यह तथ्य नेशनल ग्रीन ट्रीब्यूनल द्वारा 7 मई 2015 को दिये गये फैसले में भी माननीय न्यायालय ने साफ़ उजागर कर दिया है। जिन मांगों को लेकर 23 दिसम्बर 2014 से कनहर बांध से प्रभावित गांवों के दलित आदिवासी शांतिपूर्वक ढंग से प्रर्दशन कर रहे थे, आज वह सभी बातें हरित न्यायालय ने सही ठहराई हैं। हालंाकि इसके बावज़ूद केवल एक लाईन में न्यायालय ने सरकार को खुश करने के लिए मौजूदा काम को पूरा करने की बात कही है व नए निर्माण पर पूर्ण रूप से रोक लगा दी है। जबकि हकीक़त ये है कि जो काम हो रहा है वही नया निर्माण है। इसलिए हरित न्यायालय के 50 पन्नों के इस फैसले में विश्लेषण और आखिर में दिए गए निर्देश में किसी भी प्रकार का तालमेल दिखाई नहीं देता है।
इससे मौजूदा न्यायालीय व्यवस्था पर भी सवाल खड़ा होता है कि क्या वास्तव में वह समाज के हितों की सुरक्षा के लिए अपनी पूरी जिम्मेदारी निभा रही है या फिर इस व्यवस्था व नवउदारवाद की पोषक बन उनकी सेवा कर रही है? यह एक गंभीर प्रश्न है। वैसे भी आज़ादी की लड़ाई में साम्राज्यवाद के खिलाफ शहीद होने वाले शहीद-ए-आज़म भगतसिंह को भी अभी तक कहां न्याय मिला सका है। जबकि प्राथमिकी में भगत सिंह का नाम ही नहीं था और उनको फांसी दे दी गई। इसलिए यह न्यायालीय व्यवस्था जो कि अंग्रेज़ों की देन है, भी उसी हद तक आगे जाएगी जहां तक सरकारों के हितों की रक्षा हो सके। इतिहास गवाह है कि जनआंदोलनों से ही सामाजिक बदलाव आए हैं, न कि अदालती आदेशों से। इसलिए 7 मई 2015 को हरित न्यायालय (नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल) द्वारा दिए गये फैसले को जनता अपने हितों के आधार पर ही विश्लेषित करना होगा, चूंकि फैसले के इन 50 पन्नों में जज साहब द्वारा कनहर बांध परियोजना के आधार को ही उड़ा दिया है व तथ्यों के साथ बेनकाब किया है। लेकिन फिर भी जो जनता सड़क पर संवैधानिक एवं जनवादी दायरे के तहत इन तबाही लाने वाली परियोजनाओं के खिलाफ तमाम संघर्ष लड़ रही है, उनके लिए यह विश्लेषण ज़रूरी है, जो कि आगे आने वाले समय में बेहद महत्वपूर्ण साबित होगा। संघर्षशील जनता व उससे जुड़े हुए संगठन एवं प्रगतिशील ताकतों की यह जिम्मेदारी है, कि वे इस तरह के फैसलों का एक सही विश्लेषण करें और जनता के बीच में उसको रख कर एक बड़ा जनमत तैयार करें।

कनहर बांध निर्माण के खिलाफ यह याचिका ओ0डी सिंह व देबोदित्य सिन्हा द्वारा हरित न्यायालय में दिसम्बर 2014 को दायर की गई थी, जिसमें याचिकाकर्ताओं द्वारा पेश किए गए तथ्यों को न्यायालय ने सही करार दिया है। कनहर बांध परियोजना के लिए वन अनुमति नहीं है, कोर्ट द्वारा उ0प्र0 सरकार के इस झूठ को भी पूरी तरह से साबित कर दिया गया है। कोर्ट ने यह भी माना है कि परियोजना चालकों के पास न ही 2006 का पर्यावरण अनुमति पत्र है और न ही 1980 का वन अनुमति पत्र है।
कोर्ट ने इस तथ्य को भी स्थापित किया है कि सन् 2006 में व यहां तक कि 2014 में भी बांध परियोजना के काम की शुरूआत ही नहीं हुई थी, इसलिए ऐसे प्रोजेक्ट की शुरूआत बिना पर्यावरण मंत्रालय की अनुमति व पर्यावरण प्रभाव आकलन के नोटिफिकेशन के हो ही नहीं सकती।
जिला सोनभद्र प्रशासन द्वारा लगातार यह कहा जा रहा था, कि बांध से प्रभावित होने वाले गांवों में आदिवासी नाममात्र की संख्या में हैं, इस तथ्य को भी कोर्ट द्वारा गलत ठहराया गया और कहा गया है कि ‘‘इस परियोजना से बड़े पैमाने पर विस्थापन होगा जिसमें सबसे बड़ी संख्या आदिवासियों की है। 25 गांवों से लगभग 7500 परिवार विस्थापित होंगे जिनके पुनर्वास की योजना बनाने की आवश्यकता पड़ेगी’’।
हरित न्यायालय ने इस फैसले में सबसे गहरी चिंता पर्यावरण के संदर्भ में जताई है, जिसमें कहा गया है कि ‘‘कनहर नदी सोन नदी की एक मुख्य उपनदी है, जोकि गंगा नदी की मुख्य उपनदी है। सोन नदी के ऊपर कई रिहंद एवं बाणसागर जैसे बांधों के निर्माण व पानी की धारा में परिवर्तन के चलते सोन नदी के पानी का अस्तित्व भी आज काफी खतरे में है। जिसमें बड़े पैमाने पर मछली की कई प्रजातियां लुप्त हो गई हैं व विदेशी मछली प्रजातियों ने उनकी जगह ले ली है। इस निर्माण के कारण नदी के बहाव, गति, गहराई, नदी का तल, पारिस्थितिकी व मछली के प्राकृतिक वास पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है।
न्यायालय ने बड़े पैमाने पर वनों के कटान पर भी ध्यान आकर्षित कराया है। कहा है कि आदिवासियों के तीखे विरोध के बावजूद इस परियोजना के लिए बहुत बड़ी संख्या में पेड़ों का कटान किया गया है, जो कि 1980 के वन संरक्षण कानून का सीधा उलंघन है। कनहर बांध का काम 1984 में रोक दिया गया था, लाखों पेड़ इस परियोजना की वजह से प्रभावित होने की कगार पर थे। जबकि रेणूकूट वनसंभाग जिले का ही नहीं बल्कि उ0प्र0 का सबसे घने वनों वाला इलाका है, जहां बड़ी तदाद में बहुमूल्य औषधीय वनप्रजातियां पाई जाती हैं तथा आदिवासी पारम्परिक ज्ञान एवं सास्कृतिक धरोहर से भरपूर इस इलाके ने कई वैज्ञानिकों एवं अनुसंधानकर्ताओं का ध्यान आकर्षित किया है। वनों के इस अंधाधुंध कटान से ना सिर्फ पूरे देश में कार्बन को सोखने की क्षमता वाले वन नष्ट हो जाएंगे, बल्कि ग्रीन हाउस गैसों के घातक उत्सर्जन जैसे मिथेन आदि भी पैदा होंगे। टी.एन. गोदा बर्मन केस का हवाला देते हुए कोर्ट इस मामले में संजीदा है, कि कोई भी विकास पर्यावरण के विकास के साथ तालमेल के साथ होना चाहिए न कि पर्यावरण के विनाश के मूल्य पर। पर्यावरण व वायुमंड़ल का खतरा संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लघंन है, जो कि प्रत्येक नागरिक को स्वस्थ जीवन जीने का अधिकार प्रदान करता है व जिस अधिकार को सुरक्षित रखने की ज़रूरत है। इसके अलावा कोर्ट ने यह भी कहा कि कनहर बांध परियोजना का सही मूल्य व लाभ का आंकलन होना चाहिए। परियोजना को 1984 में त्यागने के बाद क्षेत्र की जनसंख्या में काफी इजाफा हुआ है। स्कूलों, सड़कों, उद्योगों, कोयला खदानों का विकास हुआ है, जिसने पहले से ही पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी में काफी तनाव पैदा किया है।
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अकलू चेरो….
फोटो-अभिषेक श्रीवास्तव
कनहर बांध परियोजना में हो रहे पैसे के घोटाले को भी माननीय न्यायालय ने बेनकाब किया है, जिसमें बताया गया है कि ‘‘शुरूआत में परियोजना का कुल मूल्य आकलन 27.75 करोड़ किया गया, जिसको 1979 में अंतिम स्वीकृति देने तक उसका मूल्य 69.47 करोड़ हुआ। लेकिन केन्द्रीय जल आयोग की 106वीं बैठक में 14 अक्तूबर 2010 में इस परियोजना का मूल्य निर्धारण 652.59 करोड़ आंका गया। जो कि अब बढ़ कर 2259 करोड़ हो चुका है। अलग-अलग समय में परियोजना में बढ़ोत्तरी हुई, जिसके कारण बजट भी बढ़ता गया’’। ( उ0प्र सरकार एवं सोनभद्र प्रशासन द्वारा इसी पैसे की लूट के लिए जल्दी-जल्दी कुछ काम कर के दिखाया जा रहा है, जिसमें बड़े पैमाने पर स्थानीय असामाजिक तत्वों, दबंगों व दलालों का साथ लिया जा रहा है)
हरित न्यायालय के फैसले को पढ़ कर मालूम हुआ कि उ0प्र0 सरकार एवं सिंचाई विभाग ने कोर्ट को गुमराह करने के लिए कितने गलत तथ्यों को उपलब्ध कराया है। उ0प्र0 सरकार ने कोर्ट को बताया किकनहर परियोजना 1979 में अस्तित्व में आई व पर्यावरण अनुमति 1980 में प्राप्त की गई तथा 1982 में ही 2422.593 एकड़ वनभूमि को राज्यपाल के आदेश के तहत सिंचाई विभाग को हस्तांतरित कर दी गई थी। उ0प्र0 सरकार का कहना है कि पर्यावरण मंत्रालय तो 1985 में असतित्व में आया, लेकिन उससे पहले ही वनभूमि के हस्तांतरण के लिए मुवाअज़ा भी दे दिया गया है और परियोजना को 1980 में शुरू कर दिया गया। इसलिए उ0प्र0 सरकार व सिंचाई विभाग का मानना है कि 2006 के पर्यावरण कानून के तहत अब बांध निर्माण के लिए उन्हें किसी पर्यावरण अनुमति की ज़रूरत नहीं है और जहां तक वन अनुमति का सवाल है, इस के रिकार्ड उपलब्ध नहीं हैं, क्योंकि यह 30 साल पुरानी बात है। इस परियोजना के तहत पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ व झारखंड के भी गांव प्रभावित होने वाले हैं, जिसके बारे में भी उ0प्र0 सरकार द्वारा यह झूठ पेश किया गया कि दोनों राज्यों से बांध निर्माण की सहमति प्राप्त कर ली गई है। सरकार द्वारा यह तथ्य दिए गए हैं कि दुद्धी एवं राबर्टस्गंज इलाके सूखाग्रस्त इलाके हैं, इसलिए इस परियोजना की जरूरत है। (जबकि इस क्षेत्र में बहुचर्चित रिहंद बांध एक वृहद सिंचाई परियोजना का बांध है, लेकिन आज उस बांध को सिंचाई के लिए उपयोग न करके उर्जा संयत्रों के लिए उपयोग किया जा रहा है।) जो गांव डूबान में आएंगे उनकी पूरी सूची उपलब्ध नहीं कराई गई व परिवारों की सूची भी गलत उपलब्ध कराई गई है जोकि नए आकलन, डिज़ाईन व बजट के हिसाब से नहीं है। उ0प्र0 सरकार का यह बयान था कि 1980 से काम ज़ारी है व जो काम हो रहे हैं, उसकी एक लम्बी सूची कोर्ट को उपलब्ध कराई गई। लेकिन कोर्ट ने माना कि उपलब्ध दस्तावेज़ों के आधार पर यह बिल्कुल साफ है कि फंड की कमी की वजह से व केन्द्रीय जल आयोग की अनुमति न मिलने की वजह से परियोजना का काम बंद कर दिया गया, जो कि लम्बे समय तक यानि 2014 तक चालू नहीं किया गया। वहीं यह सच भी सामने आया कि झारखंड व छत्तीसगढ़ राज्यों की सहमति भी 8 अप्रैल 2002 व 9 जुलाई 2010 में ही प्राप्त की गई थी, इससे पहले नहीं।
उ0प्र0 सरकार एवं सिंचाई विभाग द्वारा इस जनहित याचिका को यह कह कर खारिज करने की भी अपील की गई कि वादी द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक और रिट दायर की है। लेकिन कोर्ट ने सरकार को फटकार लगाते हुए कहा कि हरित न्यायालय में दायर याचिका का दायरा पर्यावरण कानूनों से सम्बन्धित है व इलाहाबाद उच्च न्यायालय में दायर मामला भू अधिग्रहण से सम्बन्धित है, यह दोनों मामले अलग हैं, इसलिए हरित न्यायालय में वादी द्वारा दायर याचिका को खारिज नहीं किया जा सकता।
कोर्ट ने इस बात का भी पर्दाफाश किया कि अभी तक परियोजना प्रस्तावक व उ0प्र0 सरकार ने 1980 की वनअनुमति को हरित न्यायालय के सामने पेश ही नहीं किया है। और कहा कि केवल राज्यपाल द्वारा उस समय 2422.593 एकड़ वनभूमि को गैर वन कार्यों के लिए हस्तांतरित करने के आदेश वन संरक्षण कानून की धारा 2 के तहत वनअनुमति नहीं माना जाएगा। वनभूमि को हस्तांतरित करने से जुड़े केन्द्रीय सरकार द्वारा स्वीकृत किसी भी अनुमति पत्र का रिकार्ड भी अभी तक न्यायालय के सामने नहीं आया है।
माननीय न्यायालय ने इस तथ्य पर गौर कराया कि 1986 में पर्यावरण संरक्षण कानून के पारित किए जाने के बाद पर्यावरण मंत्रालय द्वारा 1994 में एक नोटिस ज़ारी किया गया, जिसमें यह स्पष्ट तौर पर कहा गया था कि कोई भी व्यक्ति किसी भी परियोजना को देश के किसी कोने में भी स्थापित करना चाहते हैं या फिर किसी भी उद्योग का विस्तार या आधुनिकीकरण करना चाहते हैं, तो उन्हें पर्यावरण की अनुमति के लिए नया आवेदन करना होगा। इस नोटिस की अनुसूचि न0 1 में जल उर्जा, बड़ी सिंचाई परियोजनाऐं तथा अन्य बाढ़ नियंत्रण करने वाली परियोजनाऐं शामिल होंगी। मौज़ूदा कनहर बांध के संदर्भ में भी परियोजना प्रस्तावक को 1994 के नोटिफिकेशन के तहत पर्यावरण अनुमति का आवेदन करना चाहिए था, जो कि उन्होंने नहीं किया है। परियोजना के लिए 33 वर्ष पुराना पर्यावरण अनुमति पत्र पर्यावरण की दृष्टि से मान्य नहीं है। इस दौरान पर्यावरण के सवाल पर समय के साथ काफी सोच में बदलाव आया है। इन सब बातों का परखना किसी भी परियोजना के लिए बेहद जरूरी है। तत्पश्चात 2006 में भी पर्यावरण मंत्रालय द्वारा पर्यावरण आकलन सम्बन्धित नोटिफिकेशन दिया गया, जिसमें अनुसूचि न0 1 में आने वाली परियोजनाओं के लिए यह निर्देश ज़ारी किए गए कि जिन परियोजनाओं में कार्य शुरू नहीं हुआ है उन्हें 2006 के नोटिफिकेशन के तहत भी पर्यावरण अनुमति लेना आवश्यक है, चाहे उनके पास पहले से ही एन0ओ0सी हो तब भी। कोर्ट ने यहां एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की है कि ‘‘कनहर बांध के संदर्भ में यह पाया गया कि यह परियोजना अभी स्थापित ही नहीं थी, परियोजना का वास्तिवक स्थल पर मौजूद होना जरूरी है। यह परियोजना न ही 1994, 2006 व यहां तक कि 2014 में भी चालू नहीं थी, इसलिए इस परियोजना के लिए पर्यावरण सम्बन्धित काननूों का पालन आवश्यक है।
मौजूदा परियोजना कनहर के बारे में कोर्ट द्वारा यह अहम तथ्य पाया गया कि यह परियोजना एक बेहद ही वृहद परियोजना है, जिसका असर बडे़ पैमाने पर तीन राज्यों उ0प्र0, झारखंड एवं छत्तीसगढ़ में पड़ने वाला है। प्रोजेक्ट के तहत कई सुरंगे, सड़क व पुल का भी निर्माण करना है। स्थिति जो भी हो लेकिन जो भी दस्तावेज़ उ0प्र0 सरकार द्वारा उपलब्ध कराए गए हैं, उससे यह साफ पता चलता है कि परियोजना का एक बहुत बड़े हिस्से का काम अभी पूर्ण करना बाकी है। जो फोटो प्रतिवादी द्वारा कोर्ट को उपलब्ध कराए गए हैं, उससे भी साबित होता है कि काम की शुरूआत हाल ही में की गई व अभी परियोजना पूर्ण होने के कहीं भी नज़दीक नहीं है। परियोजना प्रस्ताव की वकालत व उपलब्ध दस्तावेज़ो से यह साफ पता चलता है कि बांध निर्माण कार्य व अन्य कार्य 1994 से पहले शुरू ही नहीं हुए थे। जहां तक परियोजना का सवाल है इस के कार्य, डिज़ाईन, तकनीकी मापदण्ड व विस्तार एवं बजट में पूरा बदलाव आ चुका है तथा 2010 तक तीनों राज्यों की सहमति भी नहीं बनी थी व न ही केन्द्रीय जल आयोग ने इन संशोधित मापदण्डों के आधार पर प्रोजक्ट को स्वीकृति दी थी।
कोर्ट ने यह सवाल भी उठाए कि राज्यपाल द्वारा दुद्धी वनप्रभाग का 2422.593 एकड़ वनभूमि के हस्तांतरण के बावजू़द भी उसके एवज में वनविभाग द्वारा वृक्षारोपण का कार्य नहीं किया गया। रेणूकूट वनप्रभाग के डी0एफ0ओ द्वारा यह जानकारी दी गई की अभी तक 666 हैक्टेअर पर वृक्षारोपण किया गया व सड़क के किनारे 80 कि0मी तक किया गया है। वनविभाग के अधिकारी इस बात पर खामोश हैं कि बाकि का वृक्षारोपण कब और कहां पूरा किया जाएगा, ना ही उन्होंने यह बताया है कि जो वृक्षारोपण किया है, उसमें से कितने पेड़ जीवित हैं व उनकी मौजू़दा स्थिति क्या है। कोर्ट ने यह कहा है कि वानिकीकरण प्रोजेक्ट की प्रगति के साथ ज़ारी रखा जा सकता है। पर्यावरण के विकास के लिए इन शर्तों का पालन निहायत ज़रूरी है, चूंकि अब तक यह पेड़ पूरी तरह से विकसित हो जाते।
न्यायालय द्वारा इस बात पर भी गौर कराया गया है कि जिला सोनभद्र में बड़े पैमाने पर ओद्यौगिक विकास के चलते न ही लेागों का स्वास्थ बेहतर हुआ है एवं न ही समृद्धि आई है। अभी तक इस क्षेत्र की स्थिति काफी पिछड़ी हुई है। किसी भी परियोजना का ध्येय होना चाहिए कि वह लोगों को जीवन जीने की बेहतर सुविधाएं एवं बेहतर पर्यावरणीय सुविधाएं प्रदान करे। यह एक विरोधाभास है कि सोनभद्र उ0प्र0 के उद्योगों के क्षेत्र में एक सबसे बड़ा विकसित जिला है, जिसे उर्जा की राजधानी कहा गया है, लेकिन यही जिला सबसे पिछड़े जिले के रूप में भी जाना जाता है। इसी जिले में प्रदेश का सबसे ज्यादा वनक्षेत्र है। सोनभद्र में अकेले ही 38 प्रतिशत वन है जबकि पूरे प्रदेश में केवल 6 प्रतिशत ही वन है। इस क्षेत्र में जो औद्योगिक विकास पिछले 30 से 40 वर्षो में किया गया है, उससे पर्यावरण को काफी आघात पहुंचा है। पानी व हवा का प्रदूषण मानकों के स्तर से कई गुणा बढ़ गया है। खादानों के कारण बड़े पैमाने पर कचरे ने पर्यावरण पर काफी दष्ुप्रभाव डाले हैं, जो कि खाद्यान्न पर बुरा असर पैदा कर रहे हैं। इससे मिट्टी का कटाव बढ़ रहा है, नदियों का पानी प्रदूषित हो रहा है व खेती लायक भूमि पर न घुलने वाले धातुओं की मात्रा बढ़ती जा रही है। कई संस्थानों की रिपोर्ट में इस क्षेत्र के पानी में मरकरी, आरसिनिक व फ्लोराईड की भारी मात्रा पाई गई है। व सिंगरौली क्षेत्र को 1991 में ही सबसे प्रदूषित व संवेदनशील इलाका करार दिया गया है। मध्यप्रदेश व उ0प्र0 सरकार को इस प्रदुषण को नियंत्रित करने के लिए एक एक्शन योजना बनानी थी। इस स्थिति को देखते हुए भारत सरकार द्वारा 2010 में इस क्षेत्र में नये उद्योगों को स्थापित करने के लिए प्रतिबंध लगाया गया है। इस लिए 1980 के पर्यावरण अनुमति के कोई मायने नहीं हैं जो कि मौजूदा पर्यावरणीय स्थिति के बढ़े हुए संकट के देखते हुए नये आकलन की मांग कर रहा है।
लेकिन पर्यावरण के प्रति इतनी चिंताए व्यक्त करते हुए भी आखिर में कोर्ट द्वारा फैसले में जो निर्देश दिया गया है, वह इन चिंताओं से तालमेल नहीं खाता। कोर्ट द्वारा आखिर में बांध बनाने में खर्च हुए पैसे का जिक्र किया गया है, जिसके आगे पर्यावरण अनुमति की बात भी बौनी हो गई है व वहां यह चिंता व्यक्त की गई है कि कनहर परियोजना जो कि 27 करोड़ की थी, वह बढ़ कर 2252 करोड़ की हो गई है, मौजूदा काम रोकने से सार्वजनिक पूंजी का नुकसान होगा, इसलिए मौजूदा काम को ज़ारी रखा जाए। (जबकि यह पूरा काम ही नया निर्माण है फिर तो इसे रोके जाने के निर्देश दिए जाने चाहिए थे)। कोर्ट का यह निर्देश इस मायने में भी विवादास्पद है कि, 24 दिसम्बर 2014 की सुनवाई में कोर्ट ने सरकार द्वारा वन अनुमति पत्र न प्रस्तुत करने पर निर्माण कार्य पर रोक लगा दी थी व पेड़ों के कटान पर भी रोक लगाई थी, जबकि उस समय कुछ निर्माण शुरू ही हुआ था। लेकिन इसके बावजू़द भी काम ज़ारी रहा और पेड़ों का कटान भी हुआ। न्यायालीय व्यवस्था को मानते हुए कनहर नदी के आसपास के सुन्दरी, भीसुर, कोरची के ग्रामीणों द्वारा कोर्ट के इसी आर्डर को लागू करने के लिए 23 दिसम्बर 2014 को धरना शुरू किया गया था व 14 अप्रैल को इसी आर्डर एवं तिरंगा झंडे के साथ लोगों द्वारा काम शुरू करने के खिलाफ शांतिपूर्वक तरीके से विरोध जताया था। ऐसे में जनता द्वारा दायर याचिका की सुनवाई न होना भी राजसत्ता एवं उसके दमन तंत्र को ही मजबूत करता हैै।
नया निर्माण रूके, पर्यावरण एवं वन आकलन के सभी पैमाने पूरी तरह से लागू हों, इसके लिए न्यायालय ने एक उच्च स्तरीय सरकारी कमेटी का गठन तो जरूर किया है। लेकिन इस कमेटी में किसी भी विशेषज्ञ एवं विशेषज्ञ संस्थान, जनसंगठनों को शामिल न किया जाना एक बड़ी व गम्भीर चिंता का विषय है। इसकी निगरानी कौन करेगा कि नया निर्माण नहीं होगा या फिर सभी शर्तों की देख-रेख होगी, इस सदंर्भ में किसी प्रकार के निर्देश नहींे हैं। मौजूदा परिस्थिति में जिस तरह से सोनभद्र प्रशासन, पुलिस प्रशासन व उ0प्र0 सरकार स्थानीय माफिया व गुंडातत्वों का खुला इस्तेमाल करके लोगों पर अमानवीय दमन का रास्ता अपना रही है, ऐसे में इस घोटाली परियोजना पर कौन निगरानी रखेगा? आखिर कौन है जो बिल्ली के गले में घंटी बांधेगा? यह सवाल बना हुआ है।
यहां तक कि क्षेत्र में वनाधिकार काननू 2006 लागू है, उसका भी पालन नहीं हुआ। ग्रामसभा से इस कानून के तहत अभी तक अनुमति का प्रस्ताव तक भेजा नहीं गया है। अभी तो इससे भी बड़ा मस्अला भूमि अधिग्रहण की सही प्रक्रिया को लेकर अटका हुआ है। संसद द्वारा पारित 2013 का कानून लागू ही नहीं हुआ व उसके ऊपर 2015 का भू-अध्यादेश लाया जा रहा है, जोकि 2013 के कानून के कई प्रावधानों के विपरीत है। कनहर बांध से प्रभावित पांच ग्राम पंचायतों ने माननीय उच्च न्यायालय मे 2013 के भूअधिग्रहण कानून की धारा 24 उपधारा 2 के तहत एक याचिका भी दायर की हुई है, जिसके तहत यह प्रावधान है कि अगर उक्त किसी परियोजना के लिए भू अधिग्रहण किया गया व उक्त भूमि पांच साल के अंदर उस परियोजना के लिए इस्तेमाल नहीं की गई तो वह भूमि भू स्वामियों के कब्ज़े में वापिस चली जाएगी। भू-अभिलेखों में भी अभी तक ग्राम समाज व बसासत की भूमि ग्रामीणों के खाते में ही दर्ज है जो कि अधिग्रहित नहीं है। ऐसे में आखिर उ0प्र0 सरकार क्यों इन कानूनी प्रावधानों को अनदेखा कर जबरदस्ती ऐसी परियोजना का निर्माण करा रही है, जोकि गैर संवैधानिक है और पर्यावरण के लिए बेहद ही खतरनाक है। खासतौर पर ऐसे समय में जब नेपाल में लगातार आ रहे भूकंप के झटके व उन झटकों को उ0प्र0 व आसपास के इलाकों में असर हो रहे हों।
ऐसे में संवैधानिक अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत इस देश के नागरिकों को जीवन जीने का अधिकार प्राप्त है, उनकी सुरक्षा की क्या गांरटी है? देखने में आ रहा है जीवन जीने के अधिकार की सुरक्षा न सरकार दे पा रही है, न न्यायालय दे पा रहे हैं, न राजनैतिक दल इस मामले में लोगों की मदद कर पा रहे हैं। मीडिया भी जनपक्षीय आधार से कोसों दूर है व कारपोरेट लाबी के साथ खड़ा है। चार दिन आपसी प्रतिस्पर्धा में कुछ ठीक-ठाक लिखने वाले मीडियाकर्मी भी पांचवे दिन इसी दमनकारी व्यवस्था को मदद करने वाली निराशाजनक रिपोर्टस् ही लिखने लगते हैं। ऐसी स्थिति में लोगों के पास जनवादी संघर्ष के अलावा कोई और दूसरा रास्ता नहीं बचा है, जिसका दमन भी उतनी ही तेज़ी से हो रहा है। हांलाकि एक बार फिर इतिहास अपने आप को दोहरा रहा है व आज़ादी के समय में जिस तरह से भूमि के मुद्दे ने अंग्रेज़ो की जड़े हिला कर उन्हें खदेड़ा था, उसी तरह आज देश में भी यह मुददा भूमिहीन किसानों, ग़रीब दलित आदिवासी व महिला किसानों, खेतीहर मज़दूर का एक राष्ट्रीय मुददा है। यह मुद्दा आने वाले समय में देश की राजनीति का तख्ता पलट सकता है। अफसोस यह है कि माननीय जज साहब ने अंतिम फैसले में देश में मची इस हलचल को संज्ञान में न लेकर निहित स्वार्थांे, पर्यावरण का ह्रास करने वाले असामाजिक तत्वों के लालची मनसूबों को मजबूत किया है व आम संघर्षशील जनता के मनोबल को कमज़ोर करने की काशिश की है। यहां तक कि इसी दौरान छतीसगढ़ सरकार ने भी 22 अप्रैल 2015 को उ0प्र0 सरकार को काम रोकने का पत्र भेजा इस तथ्य को भी कोर्ट द्वारा संज्ञान में नहीं लिया गया। लेकिन इस प्रजातांत्रिक देश में जनवादी मूल्यों की ताकत को भी कम कर के आंकना व नज़रअंदाज़ करना एक बड़ी भूल होगी। निश्चित ही इन निहित स्वार्थी ताक़तों के ऊपर संघर्षशील जनता की जीत कायम होगी व इस संघर्ष पर लाल परचम जरूर फहराया जाएगा।
मरहूम शायर हरजीत ने सही कहा है -
मुन्सिफ का सच सुनहरी स्याही में छिप गया
वैसे वो जानता है ख़तावार कौन है
नोट: कनहर बांध में हुए गोलीकांड व अन्याय को लेकर अभी तक किसी भी मुख्य राजनैतिक पार्टी ने एक भी बयान नहीं दिया है और न ही लोगों पर हुए दमन की निंदा की है। स्थानीय स्तर पर दुद्धी में कांग्रेस, सपा व छतीसगढ़ के भाजपा के पूर्व विधायकों एवं मौजूदा विधायकों, दबंग व दलाल प्रशासन के साथ मिल कर इस पैसे की लूट में शामिल हैं।
रोमा
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Ms. Roma ( Adv), Dy. Gen Sec, All India Union of Forest Working People(AIUFWP) / Secretary, New Trade Union Initiative (NTUI) Coordinator, Human Rights Law Center






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Dehradun Contact : c/o Mahila Manch, E block,Saraswati Vihar, Near Homeguard off, Kargi, Dehrdun, Uttarakhand. ph- 09412348071

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