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Tuesday, May 5, 2015

संघर्ष की तस्वीर हुई थोड़ी और साफ़, किसानों ने भू-हड़प बिल के खिलाफ छेड़ी निर्णायक जंग

संघर्ष की तस्वीर हुई थोड़ी और साफ़, किसानों ने भू-हड़प बिल के खिलाफ छेड़ी निर्णायक जंग

Posted by संघर्ष संवाद on मंगलवार, मई 05, 2015


पिछले कई महीनों से ज़मीन अधिग्रहण अध्यादेश के मुद्दे मोदी सरकार के खिलाफ चल रही लड़ाई का स्वरुप आज दिल्ली के जंतर मंतर पर कुछ और साफ़ हो गया, जहां देश भर से आए किसानों ने मई की चिलचिलाती धूप में अपने पसीने से आंदोलन की लकीर खींच दी।

किसान और ज़मीन के मुद्दे पर एक तरफ राजनीतिक गलियारों में दिशाहीन दलीलें और दूसरी तरफ किसानों की तकदीर को अन्ना हज़ारे सरीखे मौसमी नेतृत्व के भरोसे छोड़ देने की कोशिशें चलती रही हैं, लेकिन किसानों की अपनी जोरदार आवाज ने यह साफ़ कर दिया है कि ऊपरी नेतृत्व और राजनीतिक रहनुमाई का मुँह देखे बगैर जमीन और जीविका बचाने के लिए आर-पार की लड़ाई अब भारत के गाँव और किसान लड़ने वाले हैं।
दो सौ से ज़्यादा किसान संगठनों, स्थानीय भू-अधिग्रहण विरोधी आन्दोलनों, वामपंथी किसान सभाओं और देशव्यापी कार्यकर्ता नेटवर्कों ने आज एक साथ आकर मोदी सरकार के निरंकुश और कारपोरेट-प्रेमी कानून के खिलाफ आख़िरी लड़ाई की शुरुआत की। भूअधिग्रहण क़ानून को किसान-विरोधी और जनविरोधी बताते हुए वक्ताओं ने इस क़ानून की पूर्ण समाप्ति तक देश भर में संघर्ष चलाते रहने की घोषणा की।


“अच्छे दिनों” के गाजे-बाजे के साथ केंद्र पर काबिज हुई मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही इस देश के आम मेहनतकश जनता के साथ दो बड़े धोखे किए। पहला धोखा किया उसने इस देश के मजदूरों के साथ। श्रम कानूनों में संशोधन कर न्यूनतम मजदूरी से लेकर हड़ताल करने तक के उसके तमाम हकों को ले जाकर उसने पूंजीपतियों के कदमों में डाल दिया और उन्हें उनके श्रम की लूट की खुली छूट दे दी।

दूसरा बड़ा धोखा किया उसने इस देश के किसानों के साथ जब वह 31 दिसंबर 2014 को भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन अधिनियम, 2013 में संशोधन अध्यादेश लेकर आई। हालांकि 2013 का कानून 1894 के भूमि अधिग्रहण के औपनिवेशिक कानून से सिर्फ इस मामले में जुदा था कि वह भूमि संरक्षण से ज्यादा मुआवजा केंद्रित था। यह अध्यादेश तीन मुख्य बिंदुओँ- सामाजिक प्रभाव, आम सहमति तथा 5 साल तक भूमि का इस्तेमाल न हो पाने की दशा में भू-स्वामि को भूमि वापस कर दिए जाना- में संशोधन करता है। यह भू हड़प अध्यादेश कॉर्पोरेट मालिकों के पूर्ण मुनाफे को सुनिश्चित करता है। इस अध्यादेश ने देशी-विदेशी पूंजीपतियों को यह छूट दे दी है कि अब जिस भी जमीन पर उनका दिल आ जाए वह जमीन बिना किसी पूर्व-सूचना के सरकार के जरिए कब्जा कर सकते हैं।

इन दोनों ही धोखों ने सरकार की मंशा को जनता के सामने स्पष्ट कर दिया है। यह स्पष्ट कर दिया है कि आने वाला दिन आम जनता और जनांदोलनों के लिए अत्यंत ही चुनौतीपूर्ण होने वाला है। देशी-विदेशी पूंजीपति को मुनाफे लिए नए-नए क्षेत्रों और सस्ते श्रम की जरूरत है और भारत सरकार इसे किसी भी कीमत पर उसे मुहैय्या कराने के लिए उतारू है। और इसकी कीमत चुकाएगा इस देश का आम मजदूर-किसान।

भूमि अध्यादेश के बाद पूरे देश में जैसे किसान विद्रोहों की आग सी लग गई। जगह-जगह पर अध्यादेश की प्रतियां जलाई गईँ। 24 फरवरी को देश की राजधानी में किसानों का एक विशाल जन प्रदर्शन हुआ। ऐसा लग रहा था कि जैसे पूरा देश इस अध्यादेश के विरोध में एक सूत्र में बंध सा गया था लेकिन इस देश की मीडिया से यह विरोध पूरी तरह से गायब था वजह कॉर्पोरेट दबाव। इन तमाम विरोधों की वजह से यह अध्यादेश राज्य सभा में पास न हो सका तब मोदी सरकार मामूली सुधारों के साथ एक बार फिर 3 अप्रैल को भूमि अधिग्रहण अध्यादेश ले आई। उसकी यह जल्दबाजी उसकी पूंजीपतियों के प्रति उसकी वफादारी का पक्का सबूत है।

देश के तमाम मेहनतकश किसान, मज़दूर, कर्मचारी, लघुउद्यमी, छोटे व्यापारी, दस्तकारों, मछुवारे, रेहड़ी व पटरी वाले और इनके सर्मथक प्रगतिशील तबकों के लिए यह एक अति चुनौतीपूर्ण दौर है। अब शासकीय कुचक्र के खिलाफ संघर्ष के अलावा कोई और विकल्प नहीं है, जनसंघर्षों के लंबे समय से जुड़े हुए संगठन ऐसी परिस्थिति में स्वाभाविक रूप से करीब आ रहे हैं, और सामूहिक चर्चा की प्रक्रिया शुरू हो गई है। इसी क्रम में 2 अप्रैल को कांस्टिट्यूशन क्‍लब में जमीन के मसले पर आंदोलन चलाने वाली कम्‍युनिस्‍ट पार्टियों, आंदोलनों, जन संगठनों, किसान सभाओं और संघर्षरत समूहों ने मिलकर यह तय किया था कि यदि सरकार भूमि अधिग्रहण पर नया अध्‍यादेश लाती है तो उसकी प्रति 6 अप्रैल को पूरे देश में जलाई जाएगी। देश भर से पांच करोड़ लोगों के दस्‍तखत इसके खिलाफ इकट्ठा किए जाएंगे। 9 अप्रैल को विजयवाड़ा, 10 अप्रैल को भुवनेश्वर और 11 अप्रैल को पटना में राज्‍य स्‍तरीय आंदोलन होंगे। आंदोलनों द्वारा देश भर में ज़मीन वापसी का अभियान चलाया जाएगा और 5 मई को दिल्‍ली में संसद मार्ग पर भूमि अध्रिकार संघर्ष रैली होगी। जमीन के मसले पर संघर्ष चलाने के लिए इस आंदोलन को नाम दिया गया है ''भूमि अधिकार संघर्ष आंदोलन''।  इस जनविरोधी व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए यह पहली कड़ी है।
भूमि अधिकार आंदोलन की विज्ञप्ति

भूमि अधिकार आंदोलन
Movement for Land Rights
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भूमि अधिकार संघर्ष रैली में हजारों हज़ार किसानों-मज़दूरों ने की भूमि अध्यादेश 2015 वापस लेने की मांग

दी चेतावनी, नहीं होने देंगे ज़मीन और कृषि की लूट!

5 मई, नई दिल्ली:  कृषि प्रधान कहा जाने वाला यह देश आज कॉर्पोरेट प्रधान हो गया है, जहाँ मोदी-सरकार देश की ज़मीन, जंगल, खनिज, पानी और कृषि देशी-विदेशी कंपनियों को बेचने पर तुली हुई है. किसानों द्वारा लगातार हो रही आत्महत्याएं इस बात की सूचक हैं कृषि और उसपर निर्भर रहने वाले लाखों लोगों का जीवन सरकार के लिए कोई मायने नहीं रखता. मौसम की मार, फसल बर्बादी और कृषि संकट से जूझते किसान-मज़दूरों को राहत देने की बजाये, मोदी-सरकार उनकी जमीन ही छीन लेने के लिए भूमिअधिग्रहण अध्यादेश 2015 लायी है. जहाँ एक ओर सरकार अपनी “छवि” सुधारने के प्रयास में  हैं, तो वहीँ दूसरी ओर जमीन अधिग्रहण अध्यादेश को गरीबों की परियोजनाओं और देश-हित के लिए ज़रूरी बताते हुए सरकार कई तरह के मिथक फैला रही है. यह कहा जा रहा है कि अध्यादेश का मकसद धीमी पड़ी विकास दर को तेज करना और उन परियोजनाओं को शुरू करना है जोकि “भूमि अधिग्रहण समस्याओं” के कारण रुकी हुई थीं. लेकिन RTI से प्राप्त जानकारी के मुताबिक कुल 804 रुकी हुई परियोजनाओं में ( जिसमें 78 % प्राइवेट परियोजनाएं हैं ) से केवल 8 % (66 परियोजनाएं) ही अधिग्रहण से सम्बंधित कारणों से रुकी हुई हैं, जबकि अधिकांश परियोजनाएं फण्ड या बाजार के प्रभावों का शिकार हैं. तो फिर क्यूँ इस अध्यादेश को ‘विकास के लिए ज़रूरी परियोजनाओं के लिए रास्ता’ बताकर देश के गरीब, किसानों और मज़दूरों के साथ यह अन्याय किया जा रहा है?

इन सभी सवालों पर अपना विरोध दर्ज करने आज दिल्ली के संसद मार्ग पर जन-सैलाब उमड़ आया जब हज़ारों हज़ार की संख्या में देश के किसान, मजदूर, मछुवारे, शहरी गरीब, प्रगतीशील लोग और उनके संगठन एक साथ भूमि अधिकार आन्दोलन के अंतर्गत “भूमि अधिकार संघर्ष रैली” में शामिल हुए. ओडिशा, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, तमिलनाडू, पंजाब, हरयाणा, दिल्ली, राजस्थान एवं अन्य राज्यों से लोगों ने रैली में शामिल होकर भूमि अध्यादेश 2015 को पूर्णतः रद्द करने की पुरजोर मांग रखी. साथ ही, देश में जगह-जगह इस मांग को लेकर रैलियां, धरने, प्रदर्शन और सभाएं आयोजित की गईं. देश भर में फसल ख़राब होने का इतना बड़ा दुःख झेलते हुए भी किसानों-मज़दूरों ने अपनी जमीन, खेती और जीवन बचाने की लडाई हर घर, खेत-खलिहानों, बस्ती-गाँव-शहर में छेड़ दी है.

लोगों के संघर्ष को समर्थन देने राजनैतिक पार्टियों के प्रतिनिधियों ने रैली को संबोधित किया. जनता दल यूनाइटेड के राज्य सभा सांसद पवन वर्मा ने भूमि अधिकार आन्दोलन का समर्थन किया, तृणमूल कांग्रेस की डोला सेन ने कहा कि उनकी सरकार पश्चिम बंगाल विधान सभा में इस अध्यादेश को पारित नहीं होने देगी. सीताराम येचुरी ने कहा की जमीन पर चल रहा आन्दोलन ही उन्हें संसद में अध्यादेश की लडाई में ताकत देता है ओर इसीलिए, जमीन ओर संसद दोनों पर इस अध्यादेश को पारित नहीं होने देंगे. डी. राजा ने कहा कि अब मोदी सरकार की किसान-मजदूर विरोधी नीतियों का जवाब अब संघर्ष की भाषा से दिया जायेगा. फॉरवर्ड ब्लॉक के कामरेड देवराजन ने कहा कि मोदी-सरकार के सारे वादे एक ही साल में झूठे साबित हुए हैं और सरकार के प्रति असंतोष फ़ैल चुका है.

प्रतिभा शिन्दे, उल्का महाजन, त्रिलोचन पूंची, उमेश तिवारी, आराधना भार्गव, कमला यादव, डॉ. सुनीलम, प्रफुल्ला समंतारा, भूपेंद्र रावत, हनन मोल्लाह, अतुल अंजान, सत्यवान, दयामनी बरला ने भूमि अधिग्रहण और प्राकृतिक संसाधनों और कृषि की लूट के खिलाफ देश भर में संघर्ष तेज़ करने की बात रखी. मेधा पाटकर ने कहा कि देश का संविधान जीने का अधिकार देता है, लेकिन अगर जमीन, जंगल, कृषि, नदियाँ और आजीविका का अधिकार ही छीन लिया जाए, तो इस देश के मेहनतकश जी ही नहीं पाएंगे. गुजरात का मॉडल, जो गरीबों, किसानों, मज़दूरों, अल्पसंख्यकों, दलितो, आदिवासिओं और महिलाओं के खिलाफ है, उसे हम देश के विकास का मॉडल के रूप में नहीं लागू होने देंगे. मोदी जी सिर्फ अपने “मन की बात” करते हैं, लेकिन इस देश के किसानों-मज़दूरों के मन की बात उन्होंने आज तक नहीं सुनी. हम राजनैतिक पार्टियों से भी आह्वाहन करते है कि सिर्फ अध्यादेश का विरोध करना ही काफी नहीं, उन्हें किसान-मज़दूरों के साथ खड़ा भी होना होगा. यह लडाई सिर्फ अध्यादेश के खिलाफ ही नहीं, विकास की गैर-बराबर अवधारणा को चुनौती है.

जन आदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एनएपीएम), अखिल भारतीय वन श्रम जीवी मंच, अखिल भारतीय किसान सभा (अजय भवन), अखिल भारतीय किसान सभा (केनिंग लेन), अखिल भारतीय कृषक खेत मजदूर संगठन, लोक संघर्ष मोर्चा, जन संघर्ष समन्वय समिति,छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन, किसान संघर्ष समिति, संयुक्त किसान संघर्ष समिति, इन्साफ, दिल्ली समर्थक समूह, किसान मंच

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