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Tuesday, May 12, 2015

सुसाइड नोट : दिल के दौरों और सरकारी दौरों के बीच…. विनय सुल्तान


सुसाइड नोट : दिल के दौरों और सरकारी दौरों के बीच….

21 अप्रैल को दौसा के किसान गजेन्द्र सिंह ने दिल्ली के जंतर-मंतर पर सरे आम ख़ुदकुशी कर ली. गजेन्द्र की मौत के बाद मुख्यधारा के मीडिया ने पूरे प्रकरण पर जिस किस्म का स्तरहीन कवरेज और विमर्श पेश किया उसने असल सवालों को किनारे लगा दिया.

इस बीच praxis के रिपोर्टर विनय सुल्तान ने तीन राज्यों की यात्रा कर किसान आत्महत्याओं की असल वजहों की संजीदा पड़ताल करने की कोशिश की है.

डायरी की शक्ल में पिरोई गईं ये रिपोर्ट ‘सुसाइड नोट’ नाम से सीरिज में पाठकों के सामने रखी जा रहीं हैं. ये राजस्थान के हाड़ौती अंचल से सीरिज पहली कड़ी है…

  – संपादक 

Suside Note
उत्तर भारत में विज्ञान विषय से 12वीं कक्षा में पढ़ाई कर रहे हर छात्र और उसके माता-पिता एक शहर के नाम से जरुर परिचित होते हैं. वो शहर है कोटा! कोटा में हर साल लाखों छात्र प्री-मेडिकल और आईआईटी प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी के लिए आते हैं.
और यहीं चम्बल के किनारे मौजूद कोटा थर्मल पावर प्लांट पूरे सूबे की ऊर्जा की भूख भी शांत करता है.
हाड़ौती की सांस्कृतिक राजधानी कोटा, राजस्थान के सबसे अधिक उपजाऊ क्षेत्रों में एक है. और यहाँ की सांस्कृतिक दखल भी देशी विदेशी पर्यटकों को अपने पास बुलाती रही है. यहाँ दशहरे का मेला विदेशी पर्यटकों के भी आकर्षण का केंद्र रहा है.
लेकिन कोटा इस बार एक दूसरी वजह से सुर्ख़ियों में था. 15 तारीख को हुई ओलावृष्टि के बाद से 15 दिन में 30 से ज्यादा किसान, आत्महत्या या फिर दिल के दौरे के कारण मारे गए थे.
दिल्ली में 30 मार्च को कोटा में 19 किसानों की आत्महत्या की ख़बर पढ़ने के बाद मैंने कोटा जाने फैसला किया. जिससे वहां जा कर किसानों के हालात और उनके फ़स्ट हैण्ड एक्सपीरियंस को दर्ज किया जा सके.
रबी की फसल सिंचित क्षेत्र के किसानों के लिए ‘पिता का कंधा’ होता है. खरीफ़ की फसल खराब होने पर भी किसान की हिम्मत पस्त नहीं होती. उसे पता होता है कि चंद महीनों बाद ही उसके खेत में गेंहूं की सुनहरी बालियां होंगी जो सारा कर्जा पाट देंगी.
इस बार पश्चिमी विक्षोभ ने पिता के इस कंधे को तोड़ डाला. एक के बाद एक किसान दिल का दौरा पड़ने से दम तोड़ने लगे. जिनके दिल मजबूत थे उन्होंने ज़हर खा लिया या पेड़ से लटक गए. तो क्या कहानी इतनी सपाट है?
कोई भी त्रासदी दरअसल सिलसिलेवार तरीके से की गई अनदेखियों का नतीजा होती है. आगे की घटनाएं जो आप पढ़ने जा रहे हैं वो कोई कहानी नहीं बल्कि इस बात का बानगी भर है कि कैसे इस देश के खेत ‘हीरा-मोती’ उगलने के बजाए फांसी के फंदे और ज़हर की बोतले उगल रहे है..

मुनाफा जो जानलेवा साबित हुआ….

बूंदी जिले की तहसील केशवराय पाटन का गाँव लाडपुरा.
प्रेमशंकर मीणा प्रताप मीणा का सबसे छोटा बेटा था. उम्र महज 19 साल. आठवीं तक पढाई करने के बाद प्रेमशंकर घर पर खेती-किसानी देखने लगा था.
पिता के 15 बीघा खेत घर खर्च चलाने लायक पैसा नहीं दे रहे थे. लिहाज़ा तीनों भाइयों ने मिलकर 45 बीघा खेत मुनाफे पर 10 हजार रुपये की दर से लिए. 70 हजार रुपये सहकारी और 3 लाख रुपये किसान क्रेडिट कार्ड का कर्ज भी पिता के ऊपर था .
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प्रेमशंकर मीणा के परिजन जिन्हें मुनाफे से ऐसा घाटा नसीब हुआ जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती

भूमि सुधार कानूनों के लागू होने का कोई इतिहास यहां नहीं रहा है. ऐसे में बड़े भूस्वामियों की तादाद यहां काफी अच्छी है.
ये भूस्वामी अपनी ज़मीन छोटे काश्तकारों को लीज पर देते हैं. इसे यहां मुनाफा या जवारा कहा जाता है.
यह व्यवस्था शोषण के मामले में उत्तर भारत की बटाईदारी व्यवस्था का अगला चरण है. इसमें भूस्वामी काश्तकार को निश्चित दर पर साल भर के लिए अपनी जमीन किराए पर देता है.
यहां सात से दस हज़ार प्रति बीघा मुनाफा वसूला जाता है. यह भुगतान साल की शुरुआत में करना होता है. इस तरह खेती में होने वाले जोखिम से भूस्वामी अपने आप को साफ़ बचा लेता है.
प्रेमशंकर 21 तारीख की सुबह खेतो में मोटर के जरिये पानी निकालने गया. ओलावृष्टि के कारण जमा पानी ने 80 फीसदी गेहूं का नुकसान कर दिया था. इसके बाद जो हुआ वो पुलिस रिकॉर्ड में कुछ इस तरह से दर्ज है-

“मृतक प्रेमशंकर पुत्र प्रताप मीणा उम्र 19 साल, निवासी लाडपुरा की लाश की शिनाख्त ओमप्रकाश के जरिये की गयी. लाश प्रताप मीणा के खेत में लसोड़े के पेड़ से कपड़े की रस्सी के ज़रिये लटकी हुई थी. टहनी की ज़मीन से ऊंचाई 10 फीट थी. लाश की रस्सी सहित लम्बाई 6.7 फीट पाई गई. लाश के पैर जमीन से २ फीट ऊपर थे. शरीर पर सफ़ेद रंग का शर्ट और स्लेटी पायजामा है. मुंह बड़ा है, आँखे बड़ी है, जीभ निकली हुई है. गले के चरों ओर रस्सी का गोल निशान है. शरीर पर चोट का कोई निशान नहीं है.”

प्रेम ने फांसी क्यों लगा ली ? प्रताप मीणा बताते हैं

“…उसके 2 बड़े भाई अपने परिवार के साथ अलग रहते हैं. माँ के स्वर्गवास के बाद उसने पढाई छोड़ कर घर का काम संभालना शुरू कर दिया था. सब मिलाकर पिता पर लगभग 8 लाख का कर्ज हो चुका था. ये लगातार तीसरा साल था जब फसल ख़राब हुई थी. मुनाफे का पैसा भी उधार पड़ा था. उसने मेरी मदद के लिए पढाई छोड़ दी. ओले बरसने के अगले दिन ही रात को जाग कर रोने लगा. मैंने समझाया भगवान पर भरोसा रख सब ठीक हो जाएगा. उस दिन सुबह खेत से मोटर में पानी निकालने गया था. पर खराबा देख कर सदमे में आ गया…”

मैं प्रेमशंकर के पिता के सामने बैठ कर सोच रहा था कि क्या आत्महत्या सचमुच कायराना कदम हैं ? मेरे जीवन में ऐसे २-3 मौके आये हैं जब मैंने अवसाद में आकर आत्महत्या करने के बारे में सोचा. इसमें छत से छलांग लगाने जैसे फौरी योजनाएं शामिल थीं.
लेकिन अंततः मेरी हिम्मत ज़वाब दे जाती थी. आत्महत्या के लिए सचमुच जीवन से सख्त, बहुत सख्त घृणा कि जरुरत होती हैं. मैं नहीं कहता कि आपका ऐसा कोई तजुर्बा करें.
इसी बीच एक मूढ़े हुए सिर वाले पांच साल के बच्चे ने मेरी तरफ पानी का गिलास बढा दिया. जब मैंने उससे पूछा कि क्या करना चाहते हो बड़े हो कर? उसका जवाब था कि नौकरी करूँगा शहर में.
CSDS का हालिया सर्वे बताता हैं कि 62 फीसदी लोग गाँव से शहर जाना चाहते हैं, बशर्ते रोजगार का कोई ज़रिया मिल जाये.
बहरहाल मुझे आखिरी में ये जानकारी मिली कि प्रेमशंकर के पिता ने 50 हजार का कर्ज ले कर उसके अंतिम संस्कार कि सभी सनातनी परम्पराओं का निर्वाह किया. उनका कहना था कि अगर वो ऐसा नहीं करते तो समाज क्या कहता?

“मैंने अपनी सत्तर साल की उम्र में लोगों को यूं मरते हुए नहीं देखा….”

बूंदी जिले का चितावा गाँव. मैं जैसे ही महावीर मीणा के घर में पंहुचा, उनके घर की महिलाओं ने विलाप करना शुरू कर दिया. मैंने महावीर की पत्नी को बात करने के लिए बुलाया.
वो मेरे सामने अपनी सास के साथ आ बैठी. लेकिन मेरे किसी भी सवाल का कोई ज़वाब नहीं दिया. न ही वो सामने पड़ी कुर्सी पर बैठने को राजी हुई.
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मेरे लाख कहने के बावजूद वो कुर्सी पर नहीं बैठीं
उनकी माँ रुकमनी बाई बताती हैं कि महावीर के पिता के देहांत के बाद परिवार की सारी ज़िम्मेदारी महावीर के ऊपर ही थी.
कुछ कर्ज पिता सिर पर छोड़ के गए थे. पिता का क्रिया-कर्म, छोटे भाई की शादी ने उसे और बढ़ा दिया था.
50000 सहकारी बैंक , २ लाख किसान क्रेडिट कार्ड और 4 लाख महाजन का कर्ज था. सहकारी ब्याज की मान्य दर 24 फीसदी सालाना है जोकि मजबूरी के आधार पर 120 फीसदी सालाना तक पहुंच सकती है.
17 मार्च शाम 4 बजे 27 साल के महावीर अपने खेतो में मोटर के ज़रिये पानी बाहर निकालने के पाल बना रहा था. अचानक गश खा कर गिर गया.
घरवाले पहुचे तो सीने में तेज दर्द की शिकायत की. खेत से घर लाया गया. घर से अस्पताल के बीच में महावीर ने दम तोड़ दिया.
सरकार ने महावीर की मौत को “प्राकृतिक” माना.
मैंने जब उनकी माँ से इस बारे में पूछा तो उनका कहना था कि “..चारों तरफ किसान सदमे से मर रहे हैं. मैंने अपनी 70 साल की जिंदगी में लोगों को खेतों में इस तरह मरते नहीं देखा.”
महवीर के छोटे भाई विष्णु प्रसाद मीणा ने मुझे बताया कि पिछले तीन साल से उनकी फसल खराब हो रही है. इससे कर्ज का बोझ बढ़ता गया. हर रोज साहूकार सूद के लिए तकाजा करते. हर साल मूल पर सूद और ज़िल्लत बढ़ती जा रही थी. आखिर पैसे देते भी तो कहाँ से ? पिछली बार भी 80 फीसदी नुक्सान हो गया था. घर चलाना मुश्किल हो रहा था.
यह कहानी सिर्फ महावीर की नहीं है. हरित क्रांति के दौर में पूरे हाड़ौती में नहर सिंचाई परियोजना की शुरुआत हुई. इसके बाद किसानों को धीरे-धीरे नकदी फसलों की तरफ धकेला गया. रासायनिक खाद का जम कर प्रयोग किया गया.
इस पूरी प्रक्रिया में पारंपरिक फसलों और फसल चक्र की बुरी तरह से अनदेखी की गई. फास्फोरस जैसे कई हानिकारक रासायनिक तत्व मृदा में संतृप्तता के स्तर पर पहुंच गए.
नतीजा यह हुआ कि यहां बड़े पैमाने पर बोई जाने वाली सोयाबीन के बीज मिट्टी में मिट्टी बन कर रह गए. यहां लगातार तीन साल से खरीफ़ की फसल में किसानों को नुकसान झेलना पड़ा है.
ऊपर ‘नकदी फसलों की धकेलने’ का जिक्र हुआ है. इस पूरी प्रक्रिया को समझाना जरुरी है.
वर्ष 2012 में ग्वार की फसल जोकि 1500 से 2000 के बीच में बेचीं जाती थी उसके भाव चढ़ते-चढ़ते नाटकीय रूप से 40,000 रूपए पर पहुंच गए. हालांकि मुझे एक भी किसान ऐसा नहीं मिला जिसने 6000 हजार से अधिक में ग्वार बेचा हो.
साफ़ तौर पर ये सारा खेल कलाबाजारियों का था.
इसका असर ये हुआ कि अगले साल से पूरे पश्चिमी राजस्थान में इस फसल का रकबा तीन गुना बढ़ गया. बीज के दाम दोगुने हो गए. अभी हरियाणा में कपास में मामले में यही देखा जा रहा हैं.
जिस साल बीटी बीज बाज़ार में आए उस साल कपास को 8 हजार के भाव मिले. अगले साल बीज को लेकर खूब मारामारी हुई. आधे से ज्यादा नकली बीज बेच दिए गए . भाव 8 हजार से गिर कर चार हजार पर आ गए.
आपने बचपन में भूगोल की किताबों में पढ़ा होगा कि किसी फसल को किस किस्म की मिट्टी और वातावरण चाहिए. अगर दिमाग में वो कूड़ा अब भी मौजूद है तो उसे साफ़ कर डालिए. दरअसल किस क्षेत्र में क्या फसल बोई जानी हैं ये भौगौलिक परिस्थियों की बजाए स्थानीय मंडिया तय कर रही हैं.
इस दौरान महावीर की बीवी लगातार रोती रही. अंत में उनके मुंह से एक पंक्ति फूटी “अगर अब सरकार ने मदद नहीं की तो हम कही के नहीं रहेंगें. मेरे तीन बच्चे हैं मैं उनका पेट कहाँ से भरूँगी. ”
रुकमनी बाई ने मुझसे कहा कि मैं जा कर ‘सरकार’ से उनकी सिफारिश करूँ. उनके लहजे से लग रहा था कि उस 72 वर्षीय वृद्धा की नज़र में सरकार जरुर कोई आदमी हैं. पास ही महावीर का सबसे छोटा भाई ‘राजा वन वीक सीरिज’ के जरिये आने वाले परीक्षा की तैयारी में जुटा हुआ था.

सरकारी मुआवजे से क्या हम चिड़िया का घोंसला बनाएंगे?

चितावा से निकलकर बूंदी के कापरेन तहसील के गाँव ठिमली पंहुचा जहाँ 29 मार्च को वित्तमंत्री अरुण जेटली ने दौरा किया था. यह एक हवाई दौरा था.
मुझे वो अस्थाई हैलीपेड देखने का सौभाग्य भी मिला जिसके ऊपर उनका हैलीकोप्टर उतरा था. इसमें राज्य सरकार के मंत्री भी शामिल थे. दौरे के बाद वो गाँव वालों से मिले.
वित्तमंत्री ने पत्रकारों को बताया कि उन्होंने आज तक ऐसी तबाही नहीं देखी.
उन्होंने गाँव वालों को आश्वासन दिया कि वो मुख्यमंत्री से ज्यादा से ज्यादा मुआवजा देने कि सिफारिश करेंगे.
मैंने ठिमली जाते वक़्त खेत में गेहूं की बालियों को लेटे हुए देखा. ठीमली जाकर जब वित्तमंत्री जी के हवाई दौरे की बात सुनी तो समझ में नहीं आया कि मंत्री जी ने इतनी ऊंचाई से 12-18 इंच लम्बी बालियों का हाल कैसे जान लिया होगा?
दूसरा जब मुआवजे की राशि केन्द्रीय वित्त मंत्रालय के जरिए ही आवंटित की जानी है तो मुख्यमंत्री को सिफारिश करने की बात से माननीय मंत्री का अभिप्राय क्या था?
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ओलों की शिकार छत

ठीमली गाँव मुख्य सड़क से कुछ इस तरह से कटा हुआ है कि अपने आप में ही जमीनी टापू बन गया.
लोग बताते है कि डिलीवरी केस में लोगों को महिला को खाट पर लेटा कर ले जाना पड़ता हैं.
2 साल में यहा 3 महिलाओं की मौत डिलीवरी के दौरान हॉस्पिटल ना पहुंच पाने की वजह से हो गयी है.
पूरे गाँव में सिर्फ एक घर गुर्जर समुदाय का है बाकी सभी परिवार अनुसूचित जाति-जनजाति के हैं. लिहाजा एक भी घर पक्का घर नहीं हैं.
घरों की छत देखने पर लगता हैं कि जैसे इसे क्रेशर से चकनाचूर कर दिया हो. सीमेंट के शेड चलनी की शक्ल ले चुके थे. गाँव वाले बताते हैं कि यहाँ संतरे से दोगुने आकर के ओले गिरे थे.
70 साल कि एक वृद्धा बताती  है” हम खाट के ऊपर बिस्तर डाल के उसके नीचे छिप गए थे तब जा कर जान बची. हम दो दिन तक डरते रहे कि कहीं फिर से ओले न गिर जाए हम कहाँ जाएँगे”.
मैं टूटे घरों के फोटोग्राफ ले ही रहा था कि अचानक घूँघट में एक महिला ने मुझ पर चिल्लाना शुरू कर दिया था. वो हाडौती में लगातार बडबड़ाती रही. जो मैं समझ पाया उसके अनुसार मुझे उस गाँव से निकल जाना चाहिए.
हमने बहुत सारे नेताओ को देख लिया. जब मेने उनसे कहा कि मैं नेता नहीं पत्रकार हूँ तो उनका कहना था कि तुम जो फोटो निकाल कर ले जाते हो उससे तुम्हे तो पैसे मिलेंगे.
हमारे घर टूट गए हमें कुछ क्यों नहीं मिला. अभी वित्तमंत्री के दौरे को 10 दिन भी नहीं बीते थे.  इसी बीच मैंने सामने खड़े नीम के पेड़ को देख जिस पर एक भी पत्ता नहीं था हालांकि पतझड़ का आना अभी बाकी है.
अब तक क्षेत्र में केन्द्रीय वित्तमंत्री, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, मुख्यमंत्री, राज्य कृषि मंत्री,कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट, एमपी, विधायक, कलेक्टर, तहसीलदार सहित 250 से अधिक दौरे हो चुके हैं. लेकिन नतीजा सिफर है.
घर आ कर मैंने मकान सम्बंधित मुआवजे की जानकारी को खंगाला. राज्य सरकार द्वारा प्राकृतिक आपदा में मकान क्षति पर दिए जाने वाले मुआवजे का विवरण इस तरह हैं :-

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मुझे नहीं पता कि सरकार ठीमली गाँव के मकानों को क्षति की किस श्रेणी में रखेंगी ? पर इतना जरुर दावे के साथ कह सकता हूँ कि अगर मुआवजा मिला तो वह 10 वर्ग फीट केल्हू की छत बनाने में भी नाकाफी होगा.
इस दौरान मुझे स्थानीय किसान और इस क्षेत्र में मेरे गाइड बलदेव सिंह का मुआवजे पर दिया बयान याद आ गया. वो कहते है-

“..किसी भी किस्म का मकान बनाने के लिए आज कम से कम एक लाख रूपया तो चाहिए ही चाहिए. ऐसे में सरकार जितना मुआवजा दे रही उससे हम क्या करेंगे? चिड़िया का घौसला बनाएंगे?…”

सेना से रिटायर्ड हुए इस लेफ्टिनेंट ने जब अपनी बात खत्म की तो उनकी दोनों दाढ़ों के उभार से उस बात को साफ़ पढ़ा जा सकता था जो बयान के दौरान छूट गई थी.
ठीमली, बोयाखेड़ा, बालापुरा , हीरापुरा, कापरेन, जोशिया का खेडा, हिन्गौडिया, देवली , डिकौली , खेलड़ी सहित बीस गाँव के लोगो को अपने घोंसले खुद ही जोड़ने होंगे. कृषि मंत्री ने संसद में चल रही बहस के दौरान बताया हैं कि ” ओलावृष्टि ‘प्राकृतिक आपदा’ की श्रेणी में नहीं आती.” ऐसे में प्राकृतिक आपदा से हुई मकान क्षति के दायरे से ये बीस गाँव बाहर निकल जाएँगे…

अगली किस्तों में जारी…

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