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Tuesday, June 2, 2015

Labour Laws finished!Company Changed! Courage translated into exploitation ! Hell losing at work places! Palash Biswas

Labour Laws finished!Company Changed!
Courage translated into exploitation !
Hell losing at work places!
Palash Biswas
Labour Laws finished!Company Changed!Courage translated into exploitation !Hell losing at work places.

Just before leaving office,Last night we witnessed the imported glass on the central table of the conference room created mega Blast twice which could have sent splinters to kill us if the walls could not stop it.

Yet another scam in purchase which is abundant during continuous shifting of the working place and name change of the company to deprive us.

Workers are deprived.Even two day weekend leave is reduced into only one just for the coolie Hindi Janta.Don`t care.But the management should take care of the scam inflicted management and see who got what and what the company got in return.

Meanwhile,media reports,as it completes one year in office, the NDA government seems to have finally bit the bullet and taken up the controversial Industrial Disputes Act, 1947, for amendments that would allow easier retrenchment and closure norms for firms with up to 300 workers ...
We may not know which unit is going to be targeted next.It might quite well be ours and we have become helpless as the government of India has arranged everything to bring forth the bloodless coup of silence!
Media reports says:
The government's push for labour reforms is set to face resistance from labour unions which are vehemently opposed to contentious proposals like allowing firms with up to 300 workers to retrench employees!

No trade union is fighting for the working class.

No Political party is fighting for the working class and 

quarter century passed without resistance.The exclusion

 and ethic cleansing continued.Continued the holocaust. 

   
Satya Narayan
June 1 at 8:43pm
 
वैसे तो ज़्यादातर कारख़ानों में साप्ताहिक अवकाश का कोई प्रावधान नहीं है, तथा सातों दिन का काम अब आम बात हो गयी है। परन्तु जब भी हमें ख़ाली वक़्त मिलता है तो हममें से अधिकतर लोग सलमान ख़ान, आमिर ख़ान, शाहरुख ख़ान या बॉलीवुड सितारों की फ़िल्में देखना पसन्द करते हैं। इन तमाम फ़िल्मों को देखने के बाद हम कुछ देर के लिए अपनी कठिन ज़िन्दगी को भूल जाते हैं, परन्तु इससे हमारे वास्तविक जीवन में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है। सुबह होते ही हमें एक बार फिर कोल्हू के बैल की तरह 16-17 घण्टे खटते हुए मालिक की तिजोरियाँ भरने के लिए अपनी-अपनी फ़ैक्टरी के लिए रवाना होना पड़ता है।
ज़्यादातर बॉलीवुड फ़िल्मों में नायक को आम मेहनतकश जनता का हमदर्द तथा अमीरों के दुश्मन के रूप में दिखाया जाता है। परन्तु ये तमाम लोग मेहनतकश जनता के बारे में क्या राय रखते हैं, इसका अन्दाज़ा अभी हाल ही में मुम्बई की एक अदालत द्वारा सलमान ख़ान को सज़ा सुनाये जाने के बाद इनके बयानों से लगाया जा सकता है। इनमें से कुछ ने तो यहाँ तक कह डाला कि फुटपाथ सोने के लिए नहीं होते हैं, इसलिए इस घटना के असली ज़िम्मेदार सलमान ख़ान नहीं बल्कि उस रात वहाँ सो रहे लोग थे। ज्ञात रहे कि अदालत ने सलमान ख़ान को 2003 में फुटपाथ पर सो रहे लोगों पर नशे में धुत हो गाड़ी चढ़ाने के जुर्म में, जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गयी थी तथा चार लोग गम्भीर रूप से घायल हो गये थे, 5 साल की सज़ा सुनायी। हालाँकि सारे क़ानून को ताक पर रखकर उसे दो ही दिन बाद ज़मानत भी मिल गयी।
सज़ा सुनाते ही पूरा का पूरा फ़िल्म उद्योग सलमान ख़ान के बचाव में उतर आया। इस दौरान हर कोई सलमान ख़ान को निर्दोष तथा दिल का साफ़ इंसान साबित करने में जुटा हुआ था। परन्तु इस पूरे तमाशे के दौरान इस हादसे का शिकार हुए लोगों को इंसाफ़ दिलाने के पूरे मुद्दे को ही ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया। इससे साबित होता है कि हमारे देश में तमाम क़ानून बस मज़दूरों और ग़रीबों पर ही लागू होते हैं। इसी के चलते जहाँ एकतरफ़ तो सलमान ख़ान जैसे लोग जुर्म करने के बावजूद भी आज़ाद घूमते हैं, वही दूसरी तरफ़ अपनी जायज माँगों को लेकर प्रदर्शन करने वाले मज़दूरों को बिना किसी पुख्ता सबूत के जेलों में ठूँसा जाता है। असली बात तो यह है कि इन तमाम फ़िल्मी सितारों और एक कारख़ाना मालिक के चरित्र में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं है। जिस तरह कारख़ाने में सारी मेहनत तो मज़दूर करता है, परन्तु पूरा मुनाफ़ा मालिक हड़प लेता है। उसी तरह एक फ़िल्म को बनाने में भी सैकड़ों मेहनतकशों की मेहनत लगती है, लेकिन सारा श्रेय और मुनाफ़ा निर्देशक और फ़िल्म के नायक-नायिका आपस में बाँट लेते हैं। इसके अलावा, अपने आलीशान बँगलों, क़ीमती कपड़ों, तथा महँगी गाड़ियों का रौब दिखाते समय ये लोग भूल जाते हैं कि इन तमाम चीज़ों के पीछे मज़दूरों की मेहनत छिपी हुई है। लेकिन साथियों इस पूरी स्थिति के लिए हम भी बहुत हद तक ज़िम्मेदार हैं, क्योंकि वो हम ही हैं जो अपनी मेहनत की कमाई से इनकी घटिया फ़िल्मों की सीडी और टिकट ख़रीदते हैं। असलियत में तो हमारे असली नायक ये नहीं बल्कि अमरीका के शिकागो में शहीद हुए वे मज़दूर नेता हैं, जिन्होंने मज़दूरों के हक़ों के लिए अपनी जान तक की कुर्बानी दे डाली, तथा जिनकी शहादत को याद करते हुए हर साल 1 मई को मई दिवस के नाम से मनाया जाता है। इसलिए साथियों अगर हम चाहते हैं कि हमारे आने वाली पीढ़ी इस दमघोंटू माहौल में जीने के बजाय आज़ाद हवा में साँस ले सके तो हमें अपने गौरवशाली इतिहास को जानना पड़ेगा। इसके लिए ज़रूरी है कि हम अपने ख़ाली समय में इन लोगों की घटिया फ़िल्मे देखने के बजाय ऐसी किताबें तथा साहित्य पढ़ें जो हमें हमारे अधिकारों के बारे में जागरूक बनाती हों।
http://www.mazdoorbigul.net/archives/7438
पूँजी की गुलामी से मुक्ति के लिए बॉलीवुड फ़िल्मों की नहीं बल्कि मज़दूर संघर्षों के गौरवशाली
www.mazdoorbigul.net
लेकिन साथियों इस पूरी स्थिति के लिए हम भी बहुत हद तक ज़िम्मेदार हैं, क्योंकि वो हम ही हैं जो अपनी मे...

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