Sustain Humanity


Saturday, August 1, 2015

क्योंकि इसवक्त रीढ़ सबसे जरुरी है,जो नहीं है। इसीलिए इस मूसलाधार में कयामत और हुकूमत साथ साथ,चारों तरफ मूसलाधार।घनघोर मूसलाधार। इसीलिए मां बहुत डरी डरी है कि किसी की खैरियत नहीं है।उंगलियों की छाप काफी नहीं हैं,अब वे गुप्तांग का नमूना भी लेंगे और कुछ भी फतवा जारी करके सरेआम कत्ल कर देंगे।फिर कत्ल और कातिल के खिलाफ जो जुबान खोलेगा,वह सीधे देशद्रोही माना जायेगा।बेमौत मारा जायेगा। एहतियात कोई काफी नहीं,अब आवाम से आवाम का चेन बनाने से ही मां को चैन आयेगा कि चाक चाक हो रहा मां का जिगर इन दिनों! पलाश विश्वास

क्योंकि इसवक्त रीढ़ सबसे जरुरी है,जो नहीं है।

इसीलिए इस मूसलाधार में कयामत और हुकूमत साथ साथ,चारों तरफ मूसलाधार।घनघोर मूसलाधार।

इसीलिए मां बहुत डरी डरी है कि किसी की खैरियत नहीं है।उंगलियों की छाप काफी नहीं हैं,अब वे गुप्तांग का नमूना भी लेंगे और कुछ भी फतवा जारी करके सरेआम कत्ल कर देंगे।फिर कत्ल और कातिल के खिलाफ जो जुबान खोलेगा,वह सीधे देशद्रोही माना जायेगा।बेमौत मारा जायेगा।

एहतियात कोई काफी नहीं,अब आवाम से आवाम का चेन बनाने से ही मां को चैन आयेगा कि चाक चाक हो रहा मां का जिगर इन दिनों!

पलाश विश्वास


क्योंकि इसवक्त रीढ़ सबसे जरुरी है,जो नहीं है।

इसीलिए इस मूसलाधार में कयामत और हुकूमत साथ साथ,चारों तरफ मूसलाधार।

इसीलिए मां बहुत डरी डरी है कि किसी की खैरियत नहीं है।

उंगलियों की छाप काफी नहीं हैं,अब वे गुप्तांग का नमूना भी लेंगे और कुछ भी फतवा जारी करके सरेाम कत्ल कर देंगे।

एहतियात कोई काफी नहीं,अब आवाम से आवाम का चेन बनाने से ही मां को चैन आयेगा कि चाक चाक हो रहा मां का जिगर इन दिनों!

हमने अपने ब्लागों मे पहले से अंग्रेजी में सविस्तार आगाह किया था डीएनए प्रोफाइलिंग विधेयक के बारे में,जो इसी मानसून सत्र में पास होना है।युवा पत्रकार भाषा सिंह का आबार कि उनने हिंदी में आउटलुक में यह मसला भी उठा दिया है,जिसपर संसद में सिरे से चुप्पी है और जैसे दूसरे कानून पास हो रहे हैं,वैसे ही यह विधेयक गुपचुप कानून बन जाना है।नागरिकता संसोधन विधेयक अभीतक लोग समझ नहीं सके हैं और आधार का एजंडा समझाते समझाते हम थक गये हैं।


इस पूरे मसले पर उषा रमानाथन ने आउटलुक से बातचीत के दौरान बताया कि यह विधेयक बेहद खतरनाक है। यह नागरिकों की निजता का खुलेआम उल्लंघन करते हुए राज्य और जांच एजेंसियों को व्यक्ति के जीवन ही नहीं, बल्कि शरीर पर भी अतिक्रमण करने की अपार छूट देता है। यह तानाशाही को बढ़ावा देने वाला है और कहीं से भी वैज्ञानिक नहीं है। खासतौर से आज के दौर में जब जानकारियां कहीं भी सुरक्षित नहीं रहती, तब व्यक्तियों की निजी जिंदगी से जुड़ी जानकारियों का क्या इस्तेमाल हो सकता है, इसका किसी को अंदाजा नहीं है। ऐसे में डीएएन डाटा बैंक बनाना कितना खतरनाक हो सकता है, इस बारे में समाज को सोचना चाहिए।


खतरा कितना बड़ा है,समझ लीजिये कि डीएनए प्रोफाइलिंग विधेयक के खतरे कुछ इसतरहके हैं कि टनटनाते ही सर कलम हो जायेगा।सुतली की तरह जिनने लपेट लिया है,जो उभयलिंगी हैं,जो शीमेल हैं और अगवाड़े पिछवाड़े मारने मरवाने के मिलियनर बिलियनर हैं,बहरहाल उन्हें कोई खतरा नहीं है।बहरहाल हम इस निषिद्ध मसलेपर जापानी तेल और रााकेट कैप्सूल की खटिया तोड़ वैदिकी संस्कृति के मताबिक कोई बहस शुरु ही नहीं कर पा रहे हैं और हम शर्मिंदा हैं।


- व्यक्ति के शरीर से इनटिमेट बॉडी सैंपल (शरीर के गुप्तांगों के नमूने) लेने का प्रावधान।

-शरीर से न केवल नमूने लिए जाएंगे बल्कि उस हिस्से की फोटो या वीडियो रिकॉर्डिंग करने की भी छूट होगी

-इसका इस्तेमाल सिर्फ आपराधिक मामलों के निपटारे में ही नहीं बल्कि दीवानी मामलों में होगा।

-इसका प्रयोग जंनसंख्या को नियंत्रित करने के प्रयासों में भी किया जाएगा



गुप्तांग की सैंपलिंग से लोगों को सेनसेक्स का मजा आ रहा है क्योंकि इस नये कानून के जरिये इसका इस्तेमाल सिर्फ आपराधिक मामलों के निपटारे में ही नहीं बल्कि दीवानी मामलों में किया जाएगा। मिसाल के तौर पर सेरोगेसी, मातृत्व या पितृत्व, अंग प्रत्यारोपण, इमिग्रेशन और व्यक्ति की शिनाक्चत आदि में भी डीएनए प्रोफाइलिंग के इस्तेमाल की बात कही गई है।


और तो और डीएनए प्रोफाइल के जरिए जमा की गई जानकारी का प्रयोग जंनसंख्या को नियंत्रित करने के प्रयासों में भी किया जाएगा। इसे लेकर पहले अल्पसंख्यक समुदायों, आदिवासियों और दलितों में गहरी आशंकाएं हैं। इस तरह से जुटाई गई जानकारी को इन तमाम तबकों को निशाने पर लेने, उन्हें सामाजिक रूप से अपमानित करने और नियंत्रित करने में किया जा सकता है।


पहले ही सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बता दिया है कि नागरिकों को निजता का कोई अधिकार नहीं है।मेहनतकशों के सारे हकहकूक श्रम सुधारों के जरिये खत्म है।


नोट छापने का काम भी  अब प्राइवेट सेक्टर में होने के आासर है क्योंकि रिजर्व बैंक की अब कोई औकात ही नहीं है।राजन किस बात के राजन हैं और किस बात के गवर्नर हैं,समझ में नहीं आता।वरना इतनी बेइज्जती खराब होने के बाद तो किसी भी रीढ़ वाले शख्स को तुरंत रिजाइन कर देना चाहिए।


जैसे इन दिनों राजनेता,बुद्धिजीवी, पत्रकार,कलाकार,साहित्यकार में रीढ़ कोई होती नहीं है वैसे ही अर्थशास्त्री भी रेंगने वाले लोग है।राजन के हाथ पांव काट दिये गये हैं और वे अभी पद पर बने हुए हैं।हालांकि रिजर्व बैंक का निजीकरण वैसे ही हो गया है जैसे रेलवे का निजीकरण हो गया है।


ट्रस्ट से बंदरगाहों को कारपोरेशन बनाकर डाउ कैमिकल्स के वकील ने उनको बरसों पहले प्राइवेट बना दिया है और एअर इंडिया को विलय के मार्फत तोड़ा जा रहा है तो कोलइंडिया को तोड़कर तोड़ा जा रहा है।सारे सरकारी बैंकों में निजी क्षेत्र का प्रंबंधन है तो बीमा बाजार में है।


संपूर्ण निजीकरण, संपूर्ण एफडीआई,संपूर्ण विनियंत्रण संपूर्ण विनियमन,संपूर्ण महाजनी पूंजी और संपूर्ण अमेरिकी उपनिवेश,संपूर्ण जायनी राजकाज रंगभेदी नस्ली वर्चस्ववादी सामंती साम्राज्यवादी दरअसल शत प्रतिशत हिंदू राष्ट्र का नक्शा यही है।


इसीलिए बेहद तरकीब से मीडिया को केसरिया बनाया गया है सबसे पहले।मीडिया के इस केसरिया बनने के पीछे मसीहा संप्रदाय का सबसे बड़ा हाथ है,जो एक से बढकर एक पाखंडी रहे हैं।बात करेंगे उदारता की और राज होगा फतवाबाजों का जैसा हूबहू संघ परिवार का राजकाज है।


जन्नत का हकीकत यही है।


कमसकम ओम थानवी पाखंडी नहीं थे और न बगुला भगत थे।जैसे दूसरे जीवित मृत मसीहा रहे हैं।जैसे राजन हैं।


दुनिया जानती है कि न हम अस्मिता की दीवार की परवाह करते हैं और न भाषा ,मजहब या सरहदों की परवाह करते हैं हम।


बात सीधे की जाये और लफ्फाजी से मुद्दों और मसलों का गुडगोबर न किया जाये। हमार साहित्य यही है और पत्रकारिता भी यहीच।


किसी शीमेल की तरह हम मुद्दों और मसलों का कारोबार नहीं करते और न किसी रब के हवाले करते हैं मुद्दों और मसलों को जिन्हें हमें कुद निपटाने हैं।बाकी ससुरा यह मीडिया तो शीमेल जलवा है। भाषा और कलाकौशल सामाजिक यथार्थ का आइना होता नहीं है और न कोई शीमेल घराना किसी मोर्चे के काम आता है।


संघ परिवार पूरे देश का गुप्तांग निकालकर शीमेल क्लोनिंग की जुगत में है।यही डीएनए प्रोफाइल कामून है तो यही हिंदुस्तान को गैरहिंदुओं के सफाये का चाकचौबंद इंतजाम भी।सीध जनसंक्या के सफाये का इंतजाम है।


माताओं को डरना ही चाहिए और माताएं अगर डर रही हैं और अपने अपने रब से खैरियत की दुआ मांग रही हैं तो समझ लीजिये कि कयामत और हुकूमत साथ साथ हैं तो कयामत बहार कैसे गुल खिलायेंगी इस अनंत वधस्थल पर वैदिकी हिंसा के दौर में।


तमाम कागद कारे और सारे कभी कभार इसी मकसद से होते रहे हैं क्योंकि न हम नगाड़े हैं और न खामोश  और न किसी नौटंकी का किरदार हम निभा रहे कि मौत का जश्न भी मना लें,गुप्तांग भी कटवा लें और नागरिक और मानवाधिकार के मसलों पर तंबू तानकर शुतुरमुर्ग छावनी डालकर अपनी खाल बचा लें हम।


हम पुश्त दर पुश्त खालें खिंचवाते रहे हैं और चमड़ी और दमड़ी की चकाचौंध हमें चौंधिया न सकें और न हमारे गुप्तांग बाजार में  सौदेबाजी और समीकरण के लिए हैं,जिनके हैं तो सैंपल क्या वे पूरा का पूरा कटवा देंगे और कहेगा जैसा चाहे इस्तेमाल कर लें।


किसी को समझ में नहीं आता है कि माजरा आखिर क्या है।बाजार के इसी धर्मोन्मादी खेल के मद्देनजर हम बार बार जोर देकर हते रहे हैं कि प्रभाष जोशी से बड़े संपादक हैं ओम थानवी।


पच्चीस साल की नौकरी में प्रमोशन तो खाक,मेरा कुछ छपा भी नहीं है जनसत्ता में,चंद महीने और हैं,और किसी का हो नहो ,मेरी सेवा का एक्सटेंशन किसी सूरत में नहीं होना है क्योंकि समीकरण बनाना और बिगाड़ना मेरा चरित्र नहीं है।


हमें सार्वजनिक तौर पर जोशी जी के जिंदा रहते उन्हें खरी खरी सुनाने में कभी हिचक नहीं हुई तो ओम थानवी को भी हमने कभी बख्शा नहीं है।हमारा कोई रब नहीं है और न हमें रब का कोई डर है।


जनसत्ता में जो नहीं हैं वे चाहे जो फतवा दें ,अंदर के हालात हम भुगतते रहे हैं और सिरे से नापसंद किसी आदमी की तारीफ हम यूं नहीं कर रहे थे।


क्योंकि इसवक्त रीढ़ सबसे जरुरी है,जो नहीं है।


संपादक अब रीढ़विहीन प्रजाति है और मैं संपादक कभी इसलिए नहीं बन सकता क्योंक हर कीमत पर हमने रीढ़ बचाये रखने की जुगत की है।थानवी का कमाल यही है कि उनने छब्बीस साल तक जनसत्ता की संपादकी करते हुए भी रीढ़ बचाये रखी है।


जैसे अब जबकि ओम थानवी रिटायर कर गये,तमाम लोग वही बात कर रहे हैं जो मैंने महीनों पहले कहा था कि जनसत्ता को जनसत्ता बनाये रखने में रीढ़ की जरुरत थी और अब ओम थानवी के खास सहयोगी मुकेश भारद्वाज हमारे नये संपादक हैं और जनसत्ता रिलांच भी हो रहा है,लेकिन लेआउट बदल जाने से अखबार सुधर जाने की गारंटी नहीं है ।


बहरहाल अखबार अब खबरों वाला अखबार हो रहा है।तेवर रहेगा कि नहीं,रख पाना संभव है या नहीं ,यह मुकेश जी हों या हम हों,हम लोगों में से किसी के बस की बात नहीं है।


जनसत्ता का बेड़ा गर्क तो दिवंगत प्रभाष जोशी ने ही कर दिया था अपने संघी सिपाहसालारों के साथ मिलकर गैर प्रोफेशनल ढंग से जाति और राजनीति के घालमेल से तो अब किसी के लिए संभव नहीं है कि बालू के बांध से सुनामियों का मुकाबला करें।


जोशी जी की कृपा से हम अब भी सबएडीटर हैं।


2011 से चैथे कैटेगरी में मजीठिया दो प्रोमोशन के साथ बैकडेटेड मिल जाने के बावजूद हम सबएडीटर ही रिटायर करेंगे।


किसी भी सूरत में दिल्ली क्या कोलकाता में भी हमारी हैसियत कुछ भी नहीं है।होती तो हम जागरण में जैसे आदरणीय नरेंद्र मोहन के प्रस्ताव ठुकरा चुके हैं कि वहां बदलाव की गुंजाइश है नहीं, यहां भी हम थानवी के जूते में पांव कतई नहीं डालते।


किसी मसीहा के पाप से सिरे से जो गलत फैसले होते रहे हैं,उसका खामियाजा थानवी जी ने भुगता है और भारद्वाज जी भी भुगतेंगे क्योंकि जनसत्ता में अब वैसी कोई टीम बची ही नहीं है जो कयामत का मुकाबला कर सकें।


सारी टीम जोशी जी ने ही तितर बितर कर दी थी।

उस सत्यानाश क बाद बी जनसत्ता अगर बचा है तो हिंदी दुनिया को उस अड़ियल घोड़े का आबार मानना चाहिए।


भला उनने हमारा भी कभी नहीं किया,लेकिन चूंकि उनने जनसत्ता को जनसत्ता बनाये रखा और सबएडीटर होने के बावजूद दुनियाभर में हमारी हैसियत किसी संपादक अंपादक से कम नहीं है तो उनका आभारी हूं।आभारी हूं कि अब भी पत्रकार हूं बाजार का दल्ला नहीं, न पोश्तो बटोरता हूं और न साथियों के हक मरने का कमीशन खाता हूं, न आंदोलन के नाम मजीठिया रफा दफा करवा रहा हूं और न कारपोरेट मैनेजर हूं।बाकी कोई भी मुझे कभी भी निकाल दें।


पत्रकार कोई आसमान में पैदा नहीं होता।यहां भी ग्रुमिंग की जरुरत होती है।वह कल्चर अब खत्म है।


रेडीमेड पत्रकारों से हम हालात बदल नहीं सकते जबतक न कि हालात से डटकर लोहा लेने का दम न हो किसी में।



बरहाल इस अनंत गैस चैंबर में से बाहर निकलने के सारे रास्ते बंद हो चुके हैं हालांकि यह भी कोई शीशे का ही तिलिस्म है।


लोगों को खुशफहमी है कि दुआ करने से इस नर्क से निजात मिलेगी।अब ताजा खबर है कि उनने देशद्रोहियों की पहचान कर ली है और चुन चुनकर मुठभेड़ में कुत्तों की मौत मार देंगे जो अवांछित हैं हिंदू राष्ट्र में और यह वैदिकी हिंसा की उदारता है कि वध कार्यक्रम पारदर्शी है और वध के लिए पूरी न्याय प्रणाली का लोकतंत्र और कानून का राज है।


कश्मीर को ही लें।वह हर मसले को लेकर जनता आंदोलित है।हर कहीं प्रदर्शन हो रहा है और हर कहीं मुठभेड़ भी हो रही है।तो कायनात से भी कहर बरप रहा है।


मणिपुर में आफसा है और कभी भी कहीं भी किसी की तलाशी बिना वारंट करने की,किसी को भी बिना कैफियत गोली मार देने की छूट है।वहां भी अभूतपूर्व मूसलाधार है।


मध्यभारत में सलवा जुड़ुम  में जल थल एकाकार है तो राजस्थान गुजरात और महाराष्ट्र का भूगोल कमसकम बारिश ने एक कर दिया तो हिमालय में निरंतर आपदाओं ने सरहद बेमायने बना  दिये। तो बंगाल बिहार उड़ीसा जल ही जल है।उथल पुथल है।


पंजाब तो ज्वालामुखी की तरह सुलग रहा है और फटेगा किसी दिन।उसके सारे जख्म अब नासूर हैं और सारे कातिल हुकूमत के सिपाहसालार हैं।कायनात की नाराजगी भी यही और रब है तो वह भी यकीनन नाराज होगा और सारे हिसा किताब बराबर कर देगा।


मां का जिगर दरअसल यह मुल्क है जैसे बसंतीपुर मेरा मुल्क रहा है और मेरी मां के नाम जबसे बसा वह गांव,मेरी मां एक दिन के लिए भी बसंतीपुर से बाहर नहीं निकली और वहीं मधुमेह की वजह से पांव के जख्म से गैंगरीन होने से उनने दम तोड़ा।


मेरे पिता को दुनिया जहां कि फिक्र थी और और उनके पांव तले सरसों की पूरी फसल थी जो उनके पांव बसंतीपुर में टिकते न थे।


मेरी मां ने न मेरे बाप की तरह और न मेरी तरह इस मुल्क के भूगोल को जिया न इतिहास में कहीं रमा था उनका मन।हर सुबह वे घर ङर जाकर सबसे पूछती थीं कि उनका हल कैसा है।हर रसोई में ताक झांक करती थीं कि चूल्हा जला कि नहीं जला।


बसंतीपुर उनका मुल्क है और मैं बखूब जानता हूं कि मेरा मुल्क अगर मेरे मरहूम बाप का जमीर है तो मेरा मुल्क मेरी मरहूम मां का जिगर है।


मां नहीं है।बाप भी नहीं है।यूं कहिये कि अनाथ हूं लेकिन बसंतीपुर अभी सही सलामत है और हर घर में चूल्हा भी जल रहा है।


फिर भी जल रहा है मेरा मुल्क।

फिर भी टुकड़ा टुकड़ा बिखर रहा है मेरा मुल्क।

कहा जाता है कि दिल में वहम हो तो फौरन इबादत करना चाहिए।

कहा जाता है कि दिल में वहम हो तो फौरन रब से पनाह मांगना चाहिए।पूजा पाठ जो करें सो करें।यज्ञ होम वगैरह वगैरह करें।

खूब नमाज पढ़ें।वक्त बेवक्त कलमा भी पढ़े।दिल से खैरियत के वास्ते दुआ भी खूब मांगें कि मन्नत के भरोसे है मजहब शुरु से।


मैं वैसा कुछ भी नहीं कर सकता।

काफिर हूं कि कोई रब मेरा नहीं है।

इबादत मेरी आदत नहीं है।


मजहब मेरा ईमान नहीं है और सियासत से कोई नाता भी नहीं है।मेरे मां बाप आवाम की सोचते थे,रब के बारे में सोचें न सोचें।


किसी रब से अपने मुल्क की खैरियत की दुआ मैं हरगिज नहीं मांगता।किसी रब या शहंशाह से पनाह भी नहीं मांगता मैं।


मेरा मजहब मेरा मुल्क है।

मेरा ईमान मेरा मुल्क है।

मेरा जमीर मेरा मुल्क है।

मेरा जिगर मेरा मुल्क है।

मेरा महबूब मेरा मुल्क है।


दोस्ती हो चाहे दुश्मनी,मुहब्बत हो या चाहे नफरत लबालब,पानियों का जलजला हो या आग का दरिया हो,मुल्क फिर मुल्क है।

मेरा हर रास्ता आवाम तक जाता है।

मेरा हर रास्ता आवाम से निकलता है।


ये तोपें,ये परमाणु बम ये एहतियाती इंतजाम किसी काम नहीं आयेंगे कारोबार और मुनापावसूली के सिवाय,मजलूमों पर और और कहर बरसाने के सिवाय।


मुल्क को किसी गैर मुल्क से उतना खतरा नहीं होता जितना बंचे हुए आवाम के आपसी जंग से खतरा होता है।


दिलों से दिलों के तार जुड़े हों तो कही कोई खतरा होताइच नहीं है।

मुहब्त अगर जुबाव पर हो तो नफरत की क्या औकात कि हमें बांट देें,जमीन अगर सोना उगले तो क्या फर्क पड़ता है बाजारों में सोने के बदलते बिगड़ते भावों से।गड़बड़ यह है कि घर का सोना फेंककर हम बाजार के भरोसे हैं जितनी जरुरत है ,उससे कहीं ज्यादा।


मेरी मां नहीं हैं।

लेकिन इस मुल्क की हर मां के चेहरे पर दहशत की फिजां देख रहा हूं।मां डरी हुई है.बेहद डरी हुई है कि फिर न जाने किस किसको कुर्बान करना पड़े क्योंकि महाबारत चालू आहे और मुल्क अब कुरुक्षेत्र है और हर मोड़ पर चक्रव्यूह है।


एहतियात कोई काफी नहीं,अब आवाम से आवाम का चेन बनाने से ही मां को चैन आयेगा कि चाक चाक हो रहा मां का जिगर इन दिनों!


हमें देशद्रोही जो समझने लगे हैं देशभक्त उन तमाम लोगों से सविनय निवेदन है कि वंदेमातरम वाली मां आजादी के अड़सठ साल बाद भी कैद हैं और जंजीरों के बोझ से तबाह तबाह है।

लालगोला मुर्शिदाबाद की उस काली के भी किसी दिन भरभराकर ढह जाने का खतरा है जैसे आपदाओं में ढह रहा है हिमालय का चप्पा चप्पा और बाकी देश में मूसलाधार है।


The inspiration of Bankimchandra's Anand Math by Dr. Pradip ...

www.boloji.com217 × There is an image of Kali in the Lalgola palace temple that is unique. Its four hands are bereft of any weapon. The two lower hands are folded in front .

हालात उतने भी बुरे नहीं हैं।जो हम खामखां डरे हुए हैं।

बात कहनी हो तो जुबान फिसलनी नहीं चाहिए।

बात निकलती है तो दूर तलक जाती हैं बातें।

मुजरिमों के खिलाफ जुबान भी खोलने की जरुरत कोई दरअसल होती नहीं है कि गुनाहों के खिलाफ इशारा काफी होता है और आवाम की आंखें खुली खुली हो तो जुल्मोसितम कोई काफी नहीं है।

खामोसी का यह मंजर बहरहाल टूटना बेहद जरुरी है।गुफ्तगूं की तरह गपशप भी बहुत जरुरी है कि बंद दरवाजे और बंद खिड़कियों की तस्वीरें सिरे से बदलें।

दस्तक से कोई न खोले तो जान लो गड़बड़ है।

हो न हो किसी की खातिर किसी का खुदकशी का इरादा होगा।

जभी समझो,तभी तोड़ दें दरवाजा और जहां से हो मुमकिन किसी न किसी तरह दिलों में दाखिला चाहिए कि फांसी का हर फंदा तोड़ दिया जाये और जहर की प्याली हर किसी के लबों से छीन ली जाये।

कहना हालांकि बहुत आसान है।

करके करतब दिखा देना उतना आसान भी नहीं है।

नफरत की सुनामी के खिलाफ मोर्चा जाहिर है उतना आसान नहीं है।

बेशक वे पाकिस्तान भेजने की तैयारी कर रहे होंगे तो वीसा के बारे में हरगिज परेशां न हों,जो भेज रहे हैं, वी करते रहें बंदोबस्त कोई।कोई मुल्क नहीं तो इस जहां से बाहर कोई मुल्क खोजना उनका मजहब है ,जिनका मुल्क मजहबी है।

नफरत के आलम में मुहब्बतनामा पर दस्तखत आसां बी नहीं है।

नफरत के वे कारोबारी भी जान पर खेल रहे हैं,समझ लो क्योंकि ये जो पब्लिक है,वह खूब समझती है मुनाफावसूली और खूब जानती है हर सुखीलाला को।

कहीं मुहब्बत का कोई फरिश्ता है,किसी महजबीं को मालूम नहीं होता।मुहब्बत हो भी जाये तो अक्सर पता ही नहीं होता। यकीन मानिये कि आवाम कि दिलों में दाखिला हो जाये तो नफरत के खिलाफ जंग उतनी मुश्किल भी नहीं है।

मां बेहद डरी हुई कि कदे कदे शर्म भी किया करो ,दोस्तों!

एहतियात कोई काफी नहीं,अब आवाम से आवाम का चेन बनाने से ही मां को चैन आयेगा कि चाक चाक हो रहा मां का जिगर इन दिनों!


मसलन मेरे ताजा पोस्ट पर आकाश भाई का यह प्रतिक्रिया देख लीजिये।गनीमत समझिये कि गाली गलौजियां अबभी सबकी जुबान नहीं है।

कुछ खुशफहमियां हैं तो कुछ गलतफहमियां हैं दिलों के दरम्यान और मुहब्बत और नफरत के दरम्यान दो इंच का फासला है सिर्फ।बीच में आग का दरिया है सिर्फ और डूबकर जाना है।जाने का इरादा हो मुहब्बत की मंजिल तलक तो बहुत मुश्किल भी नहीं है वह सफर।

जो गाली गलौज भी कर रहे हैं,हमारा दांव उन्हीं पर है।बस,फिलहाल हम उनके दिलों के दरवाजे पर खड़े हैं।

दरवाजा वे न खोले तो क्या,हम खिड़कियों और रोसनदान से दाखिल होंगे दिलों के अंदर और ख्वाबों में आना जाना मुश्किल कब हुआ है जमाने में तो जमाने से डरना क्या है।

Akash Srivastava

4:16am Aug 1

भारत में आप जैसे स्वयंभू बुद्धिजीवी जब तक हैं तब तक किसी का भला नहीं हो सकता। कृपा करके ये बताएं कि जब आतंकवादी हमलों में बेगुनाह मारे जाते उस समय आपकी संवेदनाएं क्यों मर जाती, आपकी कलम को लकवा क्यों मार जाता और मुहं में दही क्यों जैम जाता है।


ये आप जैसे झोला छाप बुद्धिजीवियों के कुकर्मों का ही परिणाम है की इस देश के बहुसंख्यक सहिष्णुता छोड़कर उग्र होते जा रहे हैं।

Original Post

Palash Biswas


Palash Biswas

2:02am Aug 1

http://www.hastakshep.com/intervention-hastakshep/ajkal-current-affairs/2015/07/31/फांसी-का-फंदा-तैयार-हिंदू

हर किसी के लिए अब फांसी का फंदा तैयार, हिंदू राष्ट्र, भारत के ताने-बाने को तबाह कर रहा है

फांसी का फंदा तैयार,- तो आप ही इसका खुलासा कर दें कि जिस न्यायपलिका के कल तक अंग रहे जस्टिस सावंत, ज...

बहरहाल मौसम बेहद खराब है।

कल दफ्तर से छुट्टी ले रखी थी।कल भी मूसलाधार हो रही थी बारिश और कल भी डूब रहा था बंगाल,महाराष्ट्र और राजस्थान साथ साथ।

पहाड़ों में अब भी मूसलाधार हो रहा है तो मध्यभारत भी डूबता रहा है।

यकीन मानिये,अपने यहां सविता बाबू भी किसी फरहा इब्राहीम से कम नहीं हैं और उनका भी एक अदना सा जिगर है।


यकीन मानिये,हम भले काफिर हों तो वह काफिर हरगिज नहीं है।

मां चूंकि बेहद डरी डरी होती है तो औलाद की फिक्र भी बेहद भारी होती है।इबादत और दुआ,पूजा और नमाज उनकी फितरत होती है।


हमसे उनने कहा कि बेलुड़ मठ में जाना है क्योंकि गुरुपूर्णिमा है।

मजा यह कि रामकृष्ण मिशन ने इस बड़े से मुल्क में बड़ी बड़ी हस्तियों को दीक्षा नहीं दी है लेकिन मामूली पत्रकार की पत्नी को वहां से दीक्षा मिल गयी है।


पहले ही हमारी शर्त रही है कि हम वो पति वति तो हैं ही नहीं कि सह धर्म का कोई मामला हो और उन्हे हर हाल में सतीत्व निभाना है।वे इबादत वगैरह वगैरह ,धर्म कर्म कुछ भी करें,हर नागरिक की तरह उनका हक है।सिर्फ हमें कहीं हाथ जोड़ने या सर नवाने के लिए मजबूर न करें।कही पति की जरुरत हो मजहबी मामलात में तो कह देना पति वति है नहीं,जो घर में है वह खालिस दोस्त है।लिव इन है।


भारी बरसात और उनकी तबीयत भी ठीक नहीं है।उनने कह दिया कि धर्म कर्म का मामला नहीं है।तुम बतौर अंग रक्षक बनकर चलो तो हम भी उनके साथ हो लिये।दफ्तर में महतरमा की मर्जी बता दी तो वहां भी ए़डजस्ट हो गया।


हम बेलुड़ जब पहुंचे बरसात के बीच,घर से बाहर निकलने का पुल बंद था।आटो मोहरबानी से बीटी रोड जाकर बस से उतरे तो देखा कि जलमग्न कोलकाता का सारा हुजूम वहां था।


अपने मसले हम सबवे रब के मसले बना दिये हैं,जाहिर है।

न जाने वह रब कैसा होगा और उसकी तकनीक कैसी होगी कि वह न जाने कैसे कैसे मसलों से, हर शख्स के अलग अलग संगन मसलों से निपटता होगा।


अर्जियों और दुआओं निपटाने के लिए रबका मुल्क बी न जाने कितना डिजिटल होगा और वहां बी पीएमओ न जाने कैसा होगा।


गनीमत है कि वहां आरटीआई लगाने का कोई दस्तूर अभी चला नहीं है और सारे के सारे रब स्पे्ट्रम के बाहर है कि उन्हें चुनाव भी लड़ना नहीं होता।


आस्था यह नहीं है महज।

बेलुड़ मठ में हर किस्म की मां,हर उम्र और हर औकात की मांएं दीख रहीं थीं मुझे।वे तमाम चेहरे दहशतजदा थे किसी न किसी वजह से।सारे के सारे चेहरे गड्डमड्ड।


मां शारदा की तस्वीर के आगे वे सारी माताएं खामोश थीं लेकिन मैं वहां तमाशबीन सुन रहा था उनकी खामोश चीखें।


वहीं कहीं न कहीं भारतमां का चेहरा रहा होगा।भरत मां के उस चेहरे में कहीं न कहीं मेरा मां का चेहरा होगा।


लालगोला की काली हो न हो।


शायद कोई नहीं चीखें सुन रहा होगा कहीं,लेकिन मैं हर मां की चीख सुन रहा हूं।खौफ जो है सो है,शर्मा भी रहा हूं।


मां बेहद डरी हुई कि कदे कदे शर्म भी किया करो ,दोस्तों!


एहतियात कोई काफी नहीं,अब आवाम से आवाम का चेन बनाने से ही मां को चैन आयेगा कि चाक चाक हो रहा मां का जिगर इन दिनों!



The inspiration of Bankimchandra's Anand Math

by Dr. Pradip Bhattacharya Bookmark and Share  

Historians like Jadunath Sarkar, R.C. Majumdar and literary critics have generally held that Ananda Math was a product of Bankimchandra's imagination. The painstaking research of Kishanchand Bhakat, assistant teacher of mathematics in the M.N. Academy High School, Lalgola, in the district of Murshidabad, spanning over two decades seems to have proved otherwise. Having been District Magistrate of Murshidabad at one time and later the Divisional Commissioner, I was impelled to verify the claims. To do so I visited the ruins of the Lalgola Raj Palace, now West Bengal's sole open-air jail, and this is what I found.


The seeds of Bankimchandra's anti-British sentiments were sown in Berhampore, the district headquarters of Murshidabad district where he was posted as a Deputy Magistrate [he was the first Bengali to be offered a job in the civil service after he graduated with grace marks in Bengali, his examiner having been none other than Iswarchandra Vidyasagar who did not give him pass marks!]. It was the 15th of December 1873 when Bankimchandra was, as usual, crossing the Barrack Square field opposite the Collectorate in his palanquin while some Englishmen were playing cricket. Suddenly one Lt. Colonel Duffin stopped the palanquin with some abusive remarks and insisted that it should be taken out of the field. When Bankim refused to abandon his customary route, Duffin apparently forced him to alight from the palanquin and pushed him violently (as reported in the Amrita Bazar Patrika of 8.1.1974). Witnesses to the incident included the Raja of Lalgola Jogindranarain Roy, Durgashankar Bhattacharji of Berhampur, Judge Bacebridge, Reverend Barlow, Principal Robert Hand and some others. Furious at the insult, Bankimchandra filed a criminal case against the Colonel, with the Lalgola Raja, Durgashankar Bhattacharji and Hand cited as witnesses. Duffin had to get a lawyer from Krishnagar in Nadia district, as no one in Berhampore was willing to appear for him, while all the local lawyers had signed vakalatnamas for Bankimchandra.


On 12th January 1874 the Magistrate, Mr. Winter, summoned Duffin and had just begun to question him when Judge Bacebridge entered and requested a few words in his chamber. After a little while they called in Bankimchandra and Duffin. Apparently they told Bankimchandra that Duffin had not recognized that Bankim was a Deputy Magistrate and regretted the incident. They requested Bankimchandra to withdraw the case. This he was not prepared to do and after much persuasion agreed, provided Duffin offered a formal apology in open court. Reluctantly, Duffin agreed. Winter took his chair in the court thereafter and in his presence, before a packed court, Lt. Col. Duffin offered an unconditional apology to Bankimchandra. The Amrita Bazar Patrika of 15.1.1874 reports: 'It appears that the colonel and the Babu were perfect strangers to each other and he did not know who he was when he affronted him. On being informed afterwards of the position of the Babu, Col. Duffin expressed deep contrition and a desire to apologise. The apology was made in due form in open court where about a thousand spectators, native and Europeans, were assembled.'


Almost immediately thereafter we find Bankimchandra taking three months leave. After this incident there must have been considerable resentment in the Berhampore Cantonment among the British militia and, apprehending bodily harm, Rao Jogindranarain Roy took Bankimchandra away to stay with him in Lalgola.


In Lalgola the Guru of the raja's family was Pandit Kali Brahma Bhattacharya who practised tantrik sadhana. Kishanchand Bhakat has obtained an excerpt of seven slokas from a book in the family of Kali Brahma Bhattacharya whose rhythm, sense and even some words bear an uncanny resemblance to Bankim's song. It is most probable that Bankimchandra took the first few lines of his immortal 'Bande Mataram' (up to ripudalabarining) from here because in the first edition of the novel in Banga Darshan (Chaitra 1287, pp. 555-556), these lines are given within quotation marks and the spelling is most ungrammatically retained as 'matarang'. Bankim faced considerable criticism on this account from Haraprasad Shastri, Rajkrishna Muhopadhyay, and others. In the later editions he removed the quotation marks and changed the spelling to the proper Sanskrit 'mataram', wiping out all trace of the borrowing.


There is an image of Kali in the Lalgola palace temple that is unique. Its four hands are bereft of any weapon. The two lower hands are folded in front (karabadhha), the palm of one covered by that of the other, just as a prisoner's hands are shackled. From behind, the image is shackled to the wall with numerous iron chains. Kali is black, of terrifying mien, naked, a serpent between her feet, and Shiva a supine corpse before her. This represented to Bankim what Bhaarat, the Mother, had become:


'The Brahmacharin said,

'Look on the Mother as she now is.'

Mohendra said in fear, 'It is Kali.'


'Yes, Kali enveloped in darkness, full of blackness and gloom. She is stripped of all, therefore naked. Today the whole country is a burial ground, therefore is the Mother garlanded with skulls. Her own God she tramples under her feet. Alas my Mother!' (Sri Aurobindo's translation, 1909).


It is extremely significant that on either side of this unusual Kali we find Lakshmi, Sarasvati, Kartik and Ganesh, who are never represented with this goddess. It is in this Kali that Bankim envisioned Mother as she will be and that is why he wrote, 'tvam hi durga dashapraharana dharini, Thou, indeed, art Durga, ten-armed, weapon-wielding'. It is this temple that is the source of Bankimchandra's 'Monastery of Bliss'.


To reach this temple a tunnel existed, whose vestiges are still visible, from another temple that is now in ruins and covered up with jungle. This ruined edifice was the Jagaddhatri temple that Bankim would have seen and described in his novel thus:

'Jagaddhatri, Protrectress of the world, wonderful, perfect, rich with every ornament'the Mother as she was'She trampled under foot the elephant of the forest and all wild beasts, and in the haunt of the wild beasts she erected her lotus throne. She was covered with every ornament, full of laughter and beauty. She was in hue like the young sun, splendid with all opulence and empire'The Brahmacharin then showed him a dark underground passage'In a dark room in the bowels of the earth an insufficient light entered from some unperceived outlet. By that faint light he saw an image of Kali.' (ibid.)

A little to the east is another temple in which the image of goddess Durga was worshipped by Kali Brahma Bhattacharya - 'Mother as she will be':

'The ascetic' began to ascend another underground passage'. In a wide temple built in stone of marble they saw a beautifully fashioned image of the ten-armed Goddess made in gold, laughing and radiant in the light of the early sun'Her ten arms are extended towards the ten regions and they bear many a force imaged in her manifold weapons; her enemies are trampled under her feet and the lion on which her foot rests is busy destroying the foe'on her right Lakshmi as Prosperity, on her left Speech, giver of learning and science, Kartikeya with her as Strength, Ganesh as Success.'


In the tenth chapter of Ananda Math there is an elaborate description of an extremely opulent building housing a dazzling image of four-armed Vishnu with two huge demons, beheaded, lying in front, Lakshmi garlanded with lotuses on the left with flowing hair, as though terrified, and on the right Sarasvati with book and musical instrument, surrounded with incarnate raga-raginis and on his lap one lovelier than either goddess, more opulent and more majestic: the Mother. The dynastic deity of the Lalgola Raja family was Vishnu and the image was worshipped inside the huge palace. Underground chambers can still be seen here and it is possible that the Kali icon was originally housed in one of these, reached through the tunnels.


A little further on is the ruin of an ancient Buddhist Vihara where the Buddhist goddess Kalkali was worshipped. The stream that flows by is named after her, and is mentioned in the novel. In chapter 5 of the novel he describes this 'great monastery engirt with ruined masses of stones. Archaeologists would tell us that this was formerly a monastic retreat of the Buddhists and afterwards became a Hindu monastery.' This is where Kalyani first sees the noble, white-bodied, white-haired, white-bearded, white-robed ascetic. Is Kali Brahma Bhattacharya the inspiration for this figure?


To the north of the palace, through what was then a dense forest, one reaches the confluence of Kalkali, Padma and Bhairav rivers known as 'Sati-maar thaan (sthaan, place)'. Here, under a massive banyan tree, groups of Bir and Shri sects of violent Tantriks used to meet. Kali Brahma used to tutor them in opposing British rule to free the shackled Mother. One tunnel from the Kali temple goes straight to the Kalkali river, whose banks were dotted with a number of small temples in which these tantriks used to take shelter. It is said that in this Kali temple Bankim witnessed a very old tantrik offering a red hibiscus to the goddess, shouting 'Jaya ma danujdalani, bande bandini matarang'. Is it mere coincidence that if 'bandini' is dropped from this tantrik's exclamation we get exactly Bankim's 'bande matarang'?


Bhakat hazards a guess that this may have occurred on the full moon night of Maagh, 1280 B.S. (Jan-Feb 1874) when the death anniversary of Rao Ramshankar Roy used to be observed in the Lalgola family. This occasion occurred very soon after the court case in Berhampur and Bankimchandra's taking leave. On this anniversary, sadhus from Benares used to arrive at this Kali temple. Repeatedly Bankim refers to 'Maghi purnima' in the novel.


The inspiration Bankim received from all this is reflected first in his essay 'Aamaar Durgotsab' (1874).


In the same area we find the Raghunath temple with icons of Rama, Sita, Lakshmana, Hanuman, Radha and Krishna, with 51 Shiva lingas and 34 Saalgraams. It is said that these were kept here from the time of the Sanyasi Revolt of 1772-73. Bhakat points out that near the Lalgola zamindari was the estate of Rani Bhawani of Natore who used to distribute food freely to the ascetics and was therefore renowned as goddess Annapurna herself. Her patronage extended right up to Benares. In 1772-3 Warren Hastings, the Governor General, forfeited a large portion of the Rani's estate. This lead to stoppage of the supplies to the Sanyasis. The famine that followed in Bengal fanned the flames and the Sanyasis attacked the British. Led by the tantrik Mahant Ramdas of Dinajpur's Kanchan Mashida monastery, they deposited the icons of their deities with Rao Atmaram Roy, the Lalgola zamindar, and left on their mission.  


Bhakat has identified Bankimchandra's 'Padachinnha' village with Dewan Sarai village which tallies with all the data in the novel: north to south beside Padachinnha the earthern embankment built by the Nawab runs through 'to Murshidabad, Cossimbazar or Calcutta' where Kalyani urges Mohendra to go and also mentions 'town' which could be a reference to 'nagar/Rajnagar' in Birbhum which can also be reached by this embankment. (chapter 1 of Ananda Math). On either side of the embankment there used to be dense forest, and at the confluence, at Basumati (located in Nashipur, now washed into the river was a burning ghat frequented by Bhojpuri Tantriks. All the temples mentioned in the novel are also here, as also the tunnels, the Vishnu temple, Kalkali river. Bhojpuri speaking looters and sepoys feature in the novel who tally with the fact of such people having been brought into Lalgola by the zamindar to act as sepoys and servants. Bhakat himself is a scion of such a family of staff-wielding guards and servants. They used to live in the 'Deshwali' area in the jungle adjacent the palace on the banks of the Kalkali and Padma with surnames like Mishra, Pande, Rai and used to receive initiation in tantric worship from Kali Brahma. The guru was addressed as 'maharaj'.


Bhakat proposes that Satyananda of the novel is none other than Kali Brahma Bhattacharya; that Dhirananda is based on the court-poet and priest of Lalgola, Trailokyanath Smritibhushan; that Bhabananda is based on the character of Raja Jogindranarain Roy (himself a tantric sadhak), who stood by Bankim and helped him get away from the wrath of the British militia; that Jibananda reflects much of Bankim himself. Bankim would have lived in the first floor room that still exists in the Kali temple courtyard. In the ground floor room lived Dr. Parry who had spent nearly Rs.10,000 in 1873 to make a medical library for the Lalgola palace. He is said to have worshipped Kali and could be the original for the physician in the novel who is loyal to the British.  


On the basis of these findings, it can now be asserted that Ananda Math was not just a figment of the novelist's imagination, but was rooted in a personal insult suffered by Bankimchandra and in the experiences he had in Lalgola as a guest of Rao Jogindranarain Roy.  


But a fascinating puzzle remains. Before the images of the Mother are shown, there is reference to worshipping the country itself as Mother, quoting the Sanskrit half-sloka, janani janmabhumisca svargadapi gariyasi. Where did Bankim get this from? Considerable research by me has failed to pinpoint where it occurs. Several Tamil and Malayali Sanskritists recite it with aplomb and attribute it to Rama who is supposed to have responded in these words to Lakshmana when requested to stay on in Lanka, the city-of-gold, instead of returning to Ayodhya. Robert Goldman, the translator of the critical text of the epic, informs that it occurs in some version in the Yuddhakanda as follows:

api svarnamayi lanka na me laksmana rocate /

janani janmabhumis casvargadapi gariyasi //

Unfortunately, neither the Valmiki Ramayana, nor the Adhyatma and Ananda Ramayanas, nor the version in the Mahabharata feature the sloka. So it remains a puzzle like the panchakanya sloka.

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