चाणक्य का बाजारवाद
Author: प्रेम पुनेठा Edition : june 2014/Samayantar
चाणक्य का नया घोषणा पत्र: पवन कुमार वर्मा, अनु: प्रकाश दीक्षित, राजकमल प्रकाशन, पृ. 227, मूल्य: रु. 395
ISBN 978- 81- 7917- 725-625
राज्यों के उदय के साथ ही राजनीतिक विशारदों के बीच एक सवाल हमेशा चिंता और चिंतन का विषय रहा कि आदर्श राजनीतिक व्यवस्था कैसी होनी चाहिए। भारतीय राजनीतिक दर्शन में चाणक्य को यह श्रेय है कि उन्होंने पहली बार भारत की एक देश के रूप में कल्पना की और उसे साकार भी किया। टुकड़ों में बंटे भारत को राजनीतिक इकाई बनाने के लिए नीति और योजनाओं को बनाया। तात्कालिक संकट को दूर करने के लिए जिस ग्रंथ अर्थशास्त्र की रचना की उसका मूलतत्व राजा या राजतंत्र की सुरक्षा था।
‘चाणक्य का नया घोषणापत्र’ में लेखक पवन के वर्मा ने भारत के वर्तमान संकटों को देखते हुए उनके निराकरण के उपायों पर चर्चा की है। ये सारे उपाय नव आर्थिक व्यवस्था या उदारवाद को केंद्र में रखकर किए गए हैं। लेखक सारी समस्याओं का समाधान खुले बाजार में खोजता है। किताब के अनुसार आजादी के बाद भारतीय नेतृत्व द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र को प्रोत्साहित करने के कारण प्रगति कम रही, क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र की कमियां थीं। इससे भारत उतनी प्रगति नहीं कर सका, जितनी कर सकता था। 1991 के बाद अपनाई गई नीतियों के कारण ही भारत का विकास तेज हो सका। राजनीतिक और प्रशासनिक समस्याओं का निर्माण 1991 से पूर्व ही हो गया था और वे उसे विरासत में मिली हैं।
किताब में शासन प्रबंध की बदहाली के लिए गठबंधन की राजनीति को सबसे ज्यादा जिम्मेदार ठहराया गया है। ऐसा लगता है कि सारी समस्या की जड़ किसी दल को स्पष्ट बहुमत न मिल पाना रहा हो। बहुमत न मिल पाने के कारण सरकारें सुस्पष्ट नीतियां नहीं बना पा रही हैं और कठोर फैसले लेने से हिचक रही हैं, लेकिन इसे अर्द्धसत्य ही कहा जा सकता है। सही तथ्य तो यह है कि सत्ता के केंद्र में बैठे व्यक्ति के पास कितनी इच्छाशक्ति है। अपनी इसी इच्छाशक्ति के बल पर नरसिम्हा राव ने उदारीकरण की अर्थव्यवस्था को लागू किया, जबकि देश में इस तरह की नीतियों के लिए जगह नहीं थी।
इसी तरह अटल बिहारी वाजपेयी का परमाणु बम विस्फोट का फैसला या मनमोहन सिंह का परमाणु डील साहसिक निर्णय है। समस्या गठबंधन से अधिक इच्छाशक्ति की है। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में गठबंधन सरकारों का होना कोई आश्चर्यजनक नहीं है, क्योंकि वे अलग-अलग क्षेत्रों के हितों का प्रतिनिधित्व कर रहे होते हैं। गठबंधन भारतीय संघात्मक व्यवस्था का ही हिस्सा हैं। समस्या उनमें सामंजस्य बिठाने की है। यह सही है कि पिछले बीस वर्षों में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला। इसके लिए जो सुझाव दिए गए हैं, वे अत्यन्त ही अव्यावहारिक हैं। पहला तो चुनाव पूर्व गठबंधन को बताया गया है और इसमें दलों के बीच कम से कम तीन वर्ष तक समर्थन देने की बाध्यता जोड़ी गई है। ऐसा लगता नहीं कि कभी कोई दल इस पर सहमत होगा कि वह तीन वर्ष तक सहयोग की डोरी से बंधा रहे। हर राजनीतिक दल का एक क्षेत्र विशेष और वर्ग विशेष होता है, ऐसे में वह अपने हितों के विरोध में काम नहीं कर सकता।
इस बीच लोकसभा चुनाव के बाद तो यह स्थिति बदल गई है। इस चुनाव में भाजपा को अकेले बहुमत मिल गया। इस तरह किताब में दी गई सभी स्थितियों में गुणात्मक परिवर्तन हो गया। अब किसी तरह के गठबंधन की संभावना और दबाव खत्म हो गया है, लेकिन क्या सरकार उसी तरह से काम कर सकेगी, जैसा लेखक चाहता है। ऐसा होना संभव नहीं है, क्योंकि अभी भी कई तरह के सामाजिक, आर्थिक दबाव काम कर रहे हैं। इसके साथ ही यदि राज्यों में भी देखा जाए तो जनता कमोवेश दलों को पूरा बहुमत दे रही है। अब चाहे उत्तर प्रदेश हो, जहां दो बार से पूरे बहुमत के साथ दल सत्ता में हैं। इसी तरह मध्य प्रदेश, गुजरात, तमिलनाडु, बंगाल के उदाहरण सामने हैं। इसलिए गठबंधन को लेकर जो प्रस्थापना बिंदु है, वही गलत साबित हो रहा है।
अच्छा तो यह होता कि राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों को आधार बनाकर विश्लेषण होता। आखिर इसी घोषणापत्र के आधार पर पार्टियां जनादेश मांगती हैं, तो उस घोषणापत्र पर ज्यादा जोर देने की जरूरत है। यह कहना कि शासन का कार्यक्रम राजनीतिक दलों के घोषणापत्र से अलग होगा ठीक नहीं है, क्योंकि इसी घोषणापत्र के आधार पर तो जनादेश मांगा जाता है और चुनाव के बाद उसे अलग करना एक तरह से जनता से धोखा ही है।
‘चाणक्य का नया घोषणापत्रÓ जनता की चेतना पर विश्वास करने के बजाए तकनीकी और कानूनों पर जरूरत से ज्यादा विश्वास कर रहा है। यदि जनता की चेतना पिछड़ी हुई स्थिति में है, तो किसी कानून या आयोग से शासन व्यवस्था को ठीक नहीं किया जा सकता। जनता की चेतना का विकास तो उसके बीच लगातार राजनीतिक संपर्क स्थापित करने और जीवंत संवादों से ही बढ़ाया जा सकता है।
कानून और आयोगों की वैसे ही भारत में क्या कमी है, जो और कानूनों को बनाया जाए। फिर जिन कानूनों को बनाने की सिफारिश की जा रही है वे प्रशासनिक सुधार आयोग, विधि आयोग, पुलिस आयोग द्वारा की जा चुकी हैं। सवाल तो सिर्फ उन्हें लागू करने का है, जो राजनीतिक दल नहीं चाहते। ये सुधार तभी होंगे, जब जनता का दबाव होगा, जैसा कि लोकपाल बनाने के संबंध में हुआ। इसी तरह भूमि अधिग्रहण कानून भी तभी आया, जब किसानों ने इस पर संघर्ष किया। सबसे महत्त्वपूर्ण बलात्कार संबंधी कानून का बनना है, जिसके लिए लोगों ने सड़क पर संघर्ष किया। इसके लिए जनता की राजनीतिक चेतना का विकास जरूरी है। लेकिन यह दोधारी तलवार है, जो शासन को वे कदम उठाने को विवश कर सकती है, जिसे वे उठाना नहीं चाहते। इसलिए कोई भी राजनीतिक दल जनता की चेतना को एक सीमा से आगे नहीं जाने देना चाहता।
यह कहना सही है कि हमारा लोकतंत्र ऐसे परिवर्तनों से गुजर रहा है, जिसकी कल्पना संविधान निर्माताओं ने नहीं की थी। विधायिकाओं, कार्यपालिकाओं और न्याय पालिकाओं की साख गिरी है। इसका कारण दूषित चुनाव प्रक्रिया है। इसके लिए चुनाव सुधार के उपाय कानून बनने का इंतजार कर रहे हैं, वे ही किताब में भी हैं। यह ठीक है कि उद्योगपतियों और राजनेताओं की मिलीभगत से संचालित होने वाले चुनावों को अधिकार संपन्न चुनाव आयोग स्वतंत्र और निष्पक्ष बना सकता है। इसके लिए चंदा देने के नियमों को स्पष्ट करने की जरूरत है।
भारत में भ्रष्टाचार की व्यापकता का जो दार्शनिक विश्लेषण है, वह सटीक है। भारतीय समाज का दोहरा चरित्र ही इसके लिए जिम्मेदार है। एक ओर तो वह व्यक्तिगत स्तर पर आदर्शवादी बनता है, लेकिन सामाजिक स्तर पर व्यावहारिकता के नाम पर भ्रष्टाचार की ओर बढ़ जाता है। इसका कारण भारतीय दर्शन में आत्मकेंद्रित होकर आत्ममुक्ति की कामना है। सही है कि व्यक्तिगत आदर्शवाद के स्थान पर कठोर कानून और तेजी से किया गया न्याय ही इससे मुक्ति दिला सकता है। इसके लिए तकनीक का विकास कर निर्णय लेने की प्रक्रिया में मानवीय हस्तक्षेप रोकना जरूर कारगर होगा। सरकारी कामों में पारदर्शिता के लिए तकनीक, जिसमें ई-गवर्नेंस प्रमुख है, लागू करनी ही होगी।
किताब बाजारवाद के दौर में लिखी है और उसी के अनुसार व्यवस्था को संचालित करना चाहती है, तो विरोधाभास भी देखने को मिलता है। एक ओर तो व्यक्तिगत आदर्शवाद को छोड़ने और कानून से नियंत्रण करने की वकालत है, लेकिन दूसरी ओर कॉरपोरेट जगत के प्रति सहानुभूति है। यह उम्मीद की जाती है कि कॉरपोरेट अपनी इच्छा से समाज में भलाई के काम करेगा। उस पर समाज की भलाई को लेकर जोर न डाला जाए, यानी कर न लगाया जाए। उसे अपनी इच्छा से काम करने की सलाह दी गई है। इसी तरह गरीबी हटाने के लिए उच्च विकास दर की आवश्यकता बताई गई है, लेकिन उच्च विकास दर के बाद भी भारत में आर्थिक असमानता ज्यादा हुई है। क्योंकि भारत में सामाजिक असमानता ज्यादा है, इसलिए उच्च विकास दर का लाभ सामाजिक रूप से संपन्न समुदायों ने ही उठाया है। सामाजिक असमानता को दूर किए बिना आर्थिक असमानता दूर करना संभव नहीं है। इसलिए न चाहते हुए भी सरकारों को गरीबों के लिए योजनाएं बनानी पड़ती हैं।
नई व्यवस्था के घोषणापत्र में दो विषयों को नहीं छुआ गया है। पहला जनसंख्या प्रबंधन। आज भारत की सबसे बड़ी समस्या जनसंख्या है। सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि कैसे जनसंख्या वृद्धि दर को कम किया जाए और दूसरा युवाओं को कैसे आर्थिक प्रबंधन में शामिल किया जाए। इस संबंध में कुछ नहीं कहा गया है। दूसरा विषय जिस पर कुछ नहीं कहा गया है, वह है मीडिया। इस चुनाव में जनमत बनाने में मीडिया ने जिस तरह से काम किया है, उसके बाद तो यह ज्यादा विचार का विषय है। यह विषय इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि मीडिया पूरी तरह से कॉरपोरेट के पास चला गया है। इसका परिणाम यह हुआ कि मीडिया न केवल जनता से कट गया, वरन वह ठेठ तौर पर मुनाफा कमाने का माध्यम बन गया है। यही कारण है कि जनता के मुद्दे मीडिया से गायब हो गए हैं या सही तरह से प्रतिनिधित्व नहीं पा रहे हैं।
जिस कृषि की उपेक्षा की बातें कही गईं हैं, उसका बड़ा कारण मीडिया में उसका सही प्रतिनिधित्व नहीं होना है। किताब की सबसे बड़ी कमजोरी इसका अनुवाद है। मूल रूप से अंग्रेजी में लिखी गई इस किताब का अनुवाद कठिन हिंदी में किया गया है। कई शब्द तो ऐसे हैं कि उनका अर्थ खोजना भी कठिन है। यह सरकारी दस्तावेजों जैसा अनुवाद है। इस कारण भाषा प्रवाहमान नहीं है और अटकती है। घोषणापत्र के सुझाव किसी एनजीओ या किसी आयोग की रिपोर्ट से ज्यादा नहीं लगती है।
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