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Tuesday, August 11, 2015

भीष्म साहनी के उपन्यास 'तमस' की तुलना विभाजन केन्द्रित उपन्यासों से किया जाना उचित नहीं है.इसे विभाजन के उपन्यास के रूप में पढ़ा भी नही जाना चाहिए .. इसके मूल में विभाजन की पृष्ठभूमि में साम्प्रदायिकता की परिघटना की पड़ताल है. .यह मूलतः १९७२ के भीवंडी दंगों से अभिप्रेरित होकर रावलपिंडी के मार्च १९४७ की विभाजन पूर्व कीघटनाओं का आत्मसाक्ष्य है.भीष्मजी इनके साक्षी रहे थे


भीष्म साहनी के उपन्यास 'तमस' की तुलना विभाजन केन्द्रित उपन्यासों से किया जाना उचित नहीं है.इसे विभाजन के उपन्यास के रूप में पढ़ा भी नही जाना चाहिए .. इसके मूल में विभाजन की पृष्ठभूमि में साम्प्रदायिकता की परिघटना की पड़ताल है. .यह मूलतः १९७२ के भीवंडी दंगों से अभिप्रेरित होकर रावलपिंडी के मार्च १९४७ की विभाजन पूर्व कीघटनाओं का आत्मसाक्ष्य है.भीष्मजी इनके साक्षी रहे थे. स्वयं भीष्म जी ने इसके बारे में लिखा है--" एक संकटपूर्ण स्थिति की पृष्ठभूमि में विभिन्न धर्मों, वर्गों, विचारधाराओं के लोगों की प्रतिक्रिया औरउनके कारनामे ही दिखाए गए हैं.इससे अधिक कुछ नहीं... मेरी आँखों के सामने राजनीतिक घटनाचक्र नहीं था.केवल मन को व्याकुल करनेवाले कुछ प्रसंग, कुछ व्यक्ति, और खून खराबे का भयावह महौल था." इस रूप में इसकी शक्ति और सामर्थ्य का. प्रमाण गोविद निहलानी की 'तमस' टेलीफिल्म प्रस्तुति में हम सबने देखा है. .इसलिए इसे विभाजनकथा के रूप में न पढ़कर साम्प्रदायिकता की विभीषिका के रूप में ही पढ़ा जाना चाहिए. यह अनायास नही है कि उपन्यास की शुरुआत में जो व्यक्ति दंगा भड़काने के लिए मस्जिद में सूअर का मांस फिकवाने का षड्यंत्र रचता है ,वही उपन्यास के अंत में साम्प्रदायिक सद्भाव यात्रा की ट्रक में सबसे आगे शांति के नारे लगाता हुआ सवार है. आज जब साम्प्रदायिकता की चुनौती बहुसंख्यकवाद के खतरे के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत है और धर्मनिरपेक्षता का माडल बिखरने बिखरने को है तो 'तमस' सरीखा उपन्यास एक जरूरी साहित्यिक हस्तक्षेप है. इसका पुनर्पाठ किया जाना चाहिए . विभाजन को जानने-समझने के लिए हिन्दी में यशपाल का "झूठा सच" उत्कृष्ट,राही मासूम रज़ा का 'आधा गाँव' जरूरी और अंगरेजी में 'ट्रेन टू पकिस्तान' व बप्सी सिधवा का 'आईस कैंडी मैन' बेहतर उपन्यास हैं.

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