दलित अत्याचार में पिछड़े काफी अगड़े हैं!
दलित अत्याचार में पिछड़े काफी अगड़े हैं!
राजस्थान में पिछड़े वर्ग की दबंग जातियां दलितों पर निरंतर जुल्म ढा रही हैं…
दलित पिछड़े वर्ग की एकता का राजनीतिक नारा अब भौंथरा पड़ चुका है, क्योंकि विगत एक दशक के दलित उत्पीड़न के आंकड़ों पर नज़र डालें तो यह सामने आता है कि दलितों पर सर्वाधिक शारीरिक हिंसा पिछड़े वर्ग की उन दबंग जातियों द्वारा हो रही है, जिन्होंने मंडल कमीशन के लागू होने के बाद राजनीतिक एवं प्रशासनिक क्षेत्रों में अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज करवाई है। कालांतर में ये सभी शूद्र पिछड़ी जातियां स्वयं भी सनातन धर्म की वर्ण व्यवस्था में शोषण का शिकार थीं तथा देश की आज़ादी से पहले सामंतवाद से बुरी तरह से पीड़ित थीं, इनकी स्थिति भी दलितों जैसी ही थी, लेकिन यह जातियां अछूत और भूमिहीन नहीं थीं, इसलिए जैसे ही इन्हें मौका मिला, तेजी से आगे बढ़ीं और कुछ ही दशकों में इनका खुद का चरित्र सामंती हो गया। वक्त बदला। हिन्दू धर्म की सामान्य कही जाने वाली जातियों का अत्याचार दलितों पर कम होता गया और उसके स्थान पर कथित पिछड़ों ने अन्याय, अत्याचार और उत्पीड़न करने का काम अपने हाथ में ले लिया। राजस्थान के अधिकांश दलित भूमिहीन रहे हैं। वे अपने परम्परागत कामों से अपनी रोजी रोटी कमाते रहे हैं। जब 1955 में राजस्थान काश्तकारी कानून लागू किया गया, तब दलितों को पहली बार जमीन पर खातेदारी का अधिकार मिला, मगर कानून बनाने वालों को इस बात का डर था कि दलितों को जमीन पर ज्यादा दिनों तक सवर्ण काबिज़ नहीं रहने देंगे, या तो वे उनकी जमीन गिरवी रख लेंगे या बहुत कम दामों पर उसे खरीद लेंगे अथवा मारपीट कर या डरा धमका कर दलितों की जमीन पर दबंग लोग कब्ज़ा कर लेंगे। इसलिये कमजोर वर्ग की भूमि को सुरक्षित करने के लिए राजस्थान काश्तकारी अधिनियम की धारा 42 (बी) में यह प्रावधान किया गया कि –" कोई भी गैर दलित किसी भी दलित की जमीन ना तो गिरवी रख सकता है और ना ही खरीद सकता है " इस सबके बावजूद भी राजस्थान में दलितों की लाखों एकड़ जमीन रिकॉर्ड में दलितों के नाम पर दर्ज है और उस पर काबिज़ सवर्ण हिन्दू है। अगर दलित भूमियों का एक निष्पक्ष सामाजिक अंकेक्षण एवं भौतिक सत्यापन कराया जाये तो पता चलेगा कि दलितों को वास्तविक भूमि अधिकार राजस्थान में आज तक भी नहीं मिल पाया है। एक मोटे अंदाज के अनुसार पूरे राज्य की विभिन्न राजस्व अदालतों में दलितों की जमीन पर गैर दलितों के नाजायज़ कब्ज़े सम्बन्धी तकरीबन 70 हज़ार प्रकरण लंबित हैं। कई मामलों में फैसले दलितों के पक्ष में आ चुके हैं, फिर भी प्रशासन की मदद नहीं मिल पाने के कारण दलितों को उनके भू अधिकार नहीं मिल पाए हैं।
राजस्थान के नागोर जिले की मेड़ता तहसील के डांगावास गाँव (जहाँ हाल ही में जमीन को लेकर दलितों का जनसंहार हुआ है ) में भी कई दलितों की जमीन दबंग लोगों ने दबा रखी है। डांगावास में रतना राम मेघवाल की 23 बीघा 5 बिस्वा जमीन भी है, जिस पर गाँव के दबंग जाट परिवार के लोगों की नज़र थी। वे इस जमीन को हड़पना चाहते हैं। उन्होंने दलितों को बताया कि यह जमीन 1964 में ही दलितों से जाटों ने 1500 रुपए में गिरवी रख ली थी, इसलिए इस जमीन के मालिक जाट हैं। दलितों ने इस बात को मानने से इंकार करते हुए मेड़ता कोर्ट में अपनी जमीन पर जाटों द्वारा नाजायज़ कब्ज़ा करने की कोशिश का केस दर्ज करवा दिया, जो कि विगत 18 वर्षो से लंबित है।
वर्ष 2006 में उक्त जमीन का विरासत से नामान्तरण रतना राम मेघवाल के नाम पर खुल गया, इसके बाद से जमीन को लेकर जंग और तेज़ हो गयी। दबंग और बहुसंख्यक जाट, दलितों को सबक सिखाने की फ़िराक में रहने लगे। मामला इस साल तब और पेचीदा हो गया, जब दलितों ने अपनी जमीन पर घर बना कर रहना शुरू कर दिया। जाट समुदाय के लोगों द्वारा दलितों को निरंतर धमकियाँ भी मिल रही थी, इस सम्बन्ध में दलित पक्ष की ओर से मेड़ता थाने में शिकायत भी की गयी, मगर शासन और प्रशासन तथा पुलिस महकमे में सब तरफ जाट समुदाय के ही लोगों का बोलबाला होने के चलते दलितों की सुनवाई ही नहीं की गयी। अंततः 14 मई 2015 का वह मनहूस दिन आ गया, जब जाट जाति की उग्र भीड़ ने तीन दलितों को ट्रेक्टर से कुचल कर मार डाला तथा 14 अन्य लोगों के हाथ पांव तोड़ दिये, महिलाओं के साथ यौन हिंसा की गयी, ज्यादती के बाद उनके गुप्तांगों में लकड़ियाँ घुसेड़ दी गयीं, मारे गए लोगों में पोकर राम नामक मजदूर नेता भी था, जो गुजरात में मजदूर हकों के लिए लड़ने में सदैव अग्रणी रहा तथा उसने वहां असंगठित श्रमिकों की यूनियन बनाई।
रतना राम, पोकर राम तथा पांचाराम की हत्या बहुत ही निर्मम तरीके से की गयी। पहले उन्हें ट्रेक्टरों से कुचला गया और बाद में उनके आँखों में जलती हुयी लकड़ियाँ डाल कर उनकी ऑंखें फोड़ी गयीं, पांव चीर दिये गए और लिंग खींच लिए गए। अमानवीयता की हद कर दी गयी। एक पूर्वनियोजित साजिश के तहत सुबह डांगावास गाँव में गैरकानूनी तरीके से पंचायत बुलाई गयी और बाद में भीड़ ट्रेक्टरों एवं मोटर साईकलों पर सवार हो कर दलितों द्वारा खेत पर बनाये गए मकान पर पंहुची तथा वहाँ पर इस नरसंहार को अंजाम दिया।
अब तक की मीडिया रिपोर्ट्स तथा पुलिस तथा प्रशासन से मिली सूचनाओं के मुताबिक यह जमीन के लिए दो जातियों के मध्य हुयी ख़ूनी जंग थी, जिसमें दूसरे पक्ष का भी एक व्यक्ति दलितों द्वारा शुरूआती तौर पर की गयी फायरिंग में मारा गया। प्रचलित कहानी के मुताबिक रामपाल गोस्वामी नामक शख्स की गोली लगने से हुयी मौत के बाद भीड़ बेकाबू हो गयी तथा उन्होंने दलितों को कुचल-कुचल कर मार डाला। लेकिन दलित समुदाय के घायल पीड़ित, जो कि जवाहर लाल नेहरु हॉस्पिटल अजमेर में उपचाररत हैं, उनका कहना है कि – 'दलितों के पास बन्दूक होना तो दूर की बात है, अगर हमारे पास लाठियां भी होती तो हम आत्मरक्षा का प्रयास कर सकते थे, मगर हमें सपने में भी आभास नहीं था कि गाँव के जाट इस तरह एकजुट हो कर हम पर हमला कर देंगे, हम कुछ समझ पाते तब तक तो सब कुछ ख़त्म हो गया था´।
मारे गए रतना राम मेघवाल के तीस वर्षीय पुत्र मुन्ना राम मेघवाल का कहना है कि –" जाटों की उग्र भीड़ ने मुझ पर गोली चलायी थी, लेकिन उसी समय मेरे सिर पर किसी ने लोहे के सरिये से वार कर दिया। इस प्रहार से मैं नीचे गिर पड़ा और गोली भीड़ में शामिल रामपाल गोस्वामी को लगी जिसने वहीँ पर दम तोड़ दिया।"
इसका मतलब तो यह हुआ कि दलितों की ओर से गोली बारी हुयी ही नहीं, फिर ऐसी कहानी क्यों प्रचारित की गयी और क्यों 19 दलितों पर रामपाल गोस्वामी की हत्या की झूठी एफ आई आर दर्ज करवाई गयी ? क्या यह इस निर्मम जनसंहार के प्रभाव को कम करने की जवाबी कार्यवाही है ? या कुछ और ?
विगत दो दशक से दलित अत्याचारों के मामलों को करीब से देखने से हुए अनुभवों से मैंने जाना कि अभी भी राजस्थान का दलित इतना सक्षम और दबंग नहीं हो पाया है कि वह गाँव की बहुसंख्यक दबंग कौम पर गोली चलाने की पहल कर सके। मेरी तो स्पष्ट मान्यता रही है कि जब दलित पलट कर वार करना या हथियार उठाना सीख जायेगा तो फिर शायद ही कोई दबंग जाति उस पर जुल्म करेगी। मगर सच्चाई यह है कि डांगावास के दलितों के पास हथियार ही नहीं थे फिर वो चलाते कैसे ?
अगर दलितों ने गोली चलायी थी तो अब तक उस बन्दूक या रिवाल्वर को पुलिस ने बरामद क्यों नहीं किया ? मगर यह एक निर्मम नरसंहार को जायज़ ठहराने के लिए डांगावास के जाटों और वहां के थानाधिकारी नगाराम चोधरी और पुलिस उपाधीक्षक पूना राम डूडी मिलीभगत कर बुनी गयी एक ऐसी कहानी है, जिस पर हर कोई विश्वास करने के लिए बाध्य है।
ज्यादातर दलित एवं मानव अधिकार संगठनों का मानना है कि अगर इस झूठी कहानी तथा दलित नरसंहार की पूरी साजिश को उजागर करना है तो पूरा मामला सीबीआई के सुपुर्द किया जाना चाहिए। जिला प्रशासन और पुलिस अधीक्षक द्वारा इसे भूमि विवाद बता कर महज़ जातीय हिंसा कहना भी गलत है। दरअसल यह एक नए प्रकार का सामाजिक आतंकवाद है जिसकी परिणिति जातीय नरसंहार के रूप में सामने आती है, यह बिल्कुल पूर्वनियोजित था तथा इसमें दलितों की ओर से प्रतिरोध स्वरूप कुछ भी नहीं किया गया, सिर्फ मार खाने या मर जाने के अलावा, इसलिए हम देख सकते हैं कि हमलावर जाट समुदाय के एक भी आदमी को कोई चोट नहीं पंहुची। क्या ऐसा हो सकता है कि खूनी जंग में सिर्फ एक ही तरफ के लोग मारे जाये तथा घायल हो और दूसरा पक्ष पूरी तरह से सुरक्षित बच जाये ?
इस भयंकर नरसंहार को अंजाम देने के बाद सोशल मीडिया पर जाट समुदाय के लोगों ने बहुत ही गर्व भरी शर्मनाक टिप्पणियाँ की है। एक छात्र नेता रामरतन अकोदिया, जो स्वयं को समाजसेवक बताता है, उसने इस हत्याकांड के लिए वीर तेजापुत्र जाटों को बधाई देते हुए लिखा कि – उन्होंने सिर पर चढ़े हुए ढेढ़ों (दलितों को अपमानित करने के लिए राजस्थान में इसे एक गाली के रूप में प्रयुक्त किया जाता है ) को सबक सिखाने का बहादुरी भरा काम किया है, ये लोग (दलित ) आरक्षण और एस सी एक्ट की वजह से भारी पड़ रहे थे, इनको ट्रेक्टरों से कुचला गया ,इनकी ओरतों को रगड़-रगड़ ( बलात्कार कर ) कर मारा गया और मर चुके ढेढ़ों की आँखों में जलती हुयी लकड़ियाँ डाली गयीं।
एक अन्य शीश राम ओला ने फेसबुक पर लिखा कि –'ढेढ़ों को अपनी औकात में रहना चाहिए ,वे जिनकी दया पर जिंदा है, उन्हीं को काटने लग गए है।' हालाँकि इन दोनों के खिलाफ मेड़ता थाने में मेघवाल समाज के अध्यक्ष जस्सा राम मेघवाल की शिकायत पर मुकदमा दर्ज कर लिया गया है। मगर इस तरह की सैंकड़ों टिप्पणियाँ व्हाटसएप्प, फेसबुक, ट्विट्टर आदि पर की जा रही हैं, जिसमें जाट समुदाय के लोगों द्वारा किये गए इस जातीय नरसंहार को जायज़ ठहराते हुए उन्हें बधाई दी गयी है। यह सबसे भयानक बात है और चिंताजनक भी, क्योंकि एक सभ्य नागरिक समाज में हत्यारों को नायक बनाए जाना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण समय के आगमन की ओर संकेत करता है।
"दूजी मीरा" कथा संग्रह के लेखक राजस्थान के बहुचर्चित युवा कथाकार संदीप मील, जो कि स्वयं भी जाट परिवार में जन्मे हैं, वे अपनी एक कहानी "एक प्रजाति हुआ करती थी जाट" में लिखते हैं कि इस समुदाय को प्यार, लोकतंत्र, विचार और शब्द जैसी चीजों से नफरत है। वे इन सबका गला घोंट देना चाहते हैं, यहाँ तक कि संदीप मील को भी मार देना चाहते हैं, क्योंकि वह सोचता है। डांगावास की घटना पर प्रतिक्रिया देते हुए मील कहते हैं कि आप इस अपराध में शामिल रहे पशुओं को इन्सान समझने की भूल कर रहे हैं। उनमें दया, करुणा नाम की कोई चीज़ बची ही नहीं है। एक संभावनाओं से भरे चर्चित कथाकार का अपने ही समुदाय का यह आकलन चौंकाता है।
जाट समुदाय के समझदार, बुद्धिजीवी और न्याय और दया जैसे मानवीय गुणों में यकीन करने वाले लोगों को अपने समुदाय में फैल रही इस मानसिक बीमारी और पशु प्रवृति के बारे में अवश्य चिंतन करना होगा, क्या कारण है कि कालांतर में सामंतवाद के खिलाफ लड़ने वाला कृषक समाज जाट आज ऐसी क्रूरता को या तो चुपचाप देख रहा है या उसकी निर्लज्ज प्रशंसा कर रहा है। यह उस सामंतवाद से भी बुरा है, जिससे उनकी लड़ाई रही है। स्वामी दयानंद सरस्वती के आर्य समाज के साथ जुड़ कर सबसे पहले छुआछूत मिटाने के प्रयास करने तथा सामाजिक सुधारों में अग्रणी भूमिका निभाने वाला जाट समाज आज अगर मुज्ज्फ्फरपुर दंगों से लेकर डांगावास तक दलितों एवं अल्पसंख्यकों के खून से खेल रहा है और जातिवादी और साम्प्रदायिक गतिविधियों में अगुवा बना हुआ है, तो इस बारे में चिंता करने का काम जाट नेतृत्वकर्ताओं का ही है। हमारी चिंता का विषय तो यह है कि इस प्रकार की जातीय हिंसा सामुदायिक सौहार्द्र को पलीता लगा सकती है। डांगावास ही नहीं बल्कि कुम्हेर (भरतपुर) में सन् 1992 में 36 दलितों को जिंदा जला देने जैसे कृत्यों में भी उग्र जाट समुदाय की भीड़ की ही प्रमुख भूमिका रही है।
दक्षिण राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में भी पिछले एक दशक से यही रुझान देखने को मिल रहा है। यहाँ के एक दलित कार्यकर्ता गणपत बारेठ ने सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत भीलवाड़ा के सभी 23 थानों में वर्ष 2003 ,04 ,05 तथा 2006 में अजा जजा अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत दर्ज मामलों की सूचनाएं प्राप्त की,जिनका अध्ययन एवं विश्लेषण रिसर्च फॉर पीपुल के शोधकर्ता सौम्या शिवकुमार तथा एरिक केरबार्ट ने किया. " डीसमल पिक्चर ऑफ़ वाइडस्प्रेड अट्रोसिटिज अगेंस्ट शेडूलड कास्ट एंड ट्राइब्स इन भीलवाड़ा डिस्ट्रिक्स ,राजस्थान " नामक यह रिपोर्ट बताती है – वर्ष 2003 से 2006 तक के चार वर्षों में भीलवाड़ा जिले में 611 कुल दलित अत्याचार प्रकरण दर्ज हुए, जिनका अध्ययन करने से पता चला कि दलित आदिवासियों पर 90 % जुल्म हिन्दू ही करते हैं, उनमे भी 12 % मामले अकेले जाट समुदाय की ओर से होते हैं। वर्ष 2003 में यह आंकड़ा 16 % था, इसके बाद के बर्षों में दलितों पर जाटों द्वारा अत्याचार के मामलों में निरंतर वृद्धि ही दर्ज की गयी है, जो कि अत्यंत चिंतनीय सवाल है।
यह देखा गया है कि भीलवाड़ा जिले में दलितों पर जाटों के अत्याचार के 80 % मामले जमीन से जुड़े कारणों से होते हैं, वहीँ 20 % मामले भेदभाव तथा छुआछूत से सम्बन्धित होते हैं। जिला मुख्यालय के निकटवर्ती गांवों में स्थितियां और भी गंभीर पाई गयी हैं। इन जाट बाहुल्य गांवों में मंदिर प्रवेश, हैंडपंप से पानी लेने, अपने ही घर के बाहर चबूतरे या खाट पर बैठने और दलित दूल्हों के घोड़ी पर सवार हो कर बिंदौली निकालने को लेकर अक्सर हिंसात्मक वारदातें होती हैं। हाल ही में भीलवाड़ा के नज़दीक ही स्थित देवली नामक गाँव के राजू बलाई नामक दलित युवा को सिर्फ इस बात के लिए बहुत ही बेरहमी से मारा गया, क्योंकि वह ' केप्री ' पहन कर गाँव में घूम रहा था। इसी तरह मांडल तहसील के दांता धुंवाला गाँव के दलित युवाओं द्वारा अलग से क्रिकेट मैदान बनाये जाने से नाराज जाटों ने ना केवल जेसीबी मशीन लगा कर पूरा मैदान खोद दिया गया बल्कि दलित क्रिकेटरों के साथ भी मारपीट भी की तथा जातिगत गाली गलौज कर इन दलित युवाओं को अपमानित भी किया गया। दोनों ही मामलों की एफ आई आर दर्ज हुयी है, मगर कार्यवाही के नाम पर ढाक के तीन पात वाली स्थिति बनी हुयी है। दलित युवाओं में भारी आक्रोश व्याप्त है, जो कभी भी विस्फोटक रूप ले सकता है। मगर सरकार हर घटना को सामान्य मानकर उस पर लीपापोती करने में लगी हुयी है।
भीलवाड़ा ही नहीं पूरे राज्य में दलितों पर अत्याचार करने में पिछड़े काफी अगड़े साबित हो रहे हैं। नागोर जिला जिसे अब जाटलैंड भी कहा रहा है, इस जाटलैंड में दलितों पर जाटों की ज्यादती के मामले दिन प्रतिदिन भयावह रूप लेते जा रहे हैं। हाल ही में इसी जिले के बसवानी गाँव में एक दलित परिवार की झौपड़ी में आग लगा दी गयी, जिसमें एक दलित महिला जिंदा जल कर मौके पर ही मर गयी तथा दो अन्य लोग 80 % जली हुयी अवस्था में जोधपुर हॉस्पिटल में उपचाररत हैं। नागोर के ही मुन्डासर में एक अन्य दलित महिला को घसीट कर सायलेंसर से दागा गया। लंगोंड गाँव में एक दलित को जिंदा दफ़नाने की घटना हुयी, हिरडोदा में दलित दूल्हे को घोड़ी से उतार कर जान से मारने की कोशिश की गयी। ये तो वो मामले हैं, जो पुलिस तक पंहुचे हैं और दर्ज हुए हैं। दर्जनों मामले तो थानों तक आते भी नहीं हैं। गांवों में आपसी समझाईश अथवा डरा धमका कर वहीँ रफा-दफा कर दिये जाते हैं। डांगावास के डरे सहमे दलितों का कहना है कि –" हमारे गाँव में यह पहला नहीं बल्कि चौथा कांड है। यहाँ जो भी दलित बोलेगा, उसकी मौत निश्चित है, हम सदियों से अन्याय सह रहे हैं और आगे भी सदियों तक अन्याय सहने के लिए अभिशप्त हैं। हमारी कोई नहीं सुनता है। सब जगह उन्हीं के लोग हैं। हक मांगने वाले तो मारे ही जायेंगे, इनके विरुद्ध बोलने वाले भी कोई बच नहीं पाएंगे। हम जानते हैं कि हमारे लोगों को बहुत बुरी मौत मारा गया है, हमारी बहु बेटियों के साथ भी बहुत बुरा सलूक हुआ है, मगर हम बोल नहीं सकते हैं। हमें इसी गाँव में रहना है .."
डॉ अम्बेडकर ने कहा था कि भारतीय गाँव अन्याय और उत्पीड़न के बूचडखाने हैं। बाबा साहब आप एकदम सही थे। वाकई राजस्थान के हर गाँव से आज जातिगत जुल्म, अन्याय और उत्पीड़न की सड़ांध उठ रही है। इस बदबूदार सामाजिक व्यवस्था में कैसे जिएं और इसको बदलने के लिए क्या करें, खास तौर पर तब, जबकि आततायी समुदाय बदलने को तैयार ही ना हो।
-भंवर मेघवंशी
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