Sustain Humanity


Monday, March 2, 2020

नई दिल्ली के जंतर मन्तर पर लेखकों,  कलाकारों, बुद्धिजीवियों के जमावड़े से देश नहीं बदलने वाला है। धर्मांध मनुस्मृति राष्ट्रवाद और मुक्तबाजार में उपभोक्तावाद और आत्मध्वंस के इस जमाने में साहित्यकारों, खासकर हिंदी साहत्यकारों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों का जात धर्म भाषा नस्ल क्षेtr में बंटी राजनीति की कठपुतली जनता पर कोई असर होनेवाला नही है।

मुझे अफसोस है कि 25- 26 को दिल्ली में होने के बावजूद अपने मित्रों से में मिल नही सका। वे तमाम लोग कामयाब और नामी लोग हैं। मेरे मिलने न मिलने से उनकी सेहत पर कोई असर भी नहीं पड़नेवाला।

पहली मार्च को जंतर मंतर पर देशभर के बुद्धिजीवियों के जमावड़े का समर्थन करने के बावजूद मैं उसमें शामिल नहीं सका। कुछ न होता तो कुछ महान चेहरों के साथ अपना चेहरा भी दर्ज हो जाता। इतना तो जरूर होता और शायद लोगों को दिमाग पर जोर डालना पड़ता कि मैं भी लिखने पढ़ने वाली बिरादरी में कहीं न कहीं हूँ और मेरी राजनीति पर शक किगूँजेश नहीं होती।

जंतर मंतर या जेएनयू से देश फिरभी बदलने वाला नहीं है। दिल्ली में सारे दंगाई माफिया डॉन का डेरा है।

पूर्वोत्तर भारत और दक्षिण भारत के लोग, कश्मीर के लोगों को इसी दिल्ली से घृणा है। बंगाल में भी लोग सत्ता और पूंजी की भाषा बन चुकी हिंदी से नफरत है, जो बाजार और राजनीति की भाषा है और हिंदुत्व के हिंदी हिन्दू हिंदुस्तान एजेंडा के तहत नफरत और दंगे की भाषा भी है। मीडिया और शोशल मीडिया में जिसका जलवा हम रोज़ देख रहे हैं।

हमारी बौद्धिक अकादमिक पत्रिकाओं, विश्विद्यालयों,विशेषज्ञों, साहित्यकारों , पत्रकारों, कलाकारों और तमाम पेशेवर बुद्धिजीवियों को आम जनता की भाषा और संस्कृति में आये बदलाव Kई परवाह नही है। आम जनता को सम्बोधित करने की गरज नहीं है। एक दूसरे की पीठ खुजलाकर क्रांतियां हो रही है और राजकाज, राजनीति,अर्थव्यवस्था और समाज में मारी जा रही जनता के बीच जड़ों में जाकर अम्न चैन मुहब्बत भाईचारा की जनसंस्कृति को खाद पानी देने की मशक्कत के बजाय मुफ्त नें हीरो हीरोइन बनने की उत्कट अश्लील आकांक्षा अति प्रबल हो गयी है।

दिल्ली में दंगा रुक है तो इसमें हमारी कोई भूमिका नहीं है। दंगा जिहोंने करवाया, उन्होंने अपनी योजना और एजेंडा के मुताबिक ही दंगा रुकवा दिया। जब चाहे फिर शुरू करवा देंगे। तकलीफ दिल्ली में दंगा हो जाने का है। दिल्ली में तो 1984 में भी दंगे हुए। पूरा उत्तर प्रदेश दंगा प्रदेश बन गया है, जहां से बाकायदा देशविदेश दंगे का कारोबार धूम धड़ाके के साथ चलता है। इसे रोकने की भी सोचें। कश्मीर घाटी के मुसलमानों को कैद करके, Rअममन्दिर बनवाकर, आरक्षण खत्म करके,जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाकर आप नमान चैन की बात कर रहे हैं, संविधान और कानून की बात कर रहे हैं। यह भी हिंदुत्व की ही कुलीन मनुस्मृति राजनीति है।

सामाजिक सम्बन्ध और अम्न चैन, सामाजिक संरचना अर्थ व्यवस्था और उतपादन प्रणाली में उत्पादन सम्बन्धों से  बनते है। देश को मुक्त बाजार बनाने का आप 1991 से अबतक विरोध नहीं कर सकें। जल जंगल जमीन से बेदखली के खिलाफ कुछ नही उखाड़ सके, सारे के सारे श्रम कानून खत्म कर दिए गए, आप सिरे से खामोश रहे।सारे कायदे  कानून बदल दिए गए, खत्म कर दिए गए, संविधान बदल जाता रहा, आपकी मोटी मलाईदार चमड़ी में कोई हलचल नही हुई। आदिवासियों, किसानों, मजदूरों, दलितों और स्त्रियों का आखेट चलता रहा और आप वृंदगान में सावधान खड़े रहे। 1986 में नागरिकता कानून बदलकर भारत की नागरिकता के लिए मां बाप का जन्मथन भारत में होना अनिवार्य बनाकर भारत विभाजन के शिकार लोगों से नागरिकता छीन ली गयी और 2003 में एनआरआई नागरिकता बनाकर दस्तावेजों की अनिवार्यता तय करके एनआरसी, एनपीआर और आधार की जमीन तैयार करने के हिंदुत्व एजेंडे पर लम्बी खामोशी के बाद अब का से। आपकी नींद तब कगी है जब किसान, मजदूर,   छात्र, युवा,व्यपारी सारे के सारे अर्थव्यवस्था और उतिपडन प्रणाली आए बाहर हो गए, रोज़गार आजीविका से बेदखल हो गए।

ऐसे बेरोज़गार बेदखल लोगों के पास। अब सिर्फ धर्म है या फिर नशा है या फिर टीवी चैनल और मोबाइल है। उनकी नज़रों में आप दो कौड़ी के हैं और धर्म रक्षक राष्ट्रवादी टीवी के चीखते चिल्लाते दंगाई एंकर और उ के राजनीतिक आका सुपर हीरो हैं। वे उनके असर में हैं। आपकी कोई बात, आपकी कोई दलील, आपकी विचारधारा, आपकी प्रतिबद्धता उनको कहीं स्पर्श नहीं करती। आप राजधानियों से निकलकर गांव देहात के असली भारत के एकबार दर्शन तो कर लें। जो अब दंगाइयों का अजेय किला है।
ढाई सौ सालों के, 1757 से लेकर अबतक जारी किसान आंदोलन, आजादी के पहले के मजदूर आंदोलन, सत्तर के दशक के छात्र युवा आंदोलन, भक्ति आंदोलन से लेकर अब तक के तमाम समाजिक सांस्कतिक आंदोलनों के इतिहास से हमें इन दंगाइयों से निबटने का रास्ता निकलना होगा।

भारत की अर्थ व्यवस्था में गांव और किसान , मेहनतकश जनता की बहाली के बिना आप देश बदल नहीं सकते।

15 मार्च को उत्तराखण्ड के रुद्रपुर से महज 15 किमी दूर  दिनेशपुर में हम इन्हीं सवालों से जूझेंगे। उम्मीद है कि जंतर मंतर में फोटो खिंचवाने लोग भी तशरीफ़ लाएं। हम करीब सौ गांवों के किसानों को और मेहनतकश जनता को इस सम्वाद में शामिल होने का निनी तौर पर न्योता दे रहे हैं।

आपको भी न्योता है।

प्रेरणा अंशु के वार्षिकोत्सव में 15 मरसह को पधारे म्हारो देश। दिनेशपुर।

Sunday, March 1, 2020

उत्तराखण्ड में जल जंगल जमीन कारपोरेट कम्पनियों को सौंपने का एक और कारनामा। अपने ही खेत पर कम्पनियों के लिए बंधुआ खेती करेंगे किसान।
इसीतरह बंगाल के महान मनीषियों ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के राज में नील की खेती को किसानों के लिए लाभदायक बताने में भारत से लेकर इंग्लैंड में महारानी के दरबार तक में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी। किसान अनाज तक उगा नहीं सकते थे।
निलकर साहबों की वापसी धूम धड़ाके से हो रही है।
इस बंधुआ खेती के खिलाफ नील विद्रोह से भारत मे
किसामन विद्रोह औऱ आन्दोलनपन का सिलसिला शुरू हुआ जो आज भी जारी है। उत्तराखण्ड के रंग बिरंगे हुक्मरान इतिहास शायद नहीं पढ़ते। कमाने से फुर्सत नहीं मिलती।
बनारस से मुक्ता जी ने लिखा है कि एनडीटीवी ने मेरे लिखे पर कोई खबर बनाई है। मैन नहीं देखी।
मैंने एनडीटीवी या कोई टीवी चैनल दिल्ली में रहते हुए देखा नहीं। फ़ेसबुक पोस्ट से हो सकता है लिया हो। 1984 में 31 अक्तूबर को इंदिरा की हत्या की खबर पिताजी ने एनडी तिवारी के  सरकारी आवास पर सुनी तो वे सीधे अस्पताल पहुंच गए थे। इंदिराजी को उन्होंने गोलियों से छलनी देखा था। दंगा शुरू हो गया था। तिवारीजी उन्हें अस्पताल से निकालकर अपने घर ले गए थे।वहीं से उन्होंने सिखों का नरसंहार को देखा और आखिरी सांस तक वह मंजर नहीं भूले। में मेरठ से दैनिक जागरण निकाल रहा था और दिल्ली, पश्चिम उत्तर प्रदेश और बाकी देश के दंगों से घिरा हुआ था।
आपरेशन ब्लू स्टार के वक्त में रांची में प्रभात खबर में था। स्वर्ण मंदिर में सैन्य कार्रवाई का तब नभाटा के राजेन्द्र माथुर और जनसत्ता के प्रभाष जोशी जोरदार ढंग से समर्थन कर रहे थे। सिखों के  सेना में विद्रोह के वक्त भी में रांची नें था।
पूरा मीडिया तब हिन्दू हो गया था। आज की तरह। संघ परिवार का हिंदुत्व तब सिखों के खिलाफ था।दिल्ली और बाकी देश में कांग्रेस और संघ परिवार ने ही सिखों का नरसंहार कराया था। राजीव गांधी को 1984 के चुनाव में हिन्दू हितों के नाम ढंग परिवार ने खुला समर्थन दिया था और इसीके बदले में राजोव गांधी ने राम मंदिर का ताला खुलवाकर भारत को हिन्दुराष्ट्र बना देने की शुरुआत की थी।
मेरठ में मलियाना और हाशिमपुरा नरसंहार भी हमने देखें। तब मेरठ मेडिकल कालेज में पिताजी tb का इलाज करा रहे थे।
मुक्ताजी ने व्हाट्सएप्प पर लिखा है
NDTV par khabare mil rahi thi aapane aankho dekha haal bataya..84 ke dango me mai Delhi me Harinagar me rahati thi jo dango ki giraft me tha . Do chote bacho ke saath mai swayam bhuktbhogi thi.
31 अक्टूबर 1984 को श्रीमती इंदिरा गांधी को गोली लगने पर पिताजी पुलिन बाबू अस्पताल में उन्हें देखने पहुंच गए थे। वे नारायणदत्त तिवारी के घर थे। तिवारीजी ही उन्हें अपने साथ अस्पताल से लाये थे।दिल्ली में रहकर उन्होंने भारत विभाजन का जख्म दुबारा दिलोदिमाग में ताजा करके घर लौटे थे।में तब मेरठ दजनिक जागरण में था और रात दिन सिखों के नरसंहार से घिरा हुआ था।
मेरठ में मलियाना और हाशिमपुरा नरसंहार के वक्त भी में मेरठ में था। पिताजी तब मेरठ मेडिकल केलेज में टीबी के इलाज के लिए भर्ती थे। शहर सेना के हवाले था और अस्पताल में दो चार मरीजों मेंपिताजी भी थे।
मैंने अपने पिता को भारत विभाजन का दर्द बार बार झेलते हुए लहूलुहान होते देखा है।
इसबार पिता हमारे बीच नहीं हैं। 25 को में दिल्ली पहुंचा। 26 को जहांगीरपुरी से लेकर आजादपुर तक देर रात तक भतीजी कृष्णा की शादी में दौड़ता रहा। बारात को मुंबई वाली ट्रेन डाइवर्ट हो जानी की वजह से आगरा उतरकर दिल्ली आने पड़ा। 27 को विदाई थी। सुबह 9 बजे की ट्रेन थी मुंबई जाने वाली। रदद् हो गयी।बेटी, दामाद और बारात को बस से मुंबई रवाना करना पड़ा।
अब मैं पत्रकार नहीं हूं। शुक्र है कि नहीं हूं। दंगा भड़काने में राजनीति का जितना हाथ है, उससे कम पत्रकारिता का नहीं है। मेरठ दंगों पर लिखे मेरे लघु उपन्यास उनका मिशन इडिपर केंद्रित है। मेरा कहानी संग्रह अंडे सेंटे लोग इन्हीं मुद्दों पर केंद्रित है।
घर की बड़ी बेटी का वववाह था औऱ मेरी चारों तरफ दिल्ली जल रही थी। में हवाओं में इंसानी  गोश्त जलने की बू से परेशान था। कानों में हड्डियां छिटकने की आवाजें आ रही थीं। खून की नदियों से घिरा हुआ था।
मेरे पिता, उनकी पीढ़ी के लोग ज़िंदा होते तो उन्हें फिर भारत विभाज का शिकार होना पड़ता। शुक्र है कि वे नहीं है।

शुक्र है कि मैं 27 को ही मौत, नफरत और दंगों की वह राजधानी पीछे छोड़ आया है।
फिरभी चैन नहीं है,गांव भी अब राजनीति, घृणा और हिंसा की राजधानी का सेल बन गया है।
बेहतर होता कि हम लोग भी मर जाते।
मरे नहीं है, लेकिन यकीनन मार दिए जाएंगे।

Tuesday, February 11, 2020

एक अंग्रेजी अखबार में गिरिराज किशोर की गलत तस्वीर पर हिंदी के लेखक पत्रकार तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं। कहा जा रहा है कि अंग्रेजी वाले हिंदी की परवाह नहीं करते और वे किसी गिरिराज किशोर को नहीं जानते।
भारत में अंग्रेजी ज्ञान विज्ञान की नही सत्ता की भाषा है और इसलिए आम जनता भी आजकल हिंदी को तिलांजलि देकर अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के घटिया स्कूलों में भेजने लगी है। जहां टीचर इस लायक भी नहीं होते की कोई विषय जानते समझते हों। ज्ञान विज्ञान के लिए नहीं , अछि नौकरी पाने के लिए लोग हिंदी छोड़ रहे हैं।
असमिया, ओड़िया, बंगला, पंजाबी, मराठी, तमिल, कन्नड़, मलयालम, तेलुगु में किसी भी बड़े साहित्यकार को लोग न सिर्फ जानते हैं,उन्हें पढ़ते भी हैं।
हिंदी वालो को अपनी भाषा, अपने साहित्य, अपनी संस्कृति अपने नायकों की कितनी परवाह है?
हिंदी पढ़े लिखे लोग अखबारों के अलावा कौन सा साहित्य पढ़ते हैं। कवियों के नाम कबीरदास सूरदास से आगे वे कितना जानते हैं?
गिरिराज किशोर या हिंदी के किसी भी आधुनिक साहित्यकार को कितने लोग जानते है?
उनका साहित्य कौन पड़ता है?
हिंदी के नाम खाने कमांड वालों में से कितने लोगों गिरमिटिया पढा है?
भारत तो क्या दुनियाभर की किसी भाषा के साहित्य और साहित्यकार से उस भाषा को जानने पढ़नेवाले लोग इतने अनजान नहीं होते।
आजादी से पहले हिंदी की इतनी दुर्गति नहीं होती थी। तब स्वतन्त्रता मनग्राम की भाषा थी हिंदी देशभर में, अहिन्दी भाषी प्रदेशों में भी। तब हिंदी न राजनीति, न सत्ता और न बाजार की भाषा थी। तब यह सही मायने में जनभाषा थी।हिंदी के नाम खाने कमानेवालों की जमात तब तैयार नहीं हुई थी।
हिंदी के आलोचकों, सम्पादकों और प्रकाशकों ने सरकारी खरौद के भरोसे किताबें किसी भी भाषा के मुकाबले ज्यादा महंगी करके हिंदी को आमलोगों के लिए लिखने पढ़ने की भाषा रहने नही दिया।
एकाधिकार कुलीन वर्चस्व के कारण आम लोगों के हिंदी में पढ़ने लिखने का कोई मौका नहीं है।
हिंदी अखबारों से साहित्य का नाता दशकों पहले खत्म हो गया है। उनमें साहित्य या साहित्यकारों की कोई चर्चा नहीं होती। बंगला, मराठी, ओड़िया, पंजाबी, असमिया, तमिल, तेलगु,कन्नड़, मलयालम में अखबारों में साहित्य और साहित्यकफोन के बारे में आम जनता को सिलसिलेवार जानकारी देते हैं।
अब टीवी के चीखते चिल्लाते एंकर ही हिंदी जनता के नायक हैं और घृणा, हिंसा, अपराध, भ्र्ष्टाचार के माफिया ही हिन्दीवालों के महानायक हैं
हम खुद हिंदी के साहित्य और साहित्यकार की चर्चा नहीं करते, उन्हें नहीं पहचानते तो कैसे उम्मीद पालते हैं कि अंग्रेजी में उन्हें पहचान जाए।