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Sunday, March 1, 2020

31 अक्टूबर 1984 को श्रीमती इंदिरा गांधी को गोली लगने पर पिताजी पुलिन बाबू अस्पताल में उन्हें देखने पहुंच गए थे। वे नारायणदत्त तिवारी के घर थे। तिवारीजी ही उन्हें अपने साथ अस्पताल से लाये थे।दिल्ली में रहकर उन्होंने भारत विभाजन का जख्म दुबारा दिलोदिमाग में ताजा करके घर लौटे थे।में तब मेरठ दजनिक जागरण में था और रात दिन सिखों के नरसंहार से घिरा हुआ था।
मेरठ में मलियाना और हाशिमपुरा नरसंहार के वक्त भी में मेरठ में था। पिताजी तब मेरठ मेडिकल केलेज में टीबी के इलाज के लिए भर्ती थे। शहर सेना के हवाले था और अस्पताल में दो चार मरीजों मेंपिताजी भी थे।
मैंने अपने पिता को भारत विभाजन का दर्द बार बार झेलते हुए लहूलुहान होते देखा है।
इसबार पिता हमारे बीच नहीं हैं। 25 को में दिल्ली पहुंचा। 26 को जहांगीरपुरी से लेकर आजादपुर तक देर रात तक भतीजी कृष्णा की शादी में दौड़ता रहा। बारात को मुंबई वाली ट्रेन डाइवर्ट हो जानी की वजह से आगरा उतरकर दिल्ली आने पड़ा। 27 को विदाई थी। सुबह 9 बजे की ट्रेन थी मुंबई जाने वाली। रदद् हो गयी।बेटी, दामाद और बारात को बस से मुंबई रवाना करना पड़ा।
अब मैं पत्रकार नहीं हूं। शुक्र है कि नहीं हूं। दंगा भड़काने में राजनीति का जितना हाथ है, उससे कम पत्रकारिता का नहीं है। मेरठ दंगों पर लिखे मेरे लघु उपन्यास उनका मिशन इडिपर केंद्रित है। मेरा कहानी संग्रह अंडे सेंटे लोग इन्हीं मुद्दों पर केंद्रित है।
घर की बड़ी बेटी का वववाह था औऱ मेरी चारों तरफ दिल्ली जल रही थी। में हवाओं में इंसानी  गोश्त जलने की बू से परेशान था। कानों में हड्डियां छिटकने की आवाजें आ रही थीं। खून की नदियों से घिरा हुआ था।
मेरे पिता, उनकी पीढ़ी के लोग ज़िंदा होते तो उन्हें फिर भारत विभाज का शिकार होना पड़ता। शुक्र है कि वे नहीं है।

शुक्र है कि मैं 27 को ही मौत, नफरत और दंगों की वह राजधानी पीछे छोड़ आया है।
फिरभी चैन नहीं है,गांव भी अब राजनीति, घृणा और हिंसा की राजधानी का सेल बन गया है।
बेहतर होता कि हम लोग भी मर जाते।
मरे नहीं है, लेकिन यकीनन मार दिए जाएंगे।

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