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Tuesday, April 21, 2015

चट्टानी जीवन का संगीत


नीलाभ अश्क जी मंगलेश डबराल और वीरेन डंगवाल के खास दोस्त रहे हैं और इसी सिलसिले में उनसे इलाहाबाद में 1979 में परिचय हुआ।वे बेहतरीन कवि रहे हैं।लेकिन कला माध्यमों के बारे में उनकी समझ का मैं सुरु से कायल रहा हूं।अपने ब्लाग नीलाभ का मोर्चा में इसी नाम से उन्होंने जैज पर एक लंबा आलेख लिखा है,जो आधुनिक संगीत के साथ साथ आधुनिक जीवन में बदलाव की पूरी प्रक्रिया को समझने में मददगार है।नीलाभ जी की दृष्टि सामाजािक यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में कला माध्यमों की पड़ताल करने में प्रखर है।हमें ताज्जुब होता है कि वे इतने कम क्यों लिखते हैं।वे फिल्में बी बना सकते हैं,लेकिन इस सिलसिले में भी मुझे उनसे और सक्रियता की उम्मीद है।
नीलाभ जी से हमने अपने ब्लागों में इस आलेख को पुनः प्रकाशित करने की इजाजत मांगी थी।
  • Palash Biswas May I use this article on my blogs?

  • Neelabh Ashk Sure, provided you give due credit and post the entire seriesPalash Biswas

  • Palash Biswas I would be very glad to publish it with due credit on my blogs.It would be my pleasure.
  • आलेख सचमुच लंबा है।लेकिन हम इसे हमारी समझ बेहतर बनाने के मकसद से सिलसिलेवार दोबारा प्रकाशित करेंगे।
  • पाठकों से निवेदन है कि वे कृपयाइस आलेख को सिलसिलेवार भी पढ़े।
  • हमें नीलाभ जी के अन्य लेखों का बी इंतजार रहेगा।इस दुस्समय में हमारे इतने प्यारे मित्र जो बेहद अच्छा लिख सकते हैं,उनका लिखना भी जरुरी है।
हमें खासतौर पर उन लोगों पर बहुत गुस्सा आता है जो पूरा खेल समझते हैं.लेकिन खेल का खुलासा करना नहीं चाहते।
हम जानते हैं कि .कीनन नीलाभ भाई ऐसे नहीं है।
पलाश विश्वास

Wednesday, February 4, 2015

चट्टानी जीवन का संगीत

चट्टानी जीवन का संगीत

जैज़ के बारे में बातें करने में हमेशा बहुत मज़ा आता है 
- क्लिण्ट ईस्टवुड, प्रसिद्ध अभिनेता 


(मैं जैज़ संगीत का जानकार नहीं, प्रशंसक हूँ और इस नाते जब-जब मौका मिला है, मैंने इस अनोखे संगीत का आनन्द लिया है। मगर उसके आँकड़े नहीं इकट्ठा किये, उसकी चीर-फाड़ नहीं की। बचपन में स्कूल के ज़माने में ही जैज़ से परिचय हुआ था। बड़े सरसरी ढंग से। तो भी लुई आर्मस्ट्रौंग और ड्यूक एलिंग्टन जैसे संगीतकारों के नाम याददाश्त में टँके रह गये। फिर और बड़े होने पर कुछ और नाम इस सूची में जुड़ते चले गये। लेकिन जैज़ से अपेक्षाकृत गहरा परिचय हुआ सन 1980-84 के दौरान, जब बी.बी.सी. में नौकरी का सिलसिला मुझे लन्दन ले गया।
बी.बी.सी. में सबसे ज़्यादा ज़ोर तो ख़बरों और ताज़ातरीन घटनाओं के विश्लेषण पर था, लेकिन इसे श्रोताओं के लिए कई तरह के कार्यक्रमों की सजावट के साथ पेश किया जाता था। सभी जानते थे -- बी.बी.सी. के आक़ा भी और हम पत्रकार-प्रसारक भी -- कि मुहावरे की ज़बान में कहें तो असली मुआमला ख़बरों और समाचार-विश्लेषणों के ज़रिये ब्रितानी नज़रिये का प्रचार-प्रसार था और इसीलिए तटस्थता और निष्पक्षता की ख़ूब डौंडी भी पीटी जाती थी जबकि "निष्पक्षता" जैसी चीज़ तो कहीं होती नहीं, न कला के संसार में, न ख़बरों की दुनिया में; चुनांचे, समाचारों और समाचार-विश्लेषण के दो कार्यक्रमों -- "आजकल" और "विश्व भारती" -- को छोड़ कर (जो रोज़ाना प्रसारित होते, बाक़ी कार्यक्रम हफ़्ते में एक बार प्रस्तुत होते और उनकी हैसियत खाने की थाली में अचार-चटनी-सलाद की-सी थी। चूंकि खबरें और तबसिरे रोज़ाना प्रसारित होते, इसलिए उन्हें प्रस्तुत करने वालों की पारी रोज़ाना बदलती रहती; बाक़ी कार्यक्रम, जैसे "इन्द्रधनुष," "झंकार," "आपका पत्र मिला," "सांस्कृतिक चर्चा," "खेल और खिलाड़ी," "बाल जगत," "हमसे पूछिए," वग़ैरा जो साप्ताहिक कार्यक्रम थे, अलग-अलग लोगों को अलग-अलग अवधियों के लिए सौंपे जाते। और जब ये लोग अपने कार्यक्रम या खबरें या समाचार विश्लेषण के कार्यक्रम -- "आजकल" और "विश्व भारती" -- प्रस्तुत न कर रहे होते तो "आजकल" और "विश्व भारती" में बतौर "मुण्डू" तैनात रहते।  
ज़ाहिर है, ऐसे में एक अजीब क़िस्म का भेद-भाव भी पैदा हो गया था। पुराने लोगों को "आजकल" और "विश्व भारती" ही सौंपे जाते, जबकि नये लोगों को ख़ास तौर पर ये अचार-चटनी वाले कार्यक्रमों की क़वायद करायी जाती। इनमें भी "झंकार" और "बाल जगत" जैसे कार्यक्रमों को "फटीक" का दर्जा मिला हुआ था। कारण यह कि कौन श्रोता विदेश से हिन्दी फ़िल्म संगीत सुनने का इच्छुक होता; और "बाल जगत" बिना बच्चों की शिरकत के, ख़ासा सिरदर्द साबित हो सकता था। ये दोनों कार्यक्रम इस बात के भी सूचक थे कि कौन उस समय हिन्दी सेवा के प्रमुख की बेरुख़ी और नाराज़गी का शिकार था। जिन दिनों मैं वहां था, बी.बी,सी. हिन्दी सेवा और उसके प्रमुख की यह अदा थी कि सीधे-सीधे नाख़ुशी नहीं ज़ाहिर की जाती थी। यही नहीं, ऐसे काम को भी, जिसमें ख़ासी ज़हमत का सामना होता, आपको यों सौंपा जाता मानो आपको फटीक की बजाय सम्मान दिया जा रहा है। एक आम तकिया-कलाम था "रस लो," अब यह आप पर था कि उस काम को करते हुए आप नौ रसों में से किस "रस" का स्वाद चख रहे होते। 
बहरहाल, मेरी मुंहफट फ़ितरत के चलते चार वर्षों के दौरान मुझे ये दोनों कार्यक्रम -- "झंकार" और "बाल जगत" -- मुसलसल छै-छै महीने तक करने पड़े थे। ख़ैर, इस सब की तो एक अलग ही कहानी है. जो किसी और समय बयान की जायेगी। यहां इतना ही कहना है कि जब मुझे "झंकार" सौंपा गया तो मुझे इस कार्यक्रम का नाक-नक़्शा और ख़ाका बनाने में कुछ वक़्त लगा। लेकिन मैंने सोचा कि भई, फ़िल्मी गाने तो हिन्दुस्तान में हर जगह सुने जा सकते हैं, लिहाज़ा एक और भोंपू लगा कर शोर में इज़ाफ़ा करने की क्या ज़रूरत है; और शास्त्रीय संगीत की भी लम्बी बन्दिशें इस बीस मिनट के कार्यक्रम में कामयाब न होंगी; न हर ख़ासो-आम को पश्चिमी शास्त्रीय संगीत पसन्द आयेगा। सो, कुछ अलग क़िस्म से कार्यक्रम पेश करना चाहिए। इसी क्रम में मैंने पहले तो अमीर ख़ुसरो के कलाम और लोकप्रिय, लेकिन स्तरीय, ग़ज़लों के कार्यक्रम पेश किये। फिर जब मुहावरे के मुताबिक़ हाथ "जम गया" तो मैंने वहां के लोकप्रिय संगीत के साथ-साथ अफ़्रीकी-अमरीकी और वेस्ट इण्डियन संगीतकारों और गायकों से अपने श्रोताओं को रूशनास कराना शुरू किया और रेग्गे और दूसरे अफ़्रीकी मूल के पश्चिमी गायकों-वादकों का परिचय अपने श्रोताओं को दिया। ध्यान रखा कि इस सब को, जहां तक मुमकिन हो और गुंजाइश नज़र आये, अपने यहां के संगीत से जोड़ कर पेश करूं। प्रतिक्रिया हौसला बढ़ाने वाली साबित हुई। तब अपने हिन्दुस्तानी श्रोताओं के लिए मैंने एक लम्बी श्रृंखला जैज़ संगीत पर तैयार की। यह श्रृंखला कुल मिला कर परिचयात्मक थी। एक बिलकुल ही अलग किस्म की परिस्थितियों में पैदा हुए निराले संगीत से अपने श्रोताओं को परिचित कराने के लिए तैयार की गयी थी। उसी श्रृंखला के नोट्स बुनियादी तौर पर इस आलेख का आधार हैं, हालाँकि कुछ आवश्यक ब्योरे और सूचनाएँ मैंने ‘एवरग्रीन रिव्यू’ (न्यूयॉर्क) के जैज़ समीक्षक मार्टिन विलियम्स की टिप्पणियों से प्राप्त की है और पहले विश्व युद्ध से पहले के परिदृश्य का जायज़ा देने के लिए ड्यूक बॉटली और जॉन रशिंग के संस्मरणों का भी सहारा लिया है। इन सब का आभार मैं व्यक्त करता हूँ।
जैज़ अफ़्रीका से ग़ुलाम बना कर अमरीका लाये गये लोगों का संगीत है, श्रम और उदासी और पीड़ा से उपजा। मेरी श्रृंखला भी "फटीक" से उपजी थी। इस नाते इस आलेख से मेरा एक अलग ही क़िस्म का लगाव है।
इसके अलावा, रेडियो पर तो संगीत के नमूने पेश करना सम्भव था और मैंने किये भी थे, लेकिन सिर्फ़ छपे शब्दों तक ख़ुद को सीमित रख कर वह बात पैदा नहीं हो सकती थी । सो, हालांकि मित्र-कवि मंगलेश डबराल ने "जनसत्ता" में इसे दो हिस्सों में प्रकाशित किया था, मैं बहुत सन्तुष्ट नहीं हुआ। उस ज़माने में न तो इण्टरनेट था, न यूट्यूब। अब जब यह सुविधा उपलब्ध है तो इसे मैं आप के लिए पेश कर रहा हूं।
यों, जैज़ हो या भारतीय शास्त्रीय संगीत -- उस पर ‘बात करना’ सम्भव नहीं। जैसा कि सुप्रसिद्ध जैज़ संगीतकार थिलोनिअस मंक ने कहा है "संगीत के बारे में लिखना वास्तुकला के बारे में नाचने की तरह है।" चित्रकला जिस तरह " देखने" से ताल्लुक रखती है, उसी तरह संगीत "सुनने" की चीज़ है, "बताने" की नहीं। तिस पर एक नितान्त विदेशी संगीत की चर्चा! वह तो और भी कठिन है। विशेष रूप से मेरी अपनी कमज़ोरियों को मद्दे-नज़र रखते हुए। लिहाज़ा इस टिप्पणी में मैंने प्रमुख रूप से जैज़ के सामाजिक और ऐतिहासिक स्रोतों की चर्चा की है और प्रमुख संगीतकारों का और समय-समय पर जैज़ संगीत में आये परिवर्तनों का परिचय भर दिया है। जैज़ के बारीक समीक्षापरक विश्लेषण की यहाँ गुंजाइश नहीं, न ही मेरे भीतर उस तरह की क़ाबिलियत या सलाहियत ही है। लेकिन अगर इस टिप्पणी के बाद पाठकों में इस विलक्षण संगीत के प्रति रुचि उपजे, वे ख़ुद इस संगीत के करीब जायें, उसे सुनें और परखें तो मैं समझूँगा मेरी मेहनत बेकार नहीं गयी।
एक बात और। ऐन सम्भव है कि इस चर्चा में कई नाम छूट गये हों। जिस संगीत को रूप ग्रहण करने की प्रक्रिया में तीन सौ वर्ष लगे हों, उसकी परिचयात्मक टिप्पणी में नामों का छूट जाना स्वाभाविक है। इसलिए भी कि ऐसी टिप्पणी में महत्व नाम गिनाने का नहीं, बल्कि जैज़ की शुरूआत और उसके विकास को और उसके साथ-साथ उसकी प्रमुख धाराओं को पाठकों के सामने किसी हद तक बोधगम्य बनाने का है।)

(जारी)


Thursday, February 5, 2015

चट्टानी जीवन का संगीत 


जैज़ पर एक लम्बे आलेख की दूसरी कड़ी


1

जैज़ संगीत अनुद्विग्नता की तीव्र अनुभूति है 
- फ़्रान्स्वा सागां, लेखिका


अर्सा पहले कुमार गन्धर्व की विशेषताओं के सन्दर्भ में रघुवीर सहाय ने दो तत्वों की चर्चा ख़ास तौर पर की थी -- तल्लीनता और द्वन्द्व। जैज़ संगीत को सुनते हुए, बड़ी शिद्दत के साथ इन दोनों ही तत्वों की अनुभूति होती है। जैज़ संगीत की सफल संरचना में तो ये विद्यमान हैं ही, उसकी मूल प्रकृति भी ऐसी है, जिसमें लौकिकता के साथ उदात्तता का अपूर्व मेल है। ऐसी लौकिकता, जो धरती के सुखों की भरपूर अनुभूति से उपजती है और ऐसी उदात्तता, जो दुख और उत्पीड़न के बावजूद ज़िन्दगी को "जानने" के बाद आती है। ये दोनों विशेषताएँ अमरीकी नीग्रो समाज में मौजूद हैं और उसके जैज़ संगीत में भी। कई बार ये दोनों तत्व -- तल्लीनता और द्वन्द्व, लौकिकता और उदात्तता -- किसी एक ही कलाकार में बराबर की मिकदार में मौजूद रहे हैं, जैसा कि लूई आर्मस्ट्रौंग, बेसी स्मिथ, ड्यूक एलिंग्टन, बिली हौलिडे, चार्ली पार्कर, माइल्स डेविस, थेलोनिअस मंक, चार्ल्स मिंगस और और्नेट कोलमैन के सिलसिले में देखा गया है। तब निश्चय ही जैज़ संगीत एक "अनुभव" बन गया है। लेकिन मौजूद ये तत्व कम-ओ-बेश सारे-के-सारे जैज़ संगीत में रहते हैं, भले ही कलाकार नीग्रो न हो कर, गोरा या एशियाई हो, जैसा कि अमरीकी क्लैरिनेट वादक बेनी गुडमैन या जिप्सी मूल के गिटार वादक जैंगो राइनहार्ट या निस्बतन हाल के अर्से में जापानी-अमरीकी पियानो वादक तोशियो आकियोशी के सिलसिले में देखने को मिलता है.  
इसमें कोई शक नहीं कि जैज़ अमरीकी संगीत है, मगर उसकी बुनियादी लय-ताल यूरोपीय नहीं, अफ्रीकी है। तो भी अपने मौजूदा रूप में जैज़ की लयात्मक प्रकृति, उसकी ख़ास किस्म की गति, उसका "स्विंग" या उसकी "पल्स" (जैसा कि किसी बेहतर शब्द के अभाव में उसे कहा जाता है) अपनी अफ्रीकी जड़ों से दूर चला आया है। अब वह जैज़ संगीत की अपनी विशेषता है। इस लिहाज़ से जैज़ संगीत का इतिहास उसकी लय और ताल के उद्भव और विकास के सन्दर्भ में ज़्यादा सच्चाई के साथ बयान किया जा सकता है। पहले महायुद्ध के बाद जेली रोल मॉर्टन ने और उसके बाद लूई आर्मस्ट्रौंग, ड्यूक एलिंग्टन, चार्ली पार्कर और थिलोनियस मंक जैसे संगीतकारों ने बीस, तीस, चालीस और पचास के दशकों में जैज़ संगीत के क्षेत्र में जो भी योगदान किया, वह बुनियादी तौर पर लय और ताल से ही सम्बन्धित है -- यानी संगीत को नये ढंग से अदा करना या फिर नये ढंग से सुरों का क्रम तय करना -- वह, जिसे संगीत-विशेषज्ञ ‘लयात्मक ताल’ या ‘राग’ निर्मित करना कहते हैं।
मगर यह सब तो बहुत बाद की बात है।
उन्नीसवी सदी के अन्तिम चरण और बीसवीं सदी के आरम्भ में जैज़ अमरीका के दक्षिणी हिस्से में नदी के किनारे बसे बड़े-बड़े शहरों की गलियों में या फिर रेल की पटरियाँ बिछाने वाले मज़दूरों की बस्तियों में या फिर अमरीका के दक्षिणी राज्यों के हरे-भरे देहातों से गुज़रती कच्ची सड़कों पर या कारागारों में सज़ा काट रहे ज़ंजीरों से बंधे क़तारबन्द नीग्रो मज़दूरों -- चेन गैंग -- में अक्सर सुनाई देता था। यही उसका इलाका था और यही उसका मंच और उसके शुरू के कलाकार थे गिटार या माउथ ऑर्गन बजाने वाले मामूली मज़दूर या छन्दोबद्ध किस्से-कहानियाँ सुनाने वाले गायक या अपने दुख और उदासी को लय-ताल-शब्दों में व्यक्त करने वाले वे सारे-के-सारे अनाम नीग्रो संगीतकार, जिन्होंने अपनी उस कठिन चट्टानी ज़िन्दगी का सामना करते हुए, उस कठिन, चट्टानी ज़िन्दगी के अन्दर से इस संगीत को बाहर निकाला था जैसे किसी खान से कोई धातु या खनिज निकाला जाता है, जैसे किसी गहरे कुएं से पानी निकाला जाता है और फिर उसे गढ़ कर, मुनासिब पात्र में रख कर उन तमाम लोगों के बीच बाँटा-बिखेरा था, जो उसके लयात्मक कड़वे-मीठे स्वाद में अपनी ख़ुद की रची सुन्दरता की आन्तरिक दबी हुई ज़रूरत पूरी होती महसूस करते। यही लोग थे, जिन्होंने उसे जन्म दिया, पाला-पोसा और एक रूप प्रदान किया।

सन् 1914 में, जब पहला विश्वयुद्ध शुरू हुआ, जैज़ संगीत अपने प्रारम्भिक रूप में कमोबेश लोक-संगीत की तरह था। अमरीका के एक छोटे-से हिस्से में सीमित। अनुमान है कि उस समय जैज़ संगीतकारों की संख्या सौ-सवा सौ के आस-पास रही होगी और सुनने वालों की तादाद लगभग पचास हज़ार। लेकिन आज जैज़ संगीत दुनिया के कोने-कोने में फैल चुका है उसका एक ‘कायदा,’ कहा जाय कि एक ‘पद्धति,’ बन चुकी है; और हालांकि यह बात हमेशा याद रखने की है कि जैज़ अन्य शास्त्रीय संगीत और कला-रूपों से बिलकुल अलग है, उसका एक ‘शास्त्र’ विकसित हो चुका है और अमरीका के एक छोटे-से हिस्से के सीमित दायरे से बाहर आ कर वह दुनिया के अन्य संगीत-रूपों की पाँत में शामिल हो गया है।
लोक जीवन से शुरू हो कर शास्त्र या लगभग शास्त्र बनने तक की यह यात्रा लगभग ढाई सौ वर्षों के अर्से में फैली हुई है और इसे ले कर अनेक मत-मतान्तर हैं, अनेक विवाद हैं। मगर इतना सभी मानते हैं कि जैज़-संगीत की जड़ें एक ओर तो उस अफ्रीकी संगीत में खोजी जा सकती हैं, जो नीग्रो ग़ुलामों के साथ अमरीका आया था और दूसरी ओर विभिन्न प्रकार के उस यूरोपीय संगीत में, जो अमरीका के दक्षिणी राज्यों में गाया-बजाया जाता था। 
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आज का जैज़ संगीत बहुत जटिल हो गया है। ग़ुलामी और उसके दौर के ज़ख़्म हालांकि बीती हुई बात बन चुके हैं, पर वे पूरी तरह मिटे नहीं और अफ़्रीकी मूल के अमरीकी संगीतकारों की जातीय स्मृति की गहराइयों में मौजूद हैं और जैसा कि लुई आर्मस्ट्रौंग ने कहा है "जैज़ संगीतकार के लिए बीते समय की स्मृतियां बहुत महत्वपूर्ण होती हैं।" तो भी आज जैज़ के साज़ कहीं अधिक संश्लिष्ट हैं और बड़ी ख़ूबी से परम्परा से चली आ रही नियमबद्धता और शुद्धता को उन्मुक्त प्रयोगशीलता के साथ पेश करते हैं। शायद यही वजह है कि जैज़ किसी संगीत सम्मेलन के मंच पर भी उतने ही सहज भाव से पेश किया जा सकता है, जितना गली-कूचे के चायख़ानों या होटलों या शराबख़ानों में। 
ज़ाहिर है कि इस संगीत के साथ वही हुआ है, जो काफ़ी हद तक पश्चिमी या भारतीय शास्त्रीय संगीत के साथ -- यानी विकास, मगर फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि इन दोनों शास्त्रीय संगीत परम्पराओं ने जो फ़ासला सैकड़ों वर्षों में तय किया, उसे जैज़ संगीत ने कुछ दशकों में तय कर लिया है और इस लिहाज़ से जैज़ संगीत विकास नहीं, बल्कि विस्फोट जैसा जान पड़ता है। दूसरा महत्वपूर्ण अन्तर यह है कि जैज़ संगीत ने ‘शास्त्रीयता’ के स्तर तक पहुँचने के बाद भी लोक-परम्परा में डूबी अपनी जड़ों से कभी नाता नहीं तोड़ा। यही कारण है कि वह एक साथ मंच और मैदान, बड़े आयोजन या छोटे चायघर -- सभी जगह समान रूप से लोकप्रिय रह सका है जो बात कि पश्चिमी या भारतीय शास्त्रीय संगीत में नहीं देखी जाती। रविशंकर और विलायत ख़ां, किशोरी अमोनकर और भीमसेन जोशी या ज़ुबिन मेहता और आन्द्रे प्रेविन को किसी छोटे चायघर में गाते-बजाते देखने की बात तो दूर, उन्हें वहाँ सुनने की भी कल्पना नहीं की जा सकती, लेकिन जैज़ संगीत अकसर ऐसी छोटी-छोटी जगहों में भी सुना जाता रहा है और अब भी सुना जा सकता है।

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