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Saturday, May 2, 2015

किसानों की आत्महत्या – क्या ये मौतें राजनैतिक हत्या नहीं हैं?

किसानों की आत्महत्या – क्या ये मौतें राजनैतिक हत्या नहीं हैं?

गजेन्द्र की मौत के बहाने – इन्साफ, अपराध, किसानों की आत्महत्या पर सियासत

उम्मीदों की आस में आवाम, खैरख्वाहों की रहनुमाई और कयामत की तारीखें

क्या आत्महत्या कोई कॉमेडी है जिसे लोग सुनकर हंसेगे। अगर नहीं तो फिर मीडिया दरबार और सियासतदारों में इस बात को लेकर कोई संजीदगी दिखाई क्यों नहीं देती?

दिन, तारीख, समय और हालात से किसी की मौत को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। हत्या चाहे राजनीतिक हो, ख़ुदकुशी या षड्यंत्र। उसे आपराधिक ह्त्या ही कहना उचित है। खासकर ऐसे समय में जब गर्म प्याले की भाप सी उठती सियासत गम्भीर होने की बजाय रोमांचक होने लगे। तब बहस-मुबाहिसों में उलझे जबानी जमाखर्च के नाज-ओ-नख़रे में शामिल जनप्रतिनिधियों और मीडिया के जायके और पसंदगी पर तमाम सवाल खड़े होते दिख रहे हैं। विश्वसनीयता को संदेह की नजर से देखा जाने लगा है। इन बनते बिगड़ते संबंधों पर आवाम अब और संजीदगी दिखाए। क्या आत्महत्या कोई कॉमेडी है जिसे लोग सुनकर हंसेगे। अगर नहीं तो फिर मीडिया दरबार और सियासतदारों में इस बात को लेकर कोई संजीदगी दिखाई क्यों नहीं देती? बेवजह और बेमतलब का अफसाना बताकर भी इस पूरे घटनाक्रम को हर पेशेवर बड़ी चतुराई से दर्शकों को नए-नये पैंतरों में उलझा रहा है। कोई इस बात को कहने के लिए राजी नहीं कि आत्महत्या अगर हुई है तो इसके लिए मौजूदा सियासत और उसके द्वारा पैदा किये गये हालात जिम्मेदार हैं। इन सियासतदारों को हर आत्महत्या के बदले सजा का प्रावधान होना चाहिए। अगर अब भी कोई ऐसा नहीं कह रहा है तो समझिये कि आत्महत्या के पीछे इरादतन उसे बढ़ावा देने की साजिश चल रही है। किसान रसूखदारों का चारागाह बनते जा रहे हैं। अपराधियों के लिए आसान निशाना। सियासत के लिए सबसे बेहतरीन मुद्दा। जिसमें कुछ भी कहकर उनके बच निकलने के हर रास्ते खुले हुए हैं। सवाल तो ये है कि इंसानियत की कोई जगह यहाँ बाक़ी बची है भी या नहीं?
इन बातों के मद्देनजर उथले संवादों,  बेतुके और हिंसक बयानों के प्रसारण पर पाबंदी क्यों नहीं? कातिल जबानों और दहशत पैदा करने वाले बयानों और बेगुनाहों को सजा के लिए उकसाने वाले राजनीतक फल्सफेकारों की वक्रता पर कोई आपराधिक मामला क्यों नहीं बनता? इस बात का आंकलन करना कि कौन पक्ष है और कौन विपक्ष। इन दोनों के बीच कैसी रस्साकसी है? कितनी तीव्रता से पूरे तन्त्र के दोनों छोर पर खड़े दलों ने लोकतंत्र को रणभूमि में तब्दील करने का अभ्यास किया है? इतनी तनातनी और गुस्से के बावजूद हासिल क्या है?
गम्भीर बहसों के बाद किसी नतीजे तक पहुँचने की बजाय सियासत में बैठे अपराधी छलिये की भूमिका में छल-छद्म में करने में मग्न है और अंधी न्यायपालिका के सामने लोकतंत्र पांचाली की भूमिका में है। जिसकी पांचों संतानें (आदिवासी, अल्पसंख्यक, औरतें, दलित और किसान) मारी जा रही हैं। मीडिया संजय की भूमिका में है। अपराधबोध से ग्रसित और अपराधिक प्रवृत्ति के चलते मनोरंजन के नये नये तरीको से खबरें परोसने में मीडिया हर तरीके से लगा है। तथ्य, आंकड़े इस रणभूमि के बेहतरीन हथियार साबित हो रहे हैं। योद्धाओं में इस बात को लेकर उत्साह है कि युद्ध के बेहतरीन हथियारों को दोनों पाले से किस कुशलता से चलाया जाय कि सामने खड़ी सेना की बोलती बंद हो सके। ब्रम्हास्त्र की जरूरत जब पड़ेगी तब तक पांचाली की संतानों का कत्ल किया जा चुका होगा। पक्ष और विपक्ष कौरव पांडवों की तरह युद्ध की तैयारी में व्यस्त हैं। क्या युद्ध के महारथी और पेशेवर हत्यारों के सामने खड़े रहकर इन्साफ की उम्मीद की जा सकती है? इस छल-छद्म में किसान अगर बंदूक उठाये तो नक्सली या माओवादों कहकर मारा जाता है। अगर जुल्म सहे तो ख़ुदकुशी करते हुए मरता है। क्या ये मौतें राजनैतिक हत्या नहीं हैं?
इल्जाम और यकीन का रिश्ता बड़ा गहरा है। मगर हकीकत और बगावत से साबका तो हम सभी का है तो ऐसे में मीडिया और सियासतदारों, हत्यारों की हिफाजत करने वालों की गलतबयानी को कैसे बर्दाश्त किया जाय? और असल मुद्दे से भटकाव पैदा करने वालों को क्यूँ नजरंदाज करें। हर खुदकुशी के बाद हम सबके दिलों में दहशत है। किसान घबराए सहमे हुए हैं। हर आदमी इस जलजले वक्त में परीशाँ है। खुदकुशी है कि थमने की बजाय बढती ही जा रह है। ऐसे में सभी सोच रहे हैं कोई तो राह होगी कोई तो तरकीब होगी। कोई तो इन हत्याओं के खिलाफ सुबूत तारी करेगा। कोई तो इस कुसूरवारों की फेहरिस्त से नाम मिटाएगा।
बेकद्री की रहगुजर से यूँ तो कोई नहीं गुजरना चाहता मगर कभी तो कोई देखे, ये जो गम और उदासी के पहाड़ खड़े हैं। ये जो दागों के मंजर तने हैं। कोई रहनुमा कोई हमसफर गुजरे कोई हमख्याल गुजरे कि हम सब जो कुफ्र की गिरफ्त में हैं, सदमे में हैं, इतनी दरिंदगी और पीड़ा में जिए हैं कि कोई हमराह हो, जो इस मुश्किल घड़ी में तकलीफों से बाहर निकाले। जो लोग हादसों और मौतों से हदस गये हैं उन्हें आकर संभाले। जब हालात इस कद्र बेकाबू और बेसबब हो चले हों तब इन हालातों में अगर कोई सियासतादार ये फरमाये कि ये किसानों कि इस तरह खुदकुशी करना कायरता है। जिन किसानों को अपने नन्हे-नन्हें बच्चों की फक्र नहीं और बेख्याली में मुश्किल वक्त के चलते अपनी बीबियों को सरेराह छोड़ गये। उनसे किसी तरह की  न तो कोई हमदर्दी है और न ही उन्हें किसी तरह का मुआवजा दिया जाएगा।
सच में अगर सियासतदारों की नजर से देखा जाय तो ये बातें सही लगती हैं मगर जब कोई ख़ुदकुशी करता है तब सवाल उठने चाहिए। परेशानियों को खत्म करने की कोशिशों में तेजी आनी चाहिए। आखिर क्यों कोई किसान ख़ुदकुशी के लिए मजबूर होता है? ये कोई जिन्दगी का किरदार तो नहीं कि अगले ही पल वो परदे के पीछे से वापस लौट आएगा। खुदकुशी अगर हल नहीं तो परेशानी पैदा करने वाली व्यवस्था के खिलाफ एक हस्ताक्षर तो है ही। जिसे बड़ी संख्या में हर रोज़ दर्ज किया जा रहा है। सियासत की शमशीर चमकदार और तेजधार हो गयी है। वो बेकुसूर, मजलूम, मासूमों पर और भी कुशलता से चल रही है। कोई आदमी ख़ुदकुशी शौक से या मानसिक बीमारी से नहीं करता। बड़ी तकलीफ में होता है जिसे वो अब पल भर भी सहन नहीं कर पा रहा। तब जाकर सख्त इम्तेहान लेते हुए खुद को खत्म करने का फैसला लेता है। कोई सियासतदार इस मुश्किल में क्या करेगा? हालत से मजबूर होकर खुदकुशी के लिए तैयार होगा क्या? अगर उन्हें लगता है ख़ुदकुशी कायरता है तो एक बार आजमा कर देख ले। हिम्मत न हो तो तो भी जिन्दगी जी जा सकती है मगर बहुत हिम्मत चाहिए ख़ुदकुशी करने के वास्ते।
जब कोई हालात से परास्त होकर जिन्दगी दाँव पर लगाये दुनिया से रुखसत होता है। वो दुःख का मंजर बड़ा भयानक होता होगा। हद दर्जे निराशा में हर साँस जिया होगा। वो बहुत परीशाँ होगा, जिसे खुद ब खुद बयान करने और सहने की सारी हदें टूट जाती हैं। वो हालात से लड़ने की हिम्मत चाह के भी जुटा नही पाया। न ही जिन्दगी की डोर को खींच तान करके भी किसी सूरत कोई हल सोच पाया। उसे क्या मालूम कि मरकर भी मुश्किल ये है सियासत करने वाले उनकी तकलीफ को नाकाफी बता रहे हैं। जो लोग आवाम की उँगली पे काली स्याही लगाकर एक पल में ही अपनी जिन्दगी के वास्ते और धनपशुओं की खातिर सारी खुशियाँ और सहूलियतें जुटाने में कामयाब होते हैं। जिन लोगों के भरोसे पर वो गद्दीनशीन होते हैं उन्हें ही सबसे पहले दरकिनार करने के उपाय करते हैं।
जिन्हें आवाम कि बेकद्री में ही सुकून मिलता है उनके भीतर सियासत ऐसा गुरूर और हिम्मत भरती है कि आवाम की जरूरतों की लड़ाई में शामिल यही पहल करने वाले, नेतृत्व करने वाले प्रतिनिधि आवाम के भरोसे और उम्मीदों को भुला बैठते हैं। जिस दिन इन्हें सत्ता से वापस बुलाने के कानून को मंजूरी मिलेगी तब हो सकता है कि फितरत में कोई बदलाव आये। मगर ऐसा होगा कैसे? हुकूमत परस्त जमात आवाम की खातिर बेहद सख्त और दिलफरेब है। वो लहू बहाने के हज़ार नायाब तरीके निकालती है, कौमी लड़ाइयों को उकसाने और आग लगाने की तरकीबें इजाद करती है, वो औरतों को सिवाय जिस्म समझती है। उन्हें बरगलाने और बाज़ार की खातिर तैयार करने के अनगिनत रास्ते इख्तियार करती है। वो कमजोर और निचले तबके को दबाए रखने की नई-नई तरकीबें हमारे सामने इस तरह पेश करती है कि जिससे हम सभी इच्छाओं को आज़ाद ख्याली की शक्ल में ढलते हुए पाते हैं और हकीकत में खुद को गुलामी की तह में धकेलते जाते हैं। हमें नींद में खलिश और सपनों में कोई खलल पसंद नहीं इसके लिए सरमायेदारों के पास हमें बेसुध रखने की कीमिया और ख्याल मौजूद हैं। जिनमें हम बरबस ही फंसे हुए हैं। जब हमारी चीख कई गुना बढ़ चुकी होती है तब हमसे हमारी ताकत का सौदा किया जाता है। हमारी लड़ाई को राजधानी तक ले जाने की कीमत वुसूल की जाती है। हमारे हक़ और हमारी आज़ादी के वास्ते सौ तरह के समझौते किये जाते हैं।
आधी आबादी तो इन्ही सियासतदारों की सताई हुई है। जिन्हें मजहब कौम, तहजीब और पारम्परिक तालीम की दहशत के साए में पाला गया है। इक्कीसवीं सदी कि औरतें कैसी हैं इसे यहाँ के हालात बखूबी ब्यान करते हैं। ये वो आबादी है जिसे कुचलने और मसलने की रवायतें हजारों बरस पहले बनाई गयी हैं। जिन्हें परवरदिगार या हमारे पुरखों के संस्कार और परम्परा के जुल्म-ओ-सितम ढाने  वाली कलावादी संस्कृति में बाँधा गया है। सियासत ने इन्हें दीन ओ मजहब के वास्ते बाकी बची हुई पुरुष आबादी के लिए बेहतर खुराक और उपयोगी बताया है। इनकी ख्वाहिशें चाहतें और आज़ादी की मांग खुदा की इबादत के खिलाफ नाफरमानी और सियासत के बनाए उसूलों के खिलाफ है। इसके लिए कौमियत ने जो सजा तय की है इन्हें हर मिनट जान देकर चुकानी पड़ती है।
ये अपराधी नहीं सोचते कि आवाम किसके भरोसे पर बुनियादी जरूरतें और छोटी छोटी खुशियों की चाह में है। वहशत और जुल्म की स्थितियां भी कब तक दबायेंगी? तुष्टीकरण  करने वाली सियासत के हज़ार कातिलाना रंग नजर के सामने फैले पड़े हैं।
अभिव्यक्ति की आज़ादी के जेरेबहस खबरिया चैनलों की बाढ़ जो दिखाई दे रही है। गैरजिम्मेदाराना तरीके से हर मुद्दे को उठाने की जद्दोजहद  निजी फायदे की हवस में बदल गयी है। जिसके चलते  यह जो दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं उन पर सोचना होगा।
इन चैनलों की जरूरत कब कैसे और किस तरह की दर्शक-दीर्घा में बैठी पब्लिक को है? बेलगाम होकर टीआरपी के लिए भागते रहने की विवशता और बेहिसाब मुनाफे के चलते हर खबर मनोरंजन बनकर रह गयी है। हर चैनल दलालों का बाज़ार बनकर उभरा है। जहां हर घटना बिकाऊ है। हर फैसला बिकाऊ है। हर बहस बिकाऊ है हर आपदा और आत्महत्या यहाँ तक कि हर मानवीय संवेदना और घटना सब कुछ बिकाऊ है। बेचने वाले सूट बूट, खासी चमक,  धौंस-ठसक के साथ मीडिया दरबार के अहाते में अपनी-अपनी दुकानों के सामने मुस्तैदी से खबरें बेचने में लगे हैं। गुनाह और गुह्गारों को पैदा करने वाले सियासतदार के शेयर इसमें शामिल हैं। चंद बड़े कारोबारियों के ये चैनल जो जनहित के बहाने चलाये जा रहे हैं। खबरें बाँचने वाले कर्मचारियों के जरिये खबरों का माल बेचने की होड़ में लगे हैं। जो कर्मचारी इस माल को सबसे ज्यादा बार बेचने में सफल होते हैं उन्हें मुनाफे के इस माल का आंशिक हिस्सा तक नसीब नहीं होता। बावजूद इसके जन पक्षधर होने के मुगालते में पत्रकारों के जतन और दुस्साहस में कोई कमी नहीं आती।
कुछ खबरिया चैनलों का हाल ये है कि खबरें बेचते-बेचते ये लम्बे समय बाद इतनी हिस्सेदारी की उम्मीद जुटा लेते हैं कि खुद की दुकान अगर नहीं भी खोल सके तो बड़े कारोबारियों के खबरिया चैनल के धंधे में कमाई गई रकम का बड़ा हिस्सा यानी जमाखर्च को शेयर में लगाकर मुनाफे की होड़ में शामिल होते हैं। बहुसंख्य आबादी अभी इतनी जागरूक और समझदार नहीं है कि खबर और मनोरंजन में फर्क कर सके। खबरिया चैनलों में दिखाई जा रही खबर को क्या माने? खबर माने कि मनोरंजन? यह आबादी अनचाहे ही खबर के मनोरंजक खेल में शामिल हो चुकी हैं।
गजेन्द्र की मौत खुदकुशी या सियासतदानों की साजिश ?
जारी है ……
डॉ. अनिल पुष्कर
10422208_10152502225177466_1205161100044284606_n किसानों की आत्महत्या - क्या ये मौतें राजनैतिक हत्या नहीं हैं?

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अनिल पुष्कर कवीन्द्र, प्रधान संपादक अरगला (इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की त्रैमासिक पत्रिका)

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