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Tuesday, January 19, 2016

(...दुःख बेचनेवाले भड़ुओ एक दिन जवाब मिलेगा तुम्हें...!)


श्मशान ! (०1)
एक मेला
ऐसा देखा, जो
गाय, भैंस और बैलों 
का मेला, देखा, एक ऐसा
भी मेला, जहाँ औरतें
खुलेआम, बिक रही
थीं, लेकिन नहीं
उन्हें बेचा जा
रहा था
एक मेला, जहाँ
गंगा में देह धोई जा रही
थी कि मन, पता नहीं
फिर कौन जाने कि
कौन पापी, कौन
पुण्यात्मा
और एक मेला
देखा ऐसा भी, जिसे देखते
देखते-देखते जाना, देखने
में नहीं, दिखने में होता
है, दिखता है मेला
और उसकी
भीड़
भीड़ में
चिढ़
भले ही
ग़ुस्सा
नहीं
जाना
कि इस देखने
दिखने में जो मूर्त
उसे अपना धुआँ तक
नसीब नहीं, था नसीब
तो सिर्फ़ एक शोर
जो बाहर से
ज़्यादा
भीतर
पसर रहा था
एक ऐसी
धुन में
जिस पर
ख़ुश होना, नया
होना था, दुखी होना
पीछे, कहीं दूर
छूट जाना
एक मेला, जिसके
दिखने में, आज, हाँ, आज
जान पाया, धरती पर
एक और भी होता है मेला
जिसे किताबों का
मेला कहते हैं
किताबों का
जहाँ
अजीब
कुछ भी नहीं, जो भी
होता है, सुन्दर
बहुत सुन्दर
होता है
और वह भी
इतना, इतना सुन्दर
किताबें बिक रहीं कि
बेची जा रहीं, पता
नहीं, पर उनके
गुन, गाए
जा रहे
फिर तो
आँखें हैं तो देखेंगी ही
कान हैं तो
सुनेंगे ही
इसलिए
देखा जा रहा था
सुना जा रहा था, और
सुनाया भी जा रहा था
पर कितना सोचा जा
रहा था, पता
नहीं
लेकिन
बार-बार यही
लग रहा था, यही, जब
दो बच्चियों को सर पे
किताबें ढोते
देखा
हो कोई भी
कोई भी मेला, वह
दुःख को भी बग़ैर
बग़ैर, धुएँ के
बेचना
बेच देना
जानता है...!
(...दुःख बेचनेवाले भड़ुओ
एक दिन जवाब मिलेगा तुम्हें...!)

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