पलाश विश्वास
प्रिय मित्रों,नमस्कार
जोहार
मेरा लेखन निरिन्तर जारी रहने वाला संवाद है,जो अक्सर आधा अधूरा होता है। सहमति असहमति के लोकतंत्र के मुताबिक मिट्टी से सरोबार। जिसमें भाषाई दक्षता की चकाचौंध नहीं होती। इसलिए मैं किताबें छपवाने के चक्कर में नहीं पड़ता।
लिखने का अंतिम लक्ष्य संवाद हैं तो वह अनौपचारिक और आधा अधूरा भी हो सकता है।
1994 से 2001 तक देश के विभिन्न हिस्सों में मेरा उपन्यास अमेरिका से सावधान धारावाहिक या आंशिक जो छपता रहा,वह भी एक संवाद था।
पाठकों,लेखकों,कवियों,सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ।इस संवाद में व्यापक भागेदारी भी थी। लेकिन हालात तेजी से बदलते चले गए और देखते देखते मेरा देश अमेरिका हो गया।वैश्विक पूंजी और एकाधिकार कारपोरेट विश्व व्यवस्था का उपनिवेश। मुक्तबाजार।
यह उपन्यास अधूरा रह गया क्योंकि संवाद अधूरा रह गया। तब से अब तक जहां भी जाता रहा हूँ,कोई न कोई पूछता ही है-अमेरिका से सावधान का क्या हुआ। कैसी सावधानी।देश अमेरिका हो गया तो इस उपन्यास का औचित्य ही क्या रह गया है?
दशकों बाद धनबाद के पुराने मित्र ,कवि अनवर शमीम से बात हुई तो बोले,यह उपन्यास तो छपना ही चाहिए।
धनबाद और जमशेदपुर में तीन साल तक दैनिक आवाज़ में यह उपन्यास धारावाहिक छपा तो झारखण्ड के लोगों को लगता है कि उपन्यास उनके हाथों में होना चाहिए।
मुझे लगता था कि लोग भूल गए होंगे कि दो दशक पहले तक मैं भी उपन्यास, कविताएं, कहानियां,यात्रा वृत्तांत,डायरियां,रपटें लिखा करता था।
प्रेरणा अंशु के माध्यम से पुराने मित्रों,साथियों से नए सिरे से संवाद शुरू हुआ है।
झारखण्ड,ओडिशा,महाराष्ट्र,बंगाल,बिहार,राजस्थान,गुजरात,पंजाब,हरियाणा और उत्तर प्रदेश में प्रेरणा अंशु के पहुंचने से रोज कहीं न कहीं से टूटे संवाद का सिलसिला फिर शुरू हो जाता है।
अभी हाल में धनबाद के सीएफआरआई से गौतम गोस्वामी का फोन आया।
वहां मैं 1981 में गया था। तब मैं कोयला खदानों और खनन पर काम कर रहा था। cfri में तब कोयले को लेकर वैज्ञानिक तरह तरह के शोध कर रहे थे। मुझे उन लोगों ने आमंत्रित किया था। तब से गोस्वामी जी वहीं जमे हुए हैं।
गौतम गोस्वामी जी ने भी वही सवाल पूछा,अमेरिका से सावधान का क्या हुआ?
आज दो खास लेखिकाओं से लम्बी बातचीत हुई। बेबी हालदार और इंदिरा किसलय से। लेखन के सरोकार के सवाल पर संवाद चला।
बेबी हालदार ने नवम्बर के आजीविका अंक के लिए अपनी आपबीती बांग्ला में लिखकर भेजी है। उसीके अनुवाद और सम्पादन के सिलसिले में शुरू हुआ संवाद। जो फिर इंदिरा जी के साथ बातचीत में जारी रहा।
बुनियादी सवाल फिर वही है- लिखने का आखिर क्या मकसद है? यह बात सिरे से साफ होनी चाहिए।
जसिंता की बात चली। यह लड़की गज़ब की कविताएं लिखती हैं। गद्य भी मजबूत है।पूरी दुनिया में खूब चर्चित है।विदेश यात्राओं पर आती जाती है। विदेशी मीडिया में उनकी चर्चा होती रहती है। लेकिन आसमान की ऊंचाइयां छूने के बावजूद उसके पांव मजबूती से जमीन में जमे होते हैं।
उसकी कलम में मिट्टी,जंगल,पहाड़, नदी,झरने,झील,तालाब सब एकाकार है।
वह कभी भी जंगल और पहाड़ में किसी गांव में डेरा डालकर अकेली रहती है।खुद खाना बनाती है। जहरीले सांपों और जानवरों का मुकाबला करती है और आम जनता के साथ उनके मोर्चे पर लामबंद हो जाती है।
उसकी रचना वही से शुरू होती है।
निर्मला पुतुल मुर्मू संताल परगना के दुमका की एक संताल लड़की है,जिसके पुरखे चाँद भैरव, सिधो कान्हू जैसे लोग है।
लोगों को अब भी यकीन नहीं आता कि डंठल परगना की यह लड़की इतनी बेहततीन कवितायन कैसे लिखती हैं। यानी कुलीनत्व लिखने के लिए जैसे अनिवार्य है।
हमने दार्जीलिंग के चाय बागानों की दो युवा कवयित्रियों अर्चना विश्वकर्मा और शिखा मिंज की कविताएं छपी हैं। गुमला जिले के गांवों की दो लड़कियों ज्योति लकड़ा और पार्वती तिर्की की कवितायन भी छपी हैं। बस्तर की लड़की प्रीति मांझी की भी।
सीमेंट के जंगल में कविता की कोई जमीन नहीं होती। कविता के लिए मिट्टी,पानी,बोली,लोक जरूरी हैं।वहीं से नये मुहावरे,नई भाषा और नई शैली का जन्म होता है। लेकिन मठों के वाशिंदे यह मानने को।कतई तैयार नहीं
है।हम उन्हें वन्दना टेटे या आलोका कुजूर या रेखा सहदेव या जसिंता की या ऐसी ही किसी आम लड़की की कविताओं से हर अंक में गलत साबित कर रहे हैं।
मुक्त बाजार राजनीति और राजसत्ता का भविष्य तय करता है। कायदे कानून बदलता है।अर्थ व्यवस्था के सारे पैमाने और परिभाषाएं,प्राथमिकताएं बदल दी है। सबकुछ बाजार के नियम से चलता है।
बाजार ही धर्म है और बाजार ही सर्वशक्तिमान ईश्वर।
मुक्त बाजार ने साहित्य, कला, माध्यम, विधा,रंगकर्म,संगीत,चित्रकला, पत्रकारिता,समाज सेवा,
सिनेमा और लोकसंस्कृति को भी सिरे से बदल दिया है।
विज्ञान और तकनीक को बदल दिया है।
फिरभी सबकुछ बाजार के नियम से नहीं चलेगा।
युवा आदिवासी कवयित्रियों की कविताये यही कहती है और प्रेरणा अंशु का भी यही कहना है।
बेबी हालदार का लेखन और इंदिरा किसलय का रचनाकर्म भी यही कहते हैं।
आपका क्या कहना है?
फोन पर संवाद करने वाले लिखकर सहमति असहमति जताए तो यह बहस नई दिशा खोल सकती है।
हम बाजार का नियम तोड़ने वाले हर रचनाकार के साथ हैं।
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