Sustain Humanity


Saturday, August 8, 2015

पहाड़ की खेती

पहाड़ की खेती

farmingइधर के दिनों में एक अच्छी बात यह हुई है कि केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा किसी भी हालत में भूमि अधिग्रहण कानून लागू करने की जिद से पूरे देश में खेती और किसानी के बारे में नये सिरे से जीवन्त बहस शुरू हुई है। इस क्रम में उत्तराखंड में भी खेती-किसानी के मुद्दों की ओर लोगों का ध्यान गया है। चिपको आन्दोलन के वरिष्ठ कार्यकर्ता और अब ‘बीज बचाओ आन्दोलन’ को अपनी सारी ऊर्जा दे रहे विजय जड़धारी कहते हैं कि पहाड़ में खेती-किसानी पर जंगली जानवरों, मौसम और सरकार की बराबर मार पड़ती है। जंगली जानवरों द्वारा फसलों को तहस-नहस कर देने के कारण ग्रामीणों ने जमीनें बंजर छोड़ दी हैं। वन्यजीव कानूनों के कारण वे इन जानवरों को मार भी नहीं सकते। जरूरत है कि हिमाचल प्रदेश की भाँति यहाँ बन्दरों की नसबंदी के केन्द्र बनाये जायें। सुअरों को मारने के मामले में थोड़ी सी छूट दी गई है। लेकिन जरूरी है कि किसान अपनी फसलों को बचाने के लिये सुअर व सेही को बगैर अड़चन मार सकें। जंगली जानवरों द्वारा फसलों को किये गये नुकसान का किसान को मुआवजा मिलना चाहिये।
कृषि भूमि की चकबन्दी होना बहुत जरूरी है। दूर-दूर बिखरे छोटे-छोटे खेतों को एक साथ कर खेती करना ज्यादा लाभप्रद होगा और खेत बड़े होने पर उन्हें घेरबाड़ कर जानवरों से बचाना भी सरल होगा। लेकिन चकबन्दी उनके लिये हो, जो नियमित रूप से खेती कर रहे हों। ऐसा न हो कि चकबन्दी से बड़े हुए भूखण्ड जमीन के कारोबारियों के लिये सुलभ हो जायें।
जलवायु परिवर्तन से मौसम का मिजाज इतना गड़बड़ हो गया है कि कब क्या विपदा आ जाये, इसका अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता। मौसम से होने वाले किसी भी नुकसान, चाहे वह सूखे से हो, बादल फटने से, ओलावृष्टि से अथवा हिमपात से, किसान को उचित और सम्मानपूर्ण मुआवजा दिया जाना चाहिये। पहाड़ पर भूस्खलन से भी कृषि भूमि नष्ट होती है, उसका भी मुआवजा दिया जाना चाहिये। जो गाँव खतरनाक स्थिति में हैं, उन्हें अन्यत्र विस्थापित किया जाना चाहिये। मंडुवा, झंगोरा, चैलाई जैसी फसलों, जो जल परिवर्तन से होने वाले नुकसान को कम करती हैं और मौसम के विपरीत चले जाने पर भी खड़ी रहती हैं, के लिये समर्थन मूल्य दिया जाना चाहिये। जिस तरह डेरी के लिये सब्सिडी दी जाती है, उसी तरह भैंस और बैल आदि पशुओं के लिये भी सब्सिडी दी जानी चाहिये। बागवानी के लिये सरकार प्रोत्साहन देती है, किन्तु किसान अपने खेतों के किनारे अखरोट, नींबू, खुबानी आदि के जो पेड़ लगाते हैं, उन्हें बागवानी नहीं मानती। ऐसे पेड़ों को भी बागवानी के अन्तर्गत मान कर किसानों को आर्थिक प्रोत्साहन दिया जाना चाहिये।
नदी-घाटियों पर लगने वाली जल विद्युत परियोजनाओं तथा खनन आदि के लिये किसानों को अपनी जमीन बाहर की कम्पनियों को देने के लिये बाध्य नहीं किया जाना चाहिये। ऐसे उद्योग लगें तो छोटे स्तर पर, पर्यावरणसम्मत ढंग से, ग्राम सभा की देखरेख में स्थानीय लोगों की प्रोड्यूसर कम्पनी बना कर लगने चाहिये, ताकि स्थानीय लोगों को उनसे सीधा रोजगार मिले, आर्थिक लाभ हो तथा पर्यावरण नष्ट न हो।
वन्य जीव विहार, जैव विविधता पार्क तथा ईको सेंसिटिव जोन के नाम पर ग्रामीणों को उनकी जमीनों तथा हक हकूक से वंचित करना खत्म हो। वनाधिकार कानून प्रदेश में पूरी तरह लागू किया जाये। 73वाँ संविधान कानून प्रदेश में पूरी तरह लागू किया जाये, ताकि ग्रामीण अपने विकास कार्य अपनी जरूरतों के अनुसार स्वयं कर सकें तथा अपने लिये रोजगार के अवसर भी तैयार कर सकें। ऐसे सभी उपाय किये जायें, जिनसे ग्रामीण अपनी जमीनें बाहर से आने वाले जमीन के कारोबारियों को बेच कर अपने परम्परागत गाँवों से शहरों को पलायन करने के लिये विवश न हों।

No comments:

Post a Comment