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Friday, July 29, 2016

सेगुन का पौधा बनकर जिंदा हैं महाश्वेता दीदी,आदिवासियों ने उन्हें जिंदा रखा है पलाश विश्वास

सेगुन का पौधा बनकर जिंदा हैं महाश्वेता दीदी,आदिवासियों ने उन्हें जिंदा रखा है
पलाश विश्वास
चुनी कोटाल,रोहित वेमुला से पहले जिस लोधा शबर छात्रा की संस्थागत हत्या हुई


महशवेता दी की आदिवासी जीवन पर केंद्रित पत्रिका बर्तिका

कोलकाता के केवड़ातल्ला श्मसान घाट पर  जिस वक्त महाश्वेतादी की राजकीय अंत्येष्टि हो रही थी,उस वक्त आदिवासी गांव कृदा में चक्का नदी के किनारे श्मशान घाट पर लोधा शबर आदिवासियों ने दीदी की याद में सेगुन का पौधा रोप दिया ताकि आंधी तूफां में महाश्वेतादी उऩकी हिफाजत सेगुन वृक्ष बनकर कर सकें।

माफ कीजिये,आज का रोजनामचा भी महाश्वेता दी को समर्पित है।अंतिम दर्शन या अंति प्रणाम नहीं कर सका तो क्या हुआ,1978-79 से लगातार जिस रचनाधर्मिता का सबक वे लगातार मुझे सिखाती रही हैं और 1981 से उनके साथ जो संवाद का सिलसिला रहा है,उसकी चर्चा करके अपनी तरह से उन्हें मुझे श्रद्धांजलि देने की इजाजत जरुर दें।

80-81 में जब दैनिक आवाज चार पेज से छह पेज का सफर तय कर रहा था और झारखंडआंदोलन निर्णायक दौर में था,तब दैनिक आवाज के रविवारीय परिशिष्ट में महाश्वेता दी के रचनासंसार पर केंद्रित मेरे स्तंभ पर लोग यही शिकायत करते थे कि महाश्वेता से गंधा दिया है अखबार।

लगता है कि करीब पैंतीस साल बाद महाश्वेता दी की भारतीय पहचान इतनी तो बन गयी होगी कि अब ऐसा कहने की कोई गुंजाइश नहीं है।

रचनाधर्मिता के लिए सामाजिक यथार्थ की बात तो बहुत होती रही है और नवारुण भट्टाचार्य के लिए रचनाधर्मिता बदलाव के लिए गुरिला युद्ध है और उनके लिखे हर शब्द के पीछे बाकायदा मुकम्मल गुरिल्ला युद्ध की तैयारी है।

मुझे शायद ही कोई रचनाकार मानें लेकिन भारत के तमाम दिग्गज साहित्यकारों से हमारे कमोबेश संबंध और संवाद रहे हैं तो साहित्य,भाषा विज्ञान और सौंदर्यशास्त्र का विद्यार्थी भी रहा हूं।शास्त्रीयसाहित्यपढ़ने में ही छात्र जीवन रीत गया और तथाकथित कामयाबी के लिए जरुरी तैयारी मैंने कभी नहीं की।इस लिहाज से मैंने महाश्वेता देवी के अलावा दुनियाभर मे किसी और रचनाकार को नहीं देखा जिनकी प्राथमिकता रचनाधर्मिता के बदले सामाजिक सक्रियता हो।

लोधा शबर जनजाति से महाश्वेता दी के संबंधों पर खास चर्चा का मकसद यही है कि यह चर्चा जरुर होनी चाहिए कि रचनाकार को किस हद तक सामाजिक सक्रियता को तरजीह देना चाहिए।होता तो यही है कि रचनाधर्मिता के बहाने सामाजिक निष्क्रियता ही अमूमन रचनाकार का चरित्र बन जाता है और उसके कालजयी शास्त्रीयरचनाकर्म का मनुष्यता,सभ्यता और प्रकृति से कोई संबंध होता नहीं है।इसी लिए आज मीडिया और तमाम माध्यमों और विधाओं में समाज अनुपस्थित है तो सामाजिक यथारत से रचनाकारों का लेना देना नही हैं और न ही माध्यमों और विधाओं में हकीकत का कोई आईना है।रचनाकार की सामाजिक सक्रियता अघोषित पर निषिद्ध है हालांकि विचारदारा की जुगाली पर कोई निषेध नहीं है।सारा विभ्रम इसीको लेकर है।

कल जंगल महल,आदिवासी भूगोल और महाअरण्य मां की राजकीय अंत्येष्टि संपन्न हो गयी ह।जल जंगल जमीन से बेदखली के शिकंजे में फंसे आदिवासियों पर सैन्य राष्ट्र के लगातार हमलों के बीच उन्हें गोलियों से सलामी दी गयी,जिन गोलियों से छलनी चलनी हुआ जाता है समूचा आदिवासी भूगोल।आदिवासी की तरह जीनेवाली भारत की महान लेखिका का यह राजकीय सम्मान भव्य जरुर है।

जनसत्ता में हमारे सहयोगी रहे चित्रकार सुमित गुहा ने सिलसिलेवार तस्वीरें फेसबुक पर पोस्ट की है तो खबरों में वे दृश्य लाइव हैं।महानगरीय भद्रलोक दुनिया की चकाचौंध के दायरे से बाहर रोज रोज मरने वाले मारे जाने वाले आदिवासी भूगोल का कोई चेहरा इस राजकीय आयोजन में नहीं है।वे अपने आदिवासी परंपराओं के मताबिक अपनी मां का अंतिम संस्कार करने जा रहे हैं।

इसकी पहल शबर जनजाति के आदिवासी जंगल महल में कर रहे हैं।जिस जंगल महल में आदिवासी उत्पीड़न के खिलाफ वाम शासन के अंत के लिए परिवर्तनपंथी आंदोलन का चेहरा बनकर ममता बनर्जी के जरिये सत्ता और सत्ता वर्ग के साथ नत्थी हो गयी हमारे समय की सर्वश्रेष्ठ रचना धर्मी सामाजिक कार्यकर्ता।

गौरतलब है कि झारखंड और बंगाल में शबर जनजाति की आबादी है और वे लोग भारत में सबसे प्राचीन गुफा चित्र और हां,पुस्तकचित्र बनाने वाले लोग हैं।1757 में पलाशी की लड़ाई में बंगाल के नवाब सिराजदौल्ला की निर्णायक हार के बाद झारखंड,बंगाल और ओड़ीशा के जंगल महल में किसान आदिवासी विद्रोह का सिलसिला चुआड़ विद्रोह के साथ शुरु हुआ,जो भारत की आजादी के बादअब भी किसी न किसी रुप में जारी है।

महाश्वेतादेवी के रचना विषय का मुख्य संसाधन और स्रोत है।

उसी चुआड़ विद्रोह के असम और पूर्वोत्तर से लेकर बंगाल बिहार ओड़ीशा,महाराष्ट्र और आंध्र,फिर समूचे मध्य भारत और राजस्थान गुजरात तक भारी पैमाने पर अछूत ,शूद्र और आदिवासी राजा रजवाड़े राज कर रहे थे,जिन्होंने विदेशी हुकूमत के खिलाफ लगातार संघर्ष जारी रखा।चुआड़ विद्रोह के दौरान ही इन तमाम आदिवासियों के अपराधी तमगा दे दिया गया।पंचकोट और तमाम गढ़ों के राजवंशजों को चोर चुहाड़ साबित करके उनके विद्रोह को जनविद्रोह और स्वतंत्रतता संग्राम न बनने देने के मकसद से ईस्टइंडिया कंपनी के किलाफ पहले आदिवासी विद्रोह को चुआड़ विद्रोह बताया गया।यही नहीं,बागी जनजातियों को क्रिमिनल मार्क कर दिया गया और आजादी के बाद भी ये जनजाति नोटिफाइड अपराधी बतौर चिन्हित हैं।लोधा और शबर जनजातियां इसीलिए सराकीर रिकार्ड में अपराधी हैं आज भी।

चुनी कोटाल का किस्सा फिर चर्चा में है रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या के बाद।चुनी कोटल लोधा शबर जनजाति की छात्रा थी,जिनकी प्रगतिशील वाम जमाने में पहली संस्थागत हत्या हुई और तब रोहित वेमुला की हत्या के विरुद्ध जैसा आंदोलन हो रहा है,वैसा कोई आंदोलन हुआ नहीं है।चुनी कोटाल की लड़ाई अकेली महाश्वेता दी लड़ती रही हैं।

महाश्वेता दी ने इन्ही शबर जनजाति के लोगं के लिए पश्चिम बंग लोधा शबर कल्याण समिति का गठन किया था और आदिवासियों ने उन्हें ही इस समिति का कार्यकारी अध्यक्ष चुना था।समिति का मख्यालय पुरुलिया के राजनौआगढ़ में है।

गौरतलब है कि 1083 मेंपुरुलिया जिले के 164 शबर गांवों और टोलों को एकजुट करने के मकसद से चुआड़विद्रोह के सिलिसिले में अग्रेजी हुकूमत के लिए सरदर्द बने पंचकोट राजवंस के उत्तराधिकारी गोपीबल्लभ सिंहदेव पुरुलिया एक नंबर ब्लाक के मालडी गांव में शबर उन्नयन परिषद चला रहे थे और उन्होंने ही शबर मेला का आयोजन शुरु किया।यह इसलिए खास बात है कि आदिवासियों के लिए निरंतर सक्रियता का महाश्वेता दी का मक्तांचल यही शबर भूमि और वहां आयोजित होने वाला शबर मेला है।राजनौआगढ़ में बने लोधा शबर कल्याण समिति के मुख्यालयका नाम अब महाश्वेता भवन है,जो महाश्वेता दी की सामाजिक सक्रियता का मुख्यालय भी रहा है,ऐसा कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। वहीं से वे हर शबर लोधा गांव जाकर उनके घर गर के दुःख तकलीफों,रोजमर्रे की समस्याओं की सिलसिलेवार जानकारी हासिल करती रही है।
1981 से लगातार मेरे पास दीदी की पत्रिका बर्तिका के अंक आते रहे हैं।उस पत्रिका के लिए लिखना एकदम हम जैसे खालिस लेखकों के लिए असंबव ता क्योंकि वह पत्रिका आदिवासी भूगोल की हर समस्या को वहां की जमीन पर खड़े होकर जिलेवार,गांव तहसील मुताबिक सर्वे के साथ संबोधित करती रही है।जैसे बर्तिका के लिए लिखना बिना आदिवासी रोजमर्रे कीजिंदगी से जुड़े असंभव था, मसमझ लीजिये कि महास्वेता देवी की तगह लिखना आम लेखकों के लिए उतना ही असंभव है।

बेमौत मारी गयी चुनी कोटाल की लड़ाई महाश्वेता दी लगातार लड़ती रही।इसीतरह आदिवासी भूगोल में उनके हक हकूक की कानूनी लड़ाई में भी वे लगातार सक्रिय रही हैं।मसलन डकैती के फर्जी मामले में केंदा थाने में लोधा शबर युवक बुधन की पुलुस ने पीट पीटकर हत्या कर दी तो इसके खिलाफ दीदी की लड़ाई कानूनी थी तो लोधा शबर आदिवासियों के लिए सरकारी अनुदान में बंदरबांट के खिलाफ उन्होंने हाईकोर्ट का दरवाजा भी खटखटाकर देख लिया।

शबर आदवासियों के साथ दीदी के रिश्ते को समझने के लिए शायद यह काफी होगा कि शबर मेले के संस्थापरक आयोजक वयोवृद्ध गोपीबल्लभ सिंह देव फिलहाल बीमार चल रहे हैं और उन्हें सदमा न लगे ,इसलिए उन्हें महाश्वेतादी के महाप्रयाण की खबर दी नहीं गयी है।लगभग तीस साल से लगातार दीदी वहां आती जाती रही है जैसे हम लोग घर फिर फिर लौटते हैं।मैगसेसे पुरस्कार में मिले दस लाख रुपये महाश्वेता दी ने इसी लोधा शबर कल्याण परिषद को दे दिये और हर साल इसी शबर मेले के मार्पत बाकी देश से राशन पानी,कपड़े लत्ते,दवा,नकदी वे आदिवासियों तक पहुंचाती रही हैं।
दीदी की अंत्येष्टि पर सुमित जनसत्ता में हमारे सहकर्मी चित्रकार समित गुहा ने अपने फेसबुक वाल पर जो तस्वीरें पोस्ट की हैंः

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