आज तो निजीकरण महामारी बन चुका है. अब तो देश के असली मालिक अदानी, अम्बानी, माल्या, जाल्या... हैं.
TaraChandra Tripathi
दादा जिलाधिकारी, पिता पुलिस महानिरीक्षक, बेटी आरक्षण के आधार पर सिविल सर्विस परीक्षा में सर्वोच्च स्थान और वास्तविक दलित मृत पत्नी की लाश को अकेले ढोने के लिए मजबूर. यू.पी. में मुलायम यादव परिवार का शासन. बिहार में लालू के दो अधपढ़ बेटे एक मंत्री तो दूसरा उप मुख्यमंत्री. जनजाति का सारा आरक्षण भोटान्तिकों और मीणाओं की बपौती. सन्थाल, कोरवा, गौंड.... सारे फटेहाल. अपने निकट संबन्धी के गहने से में भी मिलावट करने से न चूकने वाले स्वर्णकार आरक्षण के अन्तर्गत. सर्वोच्च न्यायालय दमे से खाँसते बूढ़े स्वसुर की तरह ’कच-कच’ लगाता रहे. कौन सुनता है उसकी. बकने दो. ज्यादा बकबक करेगा तो विधान में ही संशोधन कर देंगे कि पूर्व मुख्यमंत्री न केवल आजीवन सरकारी बंगले में मौज मनाते रहेंगे अपितु मरने के बाद भी उनका भूत उस बंगले में रहने के लिए अधिकृत होगा.
दलितों और आदिवासियों और आर्थिक अभावों से जूझते गरीबों उत्थान के लिए कोई ठोस योजना नहीं, न भोजन में पोषक तत्व, न अच्छी चिकित्सा, न अच्छी शिक्षा, न प्रशासन में उनके प्रति कोई हमदर्दी. इन सब व्यवस्थाओं के लिए तो बहुत परिश्रम करना पड़्ता, नव निर्माण के संकल्प की आवश्यकता होती. ७० साल में उनकी ओर देखा तक नहीं गया.
जब संविधान बना था, तब उसके निर्माता बड़े उत्साह में थे, उन्हें लग रहा होगा कि अपनी सरकार देश का कायापलट कर देगी, और दस साल में दलित, आदिवासी, सामान्य वर्ग के खाते-पीते परिवारों के स्तर पर आ जायेंगे.
स्वप्न द्रष्टा थे वे लोग. वे ही क्या हर गाँव में हर देशवासी में कुछ कर गुजरने का उत्साह था. मेरे गाँव में ही हम लोगों ने बाल संघ बनाया, सफाई, आनुशासन और परिश्रम करने की कसमें खाईं. युवकों ने शक्ति क्लब बनाया, लोगों ने मिल जुल कर गाँव में पानी के अभाव को दूर किया. बिना सरकारी सहायता के केवल आपसी चन्दे और रामलीली आदि धार्मिक आयोजनों में संचित होने वाली धनराशि और श्रमदान से प्राथमिक स्तर से आगे की पढ़ाई के लिए विद्यालय भवन बनाये, अध्यापकों की व्यवस्था की. १९४७ में ही लीलावती पन्त जैसी सम्पन्न महिला ने ्भीमताल में अग्रेतर शिक्षण की व्यवस्था के लिए चालीस हजार रुपये ( तब ब्रिटिश पाउंड और भारतीय रुपया एक ही स्तर पर था) या आज के हिसाब से चालीस लाख रुपया दान दिया था.
दलितों और आदिवासियों और आर्थिक अभावों से जूझते गरीबों उत्थान के लिए कोई ठोस योजना नहीं, न भोजन में पोषक तत्व, न अच्छी चिकित्सा, न अच्छी शिक्षा, न प्रशासन में उनके प्रति कोई हमदर्दी. इन सब व्यवस्थाओं के लिए तो बहुत परिश्रम करना पड़्ता, नव निर्माण के संकल्प की आवश्यकता होती. ७० साल में उनकी ओर देखा तक नहीं गया.
जब संविधान बना था, तब उसके निर्माता बड़े उत्साह में थे, उन्हें लग रहा होगा कि अपनी सरकार देश का कायापलट कर देगी, और दस साल में दलित, आदिवासी, सामान्य वर्ग के खाते-पीते परिवारों के स्तर पर आ जायेंगे.
स्वप्न द्रष्टा थे वे लोग. वे ही क्या हर गाँव में हर देशवासी में कुछ कर गुजरने का उत्साह था. मेरे गाँव में ही हम लोगों ने बाल संघ बनाया, सफाई, आनुशासन और परिश्रम करने की कसमें खाईं. युवकों ने शक्ति क्लब बनाया, लोगों ने मिल जुल कर गाँव में पानी के अभाव को दूर किया. बिना सरकारी सहायता के केवल आपसी चन्दे और रामलीली आदि धार्मिक आयोजनों में संचित होने वाली धनराशि और श्रमदान से प्राथमिक स्तर से आगे की पढ़ाई के लिए विद्यालय भवन बनाये, अध्यापकों की व्यवस्था की. १९४७ में ही लीलावती पन्त जैसी सम्पन्न महिला ने ्भीमताल में अग्रेतर शिक्षण की व्यवस्था के लिए चालीस हजार रुपये ( तब ब्रिटिश पाउंड और भारतीय रुपया एक ही स्तर पर था) या आज के हिसाब से चालीस लाख रुपया दान दिया था.
जाने कहाँ गये वो दिन... इन्दिरा जी का सत्ता-लोभ, न केवल उनको अपितु पूरे देश को ले डूबा. सत्ता पर छुट्भैयों की जमात काबिज हो गयी. जय प्रकाश का प्रकाश गुम हो गया. यदि वे बीमारी से नहीं मरते तो गांधी की तरह ही अंधेरे कमरे के कोने में रो रहे होते.
नरसिंहा और मनमोहना की बन आयी तो निजीकरण शुरू हो गया. सरकारी उद्योग बिकने लगे. नेताओं की बन आयी. उन्होंने अपने सैंया से नयना लड़इहैं, हमार कोई का करिहै के मोड में अपने-अपने संस्थान खोलने शुरू किये. सरकारी व्यवस्था तदर्थ या काम चलाऊ बना दी गयी. बिना शिक्षण की समुचित ब्यवस्था के निजी मेडिकल कालेज खुलते गये और २०० करोड दे सकने वाला महामूर्ख भी डाक्टर बन कर लोगों को और उनकी गाढ़ी कमाई को भी स्वर्ग प्रदान करने लगे.
आज तो निजीकरण महामारी बन चुका है. अब तो देश के असली मालिक अदानी, अम्बानी, माल्या, जाल्या... हैं. सत्ता और विधान मंडल एक स्वर से ’ जो तुमको हो पसन्द वही बात करेंगे, तुम दिन को अगर रात कहो तो रात कहेंगे’ वाले मोड में हैं. शहीद होने के लिए गरीबों की जमात लाइन में लगी है. चाहे उन्हें बिना जिरह बख्तर के कश्मीर में झौंक दो या दन्तेवाड़ा में अपने ही वर्ग का नाश करने में लगा दो.
सच पूछें तो आज का युवा जाति को मिटाने में लगा है. अन्तर्जातीय, अन्तर-साम्प्रदायिक विवाह बढ़ रहे हैं. खान-पान के बन्धन लगभग समाप्त हो चुके हैं. होंगे भी तो दूर दराज के पिछड़े ग्रामों के अधेड़ों में. दूसरी ओर समय के भागते साँड की पूँछ पकड़ कर उसे रोकने का मिथ्या प्रयास में लगी खाप पंचायतें प्रेमी युगलों और नव विवाहितों की बलि लेती जा रही हैं.
आरक्षण की व्यवस्था का रबर की तरह खिंचते जाना हमारे राजनेताओं के निकम्मेपन और राजनीति पर अपने वंश को चिरस्थायी करने की मुंजीय प्रवृत्ति का परिणाम है. मुंज, राजा भोज का चाचा, जिसने सत्ता लोभ के कारण राज्य के वैध उत्तराधिकारी भोज की हत्या का षड्यंत्र रचा था. और राजा भोज के यह लिखने पर कि मान्धाता जैसे महीपति जब इस धरती को अपने साथ नहीं ले जा सके क्या तुम इस धरती को अपने साथ ही ले जाने की सोच रहे हो, मुंज की आँखें खुल गयीं.
लेकिन हमारे नेताओं की आँखे तब तक नहीं खुलेंगी, जब तक पूरे देश का बंटाधार नहीं हो जायेगा.
मुझे लगता है कि इस आरक्षण से माया- मुलायम- लालू जैसी त्रिमूर्ति की चाँदी भले ही हो रही हो, देश भीतर ही भीतर टूट रहा है.
नरसिंहा और मनमोहना की बन आयी तो निजीकरण शुरू हो गया. सरकारी उद्योग बिकने लगे. नेताओं की बन आयी. उन्होंने अपने सैंया से नयना लड़इहैं, हमार कोई का करिहै के मोड में अपने-अपने संस्थान खोलने शुरू किये. सरकारी व्यवस्था तदर्थ या काम चलाऊ बना दी गयी. बिना शिक्षण की समुचित ब्यवस्था के निजी मेडिकल कालेज खुलते गये और २०० करोड दे सकने वाला महामूर्ख भी डाक्टर बन कर लोगों को और उनकी गाढ़ी कमाई को भी स्वर्ग प्रदान करने लगे.
आज तो निजीकरण महामारी बन चुका है. अब तो देश के असली मालिक अदानी, अम्बानी, माल्या, जाल्या... हैं. सत्ता और विधान मंडल एक स्वर से ’ जो तुमको हो पसन्द वही बात करेंगे, तुम दिन को अगर रात कहो तो रात कहेंगे’ वाले मोड में हैं. शहीद होने के लिए गरीबों की जमात लाइन में लगी है. चाहे उन्हें बिना जिरह बख्तर के कश्मीर में झौंक दो या दन्तेवाड़ा में अपने ही वर्ग का नाश करने में लगा दो.
सच पूछें तो आज का युवा जाति को मिटाने में लगा है. अन्तर्जातीय, अन्तर-साम्प्रदायिक विवाह बढ़ रहे हैं. खान-पान के बन्धन लगभग समाप्त हो चुके हैं. होंगे भी तो दूर दराज के पिछड़े ग्रामों के अधेड़ों में. दूसरी ओर समय के भागते साँड की पूँछ पकड़ कर उसे रोकने का मिथ्या प्रयास में लगी खाप पंचायतें प्रेमी युगलों और नव विवाहितों की बलि लेती जा रही हैं.
आरक्षण की व्यवस्था का रबर की तरह खिंचते जाना हमारे राजनेताओं के निकम्मेपन और राजनीति पर अपने वंश को चिरस्थायी करने की मुंजीय प्रवृत्ति का परिणाम है. मुंज, राजा भोज का चाचा, जिसने सत्ता लोभ के कारण राज्य के वैध उत्तराधिकारी भोज की हत्या का षड्यंत्र रचा था. और राजा भोज के यह लिखने पर कि मान्धाता जैसे महीपति जब इस धरती को अपने साथ नहीं ले जा सके क्या तुम इस धरती को अपने साथ ही ले जाने की सोच रहे हो, मुंज की आँखें खुल गयीं.
लेकिन हमारे नेताओं की आँखे तब तक नहीं खुलेंगी, जब तक पूरे देश का बंटाधार नहीं हो जायेगा.
मुझे लगता है कि इस आरक्षण से माया- मुलायम- लालू जैसी त्रिमूर्ति की चाँदी भले ही हो रही हो, देश भीतर ही भीतर टूट रहा है.
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