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Wednesday, July 22, 2015

पूरी दुनिया एक आधा बना हुआ बांध है: अरुंधति रॉय,पिछले साल अरुंधति रॉय द्वारा डॉ. बी. आर. आंबेडकर की मशहूर किताब एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट की प्रस्तावना ‘द डॉक्टर एंड द सेंट’ (2014) लिखने के बाद से बहसों का एक सिलसिला शुरू हुआ, जिसमें अब तक अनेक वैचारिक नजरियों, राजनीतिक हलकों और सामाजिक तबकों के लोगों ने भाग लिया है. सतही प्रशंसा और उत्साही निंदा से अलग हट कर जाति उन्मूलन की इस बहस को पूरी जटिलता और एक मजबूत प्रतिबद्धता के साथ पेश करनेवाली अरुंधति रॉय की प्रस्तावना कितनी चुनौतीपूर्ण है, यह बात इससे जाहिर होती है कि इसकी आलोचना करने वालों में से ज्यादातर परस्पर विरोधी विचारधाराओं और नजरियों से जुड़े हुए हैं: आंबेडकराइट कार्यकर्ताओं-विचारकों से लेकर गांधीवादियों तक. आलोचना के इस सिलसिले की हालिया कड़ी में, राजमोहन गांधी ने (जो रिसर्च प्रोफेसर, पूर्व राज्यसभा सांसद और अनेक किताबों के लेखक होने के साथ साथ एम.के. गांधी के पोते भी हैं) इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली (ईपीडब्ल्यू) के 11 अप्रैल 2015 अंक में एक लंबा निबंध लिखा: ‘इंडिपेंडेंस एंड सोशल जस्टिस: द आंबेडकर-गांधी डिबेट’। अरुंधति रॉय ने थोड़ी देर से इसका जवाब लिखा, जो इसी पत्रिका के 20 जून 2015 अंक में प्रकाशित हुआ है. रॉय के इस निबंध का हिंदी अनुवाद हाशिया पर पेश किया जा रहा है. पढ़ने की आसानी के लिए इस लंबे निबंध को किस्तों में पोस्ट किया जाएगा, जिसकी पहली किस्त नीचे है. अनुवाद: रेयाज उल हक.

''तो मेरा अपराध ऐसा है जिसका इल्जाम विद्वान लोग अक्सर एक दूसरे पर लगाते रहते हैं: संदर्भ से काट कर, चुनिंदा तौर पर उद्धृत करना. जाने कैसे मुझे याद नहीं आता कि राजमोहन गांधी को दुनिया में मौजूद गांधी की तारीफ के सचमुच के अंबारों में से एक से भी ऐसी कोई समस्या रही हो – मिसाल के लिए रिचर्ड ऑटेनबरो की ऑस्कर विजेता फिल्म गांधी (जो तथ्यों के बजाए काल्पनिक रचना ज्यादा है), जिसमें गांधी के सबसे मुखर और अहम आलोचक आंबेडकर को एक मेहमान करदार के रूप में भी पर्याप्त जगह नहीं दी गई है, या फिर रामचंद्र गुहा की जीवनी गांधी बिफोर इंडिया, जो उन सभी समस्याजनक मुद्दों को पूरी तरह दरकिनार कर देती है, जो गांधी की चमक-दमक को धूमिल कर सकते हैं. क्या राजमोहन गांधी ने उन्हें ‘ऐतिहासिक बहसों के उसूलों’ पर व्याख्यान दिया था? इसकी संभावना तो नहीं है.''
निबंध की पहली किस्त

पूरी दुनिया एक आधा बना हुआ बांध है: अरुंधति रॉय

Posted by Reyaz-ul-haque on 7/22/2015 04:07:00 PM

पिछले साल अरुंधति रॉय द्वारा डॉ. बी. आर. आंबेडकर की मशहूर किताब एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट की प्रस्तावना ‘द डॉक्टर एंड द सेंट’ (2014) लिखने के बाद से बहसों का एक सिलसिला शुरू हुआ, जिसमें अब तक अनेक वैचारिक नजरियों, राजनीतिक हलकों और सामाजिक तबकों के लोगों ने भाग लिया है. सतही प्रशंसा और उत्साही निंदा से अलग हट कर जाति उन्मूलन की इस बहस को पूरी जटिलता और एक मजबूत प्रतिबद्धता के साथ पेश करनेवाली अरुंधति रॉय की प्रस्तावना कितनी चुनौतीपूर्ण है, यह बात इससे जाहिर होती है कि इसकी आलोचना करने वालों में से ज्यादातर परस्पर विरोधी विचारधाराओं और नजरियों से जुड़े हुए हैं: आंबेडकराइट कार्यकर्ताओं-विचारकों से लेकर गांधीवादियों तक. आलोचना के इस सिलसिले की हालिया कड़ी में, राजमोहन गांधी ने (जो रिसर्च प्रोफेसर, पूर्व राज्यसभा सांसद और अनेक किताबों के लेखक होने के साथ साथ एम.के. गांधी के पोते भी हैं) इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली (ईपीडब्ल्यू) के 11 अप्रैल 2015 अंक में एक लंबा निबंध लिखा: ‘इंडिपेंडेंस एंड सोशल जस्टिस: द आंबेडकर-गांधी डिबेट’। अरुंधति रॉय ने थोड़ी देर से इसका जवाब लिखा, जो इसी पत्रिका के 20 जून 2015 अंक में प्रकाशित हुआ है. रॉय के इस निबंध का हिंदी अनुवाद हाशिया पर पेश किया जा रहा है. पढ़ने की आसानी के लिए इस लंबे निबंध को किस्तों में पोस्ट किया जाएगा, जिसकी पहली किस्त नीचे है. अनुवाद: रेयाज उल हक.


मेरे ´द डॉक्टर ऐंड द सेंट’ [1] पर राजमोहन गांधी द्वारा लिखी गई लंबी आलोचना [2] पर जवाब देने में मुझे वक्त लगा. पहले मैंने सोचा कि मेरे निबंध को नजदीकी से पढ़ने पर उन सवालों के जवाब मिल जाएंगे, जो उन्होंने उठाए हैं. मैं कुछ ऐसा लिखने को लेकर बहुत उत्साहित नहीं थी, जो एक लंबा जवाब होने वाला था और जिसमें ज्यादातर मुझे खुद के लिखे हुए से ही उद्धरण देना था - यह सबसे शर्मिंदगी की बात थी. सच कहूं तो, राजमोहन गांधी ने यह सब लिखा तो मुझे खुशी ही हुई थी क्योंकि इसने मेरे इस नजरिए की तस्दीक की है कि बी.आर. आंबेडकर ने अपने वक्त में जो जटिल बौद्धिक और राजनीतिक लड़ाई छेड़ी थी उसका एक मुनासिब ब्योरा देने और आज के भारत में जातीय राजनीति को समझने के लिए हमें एम.के. गांधी द्वारा इसमें निभाई गई भूमिका को सावधानी से देखने की जरूरत है. गांधी के रुतबे को देखते हुए यह ऐसा काम नहीं है, जिसे हल्के-फुल्के तरीके से किया जाए. 

मेरे सामने रास्ता ये था कि या तो गांधी को पूरी तरह से छोड़ दिया जाए या फिर इस मुद्दे से उस सख्ती के साथ पेश आया जाए, जिसकी यह मांग करता है. इसका नतीजा यह हुआ कि हालांकि ‘द डॉक्टर एंड द सेंट’ आंबेडकर की प्रतिष्ठित रचना एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट की प्रस्तावना था, लेकिन उसमें गांधी ने गैरमामूली जगह घेर ली. इसके लिए मेरी तीखी – और कई मायनों में समझ में आने लायक – आलोचना की गई है. अगर मैंने इससे गांधी को बाहर रखा होता, तो मेरा अंदाजा है कि उन्हीं में से कुछ आलोचकों ने मुझ पर बेरहमी से इल्जाम लगाए होते और यह वाजिब ही होता. 

हालांकि राजमोहन गांधी ने इन सारी बातों को सिर के बल खड़ा कर दिया है जब वे दावा करते हैं कि ‘द डॉक्टर एंट दे सेंट’ लिखने में मेरा ‘मकसद’ गांधी को बदनाम करने के लिए आंबेडकर का इस्तेमाल करना था (दीगर कुछ लोगों ने मेरी इस बात पर फटकार लगाई है कि पश्चिमी आधुनिकता के अपरिहार्य और तबाही लाने वाले नतीजों पर गांधी का नजरिया ‘भविष्यद्रष्टा’ का था). चूंकि राजमोहन गांधी के सिर पर उस खानदान के नाम की पगड़ी है, तो कुछ लोग जिनमें से कई अच्छा और अहम काम कर रहे हैं, शायद उनके परचम के नीचे आ खड़े हुए हैं. ऐसा लगता है कि उनमें से किसी ने इस पर गौर नहीं किया है कि उनके अनेक विचार और दावे सचमुच बेचैन कर देने वाले हैं – और मैं उनके द्वारा मेरे बारे में कही गई बातों की तरफ इशारा नहीं कर रही हूं. यही वजह है कि मैंने इस पर जवाब देना जरूरी समझा. हालांकि यह बात अफसोसनाक ही होगी, अगर जल्दबाजी में और खोखले तरीके से पढ़ने के इस दौर में, कुछ मुद्दों पर केंद्रित इस जवाब को ‘द डॉक्टर एंड द सेंट’ की जगह उसके एवज में रख दिया जाए.

राजमोहन गांधी की आलोचना का शीर्षक ‘इंडिपेंडेंस ऐंड सोशल जस्टिस’ बड़ी सफाई से पूरे मामले को उसी पुरानी चाल में ढाल देता है: गांधी आजादी के लिए लड़ रहे थे और आंबेडकर सामाजिक न्याय के लिए. (यह बात कही नहीं गई है लेकिन यह इसमें छुपा हुआ है कि गांधी प्रधान थे.) अमूमन, एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट का एक शुरुआती पाठ भी इस मामले को खारिज कर देता है. जहां तक ‘द डॉक्टर एंड द सेंट’ की बात है, राजमोहन गांधी ने या तो इसे जरा भी गौर से नहीं पढ़ा है या फिर उन्होंने अपनी दलीलों के लिए जानबूझ कर इसे धुंधला बना दिया है. उन्होंने निबंध की सभी बातों की अनदेखी की है, सिवाय उन हिस्सों को छोड़ कर, जो उनके दादा से ताल्लुक रखते हैं (जो मेरा अंदाजा है कि यह एक किस्म की राजनीति भी है). उन्होंने इस निबंध को ऐसे लिया है मानो यह गांधी की एक दोषपूर्ण, आधी-अधूरी जीवनी है और वे इसी आधार पर अपनी आलोचना को आगे बढ़ाते हैं. मुझ पर लगाई गई उनकी तोहमतें तो जानलेवा हैं. वो मुझ पर एक ‘झूठा, आसानी से मजाक उड़ाने लायक, मनगढ़ंत गांधी’ की रचना करने का आरोप लगाते हैं. वे कहते हैं कि मैं बेईमान, ‘रचनात्मक’ रही हूं और ‘मैं उस बात को छुपा गई हूं, जिसके बारे में जानती हूं कि वो सच्ची है’. वे मुझ पर अनदेखी करने, अतार्किकता, सस्ती विद्वत्ता और ‘थोड़े समय के लिए भी गांधी का विद्वान नहीं होने’ के आरोप लगाते हैं. वे ‘जबानी मोर्चेबंदी की जिंदगी पसंद करने’ के लिए मेरा मजाक उड़ाते हैं (मैं अभी तक इसे समझने की कोशिश कर रही हूं कि यह बुरी बात कैसे है. मैं सोचती हूं कि जबानी मोर्चाबंदी एक ऐसी जगह है कि जहां हम अपने बारे में और जिस दुनिया में हम रहते हैं उसके बारे में खुल कर सोचते हैं – और हम ऐसा हमेशा नरमी से ही नहीं करते). वे कहते हैं कि उनका इरादा आंबेडकर या गांधी से मुकाबला करने का नहीं है (हालांकि वे बड़ी कारीगरी से इसके इशारे करते हैं कि आंबेडकर एक औपनिवेशिक सरकार में सार्वजनिक पद पर थे, जबकि गांधी जेल की यात्राएं कर रहे थे). लेकिन फिर वे मुझसे ‘मुकाबला’ करने की एक चाहत कबूल करते हैं – ‘इसे गुस्ताखी कहिए’. यह थोड़ी साहस की कमी है. जो भी हो, ये बड़ी बहसें हैं, जो कुछ के लिए नई हैं और कुछ के लिए नई नहीं है, लेकिन यकीनन वे मेरे बारे में नहीं हैं. (वह सब अब इतिहास का हिस्सा हैं). उनसे नजर चुराने का अब कोई विकल्प नहीं है. पिटारा खुल चुका है. इतिहास हमेशा की तरह मोर्चे पर है. नई किताबें इस दुनिया के सफर पर रवाना हो चुकी हैं: महाड सत्याग्रह पर आनंद तेलतुंबड़े की किताब, अश्विन देसाई और गुलाम वाहेद की द साउथ अफ्रीकन गांधी: स्ट्रेचर-बियरर ऑफ एंपायर और ब्रज रंजन मणि की डि-ब्राह्मनाइजिंग हिस्ट्री का व्यापक तौर पर संशोधित संस्करण. बहरहाल, जहां तक मेरी बात है, मुझे भरसक बेहतरीन तरीके से उन आरोपों को परखने और उन पर जवाब देने दीजिए, जो उन्होंने मुझ पर लगाए हैं. (हालांकि कुछ आरोप ऐसे हैं जो मुझे अवाक कर देते हैं जैसे, ‘रॉय ने आजादी के आंदोलन का जिक्र तक नहीं किया है...’ (आरजी.कॉम, पेज 19).)
 

‘ऐतिहासिक बहस के उसूल’
 

‘द डॉक्टर एंड द सेंट’ में बातों को शामिल नहीं किया जाना इस रचना की सबसे गंभीर कमी है,’ राजमोहन गांधी कहते हैं. ‘मैं यह भी दिखाना चाहूंगा कि रॉय का हमला ऐतिहासिक बहस के उसूलों का उल्लंघन करता है. ये उसूल मांग करते हैं, कि सबसे पहले तो किसी बयान पर किया जानेवाला हमला उस संदर्भ को मुहैया कराए, जिसमें किसी अलां, या फलां या फिर महात्मा तक ने 50 या 100 साल पहले बयान दिया होगा. दूसरे, कायदा यह मांग करता है कि वह खास सूचना काट कर बाहर न की जाए.’ 

तो मेरा अपराध ऐसा है जिसका इल्जाम विद्वान लोग अक्सर एक दूसरे पर लगाते रहते हैं: संदर्भ से काट कर, चुनिंदा तौर पर उद्धृत करना. जाने कैसे मुझे याद नहीं आता कि राजमोहन गांधी को दुनिया में मौजूद गांधी की तारीफ के सचमुच के अंबारों में से एक से भी ऐसी कोई समस्या रही हो – मिसाल के लिए रिचर्ड ऑटेनबरो की ऑस्कर विजेता फिल्म गांधी (जो तथ्यों के बजाए काल्पनिक रचना ज्यादा है), जिसमें गांधी के सबसे मुखर और अहम आलोचक आंबेडकर को एक मेहमान करदार के रूप में भी पर्याप्त जगह नहीं दी गई है, या फिर रामचंद्र गुहा की जीवनी गांधी बिफोर इंडिया, जो उन सभी समस्याजनक मुद्दों को पूरी तरह दरकिनार कर देती है, जो गांधी की चमक-दमक को धूमिल कर सकते हैं. क्या राजमोहन गांधी ने उन्हें ‘ऐतिहासिक बहसों के उसूलों’ पर व्याख्यान दिया था? इसकी संभावना तो नहीं है.

मैं उनके इल्जामों के नुक्तों की ओर जाऊं, उसके पहले मुझे चुनिंदा तौर पर उद्धृत करने की बात पर थोड़ी बात कर लेने दीजिए. हरेक इंसान को जब किसी के लेखन से उद्धृत करना हो तो उसे चुनना ही पड़ता है – शिक्षक हों या गुणगान करने वाले, निंदक हों या खानदान की थाती के पहरेदार. वे जो चुनते हैं और जो छोड़ते हैं, यह बात उनकी अपनी राजनीति के बारे में भी काफी कुछ उजागर करती है. मैं कबूल करती हूं कि मैंने गांधी को चुनिंदा तरीके से उद्धृत किया. मेरा चयन गांधी द्वारा जाति पर जाहिर की गई राय को तलाश करने की कोशिशों पर आधारित था. यह सिलसिला मुझे नस्ल (रेस) के बारे में उनकी राय तक लेकर गया. मेरा चयन गांधी को बदनाम करने के लिए नहीं किया गया था या, जैसा कि कुछ लोगों ने इशारा किया है, गांधी और आंबेडकर की ‘तुलना’ करने के लिए नहीं किया गया था. बल्कि गांधी ने आंबेडकर के संघर्ष में जो अहम और चिंताजनक भूमिका अदा की, ये उस कहानी को कहने का जरिया था. ऐसा करने के लिए उन बातों को प्रमुखता से पेश करना जरूरी बन गया, जिनको प्रभुत्वशाली ऐतिहासिक कहानी ने गैरमुनासिब तरीके से छुपा रखा है. मैं कबूल करती हूं कि मैंने काले अफ्रीकियों के बारे में, मजदूरों, ‘अछूतों’ और औरतों के बारे में गांधी की कही और लिखी गई सबसे विचलित कर देने वाली बातों में से कुछ को चुनिंदा तौर पर उद्धृत किया. मैं यह पूरी तरह जानती थी कि यह कुछ हलकों में भारी हैरानी पैदा करेगा (मुझे कबूल करने दीजिए कि इसने मुझे भी निराश किया था), मैंने उन्हें लंबाई में उद्धृत करने की सावधानी बरती. ‘ओह वे बदल गए थे’ का सामना करने के लिए मैंने उनके राजनीतिक जीवन के पूरे दौर (1893-1946) से बातों को उद्धृत किया. ‘वे अपने वक्त के इंसान थे’ जैसी दलीलों का सामना करने के लिए मैंने उनके समकालीनों और उनसे पहले के लोगों की राय को उद्धृत किया था. मैंने अपने हवालों को बड़ी सावधानी के साथ पेश किया था. मैंने हरेक उद्धरण को उसके अपने ऐतिहासिक संदर्भ में पेश किया. ‘द डॉक्टर एंट द सेंट’ की अनेक जाने-माने इतिहासकारों द्वारा औपचारिक रूप से समीक्षा की गई है, जिनके बारे में मुझे यकीन है कि वे ऐतिहासिक बहस के उसूलों को समझते हैं. राजमोहन गांधी के पास इस बेहद चिंताजनक सामग्री के बारे में कहने के लिए कुछ भी ठोस बात नहीं है. उनकी मुख्य शिकायत यह है कि मैंने साथ ही साथ गांधी की कुछ ऐसी अच्छी-भली बातें क्यों उद्धृत नहीं की है, जिन्हें उन्होंने चीजों को हल्का करने या ‘संतुलित करने’ की खातिर विभिन्न मौकों पर कहा होगा. (असल में मैंने ऐसा किया भी, हालांकि इसकी अलग वजहें हैं). फिर यह बात भी मायने रखती है कि हम सबमें गांधी की कही और की गई सभी अच्छी और महान बातें बातें कूट कूट कर भरी गई हैं, नहीं क्या? यह हमारी इतिहास की किताबों में है, हमारे राजनेताओं के भाषणों में है, यहां तक कि उस हवा तक में है जिसमें हम सांस लेते हैं. दिमाग में भर दी गई इन बातों के खिलाफ या उससे हट कर कुछ लिखने के लिए यह जरूरी है कि पहाड़ को थोड़ा खिसकाया जाए.

चलिए, इसे एक खयाली रूप में देखते हैं.

दलील के लिए मान लीजिए कि एक जानी-मानी शख्सियत अलां ने अपने राजनीतिक जीवन के अनेक दशकों में ऐसी गंभीर और खूबसूरत बातें कही हैं जो सार्वजनिक रेकॉर्ड में हैं. ऐसी बातें मसलन:

सभी इंसान पैदाइशी तौर पर बराबर हैं
गरीब ही धरती के वारिस हैं
गरीबी हिंसा की सबसे बदतरीन शक्ल है

और मान लीजिए कि उसी शख्सियत अलां ने समांतर (लेकिन सार्वजनिक रेकॉर्ड से कमोबेश छिपे हुए) ट्रेक में ऐसी बातें भी कही हों:

जाति हिंदू सभ्यता का कौशल है
काफिर कायदे से ही असभ्य होते हैं
ज्यादातर मजदूरों की नैतिक क्षमताएं नष्ट हो गई हैं
कुछ अछूत अपनी बुद्धि में गायों से भी बदतर हैं
मेहतरों (स्वीपर्स) को हड़ताल पर जाने का अधिकार नहीं है

राजमोहन गांधी के मुताबिक, इनमें से एक ट्रेक को सहेज कर रखना और दूसरे को मिटा देना ऐतिहासिक बहस के उसूलों का पालन करना है. लेकिन इससे उल्टी बात उसका उल्लंघन है. यह चालाकी भरा नुक्ता अपनी जगह, क्या पहले ट्रेक में कही गई अच्छी अच्छी बातें, दूसरे ट्रेक के पक्षपात और उसकी संकीर्ण समझदारी को हल्का करती है? या यह पूरे मामले को ही और भी परेशान कर देने वाली बात नहीं बना देती? मेरा जवाब, यही दूसरी संभावना है. 


(जारी)
 

नोट्स:
 

1. अरुंधति रॉय, ‘द डॉक्टर एंड द सेंट’, (प्रस्तावना), बी.आर. आंबेडकर, एनाइहिलेशन ऑफ कास्टमें, (नवयाना 2014).
2. इस निबंध के दो संस्करण हैं, एक छोटा संस्करण ईपीडब्ल्यू के 11 अप्रैल 2015 अंक में प्रकाशित हुआ जिसका हवाला मैं आरजी (ईपीडब्ल्यू) के रूप में दूंगी. दूसरा, लंबा ऑनलाइन संस्करण (http://www.rajmohangandhi.com/sites/default/files/Independence%20and%20Social%20Justice%20-%20Jan%202015.pdf) है जिसका हवाला मैं आरजी.कॉम के रूप में दूंगी.
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