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Tuesday, July 21, 2015

सोचिए कि क्‍या आने वाले वर्षों में शांति का नोबेल पुरस्‍कार सियासी बजरंगियों के खाते में जा सकता है?


Abhishek Srivastava

किसी फिल्‍म या उसके किसी दृश्‍य की ''रीकॉल वैल्‍यू'' (यानी उसे देखकर पिछला जो कुछ भी याद हो आवे) बड़ी अहम होती है। वहां दृश्‍य को समझने का एक क्‍लू होता है। मसलन,Bajrangi Bhaijaan के आखिरी दृश्‍य को याद करें जब सरहद पार करते वक्‍त अचानक शाहिदा की आवाज़ फूट पड़ती है और बजरंगी उसे गोद में लेने के लिए दौड़ पड़ता है। सलमान खान जैसे ही बच्‍ची को गोद में लेकर उछालते हैं, मेरे साथ फिल्‍म देख रहे मेरे अनुज Ashish के मुंह से बरबस ही एक दिलचस्‍प बात फूट पड़ती है, ''भइया, ऐसा लग रहा है जैसे कैलाश सत्‍यार्थी अपनी गोदी में मलाला को उठा रहा है।'' सलमान की अधपकी खिचड़ी दाढ़ी और हर्षाली की मासूमियत वास्‍तव में सत्‍यार्थी और मलाला का आभास किसी को दे सकती है, यह बात मुझे देर तक हंसाती रहती है।

धुप्‍पल में कही गई इस बात का क्‍या अर्थ हो सकता है? हमें लगातार बताया जा रहा है कि भारत बार-बार दोस्‍ती का हाथ बढ़ा रहा है और पाकिस्‍तान बार-बार दगा कर रहा है। उधर से सीज़फायर को तोड़ना, सिपाहियों को मारना, इधर प्रधानमंत्री की बनाई जा रही शांतिदूत वाली छवि, सब कुछ मिलकर द्विपक्षीय रिश्‍तों में एक समानांतर ''बजरंगी भाईजान'' की रचना कर रहा है। फिल्‍म वाला भाईजान अगर खुद मांसाहारी नहीं है, तो सियासत का भाईजान भी राष्‍ट्रपति के इफ्तार में नहीं जाता। समानताएं देखिए और सोचिए कि क्‍या आने वाले वर्षों में शांति का नोबेल पुरस्‍कार सियासी बजरंगियों के खाते में जा सकता है?


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