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Friday, July 17, 2015

आशीष नंदी: ग़फलत-में-सुकून का उल्लास

आशीष नंदी: ग़फलत-में-सुकून का उल्लास

Posted by Reyaz-ul-haque on 7/17/2015 01:15:00 PM
आशीष लाहिड़ी की बांग्ला निबंधों की किताब भद्रलोकि जुक्तिबादेर दक्षिणावर्त (भद्रलोक तर्कशीलता का दक्षिण को मुड़ना) में संकलित लेख 'आशीष नंदी: भ्रांति-सुखेर उल्लास' का अनुवाद। आशीष लाहिड़ी विज्ञान के इतिहास पर शोध करते हैं और कोलकाता के एसियाटिक सोसायटी और राष्ट्रीय विज्ञान संग्रहालय में अध्यापन करते रहे हैं। उन्होंने बांग्ला और अंग्रेज़ी में कई किताबें लिखी हैं। वे कोलकाता के पावलोव इंस्टीट्यूट के सदस्य हैं। अनुवाद हिंदी के जानेमाने कवि लाल्टू का है। 
 
एक
'अभ्यास की सीमाओं में बँधी चेतना के संकीर्ण संकोच' की वजह से कहीं अधिकतर बंगाली चिंतकों के ज़ेहनों में जाले तो नहीं पड़ गए? क्या उन्हें कायनात जीर्ण दिखती है? ऐसी आशंका कभी-कभी होती है। इसकी एक पहचान यह है कि सवाल उठाने की जगह तुरंत जवाब ढूँढ़ने में उनका आग्रह अधिक है, वह जवाब कैसा भी क्यों न हो। ऐसी समझ आजकल कम दिखती है कि यह ज़रूरी है कि सही सवाल उठाया जाए, सही सवाल उठे तो जवाब भी किसी न किसी तरीके से ज़रूर मिल जाएगा।

बंगाली चिंतकों की चेतना की इस जड़ता पर आशीष नंदी जैसे लेखकों ने सख्त चोट की। उन्होंने खाकों में बँधे जवाब की तलाश छोड़कर खाका तोड़ते सवालों की खोज की। उन्होंने ऐसे कोणों से सवाल उठाए जो व्यवहार की सीमाओं में बँधी हमारी चेतना को झटका देते हैं, हमें हिल-डुल कर बैठने को मजबूर कर देते हैं। इस नज़रिए से आशीष बाबू की किताब The Savage Freud(1995) (जंगली फ्रायड) थोड़े ही वक्त में छोटे-मोटे क्लासिक का दर्ज़ा अख्तियार कर चुकी है। इस किताब में वे जिन विषयों को ले आए हैं और ज्ञान के कई सारे क्षेत्रों को मिलाकर जिस पद्धति से उन्होंने उन पर चर्चा की है, उसकी नवीनता को मानना ही होगा।

समर्पण के पन्ने से ही यह किताब चौंकाती है। तीन प्रसिद्ध भारतीयों को यह किताब समर्पित है : विनायक दामोदर सावरकर (1880-1965), दामोदर धर्मानंद कोसंबी (1907-1960) और नीरदचंद्र चौधरी (1897-1997)। उन्नीसवीं सदी के बीच से 'भारतीय' पहचान को नया स्वरूप देने की जिस प्रक्रिया की शुरुआत हुई, नंदी जी के अनुसार ये तीन उस प्रक्रिया के तीन पहलुओं के खाँटी प्रतिनिधि हैं। सावरकर हिंदू राष्ट्रवाद के प्रतीक हैं। वे हिंदुओं को और अधिक जंगी, अधिक पौरुषमय, अधिक ठोस और संगठित करना चाहते थे। दूसरी ओर कोसंबी 'अनथक तर्कशील' थे। वे और अधिक वैज्ञानिक चेतना, अधिक भौतिकतावदी सोच, अधिक इतिहास-बोध से भारतीयों को लैस करना चाहते थे। और 'गोरों का बोझ' ढोने के काम में खुद को लगाने वाले नीरद बाबू भारत को 'एडवर्ड युग' की आधुनिकता में बाँध रखने के आखिरी प्रवक्ता थे। मोटामूटी इन तीन धाराओं में आज के भारतीयों की सोच-समझ को ढालकर आशीष बाबू उसकी एक चीरफाड़ करना चाहते हैं। एक ओर इस सोच का सजा-सँवरा प्रकाशित रूप है (उनके शब्दों में 'language of public life' – सार्वजनिक जीवन की भाषा) और दूसरी ओर अवचेतन में मौजूद उसका छिपा स्वरूप है (उनके शब्दों में 'secret selves' – छिपे आत्म), इन दोनों में द्वंद्व ढूँढ निकालने की कोशिश उन्होंने की है।

नंदी जी ने जिन तीन धाराओं का उल्लेख किया है, उन्हें थोड़ा हटकर, ज़रा पारंपरिक ढाँचे में यूँ समझ सकते हैं:
 

1) जंगी हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद, 2) आधुनिक विज्ञानमना तर्कशीलता (सेक्युलरिज़्म जिसका हिस्सा है), और 3) दलाल संस्कृति। इन तीन धाराओं में हरेक को लेखक ने अपने विश्लेषण के औजारों से ध्वस्त करने की कोशिश की है, मकसद यह कि इस ध्वंस-पर्व को पार कर आधुनिकभारतीय आत्म-पहचान की कोई एक या एकाधिक राह ढूँढ़ी जा सकती है या नहीं, इसकी पड़ताल की जाए; वह राह सँकरी भी हो तो उन्हें कोई हर्ज़ नहीं है। आज के हिंदुस्तान में, जिसे वे 'सामान्य ज्ञान की संस्कृति (the culture of common sense)' कहते हैं, इसके पीछे 'ज़बर्दस्त तकरीबन वैश्विक-चेतना (dominant quasi-global consciousness)' है। चाहे टूटा-फूटा या तोड़ा-मरोड़ा सही, एक ग्लोब आज हिंदुस्तानी ज़ेहन की मेज पर सजा रहता है। भारत के आम लोगों को लेकर एक के बाद एक जो तर्क-वितर्क सामने आ रहे हैं, वे उस quasi-global consciousness के ढाँचे में ही सक्रिय हैं। उनके विचार में उस तकरीबन वैश्विक-चेतना का बीज-कोश कुछ मूल विचारों के इर्द-गिर्द पनपा है: 1) राष्ट्र-राज्य, 2) राष्ट्रवाद, 3) सेक्युलरिज़्म, 4) तरक्की, 5) इतिहास, 6) तर्कशीलता और 7) बिल्कुल रूमानी एक 'रीयलपोलिटिक' की धारणा जो कि 'विषयवस्तु के नज़रिए से न तो वास्तविकता से मेल खाता है, न सही मायने में राजनैतिक' है। उनके विचार में ये धारणाएँ भारतीय राष्ट्र की संस्कृति के विविध 'ढाँचे या साँचे' हैं। उनका मकसद यह है कि वे राष्ट्र के इन साँचों और ढाँचों से भारतीय जनजीवन को बाहर निकालकर दिखलाएँ कि इन सबकी नींव में असल में कुछ 'वर्चस्व की नीतियाँ' काम कर रही हैं। उन्हीं नीतियों ने ही इन धारणाओं को राजनैतिक मायनों में बनाए रखा है।

यह बात माननी होगी कि आधे-गोरे मेट्रोपोलिटन भारतीयों की राजनैतिक चेतना में कुछ-कुछ अछूत, नितांत चिढ़ पैदा करती समझी जाने वाली बातें आज भी ऐसे हिंदुस्तानियों के लिए काफी मायने रखती हैं जो उस चेतना टेबिल के बाहर जी रहे हैं। आशीषबाबू इन्हीं हस्तक्षेपों से जन्मी 'भ्रांतियों' पर ही चर्चा करते हैं। सिर्फ चर्चा करना कहना कम होगा, क्योंकि दरअसल उनकी यह किताब इसी ग़फलत-में-सुकून के उल्लास में रची गई है: 'This book celebrates that ability to confuse and exasperate (यह किताब भ्रांति और परेशानी पैदा करने की उस क्षमता का जश्न मनाती है)'।

इन भ्रांतियों पर चर्चा के लिए उन्होंने भारतीय समाज और संस्कृति के एक विशाल क्षेत्र से समस्याओं को चुना है। किताब के सात निबंधों में पहला 1984 में दो हवाई जहाजों के अपहरण पर है, जिसे खालिस्तानियों ने किया था। दूसरे निबंध का विषय रूपकँवर का 'स्वेच्छा' से किया सतीदाह है। तीसरे का विषय अंतर्राष्ट्रीय अदालत में युद्ध-अपराधों पर राधाविनोद पाल की अलग राय पर है। चौथा, किताब का शीर्षक निबंध है - The Savage Freud: The first non-western psychologist and the politics of secret selves in colonial countries (जंगली फ्रॉयड: पहला गैर-पश्चिमी मनोविश्लेषक और औपनिवेशिक मुल्कों में छिपी आत्म-पहचानें), विषय है - फ्रॉयड के विचारों से मेल खाता पर फ्रॉयड से आगे जाता गिरीन्द्रशेखर बसु का मनोविश्लेषण सिद्धांत। छठा और सातवाँ निबंध दो भारतीय फिल्मों पर हैं; एक का विषय सत्यजित राय है, दूसरे का विषय आम 'लोकप्रिय' भारतीय सिनेमा है। तीसरे और चौथे निबंधों को अलग कर दें तो बाकी हरेक ऐसी किसी 'घटना' पर रचित है, जिसकी 'लोकमानस' में ज़बर्दस्त मौजूदगी है। और इस ज़बर्दस्त मौजूदगी की जड़ में मीडिया नामक 'सत्ता' के कार्यकलाप हैं। यह मीडिया, खासकर अंग्रेज़ी भाषा में प्रचारित 'सर्वभारतीय' मीडिया नंदी जी कथित इस तकरीबन वैश्विक चेतना का सबसे प्रकट रूप है।

इन निबंधों के अलग-अलग मकसद से और अलग-अलग तरीकों से लिखे जाने के बावजूद, इनके संयोजन और संपादन में सोच की विशिष्ट दिशा साफ उभर आती है। इसे एक लाइन में यूँ बयाँ कर सकते हैं - अपने भविष्य के बारे में हम कैसे सोचें?

वैसे आशीष जी ने बड़ी अच्छी तरह जता दिया है कि वे खुद 1) ग्रामीण भारत में पैदा नहीं हुए हैं, 2) गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता नहीं हैं और 3) शहरों के भ्रष्टाचार में लिप्त चरित्रहीनता के खिलाफ आंदोलन करने वाले अधीर पर्यावरणवादी नहीं हैं। यानी कि ध्यान रहे कि 'आधुनिक' भारतीयों के 'मनन टेबिल' पर हाजिर रहकर ही वे अपना बयान पेश कर रहे हैं। उन्होंने यह भी बतलाया है कि इस किताब में शामिल निबंध 'अतीत का ऐतिहासिक पुनर्निर्माण नहीं हैं', ये 'इंसान के बहुलतावादी भविष्य के राजनैतिक पूर्वाख्यान के हिस्से हैं'। यहाँ बुनियादी सक्रिय दो लफ्ज़ हैं - 'बहुलतावादी भविष्य'।

2. बहुलतावाद, सेक्युलरिज़्म और राष्ट्र-राज्य: नंदी और सेन

राष्ट्र-राज्य, राष्ट्रवाद, सेक्युलरिज़्म, तरक्की, इतिहास, तर्कशीलता और 'रीयलपोलिटिक' – इन पाँच घटकों को नंदी जी ने आज के हिंदुस्तान की तकरीबन वैश्विक चेतना के प्रधान अंग कह कर चिह्नित किया है।

यही विषय अमर्त्य सेन की चर्चा के विषय भी हैं। बहुलतावाद अमर्त्य सेन का बहुत प्रिय विषय है। दरअसल भारतीय इतिहास, दर्शन और संस्कृति का मुख्य झुकाव हमेशा ही बहुलतावाद की ओर रहा है। साफ तर्कों और तथ्यों के जरिए इस बात को उन्होंने साबित किया है। पर उनके और आशीष नंदी के बहुलतावाद में ज़मीन आस्मान का फर्क है। सेक्युलरिज़्म अमर्त्य की योजनाओं का मुख्य आधार है। उन्होंने गौर किया है कि हाल के वक्तों में सेक्युलरिज़्म पर कई दिशाओं से चोट आ रही है। हिंदुत्ववादी हमलों की बात तो हर कोई जानता है। पर अमर्त्य खेद के साथ गौर करते हैं कि यह हमला सिर्फ हिंदुत्ववादियों में ही सीमित नहीं है, बल्कि 'भारतीय समाज और संस्कृति के मसलों पर उच्च-स्तरीय चर्चाओं' (high theory of Indian culture and society)1 में भी तकलीफदेह रूप से दिखता है। जिनमें यह दिखता है, उनमें सबसे बड़े नाम आशीष नंदी हैं। दरअसल आशीष बाबू के विचार में सेक्युलरिज़्म ही सभी बुराइयों की जड़ है। 'आधुनिक' युग में धर्म नहीं, सेक्युलरिज़्म ही जनता का 'नया अफीम' है। उनके सोच की दिशा इस तरह की है - भारत जितना 'आधुनिक' हो रहा है, मजहब आधारित फिरकापरस्ती की मारकाट बढ़ रही है। जबकि प्राक-आधुनिक भारतीय लोकसमाज में युगों से पारंपरिक जीवन-यात्रा में ही समुदायों के बीच आपस में अंतरसामुदायिक सहिष्णुता की नीति विकसित हुई थी। सेक्युलरिज़्म नामक नए विचार की मदद करते हुए राष्ट्र-राज्य ने समुदायों के बीच की सहिष्णुता के उस सिद्धांत को खत्म कर दिया। सेक्युलरिज़्म, 'आधुनिकता' और 'तरक्की' में अंतरंग जुड़ाव है। आधुनिकता और तरक्की के विचारों का आदर्श ही सेक्युलरिज़्म के विचार के आदर्श की मदद करता है और ऐसा करते हुए राष्ट्र-राज्य के जरिए बल-प्रयोग कर लोगों पर एक अजीब धारणा थोप देता है। किस्म-किस्म के लोकसमाजों की गहराइयों में से अपने आप पनपी विविधता को मिटाकर वह ज़बरन स्टीमरोलर चलाकर 'सभ्य समाज' गढ़ना चाहता है। बिना बल-प्रयोग के, बिना हिंसा के यह सेक्युलरिज़्म टिक नहीं सकता है। इसलिए इस आधुनिकता, यह तरक्की, यह राष्ट्र-राज्य, इस सेक्युलरिज़्म का त्याग करना होगा।

अमर्त्य सेन ने आशीष बाबू के इस सिद्धांत पर कुछ साफ सवाल उठाए हैं - 1) 'आधुनिकता' क्या चीज़ है, इसे आशीष बाबू ने इतनी निश्चितता से कैसे जान लिया? आधुनिकतावादी और उत्तर-आधुनिकतावादी क्या खुद जानते हैं कि आधुनिकता का मतलब क्या है? 2) अलग-अलग लोक-समुदायों में फ़र्क मिटाकर भारतीय राष्ट्र-राज्य असल में अपनी धौंस जमाना चाहता है, यह बात सही है, पर एक मजहब आधारित फिरके की जगह दूसरे को मदद देना रोकते ही राष्ट्रीय हिंसा प्रकट हो उठती है, क्या यह बात सही है? 3) सेक्युलरिज़्म को खासकर 'आधुनिक' युग का विचार ही क्यों माना जाए? अशोक या अकबर के जमाने में भी राष्ट्र धर्म-समभाव की नीति मानकर चलता था। उस नीति के लागू होने पर राष्ट्रीय हिंसा बढ़ी हो, ऐसा कोई प्रमाण नहीं है। इसलिए सेक्युलरिज़्म को राष्ट्रीय स्तर पर हिंसा के लिए जिम्मेदार ठहराना, या जनता का 'नया अफीम' कहना तर्क और इतिहास के धरातल पर टिकता नहीं है।

आशीष नंदी राष्ट्र-राज्य के विपरीत लोकसमाज को खास महत्व देते हैं। इस बारे में भी अमर्त्य बाबू का बयान खास ध्यान देने योग्य है। लोकसमाज-पंथी 'बड़ी तीखी आवाज़ में यह बखान रहे हैं कि कोई भी लोकसमाज आधारित (केवल धर्म-संप्रदाय आधारित नहीं) पहचान ही आमतौर पर बहुत महत्वपूर्ण है। बहुत दूर के किसी नेशन की सामूहिकता का हिस्सा बनने की तुलना में किसी 'खंड टुकड़े' का हिस्सा बनने में जिस अंतरंग आत्मीयता का अहसास होता है, जो प्रासंगिकता और जो बड़े पैमाने की समृद्धि होती है, उस पर ये जोर दे रहे हैं।'2 'नेशन' (कौम) और राष्ट्र-राज्य (नेशन-स्टेट) एक बात नहीं है, इस बयान को ठोस बनाते हुए अमर्त्य सेन ने लिखा है: 'राष्ट्र वर्चस्व और हिंसा थोपने का दोषी है, यह बात सही है। पर परंपराओं में बँधे कई लोकसमाज भी अपने कमजोर सदस्यों पर (जैसे स्त्री, कन्याशिशु या निम्न-जाति-वर्ग के लोग) निरंतर कई तरह के जोर-ज़ुल्म और अत्याचार करते हैं। और फिर इन मामलों में राष्ट्र ही कभी-कभी रक्षक की भूमिका अदा करता है।'3 इसलिए चर्चा इस बात पर होनी चाहिए कि लोकसमाज और राष्ट्र में कैसा संबंध होना चाहिए। पर इसके विपरीत आशीष नंदी ने राष्ट्र के विलोम के रूप में लोक समाज को पेश किया है और सेक्युलरिज़्म को राष्ट्र द्वारा थोपा हुआ अन्याय कह कर चिह्नित किया है। इसके अर्थ बहुमुखी हैं और यथार्थ में भयंकर स्वरूप लेने की संभावना से भरे हुए हैं। 



3.बहुलतावाद, विज्ञान और तरक्की

जो राष्ट्र-राज्य को लोकसमाज को तबाह करती भयंकर आफत करार देना चाहते हैं, वे साथ ही 'पश्चिमी विज्ञान' के बारे में भी नापसंदगी पालते हैं। पर 'पश्चिमी विज्ञान' कथन का कोई मतलब नहीं होता। जोसेफ नीडहैम ने दिखलाया है कि विज्ञान ऐसी एक हरकत है जो सात घाट का पानी पिए बिना बचता नहीं है। इसलिए वे 'एक्यूमेनिकल (विश्वप्रसारी) साइंस' मुहावरा इस्तेमाल करते थे। अमर्त्य ने भी नीडहैम से प्राभावित होकर लिखा है, 'दरअसल जिसे 'पश्चिमी' विज्ञान और प्रौद्योगिकी कहा जाता है, उसका बहुत बड़ा हिस्सा कई घाटों के पानी से सिंचा बढ़ा था - भारत की गणितविद्या उनमें मुख्य है, जिसके बारे में माना जाता है कि वह अरब लोगों के हाथ होते हुए पश्चिम में पहुँची थी।'(4)

आशीषबाबू ने भी प्रचलित 'पश्चिमी' विज्ञान का विरोध कर उसके बाहर 'अन्य विज्ञान' की विरासत ढूँढ़ी है। इस खोज में लगने पर कहीं कोई उन पर भारतीय संस्कृति के 'रोमांटिक आवाहन' का दोष लगा न दे, इसलिए भूमिका में ही उन्होंने राग अलापा है कि 'एनलाइटेनमेंट (प्रबोधन) के वक्त आधुनिक विज्ञान की शुरुआत के बारे में किसी भी इतिहास चर्चा में ग्रीक कल्चर में लौटने का रिवाज है; कहाँ, उनके खिलाफ तो कोई कभी 'चर्चा को रूमानी करने का' इल्ज़ाम नहीं लगाता है।' वैसे वे 'सब बेद में बा' पार्टी के सदस्य नहीं हैं, वह शुरू में ही साफ तरीके से समझा देते हैं। साथ ही उनका कहना है, विज्ञान और तर्कशीलता के बारे में प्रतिष्ठित 'पश्चिमी' पैराडाइम के बाहर दूसरे पैराडाइमों की भी जाँच करना बहुत ज़रूरी है - यह खास तौर पर इस वजह से ज़रूरी है कि आधुनिक विज्ञान की तथाकथित जययात्रा के हर कदम पर अनेक चट्टानें आती हैं, यहाँ तक कि उनमें से कइयों पर तो खून के धब्बे हैं [पैराडाइम – ज्ञान की किसी विधा में विद्वानों द्वारा स्वीकृत मान्यताओं, धारणाओं, मूल्यों, नज़रिए आदि का विशेष समूह -अनु.]। यह जाँच कर देखना ज़रूरी है कि सैद्धांतिक पैराडाइम क्या विज्ञान के अंदरूनी ढाँचे से स्वत:चालित प्रक्रियाओं में बनते गए हैं या सत्तासीन वर्गों की सुविधाओं के अनुसार विचारों को 'वैज्ञानिक' विचार मानकर निरंकुश कह कर उनका प्रचार किया गया है। कहना गैरज़रूरी है कि इस सवाल के जवाब ढूँढ़ने का सबसे आसान तरीका यह है कि प्रतिष्ठित पैराडाइमों के विपरीत दूसरे पैराडाइमों को तयशुदा ऐतिहासिक धरातल पर रख कर तुलना की जाए। आशीषबाबू ने अपनी किताब में यही काम किया है। इस काम का परिणाम क्या हुआ, इस पर चर्चा करने के पहले बिल्कुल सहज तरीके से एकबार हम देखें कि 'आधुनिक विज्ञान' और 'तरक्की' में अंतरंगता पर हमारे विचार कैसे विकसित हुए हैं।

वैश्विक (एक्यूमेनिकल) विज्ञान के सात घाटों का पानी पीकर विकसित होने के बावजूद यह बात सही है कि सत्रहवीं सदी के बाद वह मुख्यत: यूरोप में ही केंद्रीभूत हुआ था (जैसे आजकल काफी हद तक अमेरिका में केंद्रीभूत हुआ है)। इसलिए इस विज्ञान पर यूरोपी समाज, यूरोप के विभिन्न दर्शन और यूरोपी राजनीति (उपनिवेशवाद जिसका प्रधान हिस्सा रहा है) का गहरा प्रभाव रहा है। न्यूटन के दोस्त और अनुयायी दार्शनिक जॉन लॉक ने कानून के शासन का स्वागत किया था - एक ओर न्यूटन के वैज्ञानिक सिद्धांत थे, दूसरी ओर थे ब्रिटेन में 1688 में संवैधानिक क्रांति के जरिए प्रतिष्ठित दीवानी (सिविल) कानून के नियम। ये नियम आगे बढ़ चलते बुर्ज़ुआ समाज के नियम हैं। एनलाइटेनमेंट युग के बाद से ही विज्ञान और प्रगति पर्याय बन गए। यह प्रगति बुर्ज़ुआ वर्गों की प्रगति है। आँसीक्लोपेदी (encyclopaedic) समूह के चिंतकों ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी को हर तरह के पिछड़ेपन की दवा मान लिया था। मार्क्स ने इसे और आगे बढ़ाया और इसे क्रांतिकारी अर्थ दिया। मार्क्स बुर्ज़ुआ क्रांतिकारियों के परवर्ती मनीषी थे। मार्क्स को याद करते हुए कार्ल लीबनेख्त ने 1850 के दशक में विज्ञान और समाज के आपसी संबंध पर मार्क्स के दृष्टिकोण पर लिखा है [कार्ल लीबनेख्त (1871-1919) – जर्मन समाजवादी जिन्होंने रोज़ा लक्सेमबर्ग के साथ जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की – अनु]:

थोड़ी देर में ही हम कुदरत संबंधी विभिन्न वैज्ञानिक विषयों पर चर्चा करने लगे। ... यूरोप की तब की विजयी प्रतिक्रियाशील ताकतें सोचती थीं कि वे क्रांति का गला घोंटकर पूरी तरह खात्मा करने में सफल हो गई हैं। उनके इस दिवास्वप्न पर व्यंग्य करते हुए मार्क्स ने कहा, 'वे समझ नहीं पा रहे कि प्रकृति विज्ञान फिर नई क्रांति को घनीभूत कर रहा है। जिस महामहिम भाप ने पिछली (अठारहवीं) सदी में धरती में उथल-पुथल ला दी थी, अब उसके राज के बारह बज गए; उसकी जगह बिजली ने ले ली है, जिसकी क्रांतिकारी क्षमता में बढ़त को मापा नहीं जा सकता। 

ऐसा कहकर मार्क्स ने असाधारण जोश के साथ मुझे बतलाया कि कुछ दिनों से रीजेंट स्ट्रीट में बिजली चालित इंजिन के छोटे माडल की प्रदर्शनी लगी है और उससे छोटी रेलगाड़ी खींचने का काम लिया जा रहा है। ...

आत्महंता दृष्टिहीनता की वजह से बुर्ज़ुआ समाज आधुनिक समय के इस ट्रॉय के घोड़े को प्राचीन ट्रॉयवासियों की तरह ही जोश के साथ खींच लाए हैं, पर यही उनके निश्चित विनाश का कारण भी होगा।

[ट्रॉय का घोड़ा: होमर के महाकाव्य 'ओडिसी' और वर्जिल की कविता 'ईनिड' में लिखे मिथक के अनुसार ट्रॉय पर जीत हासिल करने के लिए ग्रीक सिपाहियों ने लकड़ी का घोड़ा बनाया, जिसे ट्रॉय के सिपाही अपनी दीवारों के अंदर ले आए तो घोड़े में छिपे सिपाहियों ने निकल कर वहाँ तबाही मचा दी और ग्रीक जंग जीत गए- अनु.]।

सूत्र साफ है: प्रकृति विज्ञान में क्रांति हो रही है, होती रहेगी और वह क्रांति प्रौद्योगिकी के जरिए समाज को बदलने का हथियार बन जाएगी। समाज में यह बदलाव मजदूर वर्ग लाएगा। बुर्ज़ुआओं ने विज्ञान रचा, पर वही विज्ञान मजदूरों का शस्त्र बन जाएगा। इसी शस्त्र का इस्तेमाल कर वे बुर्ज़ुआ समाज का पतन लाएँगे। स्वाभाविक रूप से विज्ञान मेहनती इंसान का स्वार्थ पूरा करेगा, निहित स्वार्थों का विरोध करेगा। जो केवल बुर्ज़ुआ वर्ग की प्रगति थी, वह मजदूर वर्ग के हाथों इंसान की तरक्की हो जाएगी - यही उम्मीद थी।

समाजवाद = सोवियत शासन = बिजली की राहें, इस सूत्र के साथ लेनिन ने भी तकरीबन यही बात कही है। वर्ष 1939 में 'सोशल फंक्शन ऑफ साइंस (विज्ञान की सामाजिक भूमिका)' – में बर्नाल ने यह बात भी कही थी कि 'In its endeavour, science is socialism (अपनी कोशिशों में विज्ञान समाजवाद है)'। भारत जैसे औपनिवेशिक देश के लोगों की विज्ञान आधारित प्रौद्योगिकी के बिना मुक्ति संभव नहीं है, साफ शब्दों में मेघनाद साहा ने ऐसा कहा [मेघनाद साहा - 20वीं सदी के विश्व-विख्यात भारतीय वैज्ञानिक – अनु.]। 1959 साल में द टू कल्चर्सकिताब में स्नो ने आँकड़ों के द्वारा दिखलाया कि सोवियत राष्ट्र ने विज्ञान शिक्षा को कितना महत्व दिया और और इस वजह से उसकी अग्रगति में कैसी तेजी आई है। 1957 के स्पुटनिक ने चौंधियाते ढंग से दुनिया के लोगों से सामने इस बात को पेश किया। स्पुटनिक की सबसे बड़ी चोट अमेरिका के महाकाश शोध पर नहीं, उनकी शिक्षा व्यवस्था पर पड़ी। तैयारी की भेड़ियाँ बजने लगीं। बिल्कुल स्कूली स्तर से ही विज्ञान को नए साज में ढालने की योजनाएँ बनीं। यानी कि हर तरक्की की जड़ में विज्ञान है, बुर्ज़ुआ और मजदूर, हर वर्ग ने बिना फर्क इस बात को मान लिया। शीतयुद्ध का एक पैमाना यह भी बना - विज्ञान में कौन कितना आगे है। विज्ञान को ही प्रगति का पैमाना माना गया।

पर इसी के साथ-साथ दूसरे आलमी जंग के दिनों से ही (जिसे कभी 'भौतिक विज्ञानियों की जंग' कहा जाता था) सुर टूटना शुरू हो गया था। ऐटम बम का आतंक और उसके साथ अग्रणी वैज्ञनिकों का अंतरंग संबंध कइयों की आँखें खोल रहा था। जनरल आइज़नहावर ने जिस 'मिलिटरी इंडस्ट्रियल-सायंटिफिक' कॉम्प्लेक्स की बात की थी, उसके सबको निगल डालने वाले तरीके संवेदनशील लोगों के सामने लगातार खुलते जा रहे थे। विज्ञान से, खास तौर पर सभी विज्ञानों की रानी भौतिक शास्त्र से जिस बुनियादी समझ विकसित होने की अपेक्षा थी, वह कहाँ तक पूरी हो पाएगी, इस बारे में शंका बढ़ती जी रही थी। भौतिक विज्ञान के सभी निष्कर्ष आखिर जंग के मैदान तक पहुँच जाते हैं, यह देखकर कई भौतिकविज्ञानी अपराध बोध में दबे भौतिक विज्ञान का काम छोड़ कर आणविक जैवविज्ञान के क्षेत्र में चले आए। क्रिक और वाटसन की क्रांतिकारी खोज के जरिए जीवविज्ञान के भी आखिर एग्ज़ैक्ट साइंस के दायरे में आ जाने से एक ओर समझ की दुनिया में कुहरा कम हुआ, दूसरी ओर इसी जीवविज्ञान के नैतिकता की दृष्टि से खतरनाक होने की संभावना बढ़ गई [फ्रांसिस क्रिक (1916–2004) और जेम्स वाटसन (1928–जीवित) – डी एन ए की द्वि-हेलिकीय संरचना की खोज करने वाले वैज्ञानिक – अनु.]। हाल में इंसान की क्लोनिंग पर हुए विवाद के बहुत पहले ही बीसवीं सदी के सत्तर के दशक में जोसेफ नीडहैम ने बड़े विस्तार से इस पर चर्चा की थी। कुल मिलाकर विज्ञान = प्रगति, इस सूत्र से सुकून मिलना संभव नहीं रहा। इंसान को और दीगर कामकाज की तरह विज्ञान भी किस वर्ग के स्वार्थ में किस काम आता है, उसे देखकर ही इस बारे में सही-ग़लत की राय लेनी चाहिए, यह विचार बढ़ता चला। विज्ञान में तरक्की के बावजूद सोवियत राष्ट्र की ताकत में कमी आने और साम्राज्यवादी अमेरिका के शासक वर्गों के पैरों पर कुछ वैज्ञानिकों के लंबलेट आत्म-समर्पण ने (जिसके सबसे मूर्त रूप एडवर्ड टेलर थे) इस धारणा को मजबूत किया। कइयों ने कहना शुरू किया कि संस्थागत विज्ञान की जो प्रतिष्ठा और महत्व है, शासकवर्गों के लिए इसकी उपयोगिता ही उसकी जड़ है। इस नज़रिए से प्राक-विज्ञान जमाने के संस्थागत धर्म में और विज्ञान की भूमिका में कोई फर्क नहीं है।

हाल की नवउदारवादी अर्थव्यवस्था की जड़ें मजबूत होने के बाद, जिसका बाजारी वाहन वैश्वीकरण है, बाकी हर कुछ की तरह विज्ञान भी खुले आम संयुक्त राज्य अमेरिका के साम्राज्यवादी स्वार्थ-साधन का अंग बन गया। अब विज्ञान सत्य की खोज का रास्ता नहीं रहा। अब विज्ञान साफ तौर पर साम्राज्यवादी ताकतों के सामरिक, राजनैतिक और आर्थिक एकाधिपत्य को बनाए रखने का माध्यम है।

इसलिए सवाल उठता है कि विज्ञान को दीगर इंसानी कामकाज से अलग किसी निर्णायक भूमिका का महत्व क्यों दें? इससे भी बड़ा सवाल है कि क्या विज्ञान की संरचना में ऐसा कुछ है जो स्वभावत: शासक-वर्गों के हित में है, या फिर शासक वर्गों की स्वार्थ-सिद्धि में नियोजित उसका यह रूप उसके स्वाभाविक स्वरूप का अपवाद है?

जंगली फ्रॉयड? 

अब हम देखें कि नंदी जी इस सवाल के कौन से जवाब कैसे ढूँढ़ते हैं। उन्होंने इस सवाल पर दोतरफा हमला किया है। एक तो फ्रॉयड के 'पश्चिमी' सिद्धांत के साथ गिरीन्द्रशेखर बसु के 'पूरबी' विचारों की मुठभेड़ है। दूसरा, भारत में उपनिवेशवाद के साथ लागू हुई आधुनिक चिकित्सा-पद्धति के साथ देसी चिकित्सा-पद्धति की मुठभेड़ है।

फ्रॉयड के सिद्धांतों के साथ गिरीन्द्र के अपने विचारों के मुकाबले (मुठभेड़) में नंदी दो खासियत देखते हैं: एक उनका कट्टर क्लिनिकल अनुभववादी दृष्टिकोण है। उनके लिए मानसिक रोगी कभी भी किताबी पढ़ाई से मिली सीख या मिसाल या 'आँकड़े' नहीं थे। बिल्कुल शाब्दिक अर्थ में रोगी के बिस्तर के पास बैठकर अवलोकन के आधार पर सिद्धांतों तक पहुँचते थे। चिकित्साशास्त्र के इतिहास में इन दो दृष्टिकोणों का आपसी विरोध बहुत पुराना है। बिना जाँच किए दूर से की गई कल्पना के आधार पर कपोल-कल्पित दर्शन को हकीमों के ऊपर थोपने के खिलाफ हिपोक्रेटिस घराने ने संघर्ष किया था - हालाँकि यह संघर्ष असफल रहा था। इसी तरह चरक-संहिता में ज़बरन बकवास डालकर वैद्य-विरोधी ब्राह्मणों ने आयुर्वेद के अनुभव पर आधारित वैज्ञानिक रीतियों का विरोध किया था। यूरोप में नवजागरण के जमाने में घावों के इलाज में क्रांति लाने वाले शल्य-चिकित्सा के माहिर फ्रांसीसी आँब्रोआज़ पारे (Ambroise Pare) जो कुछ भी अपनी आँखों से देखते या जो कुछ अपने हाथों करते थे, उसी का विवरण प्रचलित ज़ुबान में वे लिखते रहे। फ्रांसीसी ज़ुबान में लिखने का कोई विकल्प नहीं था, क्योंकि उन्हें लातिन भाषा में लिखी पोथियों वाली विद्या नहीं मिली थी। जॉन लॉक के गुरु डॉक्टर सिडेनहैम के चिकित्सा-दर्शन में यह क्लिनिकल दृष्टिकोण शिखर पर पहुँच गया था। लॉक खुद कुशल सर्जन थे। लिवर का सिस्ट काट-फेंक कर रोगी को स्वस्थ कर पाने के वास्तविक अनुभव ने उनके विज्ञान दर्शन पर खास छाप डाली थी। उन दिनों यह मान्य तरीका नहीं था। यह महज मान्यता से अलग एक तरीका था।

देह-चिकित्सा के क्षेत्र में ही अगर इन दो दृष्टिकोणों में मुठभेड़ इतनी प्रचंड और टिकाऊ रही तो मनोरोग के उपचार में इसके तीखेपन का अंदाज़ा आसानी से मिल सकता है, क्योंकि प्रत्यक्ष अनुभवों को माननेवाले फ्रॉयड के आविर्भाव के पहले तक मनोविज्ञान आध्यात्मिक तत्व-मीमांसा और धर्म-शास्त्रों की पकड़ में फँसा था। पर फ्रॉयड को पढ़ने के पहले ही गिरीन्द्रशेखर दूर से की गई यादृच्छ कल्पना को महत्व न देकर रोग के प्रत्यक्ष अवलोकन के जरिए मनश्चिकित्सा में जुट गए। उनकी असली मौलिकता यहीं है। उनमें दो पद्धतियों की जो मुठभेड़ हमें दिखती है, वह दरअसल हर सभ्यता में युगों-युगों से चली आ रही है: एक ओर दार्शनिक अपनी अन-जाँची, पर शासकों के समर्थन में फलते-फूलते दर्शन को चिकित्सा-वैज्ञानिकों के काम करने के तरीकों पर थोपते रहे, दूसरी ओर चिकित्सा-वैज्ञानिक अपने तज़ुर्बों की रोशनी में जी जान से उससे टक्कर लेना चाहते रहे।

आशीष नंदी ने जो दूसरी विशेषता कही है, वह यह है कि गिरीन्द्रशेखर ने 'यूरोपी विरासत' से बाहर निकलकर काम करने की हिम्मत दिखलाई थी। सवाल यह है कि क्या 'यूरोपी विरासत' कहने मात्र से कोई बात बनती है? बर्कली और बेकन, दोनों यूरोपी दार्शनिक थे; पर ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने बर्कली को छोड़कर बेकन और मिल को माना - ऐसा करते हुए बैलेंटाइन जैसे प्रमुख प्राच्यवादियों के घोर विरोध को नज़रअंदाज़ किया। इसी तरह पावलोव भी मनोविज्ञान स्नायुतंत्र पर आधारित घराना में से हैं, पर गिरीन्द्रशेखर ने पावलोव के प्रति कोई रुचि नहीं दिखलाई, क्योंकि पश्चिमी यूरोप में मनोविज्ञान की विरासत में पावलोव का प्रभाव बहुत बाद में माना गया। यानी कि दरअसल वे यूरोपी मुख्यधारा से ही प्रभावित थे। वे फ्रॉयड के ढाँचे से उतना ही अलग हो पाए हैं जितना कि यूरोपी मुख्यधारा ने उन्हें जाने दिया है।

उनके अपने मन की दार्शनिक प्रवृत्ति ने यहाँ महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वेदांती पिता के प्रभाव में उनका अपना दार्शनिक झुकाव अ-वस्तुवादी व्याख्याओं की ओर था। इस प्रवृत्ति को बड़ी आसानी से अनुभववाद विहीन मायावादी या पूरी तरह तर्क आधारित सांख्य दर्शन में जगह मिल गई। वेदांतिक प्रमाण पद्धति का सहारा लेकर, भय से मुक्ति पाने का औपनिवेशिक हल लेकर, आत्मा की क्रियापद्धति लेकर, गिरीन्द्रशेखर ने बड़े ऊँचे स्तर की चर्चा की थी, पर उन्होंने कभी भी लोकायत या चार्वाक दर्शन की चर्चा नहीं की। यह भी तो पश्चिमी प्राच्यवाद (ओरिएंटलिज़्म) के ढर्रे में बँधा थोपा हुआ साँचा है। बैलेंटाइन ने भी तो विद्यासागर को ऐसी ही बातें कही थीं। क्या इसमें कोई खास मौलिकता है? भूदेव मुखोपाध्याय, विवेकानंद, राधाकृष्णन आदि के हाथों बार-बार इस्तेमाल होकर क्या यह पैटर्न जरा मलिन या थोथा, यहाँ तक कि बेकार नहीं हो गया था? गिरीन्द्रशेखर की कुछ टिप्पणियाँ हूबहू विवेकानंद की प्रतिध्वनि लगती हैं। जैसे, 'हिन्दू शास्त्रों के आदर्शों के नज़रिए से देखा जाए तो... मनोविज्ञान की जगह हर तरह के विज्ञान से ऊपर है। आत्मा के साथ मिलन की कोशिश ही हिन्दू धर्म का चरम उपदेश है।... सभी विज्ञानों में से मनोविज्ञान ही सात्विक विद्या है, बाकी सभी राजसिक हैं। वे मन को बहिर्मुखी कर कर्म की ओर ले जाते हैं। मनोविद्या मन को अंतर्मुखी करती है और अपने बारे में जानने में सहायता करती है।' यहाँ संज्ञान के बिना ही (प्रमाण का तो सवाल ही नहीं है) कुछेक entity (तत्वों) को गिरीन्द्र मान ले रहे हैं। कठोर वैज्ञानिक सिद्धांत या नियमनिष्ठा से जो बात बनती है, उनके दूसरे लेखों में जिसके उदाहरण भरे पड़े हैं, उसका लेशमात्र भी यहाँ नहीं है। समझ में आता है कि यहाँ विज्ञान की जगह किसी और बात पर वे चर्चा करना चाहते हैं, हालाँकि मुखौटा विज्ञान का है। इसका सबसे बढ़िया उदाहरण है:

हमारे दिमाग में दया, सहानुभूति आदि मनोभावों का अनुभव हमें नहीं होता है। इन सब मनोभावों के साथ जो संवेदनाएँ जुड़ी होती हैं, कहते हैं कि उनकी जगह दिल में है, इसलिए दयालु को 'सहृदय' व्यक्ति कहते हैं। हिन्दू शास्त्रकारों ने भी हृदय को रागद्वेष आदि का उद्गम कह कर निर्देश दिए हैं। इससे पता चलता है कि शरीरशास्त्र के जानकार के लिए जो सच है, मनोविद् के लिए वह सच नहीं भी हो सकता है।

इससे क्या समझ बनती है? तो क्या दया, सहानुभूति आदि मनोभावों के साथ जुड़ी संवेदनाएँ दिल में बैठी हुई हैं? तो क्या सहृदय शब्द को शाब्दिक अर्थ में ही समझना चाहिए? और केवल हिन्दू शास्त्रकार ही क्यों, सही वैज्ञानिक विचारों के अभाव में पैरासेल्सस के जमाने में यूरोप के लोग भी तो ऐसे ही सोचते थे, हालाँकि पैरासेल्सस ने सार्वजनिक रूप से गैलन की आत्मा का गला घोंटा था [पैरासेल्सस - (1493–1541) स्विस जर्मन चिकित्सक; गैलन (129–200/216) ग्रीक चिकित्सक – अनु.]। आज भी lily livered, chicken/ lion-hearted (लिली-लिवर यानी फीके रंग के जिगर वाला या कायर, चिकन यानी मुर्गा या कायर, लायन-हार्टेड यानी शेरदिल) जैसे अलंकारों वाली वाक-शैली में पुरानी सोच देखी जा सकती है ।

जबकि यही इंसान जब सही ढंग से क्लिनिकल तज़ुर्बों के आधार पर या किसी विशुद्ध वैज्ञानिक सिद्धांत के आधार पर लेख लिखते हैं, तब उनके तर्क और भाषा की ठोस बनावट और बंधन हमें बाँध लेते हैं, जिसकी अमिट पहचान स्वप्न शीर्षक किताब में लिपिबद्ध है।

एक और बात है, जीवन की संध्या में जब फ्रॉयड ने चिकित्सा से अर्जित अपने खयालों और विचारों को मानव-विज्ञान और धर्म के आँगन में लागू करने की कोशिश की, तो उनकी व्याख्याएँ खुलेआम पुराण कथाओं पर निर्भर हो गईं। क्या वे भी टोटेम और टाबू (कुनबे का प्रतीक) का इतिहास घोंट कर मानव-विज्ञान पर चर्चा करते हुए गिरीन्द्रशेखर की तरह ही मनोविज्ञान-पुराण को मिलाकर एक ढाँचा तैयार करना नहीं चाह रहे थे? अर्थात इस प्रक्रिया का भारत या यूरोप से कोई संबंध नहीं था। अपने-अपने मुल्कों में अपनी तयशुदा फलसफे की ज़मीं सोच की राहें तय कर रही थी।

वैसे यह बात सही है कि मनोविश्लेषणवादी गिरीन्द्रशेखर का गीता-विश्लेषण बिल्कुल अनोखा है, यह अलग से ध्यान देने की माँग रखता है। यहाँ उसकी जगह नहीं है, पर संक्षेप में दो एक बातें कही जा सकती हैं। उनके अनुसार गीता समेत जितनी भारतीय दार्शनिक कृतियाँ हैं, उनकी जड़ में जितनी दार्शनिक जिज्ञासा है, उससे कहीं अधिक विशेष ऋषियों की विशेष मनोवैज्ञानिक दशा का बिना किसी सजावट के हूबहू प्रक्षेपण है। इसी वजह से बड़ी गहरी अंतर्दृष्टि से भरी उपलब्धि के साथ ही हास्यास्पद बचकानी (childish and even silly) बातें भी मिलती हैं। उनके विचार में गीता में विशुद्ध वैज्ञानिक कौतूहल को चरितार्थ करने की कामना को ईश्वर की खोज में सही ताड़ना माना गया है। विभिन्न उपनिषदों में से ऐसी ईश्वर की खोज की कई मिसालें देते हुए उन्होंने दिखलाया कि इनमें से हरेक कोई न कोई सवाल उठाता है, जैसे हम कहाँ से आए हैं? हम किस तरह जीवन धारण करते हैं? मौत के बाद क्या होता है? कितनी शक्तियों की क्रियाओं से जीवदेह सजीव रहता है और उनमें से कौन सी मुख्य हैं? सोते वक्त कौन सी इंद्रियाँ जगी रहती हैं? सपने कहाँ से आते हैं? शरीर में सुख के अहसास का आधार क्या है? मन को कौन नियंत्रित रखता है? इंद्रियों को सजीव रखने का भार किसके ऊपर दिया गया है? 'इन सवालों में से अधिकतर मनोविज्ञान या शरीरविज्ञान के दायरे में आते हैं। कुछेक भौतिक विज्ञान और दर्शन के दायरे में आते हैं। इसलिए हम देख सकते हैं कि ऋषियों ने ब्रह्म के बारे में पहले से निर्धारित विचारों से साथ सोचना शुरू नहीं किया था ... और सभी नश्वर इंसानों की तरह ही वे इन समस्याओं के बोझ से पीड़ित थे।' गिरीन्द्रशेखर ने यह भी कहा कि मनोविज्ञान के अध्यापक होते हुए अक्सर अपने छात्रों से इन्हीं सवालों को उन्होंने सुना है। इन सवालों में 'there is nothing of mysticism (कोई रहस्यवाद नहीं है)'। फिर भी इन सवालों के जवाबों ने आखिर में ब्रह्म जैसी धुँधली सत्ता की ओर संकेत किया, गिरीन्द्रशेखर के अनुसार इसकी वजह यह थी कि उस प्राक-विज्ञान युग में यही स्वाभाविक था। उनके अनुसार सिर्फ सत्व, रस, तम ही नहीं, सारे भारतीय दर्शन को अलग-अलग इंसानों के, यानी विभिन्न ऋषि-व्यक्तियों के नज़रिए से परखना चाहिए। इसके लिए भौतिक विज्ञान के पद्धति-तंत्र की व्यक्ति निरपेक्ष परख की ज़रूरत नहीं है। अर्थात यह विभिन्न समय पर विभिन्न व्यक्तियों की विभिन्न मानसिक स्थितियों को दिखलाता है - यह प्रकृति और इंसान के बारे में वैज्ञानिक खोज नहीं है। ध्यान रहे, यहाँ मनोविज्ञान से मतलब है कि वे प्राक-विज्ञान युग के इंसान की 'अनछुई' उपलब्धि को ही समझा रहे हैं - 'his own sophisticated experience. He had no Newton or Einstein to consult... Whatever the Rishi said is absolutely true psychologically (उनका अपना जटिल अनुभव। कोई न्यूटन या आइंस्टाइन मौजूद न था, जिससे वे सलाह-मशविरा कर पाते... ऋषि ने जो भी कहा, वहमनोवैज्ञानिक रूप से ध्रुव सत्य है)'। सच-झूठ का प्रमाण पेश करने का जिम्मा उस ऋषि का नहीं है। अपने मन की उपलब्धि को जस का जस प्रकट कर के वे बरी हो जाते हैं। जाहिर है, यहाँ उन्होंने तथाकथित 'पश्चिमी' पैमाने से ही गीता के 'दर्शन' पर विचार किया है।

यह ध्यान देने योग्य है कि गिरीन्द्रशेखर उन प्रज्ञासंधानी ऋषियों का तिरस्कार नहीं कर रहे कि प्राचीन भारत के ये चिंतक आधुनिक विज्ञान का इस्तेमाल नहीं कर सके, उल्टा वे यह कह रहे हैं कि वे बड़ी हिम्मत के साथ अपने 'मनोवैज्ञानिक इंद्रिय अहसासों' के आधार पर अवरोही (deductive) तर्क की राह पर आगे बढ़े थे। उनके तर्क आम लोगों को सही लगते हैं या नहीं, इसकी परवाह उन्होंने नहीं की। बेशक ऐसे विश्लेषण में उनकी मौलिकता है, पर इसे 'पश्चिमी पैराडाइम' के पार नहीं कहा जा सकता है। इसके अलावा एक और सवाल यहाँ उठना चाहिए, पर उठाया नहीं गया। गिरीन्द्रशेखर द्वारा बतलाए इन ऋषियों के विपरीत राह पर चलते हुए चार्वाक लोकायतिकों ने 'मदशक्ति' की तुलना लाकर देह और मन के संबंधों की व्याख्या करने की कोशिश की थी। गिरीन्द्रशेखर इस बारे में चुप हैं, आशीष नंदी भी चुप हैं।

कोई शक नहीं कि गिरीन्द्रशेखर उपनिवेशकाल में पले 'पश्चिमी' विज्ञान शिक्षित भद्रलोक बंगाली चिंतनजीवियों की पराकाष्ठा थे। आशीष जी के लेखन में उनकी यही पहचान लाजवाब ढंग से सामने आती है, पर उनके विश्लेषण के बुनियाद को लेकर शंकाएँ रह जाती हैं। हो सकता है कि वे खुद इस बारे में सचेत थे। गिरीन्द्रशेखर के बारे में उनका लेख इस तरह खत्म होता है: 'क्या सचमुच 'हिंदू शास्त्रों के आदर्शों के नज़रिए से... मनोविज्ञान की जगह सभी विज्ञानों से ऊपर है? क्या औपनिवेशिक भारत उस पुराने भारत का 'सच्चा उत्तराधिकारी' है? जब वे 'अन्य फ्रॉयड' के बारे में विचार गढ़ते हैं तब 'what empirical and conceptual clues did he use (किन प्रत्यक्ष अवलोकन और अवधारणात्मक सूत्रों का इस्तेमाल उन्होंने किया)?' नंदी को इन सवालों में से किसी के भी जवाब नहीं मालूम हैं। और वह मानते भी हैं कि ये सवाल विवादास्पद हैं। फिर भी वे विज्ञान और पुराणों के बीच झूला झूल रहे इस मनीषी के कर्मकांड की इस तरह व्याख्या करने की कोशिश करते हैं कि एक पेशेदार मनोसमीक्षक होते हुए गिरीन्द्रशेखर का काम 'स्मृत अतीत' पर था - 'objective past (नि:शंक अतीत)' को लेकर नहीं। पर मनोविज्ञान को विज्ञान मानना हो तो वैज्ञानिक पद्धतियों के तंत्र के सवाल को नज़रअंदाज नहीं कर सकते। अगर वह नज़रअंदाज नहीं होता तो objective past का मुकाबला वह किस तरह से करेगा, इस सवाल का जवाब देना ज़रूरी हो जाता है। इस सवाल का जवाब देना हो तो स्नायुतंत्र आधारित मनोविज्ञान के साथ उसका क्या संबंध है, इस बारे में चर्चा ज़रूरी हो जाती है। इस बारे में गिरीन्द्रशेखर क्या सोचते थे - और क्या नहीं सोचते थे - इस पर नंदी जी कोई चर्चा नहीं करते हैं।

इस सबके बावजूद यह बात बिना झिझक माननी पड़ेगा कि गिरीन्द्रशेखर को केंद्र में रखते हुए आशीष बाबू ने जिन सवालों को उठाया है, वे मूल्यवान हैं। जवाबहीन इन सवालों के हवाले से ही हमें खुद को इस तरह पहचानने के काम को बढ़ाते है।

चिकित्साविज्ञान: देसी बनाम औपनिवेशिक

इसके बाद के सवाल पर आशीष बाबू ने बड़े निष्पक्ष ढंग से अपनी बात रखी है। मुख्यत: उन्होंने चार आख्यान सुनाए हैं:

1) विज्ञान-शिक्षा और वैज्ञानिक शोध में जानवरों को काटने-चीरने के खिलाफ थीओसोफिस्टों (ब्रह्मविद्यावादियों) ने जो आंदोलन किया, उनके कागज़ात की जाँच कर आधुनिक चिकित्साविज्ञान के तथाकथित व्यक्ति-निरपेक्षता के खिलाफ आधुनिक विज्ञान-विरोधियों के बयान ढूँढे हैं, 2) विश्वविद्यालय और विज्ञान-चर्चा को बिल्कुल एक-आयामी करने की जगह सौ फूल खिलाने की जो कोशिश पैट्रिक गेडेस ने की थी, उसका वर्णन किया है [पैट्रिक गेडेस (1854 –1932) – स्कॉटिश जीवविज्ञानी और शिक्षाविद-अनु.] । गेडेस ने चाहा था कि उनके 'विज्ञान संबंधी ग्रामीण दृष्टिकोण' की ज़मीन शांतिनिकेतन में हो, 3) गाँधीजी के हिंद-स्वराज में उन्हें ' a fascinating science policy document of the post-Swadeshi era (उत्तर-स्वदेशी युग में विज्ञान नीति का अद्भुत दस्तावेज)' ढूँढ़ मिला है। इंसान के जिस्म को राष्ट्र-यंत्र के प्रतीक की तरह पेश कर गाँधीजी ने दिखलाया था कि 'आधुनिक यंत्रनिर्भर सभ्यता बीमारी है, क्योंकि वह देह की समग्रता को नुकसान पहुँचाती है। सच्चा औजार तो ... वही होगा जो शरीर का स्वाभाविक विस्तार है, शरीर से अलग कुछ नहीं है।' 4) सन 1923 मे जी श्रीनिवासमूर्ति ने आयुर्वेद चिकित्सापद्धति के बारे में जो प्रतिवेदन दिया था, उस पर नंदी जी ने विस्तार से चर्चा की है। इस भाग में यही सबसे मूल्यवान दलील है। श्रीनिवासमूर्ति के विचार में, आयुर्वेद में जीवाणु को रोग का एक कारण मानने को महत्व ज़रूर दिया गया है, पर इसे अनेक कारणों में से सिर्फ एक माना जाता है, जबकि ऐलोपैथी में जीवाणुओं का रोग के कारण रूप में बहुत ज्यादा महत्व है। बात ज़रूर सोचने लायक है। पर सवाल है: पास्तूर और कोख़ के बाद से जीवाणु का जो मतलब हम जानते हैं, क्या आयुर्वेद के विज्ञानियों को इसी अर्थ में जीवाणुओं की समझ थी [लुई पास्तूर (1822–1895) फ्रांसीसी रसायनविद और सूक्ष्मजीवविज्ञानी; रॉबर्ट हाइनरिख़ हर्बर्ट कोख़ (1843–1910) जर्मन चिकित्सक और सूक्ष्मजीवविज्ञानी - अनु.]? कोई वजह नहीं है कि हम देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय की इस बात को न मानें, “... विज्ञान के इतिहास में जीव-कोष और जीवाणु की खोज के पहले तक शरीर के ढाँचे और अधिकतर रोगों के असली कारणों की जानकारी नहीं थी (संदर्भ:आयुर्वेद में विज्ञान, उत्स मानुष प्रकाशन, पृ. 34)।

इस संदर्भ पर श्रीकृष्णचैतन्य ठाकुर ने भी चर्चा की है, हालाँकि भाषा में अवांछित टेढ़ेपन से उनकी बातें समझने में दिक्कत आती है [श्रीकृष्णचैतन्य ठाकुर – बांग्ला में आयुर्वेद पर कई किताबों के लेखक – अनु.]। ठाकुर जी ने लिखा है, “वाइरस, बैक्टीरिया, अमीबा जैसे भी रोग पैदा करते हैं, जो तथ्य सुश्रूत के सूत्र स्थान 19/23 सूत्रश्लोक और 20/28 की उक्तियाँ हैं, वे शतपथ ब्राह्मण 11/4 सूक्ति में स्पष्ट है (यह ब्राह्मण यजुर्वेद की माध्यंदिन शाखा का सौवाँ अध्याय है), पर इस बारे में पश्चिमी चिकित्सा विज्ञान के सामने हमारी दीनता नंगी खड़ी दिखती है (संदर्भ: कविराज (वैद्य) ब्रजेंद्रनाथ नाग संपादित चरक संहिता की भूमिका, पृ. 6)।' क्या इसका मतलब यह निकलता है कि आयुर्वेद विज्ञानियों ने वाइरस, बैक्टीरिया, अमीबा आदि की खोज बहुत समय पहले ही कर ली थी, पर बाद में यह ज्ञान खो गया? अगर ऐसा ही है तो सवाल है: यह खोज किस पद्धति से, कैसे परीक्षण-निरीक्षणों के आधार पर हुई थी? क्या ये सारी खोजें अणुवीक्षण यंत्र (माइक्रोस्कोप) के बिना ही हो गई थीं? अगर ऐसा नहीं हुआ तो इसे सैद्धांतिक अनुमान ज़रूर कहा जा सकता है, पर क्या इसे प्रमाणयोग्य या खंडनयोग्य (फॉल्सिफायबल) सिद्धांत कहा जा सकता है? अगर यह नहीं होता तो तथाकथित आयुर्वेद को ऐलोपैथी का वैकल्पिक 'सिस्टम' मानकर कैसे खड़ा किया जा सकता है?

दरअसल आयुर्वेद के बारे में बुनियादी सवाल यह है कि लोक-समाज में सैकड़ों सालों से तथाकथित आयुर्वेदिक चिकित्सा के नाम से जो चला आ रहा है, उसके साथ असली आयुर्वेद शास्त्र का कितना संबंध है? श्रीकृष्णचैतन्य ठाकुर के 'पूज्यनीय अध्यापक वैद्यरत्न वाराणसीगुप्त और महामहोपाध्याय गणनाथसेन महाशय ने मजाक करते हुए कहा था - बेटे! कलियुग में पाँच आयुर्वेदी चिकित्सक हैं - 

मालाकारश्चचर्मकार: नापितो रजकस्थता। 
वृद्धारंडा विहेषणे कलौ पंच चिकित्सा:।

यानी फूलमाली, कर्मकार (लोहार), नाई, धोबी और मुहल्ले की बूढ़ी राँड़ – ये ही चिकित्सक हैं'। गणनाथ सेन ने उन्हें कहा था, 'आज आम लोगों को मन में आयुर्वेद के प्रति जो उदासीनता दिकती है, वह एक दिन या एक साल में नहीं पनपी है, यह कम से कम ईसा की पाँचवीं-छठी सदी में शुरू हुई थी, क्योंकि किसी जटिल रोग के लिए सही आयुर्वेद ज्ञान और दवाओं का अनुभव अर्जित करने लायक वैद्य है ही नहीं। वे अपने तज़ुर्बे से मिले आयुर्वेदी चिंतन से जो कुछ सीखते हैं, उसी का प्रयोग करते हैं। दरअसल तांत्रिकों द्वारा खोजी दवाओं के असर का सहारा लेकर वे ग़लत राह पर चल पड़ते हैं। इसके पीछे आयुर्वेद के बुनियादी ग्रंथ पर चर्चा का अभाव है और बस दो चार मुट्ठी भर शरीर-चर्चा के ग्रंथों का पाठ मात्र है (वही, पृ.1)।'

हम जो विशेषज्ञ नहीं हैं, इसे पढ़कर इतना कह सकते हैं कि फलित आयुर्वेद पैराडाइम-विहीन मामला है। और यह बात अंग्रेज़ों के आने के बहुत पहले से ही चल रही है। कुछ लोग 'अपने तज़ुर्बों से मिली धारणाओं' के साथ-साथ काम करते जा रहे थे, पर इन धारणाओं को किसी मान्य, किसी हद तक व्यापक, वैज्ञानिक रीति से प्रमाणित होने का मौका नहीं मिला। इसलिए ये अलग-थलग रीतियाँ बनकर रह गईं। उसके ऊपर 'तांत्रिकों द्वारा खोजी दवाओं के असर का सहारा लेकर वे ग़लत राह पर चल पड़ते हैं'। ऐसे हाल में क्या आयुर्वेदिक 'सिस्टम' नामक किसी चीज़ के होने का दावा किया जा सकता है? इसलिए बाज़ार में व्यवहार में 'अंग्रेज़ी दवा' के उलट जो आयुर्वेद-चिकित्सा चलती है, वह महज 'टोटका चिकित्सा या जड़ीबूटी चिकित्सा' है (वही, पृ. 2)।

इसलिए ऐलोपैथी के साम्राज्यवादी उद्गम की बात को याद रखते हुए भी कहा जा सकता है, एक्यूमेनिकल विज्ञान की कुछ मान्य पद्धतियों को मान चलने की कोशिश उसमें है, जैसे तयशुदा नियमों के मुताबिक परीक्षण-निरीक्षण, खंडनयोग्यता (फॉल्सिफायबिलिटी) आदि। इसके उलट, प्रचलित आयुर्वेद में 'फूलमाली, कर्मकार, नाई, धोबी और मुहल्ले की बूढ़ी राँड़' के कुछ निजी लोकतथ्य मिलते हैं, जिसमें से बहुत कुछ बेशक प्रयोगों द्वारा सिद्ध है और लाभदायक है, पर वह कभी भी वैज्ञानिक पद्धति के नियमों से परखे नहीं गए हैं। देसी टीका या मोतियाबिंद काटना इसकी परिचित मिसालें हैं। इसलिए यह बात मान लेने पर भी कि साम्राज्यवादियों ने पूरी तरह अपने स्वार्थों के लिए इस देश पर खर्चीली चिकित्सा-पद्धति थोपी है, यह कहना बाकी रह जाता है कि जो उन्होंने थोपा है, वह कुछ हद तक प्रमाणित, खंडनयोग्य और मान्य पद्धति है। पद्धति खंडनयोग्य हो तो उसके लगातार बेहतर होने की संभावना रहती है - जो फलित, अप्रमाणित, अखंडनयोग्य, प्रचलित आयुर्वेद के बारे में नहीं कहा जा सकता है। इसमें कोई शक नहीं है कि आयुर्वेद शास्त्र अपनी खोई मर्यादा वापस पा ले, और खंडनयोग्यता की माँग पूरी कर दिखाए तो वह मान्य चिकित्सापद्धति का सिस्टम हो जाएगा। पर जब तक यह नहीं होता, तब तक इस हीनस्तर के आयुर्वेद को ऐलोपैथी का विकल्प मानना अतार्किक है।

चूँकि साम्राज्यवाद से ऐलोपैथी आई, इसलिए ऐलोपैथी और रोग के होने में जीवाणु के होने के सिद्धांत की उपयोगिता को कम कर आँकना द्वंद्वहीन एकआयामी सोच को बढ़ावा देता है। यह ऐसा है, जैसे संस्थागत विज्ञान साम्राज्यवाद का पिछलग्गू हो गया है, इस वजह से विज्ञान के सिद्धांत ग़लत नहीं हो जाते, बल्कि साम्राज्यवादियों के मुनाफालोलुप हाथों से विज्ञान को वापिस छीन लाना और आम लोगों के हित में उसे अपने दम पर खड़ा करना एक बड़ी लड़ाई है। बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के हाथ बिक चुके चिकित्सा-विज्ञान को सचमुच के विज्ञान में बदलना उसी लड़ाई का हिस्सा है। इसके लिए बुनियादी विज्ञान को ही नकारने का मतलब, विलायती मुहावरे में, बाथटब के पानी के साथ शिशु को भी बहा देना है। नंदी जी की मेहनत से की गई खोज में मानो इसी बहाव का बाजा सुनाई पड़ता है।

नंदी के विचार में इसमें से 'आधुनिक चिकित्साविज्ञान के दर्शन' के खिलाफ तीन किस्म के विरोध फले फूले हैं। इन तीनों की उन्होंने इस तरह पहचान की है।  थियोसोफिस्टों का 'तर्कहीनता-आधारित अस्वीकार', गाँधीजी का 'संस्कृति आधारित प्रतिरोध' और श्रीनिवासमूर्ति का 'स्वदेहजात सिद्धांत ही बहिरागत सिद्धांत की बुनियाद है (indigenous-as-the-theory-of-the-exogenous)।' इसमें कोई शक नहीं है कि आधुनिक विज्ञान आज संकट से गुजर रहा है। नंदी की उम्मीद है कि ऊपर कही गई तीन किस्म की आलोचनाएँ, उनमें 'आपस में जितनी भी दूरी हो, शायद उस संकट से उबरने में मदद करेंगी।' यह कैसे होगा, वह उन्हें मालूम नहीं है।

उपसंहार

तुरंत जवाब ढूँढ़ने से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण सही सवाल पूछना है - यह कहकर मैंने चर्चा शुरू की थी। आशीष नंदी ने अपनी प्रगाढ़ विद्वत्ता और मुक्त चिंतन की मिठास में घोलकर कई सारे सवाल उठाए हैं। जिन बातों को सोचकर हम आश्वस्त हो जाते हैं, उनके अंदर बड़े गड्ढों को उन्होंने दिखलाया है। अधिकतर बीमारी को पहचानने में वे सफल हुए हैं। फिर भी शंका होती है, वे किनके पक्ष में खड़े होकर सवाल उठा रहे हैं? उनका मूल हमला सेक्युलरिज़्म और आधुनिक विज्ञान पर आ फूटता है। दार्शनिक नज़रिए से उनके तर्क बेशक सोचने लायक हैं, पर हमारे जैसे मुल्क में, जहां ठीक इन दो बातों के अभाव से इंसान की दुनियावी तकलीफों का अंत नहीं है, वह उनका अति-परिशीलित दर्शन-चिंतन राष्ट्र-राज्य की उन ताकतों को ही मजबूत करेगा, जो इंसान को जड़ मीडिया पशु के स्तर पर उतार गिराना चाहते हैं। कई तरह के मूलवाद आज इस तरह के सैद्धांतिक सहारे की उम्मीद में बैठे हैं। निश्चित ही ऐसी बात आशीष बाबू नहीं चाहेंगे।

अमर्त्य सेन का एक बयान उद्धृत कर इस चर्चा को विराम दें। 'भारत की वयस्क जनता में अधिकतर (और वयस्क स्त्रियों का दो-तिहाई) आज भी निरक्षर है। दो एक खास इलाकों को छोड़ दें तो तालीम और विज्ञान को भारतीय नागरिकों के बड़े हिस्से तक ले जाने की कोई ईमानदार कोशिश दिखती नहीं है। इस भयंकर असफलता को ध्यान में रखकर विज्ञान के महत्व को कम करने का मतलब गैरबराबरी और अन्याय के खिलाफ नहीं, उनके पक्ष में काम करना है। भारत में सबको तालीम देने की नीति की असफलता चूँकि राष्ट्र-यंत्र की असफलता का हिस्सा है, इसलिए ज़रूरी है कि शासन-प्रणाली के खिलाफ आवाज़ उठाएँ, विज्ञान के खिलाफ नहीं।5

संदर्भ:
पहली पंक्ति में 'अभ्यास की सीमाओं में बँधी चेतना के संकीर्ण संकोच' कथन रवींद्रनाथ ठाकुर की कविता 'नीलमणिलता' से उद्धृत है। 
1. अमर्त्य सेन, द आर्गुमेंटेटिव इंडियन, ऐलेन लेन, पेंगुइन, लंदन, 2005, पृ. 194।
2. अमर्त्य सेन, भारतेर अतीत-व्याख्या प्रसंगे (मूल से बांग्ला में अनुवाद, आशीष लाहिड़ी), एशियाटिक सोसायटी 1999, पृ. 20।
3. वही, पृ. 22।
4. वही, पृ. 29।
5. वही, पृ. 31।


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