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Saturday, July 25, 2015

नाभिकीय डील के दुष्परिणाम


नाभिकीय डील के दुष्परिणाम

25, JUL, 2015, SATURDAY 11:41:05 PM
भारत-अमेरिका नाभिकीय डील की घोषणा, 18 जुलाई 2005 को हुई थी। उसके बाद से दस बरस गुजर चुके हैं। जैसा कि सभी जानते हैं, सीपीआई (एम) और वामपंथ ने इस नाभिकीय डील का कड़ा विरोध किया था। उनकी समझ यह थी कि यह डील, उस व्यापक रणनीतिक गठजोड़ का महत्वपूर्ण हिस्सा थी, जो मनमोहन सिंह की सरकार अमेरिका के साथ कायम करना चाहती थी। गुजरे हुए दस साल में, इस डील के एक-एक पहलू का हमारा विरोध सही साबित हुआ है।
झूठे दावे
यूपीए सरकार ने इसके दावे किए थे कि इस नाभिकीय सौदे से हमारे देश में ऊर्जा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण रूपांतरण होगा, प्रौद्योगिकी आएगी और हमारे देश को इससे रणनीतिक लाभ हासिल होंगे। कांग्रेस पार्टी ने इसके दावे किए थे कि इस समझौते से घर-घर में सस्ती बिजली पहुंचेगी। यूपीए सरकार ने दावा किया था कि इससे भारत के खिलाफ ''नाभिकीय रंगभेदÓÓ और प्रौद्योगिकी आयातों पर लगी पाबंदियों का अंत हो जाएगा। इसके ढपोरशंखी दावे भी किए गए थे कि इस सौदे के बल पर 2020 तक भारत, पूरे 40,000 मेगावाट नाभिकीय ऊर्जा का आयात कर पाएगा।
लेकिन, ये सब ख्याली पुलाव ही साबित हुए हैं। सच्चाई यह है कि राष्टï्रपति बुश के समय में अमेरिकी प्रशासन ने भारत के साथ असैनिक नाभिकीय समझौता करने के लिए इसीलिए पहल की थी ताकि वह भारत को एशिया के लिए अपनी भू-राजनीतिक रणनीति के साथ मजबूती से बांध सके। इसके लिए अमेरिका एक रणनीतिक सैन्य गठबंधन खड़ा करना चाहता था और भारत को इस क्षेत्र में अपना रणनीतिक सहयोगी बनाना चाहता था। अमेरिका को इसके अलावा भारत के लिए नाभिकीय रिएक्टरों की बिक्री से अतिरिक्त व्यापारिक लाभ भी होना था।
बहरहाल, नाभिकीय समझौते को अंतिम रूप दिए जाने तथा उसके लागू किए जाने के बाद से, भारत की नाभिकीय ऊर्जा क्षमता में शायद ही कोई बढ़ोतरी हुई है। 2005 में भारत में नाभिकीय बिजली उत्पादन की कुल 2,770 मेगावाट क्षमता थी, जो देश की कुल बिजली उत्पादन क्षमता के 2.2 फीसद के बराबर था। 2015 में नाभिकीय बिजली उत्पादन क्षमता बढ़कर 5,780 मेगावाट हो गयी है, जोकि देश की कुल बिजली उत्पादन क्षमता के 2.1 फीसद हिस्से के ही बराबर है। नाभिकीय बिजली उत्पादन क्षमता यह बढ़ोतरी मुख्यत: कुडमकुलम यूनिट-1 बिजलीघर के चालू होने हुई है, जिसकी क्षमता 1000 मेगावाट है। याद रहे कि कुडमकुलम संयंत्र रूस के साथ हुए समझौते के फलस्वरूप बना है, जिस पर भारत-अमेरिका नाभिकीय सौदे से बहुत पहले ही दस्तखत हुए थे और इस तरह इसे भारत-अमेरिका नाभिकीय समझौते का परिणाम नहीं माना जा सकता है।
महंगी नाकामी
रणनीति यह थी कि भारत-अमेरिका नाभिकीय डील के बाद, विदेशी नाभिकीय बिजलीघरों का आयात किया जाएगा। यह एक बड़ी महंगी नाकामी साबित हुई है। वास्तव में वामपंथ ने तो नाभिकीय डील की वार्ताओं के दौरान ही इस सच्चाई की ओर ध्यान खींचा था। जैतापुर नाभिकीय परियोजना के लिए फ्रांसीसी कंपनी अरेवा से नये ईपीआर नाभिकीय रिएक्टरों का आयात किया जाना है। इन रिएक्टरों के आयात की कीमत बहुत ही ज्यादा बैठने जा रही है और इन रिएक्टरों से पैदा होने वाली बिजली की लागत इतनी ज्यादा बैठने जा रही है कि इनका उपयोग सिर्फ तभी किया जा सकेगा, जब शासन द्वारा सब्सीडी देकर यह बिजली घटी हुई दरों पर मुहैया करायी जाए। इन बिजली संयंत्रों की वहनीयता को लेकर भी बहुत सारे सवाल हैं क्योंकि अब तक दुनिया में कहीं भी ऐसा एक भी रिएक्टर स्थापित नहीं हुआ है, खुद फ्रांस में भी नहीं।
यूपीए सरकार ने उक्त समझौते की शर्त के हिस्से के तौर पर, अमेरिका से 10,000 मेगावाट के नाभिकीय रिएक्टर खरीदने का वचन दिया था। उसने यह वादा भी किया था कि कानून बनाकर, आपूर्तिकर्ताओं को जवाबदारी से सुरक्षित किया जाएगा। बहरहाल, भारतीय संसद द्वारा जो असैनिक नाभिकीय जवाबदारी कानून पारित किया गया, वह न तो यूपीए सरकार की उम्मीदें पूरी करता था और न अमेेेरिकी प्रशासन की। भोपाल गैस त्रासदी के अनुभव से सबक लेते हुए, संसद ने यह सुनिश्चित किया था कि इस कानून में आपूर्तिकर्ता की जवाबदारी की व्यवस्था भी शामिल रहे। यह व्यवस्था अमेरिकी कंपनियों के रास्ते में बाधक बनी है, जिन्हें कोवाडा (आंध्र प्रदेश) तथा मीठी विर्दी (गुजरात) के नाभिकीय पार्कों के लिए रिएक्टर बेचने हैं। पहले यूपीए सरकार ने इसकी भारी कोशिशें की थीं और अब मोदी सरकार अमेरिकी कंपनियों को खुश करने के लिए इसकी सभी कोशिशें कर रही है कि आपूर्तिकर्ताओं की जवाबदारी के प्रावधान को धता बतायी जाए। इस दिशा में ताजातरीन कोशिश ओबामा की भारत यात्रा के दौरान सामने आई। इसके तहत आपूर्तिकर्ता कंपनियों को जवाबदारी से सुरक्षित करने के लिए, भारतीय बीमा कंपनियां 1,500 करोड़ रुपए का एक बीमा पूल गठित करेंगी। बहरहाल, इस सौदे को व्यापारिक रूप अब तक नहीं मिल पाया है।
फुकुशिमा नाभिकीय दुर्घटना के अनुभव के बाद से, नाभिकीय पार्कों में आयातित नाभिकीय रिएक्टर—कुल छ:—स्थापित करने के विचार पर, सुरक्षा संंबंधी गंभीर चिंताएं उठ खड़ी हुई हैं। इन सभी ठिकानों पर आयातित नाभिकीय बिजलीघर स्थापित किए जाने का जन-विरोध हो रहा है। इसके बावजूद, मोदी सरकार पिछली यूपीए सरकार की शुरू की मूर्खता को ही जारी रखे हुए है।
कोई पूर्ण नाभिकीय सहयोग नहीं
जहां तक इस दावे का सवाल है कि इस डील के जरिए, असैनिक नाभिकीय सहयोग सुनिश्चित किया जाएगा, यह मिथक भी चकनाचूर हो चुका है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2006 के अगस्त में संसद में इसका भरोसा दिलाया था कि यह डील ''पूर्ण असैनिक नाभिकीय सहयोगÓÓ सुनिश्चित करेगी, जिसमें नाभिकीय ईंधन व नाभिकीय रिएक्टरों से लेकर, इस्तेमालशुदा ईंधन की रीप्रोसेसिंग तक, पूर्ण नाभिकीय ईंधन चक्र के सभी पहलू शामिल हंै। वास्तव में जिस 1,2,3 समझौते पर दस्तखत किए गए थे, उसमें पूर्ण नाभिकीय सहयोग सुनिश्चित नहीं किया गया था। उल्टे नाभिकीय आपूर्तिकर्ता ग्रुप के साथ मिलीभगत कर अमेरिका ने भारत के लिए तमाम, ''संवद्र्घन व रीप्रोसेसिंग प्रौद्योगिकीÓÓ के निर्यात पर रोक लगवा दी। यह रोक पूर्ण अंतरराष्टï्रीय बचाव उपायों (सेफगाड्र्स) के साथ ऐसे निर्यातों के  लिए भी लगाई जा रही थी। इस तरह भारत को नाभिकीय प्रौद्योगिकी से वंचित रखे जाने की व्यवस्था अब भी बनी हुई है। रक्षा सहयोग समझौते के अंतर्गत भी भारत संवदेनशील उच्च प्रौद्योगिकी मिलने पर लगी पाबंदियां हटवाने में विफल रहा है।
विदेश नीति पर समझौैता
बहरहाल, नाभिकीय समझौते का सबसे खतरनाक पहलू, भारत की विदेश नीति तथा रणनीतिक स्वायत्तता पर लादी गयी शर्तों का है। अमेरिकी कांग्रेस द्वारा स्वीकृत जिस हाइड एक्ट ने नाभिकीय सौदे का रास्ता खोला था, उसमें स्पष्टï शब्दों में कहा गया था कि भारत जैसे किसी देश के साथ, जिसने नाभिकीय अप्रसार संधि (एनपीटी) पर दस्तखत नहीं किए हैं, इस तरह का सहयोग उसी सूरत में किया जा सकता है जब, ''उस देश में सरकार की एक प्रभावी तथा अबाध जनतांत्रिक व्यवस्था हो, उसकी विदेश नीति अमेेरिका की विदेश नीति के अनुरूप हो और वह अप्रसार से संबंधित प्रमुख विदेश नीति पहलों में अमेरिका के साथ मिलकर काम कर रहा हो।ÓÓ वास्तव में ''विदेश नीति की अनुरूपताÓÓ इस समझौते फौरन बाद ही सामने भी आ गई, जब ईरान के नाभिकीय मुद्दे पर भारत ने अपना रुख बदल लिया। अमेरिका की मांग थी कि भारत, नाभिकीय मुद्दे पर ईरान को अलग-थलग करने में उसका साथ दे। भारत ने उसकी इस मांग को पूरा किया और अंतरराष्टï्रीय एटमी ऊर्जा एजेंसी के स्तर पर दो बार ईरान के खिलाफ वोट डाला। इस एजेंसी के स्तर पर इस दूसरे वोट से ही ईरान के खिलाफ संयुक्त राष्टï्र संघ की ओर से पाबंदियां लगाए जाने का रास्ता खुला था।
इरान के मुद्दे पर पल्टी
ईरान के मुद्दे पर भारत की यह शर्मनाक पल्टी, नाभिकीय सौदे के आगे बढ़ाए जाने के साथ जुड़ी अनिवार्य शर्त थी। भारत में अमेरिका के तत्कालीन राजदूत, डेविड मलफोर्ड ने तो बड़ी अकड़ के साथ इसका ऐलान भी किया था। इस नाभिकीय सौदे के साथ, अमेरिका का नाभिकीय सहयोगी बनने के लिए भारत की पल्टी ने और जोर पकड़ लिया। बुश प्रशासन की मांग पर मनमोहन सिंह सरकार ने ईरान-पाकिस्तान-भारत गैस पाइप लाइन परियोजना में पलीता लगा दिया। आगे चलकर अमेरिका तथा यूरोपीय यूनियन द्वारा ईरान से तेल के निर्यात पर पाबंदियां लगाए जाने के बाद, भारत ने ईरान से तेल की अपनी खरीदी में भारी कटौती कर दी। यह इस के बावजूद था कि ईरान से तेल खरीदना भारत के लिए आर्थिक रूप से फायदे का था।
यह विडंबनापूर्ण है कि भारत सरकार, जो ईरान को अलग-थलग करने के अमेरिका के फरमान का वफादारी से पालन कर रहा था, अब जबकि अमेरिका तथा ईरान के बीच समझौता होने को है, बड़ी अजीब सी स्थिति में फंस गया है। बहुत लंबी वार्ताओं के बाद एक ओर ईरान और दूसरी ओर पी-5+ 1 (सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्य+ जर्मनी) के बीच, ईरान की असैनिक नाभिकीय प्रौद्योगिकी पर समझौता हो गया है। इससे पश्चिम एशिया में एक बड़ा बदलाव आने जा रहा है जिसमें, अपने खिलाफ लगी पाबंदियां हटने तथा अपने तेल के निर्यात फिर से सामान्य स्तर पर पहुंचने के साथ, ईरान एक प्रमुख भूमिका अदा कर रहा होगा।
इस समझौते पर मोदी सरकार की प्रतिक्रिया को, नरम से नरम भाषा का प्रयोग करें तब भी विचित्र तो कहना ही पड़ेगा। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने फौरी तौर पर समझौते का स्वागत तो किया, लेकिन इसके साथ यह भी जोड़ा कि इस पर अंतिम रूप से राय दी जाएगी, समझौते के पाठ का पूरा अध्ययन करने के बाद। इस मामले में मोदी सरकार, आका से भी बढ़कर आका की वफादारी दिखा रही है। भारत की ऐसी अति-सावधान प्रतिक्रिया की एक वजह, इस समझौते पर इजराइल के कड़े विरेाध से भी जुड़ती है। बहरहाल, खुद अपना नुकसान करते हुए, अमेरिका को खुश करने के लिए ही भारत का ईरान के साथ अपने रिश्ते कमजोर करना, इसका जीता-जागता उदाहरण है कि किस तरह नाभिकीय सौदे ने, भारत की स्वतंत्र विदेश नीति पर अतिक्रमण किया है।
कसता बाहुपाश
अमेरिकियों के लिए नाभिकीय सौदा महज मछली के लिए कांटे में लगाया जाने वाला चारा था, ताकि भारत को एक कहीं वृहत्तर गठजोड़ में फंसाया जा सके, जिसकी कुंजी प्रतिरक्षा रिश्तों में है। नाभिकीय डील के फौरन पहले, भारत-अमेरिका रूपरेखा समझौता हुआ था, जिस पर 2005 के जून में दस्तखत किए गए थे। इस समझौते के तहत अमेरिका अब भारत के लिए हथियारों का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता बन चुका है। मोदी सरकार ने अब अगले दस साल के लिए इस समझौते का नवीनीकरण कर दिया है। मोदी सरकार तो इस समझौते का पाठ तक उजागर करने के लिए तैयार नहीं है।
कुल मिलाकर, भारत के मत्थे बहुत ही मंहगे लाइट वाटर रिएक्टरों का आयात करने की संभावनाएं मढ़ दी गई हैं, जिनसे इतनी महंगी बिजली पैदा होगी कि आम जनता तो उसे खरीद ही नहीं पाएगी। इसके साथ ही देश पर अप्रत्याशित पर्यावरण जोखिम थोपे जा रहे होंगे और जनता की सुरक्षा तथा कल्याण को खतरे में डाला जा रहा होगा। इसके बावजूद, इसी रास्ते पर चलते हुए मोदी सरकार बड़ी कसरत से ऐसी अमेरिकापरस्त विदेश नीति तथा रणनीतिक नजरिए पर चल रही है, जिनका ब्रिक्स के भारत के साझीदारों तक से मेल नहीं बैठता है। इस असमानतापूर्ण नाभिकीय सौदे की भारत को बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ी है।

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