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Monday, July 6, 2015

“सामाजिक न्याय” के अलमबरदारों का अवसरवादी गँठजोड़ फ़ासीवादी राजनीति का कोई विकल्प नहीं दे सकता असल लड़ाई क्रान्तिकारी विकल्प खड़ा करने की है, चाहे वह जितनी लम्बी और कठिन हो!

"सामाजिक न्याय" के अलमबरदारों का अवसरवादी गँठजोड़ फ़ासीवादी राजनीति का कोई विकल्प नहीं दे सकता
असल लड़ाई क्रान्तिकारी विकल्प खड़ा करने की है, चाहे वह जितनी लम्बी और कठिन हो!

अगले कुछ महीनों में बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले नीतीश कुमार की जनता दल (यू), लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल और मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी का गठबन्धन बनने से पहले ही बिखरते-बिखरते किसी तरह बच गया लेकिन तीनों पार्टियों के विलय और जनता परिवार के एक हो जाने की बातें हवा में ही रह गयीं। इनका गठबन्धन भी मजबूरी में बचा है क्योंकि नीतीश और लालू दोनों जानते हैं कि अकेले चुनाव लड़ने पर दोनों की हालत पतली रहेगी। मुलायम सिंह को दो साल बाद उत्तर प्रदेश में होने वाले चुनाव की चिन्ता सता रही है।

पिछले साल जब जनता पार्टी से छिटके कई दलों के नेता भाजपा के विरुद्ध गठबन्धन बनाने के मकसद से दिल्ली में जुटे थे तभी से इतना तो तय था कि बुनियादी तौर पर एक ही नस्ल का होने के बावजूद अलग-अलग रंगों वाले ये परिन्दे बहुत लम्बे समय तक साथ-साथ नहीं उड़ सकते। फिलहाल अस्तित्व का संकट उन्हें एक साथ आने के लिए भले ही प्रेरित कर रहा हो, लेकिन इनकी एकता बन पाना मुश्किल है। इन छोटे बुर्जुआ दलों की नियति है कि ये केन्द्र में कांग्रेसनीत या भाजपानीत गठबन्धनों के पुछल्ले बनकर सत्ता-सुख में थोड़ा हिस्सा पाते रहें और कुछ अलग-अलग राज्यों में जोड़-तोड़ कर सरकारें चलाते रहें। पुरानी जनता पार्टी फिर से बन नहीं सकती और बन भी जाये तो बहुत दिनों तक बनी नहीं रह सकती। काठ की हाँड़ी सिर्फ़ एक ही बार चढ़ सकती है। सबसे बड़ी बात यह कि नवउदारवादी नीतियों पर आम सहमति के साझीदार ये सभी दल भी हैं और इनका साम्प्रदायिकता-विरोध चुनावी शतरंज की बिसात पर चली गयी महज़ एक चाल से अधिक कुछ भी नहीं है।

lalu-mulayam-nitish__313058906अलग-अलग राज्यों में अपने क्षेत्रीय (और जातिगत) जनाधार वाली ये पार्टियाँ उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों तथा साम्प्रदायिकता की राजनीति के विरोध के दावे चाहे जितनी ऊँची आवाज़ में करें, सच्चाई यह है कि तमाम छुटभय्ये राजनीतिक दलों की तरह इन घोर अवसरवादी दलों के सामने हिन्दुत्ववादी फासीवादी मोदी लहर के समक्ष टिकने और अपना अस्तित्व बचाने का संकट है। सत्तासीन रहते हुए लालू यादव, नीतीश कुमार, चौटाला, मुलायम सिंह और देवगौड़ा को उदारीकरण- निजीकरण की नीतियों से रंचमात्र परहेज नहीं रहा है। नीतीश कुमार और चौटाला आज जिस भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीति का विरोध कर रहे हैं, उसी के साथ गठबन्धन करके लम्बे समय तक सरकार चला चुके हैं। पिछड़ों की राजनीति इनमें से अधिकांश पार्टियों की क्षेत्रीय राजनीति का आधार रहा है। मुख्यतः इनका सामाजिक आधार धनी और मध्यम मालिक किसानों में रहा है और बुर्जुआ संसदीय राजनीति में बड़े पूँजीपति वर्ग और उसकी नीतियों के प्रति वफ़ादारी निभाते हुए भी ये दल कुलकों के हितों को लेकर मोलतोल करने वाली दबाव-लॉबियों की भूमिका निभाते रहे हैं। लेकिन नवउदारवादी दौर में कुलक वर्ग औद्योगिक-वित्तीय पूँजीपति वर्ग के छोटे पार्टनर के रूप में काफ़ी हद तक व्यवस्थित हो चुका है। उसकी दबाव की राजनीति कमजोर हो चुकी है और अतिसीमित मोलतोल से अधिक उसकी क्षमता रह ही नहीं गयी है। बड़े और ख़ुशहाल मध्यम मालिक किसानों का बड़ा हिस्सा आज भाजपा की फासीवादी राजनीति को अंगीकार कर चुका है और गाँवों में पिछड़ी जातियों के मालिक किसानों में उसका नया सामाजिक आधार तैयार हुआ है। यही कारण है कि बुर्जुआ राजनीति की चुनावी बिसात पर अब कमण्डल के बरक्स मण्डल के दाँव के प्रभावी हो पाने की सम्भावना बहुत कम रह गयी है।

1977 में जयप्रकाश नारायण की विशेष पहल और प्रयासों से इन्दिरा-विरोधी सतरंगे बुर्जुआ संसदीय विपक्ष का एकीकरण जनता पार्टी के रूप में सामने आया था। इसमें संघ परिवार से जुड़ा धुर दक्षिणपन्थी भारतीय जनसंघ, कांग्रेस (ओ.) (जिसे सिण्डीकेट कांग्रेस भी कहा जाता था), चरण सिंह का भारतीय लोकदल, पुरानी प्रसोपा और संसोपा से जुड़े नरेन्द्र देव और लोहिया की धाराओं के रंग-बिरंगे समाजवादी, इन्दिरा कांग्रेस से निष्कासित चन्द्रशेखर के नेतृत्व वाले 'युवा तुर्क', बिखर चुकी दक्षिणपन्थी स्वतन्त्र पार्टी के कुछ बचे हुए नेता और 1977 के संसदीय चुनावों से ठीक पहले कांग्रेस से अलग हुई जगजीवन राम-बहुगुणा के नेतृत्व वाली 'कांग्रेस फ़ॉर डेमोक्रेसी' शामिल थीं। यह धुर दक्षिणपन्थी संघियों, कांग्रेस के पुराने दक्षिणपन्थियों, किसान राजनीति के मसीहाओं, नेहरूवादी "समाजवादी" परम्परा से जुड़ाव रखने वाले कुछ कांग्रेसियों और भाँति-भाँति के समाजवादियों (जो निम्न बुर्जुआ वर्ग और 'लेबर अरिस्टोक्रेसी' के नुमाइन्दे दक्षिणपन्थी सामाजिक जनवादी थे) की सतमेल खिचड़ी थी। जो नेता 1974 के छात्र आन्दोलन से उभरे थे, उनमें से अधिकांश अपने को किसी न किसी समाजवादी धारा से ही जोड़कर देखते थे। इनमें से कुछ उसी समय पश्चिमी साम्राज्यवाद के सहयोग से निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों को लागू करने के प्रबल पक्षधर थे, कुछ अलग-अलग रूपों में बुर्जुआ "कल्याणकारी राज्य" के कीन्सियाई नुस्खों और मिश्रित अर्थव्यवस्था को जारी रखने के पक्षधर थे और कुछ नरोदवाद के विकृत भारतीय संस्करण के नुमाइन्दे थे। इनके साथ आने का सिर्फ़ एक साझा मुद्दा था और वह था इन्दिरा निरंकुशशाही का विरोध करके भारतीय बुर्जुआ जनवाद की बहाली और संसदीय राजनीति की गाड़ी को पटरी पर लाना। आपातकाल के अनुभवों का समाहार करते हुए तथा उसके दूरगामी नतीजों को भाँपते हुए बुर्जुआ वर्ग भी अपने अग्रणी थिंक टैंकों के मशविरे के आधार पर यही चाहता था और आपातकाल से त्रस्त और आक्रोशित जनता भी, किसी क्रान्तिकारी विकल्प के अभाव में, इन्दिरा गाँधी के विरुद्ध किसी भी संगठित बुर्जुआ विपक्ष को वोट डालने के लिए तैयार थी। बुर्जुआ संसदीय जनवाद की बहाली के तात्कालिक उद्देश्य के पूरा होने के साथ ही जनता पार्टी ताश के पत्तों के महल की तरह बिखर गयी।

इसके बाद 1989 में राजीव गाँधी सरकार के शासनकाल में कांग्रेस से निकलकर विश्वनाथ प्रताप सिंह ने 'जनमोर्चा' बनाया, फिर पुरानी जनता पार्टी से छिटके दलों और कांग्रेस (एस.) को साथ लेकर जनता दल बनाया और उसके बाद द्रमुक, तेलुगू देशम, असम गण परिषद आदि क्षेत्रीय दलों को साथ लेकर 'नेशनल फ़्रण्ट' बनाया। यह वह समय था, जब एक ओर राजीव सरकार नवउदारवाद के दौर में संक्रमण की पूर्वपीठिका तैयार कर चुकी थी, दूसरी ओर चार दशक तक चली मिश्रित अर्थव्यवस्था बुर्जुआ वर्ग के लिए अपनी उपयोगिता खोकर व्यवस्था के गम्भीर संकट को जन्म दे चुकी थी। भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी और महँगाई से जनता त्रस्त थी। इसी समय कांग्रेस से निकले हुए वी.पी. सिंह श्रीमान "सुथराजी" का चोला पहनकर सामने आये और उनकी पहल पर पुरानी जनता पार्टी के घटक एकबार फिर जनता दल के रूप में एकजुट हुए। वाम दलों और भाजपा – दोनों के ही सहयोग से वी.पी. सिंह के नेतृत्व में 'नेशनल फ़्रण्ट' ने दिसम्बर 1989 से नवम्बर 1990 तक सरकार चलायी और फिर अन्तर्कलह का शिकार होकर जनता दल भी बिखर गया। फिर कुछ महीनों तक कांग्रेस के समर्थन से चन्द्रशेखर ने सरकार चलायी। 1991 में चुनाव जीतकर नरसिंह राव की कांग्रेसी सरकार फिर सत्तासीन हो गयी, जिसने फ़ैसलाकुन ढंग से देश की अर्थव्यवस्था को नवउदारवाद की पटरी पर दौड़ा दिया।

1996-98 के दौरान जब देवगौड़ा और इन्द्रकुमार गुजराल के नेतृत्व में कांग्रेस के समर्थन से दो संयुक्त मोर्चा सरकारें सत्ता में रहीं, उस समय भी जनता पार्टी के घटक दल आपसी रार और खींचतान के बावजूद मात्र सत्तालोभ में कुछ दिनों के लिए मोर्चा बनाकर साथ आ गये थे। इन संयुक्त मोर्चा सरकारों ने नवउदारवादी नीतियों को ही निष्ठापूर्वक लागू करने का काम किया था।

इसके बाद केन्द्र की राजनीति में तो तथाकथित तीसरा मोर्चा एक प्रहसन बनकर रह गया, लेकिन राज्यों में लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार, देवगौड़ा, ओम प्रकाश चौटाला, नवीन पटनायक जैसे क्षत्रप मुख्यतः कुलकों और छोटे पूँजीपतियों की नुमाइन्दगी करते हुए जातिगत समीकरणों के आधार पर, ख़ासकर मालिक किसान आबादी में, अपना सामाजिक आधार बनाये रहे। इनमें से नीतीश कुमार, शरद यादव, जॉर्ज फ़र्नाण्डीज़, रामविलास पासवान, नवीन पटनायक, चौटाला जैसे नेता भाजपा नीत एन.डी.ए. गठबन्धन के साथ हो लिये, जबकि लालू यादव और अजीत सिंह ने कांग्रेस नीत यूपीए गठबन्धन का दामन थाम ही लिया था। मुलायम सिंह और देवगौड़ा धर्मनिरपेक्षता की पिपिहरी बजाते हुए मरणासन्न कथित तीसरे मोर्चा की धुकधुकी चलाते रहने की कोशिश करते रहे। 'यूपीए-एक' शासन काल के दौरान संसदीय वाम दलों के साथ मिलकर इन दलों ने मनमोहन सरकार का भीतर या बाहर से साथ दिया। 'यूपीए-दो' के शासनकाल के दौरान भी कमोबेश यही स्थिति बनी रही। दरअसल चरण सिंह के दौर तक की बुर्जुआ किसान राजनीति के पतन विघटन के बाद मुलायम सिंह, चौटाला आदि क्षत्रपों की राजनीति ने मुख्यतः कुलकों और क्षेत्रीय पूँजीपतियों की नुमाइन्दगी करते हुए भी बड़े पूँजीपतियों के साथ घृणित अवसरवादी एडजस्टमेंट की राजनीति में महारत हासिल कर ली थी। जो रंग-बिरंगे समाजवादी निम्न बुर्जुआ वर्गों, छोटे पूँजीपतियों और 'लेबर एरिस्टोक्रेसी' के प्रतिनिधि थे, उनकी स्वतन्त्र राजनीति का रहा-सहा स्कोप भी नवउदारवादी दौर में समाप्त हो गया था और वे बड़े बुर्जुआ दलों और क्षेत्रीय बुर्जुआ दलों में व्यवस्थित हो चुके थे।

विगत लोकसभा चुनावों में भारी बहुमत से मोदी का सत्ता में आना बुनियादी तौर पर न तो मोदी के कल्ट का नतीजा है, न ही कांग्रेस-विरोधी लहर का, न ही साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का। असल बात यह है कि भारतीय व्यवस्था का वर्तमान संकट बुर्जुआ दायरे के भीतर, बुर्जुआ जनवाद के राजनीतिक ढाँचे को बरकरार रखते हुए, फासीवादी तौर-तरीक़ों से ही हल किया जा सकता था। कीन्सियाई नुस्खों की ओर वापसी की गुंजाइशें मुख्यतः समाप्त हो चुकी हैं और नवउदारवादी नीतियों को झटके से गति देकर आगे बढ़ाने के लिए और निर्बाध रूप से चलाने के लिए अभी एक निरंकुश हुकूमत बुर्जुआ वर्ग की ज़रूरत है। इसीलिए भारतीय पूँजीपति वर्ग ने अपना पूरा समर्थन इस बार मोदी को दिया और सबसे पुरानी बुर्जुआ पार्टी कांग्रेस को 2014 के संसदीय चुनावों में अब तक की सबसे बड़ी हार का सामना करना पड़ा। इसके बावजूद कांग्रेस संसदीय राजनीति के हाशिये पर पूरी तरह नहीं जा सकती। भारतीय पूँजीपति वर्ग के समक्ष आवश्यकतानुसार इस्तेमाल के लिए दूसरे विकल्प के रूप में उसकी मौजूदगी बनी रहेगी। नवउदारवादी नीतियों पर अन्धाधुन्ध अमल जब मोदी सरकार के विरुद्ध व्यापक जनअसन्तोष को जन्म देगा तो दूसरे विकल्प के रूप में बुर्जुआ वर्ग अपनी पुरानी भरोसेमन्द पार्टी कांग्रेस को ही आज़मायेगा जो इन्हीं नीतियों के प्रति प्रतिबद्ध है और जनान्दोलनों का दमन करना तथा निरंकुश ढंग से सत्ता चलाना भी बख़ूबी जानती है। व्यवस्था की दूसरी सुरक्षापंक्ति के रूप में संसदीय वाम दलों की भूमिका भी आज काफ़ी सिकुड़ गयी है, लेकिन मज़दूर वर्ग को अर्थवाद और संसदीय व्यामोह में फँसाये रखने के लिए उनकी भूमिका आगे भी बनी रहेगी तथा यूपीए जैसे गठबन्धन को धर्मनिरपेक्षता के नाम पर बाहर से समर्थन देने के लिए भी समय-समय पर उनकी ज़रूरत पड़ सकती है।

तथाकथित तीसरे मोर्चे की श्रेणी में आनेवाले छोटे बुर्जुआ दलों (जिनमें जनता पार्टी के सभी घटक दल शामिल हैं) की समस्या यह है कि नवउदारवादी नीतियों के प्रति प्रतिबद्ध होते हुए भी वे कभी भारत के बड़े बुर्जुआ वर्ग के लिए केन्द्र की सरकार चलाने के मामले में भरोसेमन्द विकल्प नहीं हो सकते हैं। बड़े बुर्जुआ वर्ग की नीतियों के पाबन्द होने के बावजूद इन दलों में क्षेत्रीय पूँजीपतियों और कुलकों के प्रतिनिधियों की प्रभावी मौजूदगी है, इसलिए इन दलों का सहायक के रूप में, या इनके गठबन्धन का 'स्टॉप गैप अरेंजमेण्ट' के रूप में इस्तेमाल ही बड़े बुर्जुआ वर्ग के लिए ज़्यादा सुविधाजनक हो सकता है। इसके अलावा, इन दलों के नेताओं का आपसी टकराव भी एक स्थिरतापूर्ण सरकार के लिए बाधक सिद्ध होता है।

फ़िलहाल, अगले तीन-चार वर्षों के दौरान आने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र, नीतीश कुमार, लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, देवगौड़ा आदि के समक्ष मोदी लहर को देखते हुए अस्तित्व का संकट आ खड़ा हुआ है। आगामी संसदीय चुनावों में भाजपा सरकार की सम्भावित अलोकप्रियता का अनुमान लगाते हुए केन्द्र में सत्तासीन होने का लालच भी ज़ोर मार रहा है। मुलायम सिंह प्रधानमन्त्री बनने के सपने के लिए पूरा ज़ोर लगाना ही चाहेंगे, लेकिन तथाकथित जनता परिवार के भीतर से ही उनके प्रतिस्पर्धी उनके अरमानों में पलीता लगाने के लिए तैयार बैठे रहेंगे।

मज़दूर बिगुलजून 2015


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