आखिर इस प्रशस्ति की वजह क्या है...
21, JUL, 2015, TUESDAY 10:28:28 PM
योगेश मिश्र
एक ऐसे समय जब पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भारतीय इतिहासकारों से अपने हितपोषी मूल्यांकन की जरूरत थी, तब विश्वबैंक ने उनके कार्यकाल की तारीफ करते हुए उन्हें भारतीय इतिहासकारों के व्यामोह से मुक्त कर दिया। विश्वबैंक ने अपनी हालिया टिप्पणी में यह कहा है कि मनमोहन सिंह के कार्यकाल में चलाई गयी कल्याणकारी योजनाएं बेमिसाल थीं। उससे जनता का बहुत फायदा हुआ। अकेले महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) को लेकर विश्व बैंक द्वारा जारी रिपोर्ट में कहा गया कि इससे भारत में तकरीबन 15 फीसदी लोगों को रोजगार मिला। यह सच है कि मनरेगा ने गांव में लोगों की क्रयशक्ति बढ़ाई। लोगों को उनकी मजदूरी का वाजिब दाम दिलाया। लेकिन यह किए जाने से मनमोहन सिंह के कार्यकाल में किये गये पाप कम कैसे होते हैं। यूपीए-1 के कार्यकाल में अगर उन्होंने इस तरह की कल्याणकारी योजना शुरु की थी, तो भारत की जनता ने भी उन जैसे गैर-राजनैतिक व्यक्ति को दूसरा कार्यकाल देकर उससे बड़ा रिटर्न गिफ्ट दिया था। लेकिन आज जब उनकी सरकार को नरेंद्र मोदी भ्रष्टाचार के आरोप के तीरों से बींधकर अपदस्थ कर चुके हैं, तब विश्व बैंक द्वारा उनकी पीठ का थपथपाया जाना कई सवाल खड़े करता है।
विश्व बैंक ने अपनी रिपोर्ट 'द स्टेट ऑफ सोशल सेफ्टी नेट्स 2015Ó में यह निष्कर्ष निकाला है कि भारत का मनरेगा दुनिया का सबसे बड़ा लोक निर्माण कार्यक्रम है। यह कार्यक्रम देश की लगभग 15 प्रतिशत जनसंख्या को सामाजिक सुरक्षा दायरा उपलब्ध कराता है। रिपोर्ट के मुताबिक, 'दुनिया के सभी पांच सबसे बड़े सामाजिक सुरक्षा दायरा कार्यक्रम मध्य आय वर्ग वाले देशों चीन, भारत, दक्षिण अफ्रीका व इथोपिया में चल रहे हैं, जो कि 52.6 करोड़ लोगों तक पहुंचते हैं।Ó गौरतलब है कि मनरेगा योजना की शुरुआत 2006 में हुई थी। तब से लेकर आज तक 2 लाख 86 हजार 214 करोड़ से ज्यादा रुपये खर्च कर अब तक पिछले करीब एक दशक में साल दर साल कुल 39.18 करोड़ रोजगार उत्पन्न किए गये हैं। यह बात और है कि इन रोजगारों में पिछले साल के रोजगार पाने वालों की संख्या जुड़ी हुई है, फिर भी विश्वबैंक के मुताबिक कुल 18.2 करोड़ रोजगार के अवसर तो उत्पन्न हो ही गये हैं।
विश्व बैंक की तारीफ से उठे सवालों में पहला सवाल यह है कि आखिर यूपीए-1 के कार्यकाल की तारीफ यह अंतरराष्ट्रीय संस्था इसे अमलीजामा पहनाने वाले नेता के पराभव के बाद क्यों कर रही है। दूसरा सवाल यह है कि दुनियाभर में स्वास्थ्य, पर्यावरण, शिक्षा सरीखे अहम् मसलों पर चौधराहट करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के काम करने की गति क्या इतनी धीमी है। तीसरा सवाल यह खड़ा होता है कि जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी धाक जमाने की दिशा में अतुलनीय गति से आगे बढ़ रहे हैं, तब विश्वबैंक किन वजहों से भूले-बिसरे गीत गा रहा है।
विश्व बैंक की बेमौसम शहनाई का सबब उसकी खुद की भूमिका पर भी सवाल उठाता है। मनमोहन सिंह की असमय तारीफ के मद्देनजर अगर विश्वबैंक की भूमिका की पड़ताल की जाय तो कई चौंकाने वाले तथ्य हाथ लगते हैं। विलियम एच मैकल्लेहानी की किताब 'द प्रिजनÓ इसके तमाम रहस्य खोलती है। दरअसल, दुनिया भर में शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण की देखभाल और आधारभूत ढांचे के विकास का जिम्मा लेने वाली ये अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं बड़ा अजीबोगरीब खेल खेल रही हैं। इन कामों के लिए बने ये संगठन विश्वबैंक, संयुक्त राष्ट्र संघ, एमनेस्टी इंटरनेशनल, मानवाधिकार आयोग आदि अरबों डालर खर्चकर मानव समाज में पाये जाने वाले विरोधाभासों को बढ़ाने तथा सरकार-परस्ती बढ़ाकर आम आदमी के कर्तव्य आधारित अभिक्रम को अर्थ, शिक्षा, संस्कृति, धर्म, आध्यात्म, राजनीति आदि क्षेत्र में नष्ट करने का काम कर रहे हैं। विश्वबैंक का उद्देश्य यह है कि विकासशील देशों की जनता पराश्रित बनाकर स्थायी रूप से गरीबी की खाई में ढकेल दी जाय।
अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं किसी भी देश में बड़ी-बड़ी विकास योजनाओं को कर्ज देती हैं, जो आम आदमी की जमीन छीनती हैं। उसके स्वावलंबी होने के जीवन दर्शन को नष्ट करती हैं। इनका काम बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए भूमिका तैयार करने की भी है। ये संस्थाएं जिन योजनाओं के लिए कर्ज देती हंै, उनसे उस देश की जनता का हित नहीं सधता। साथ ही जिन देशों का कर्ज या सहायता मिलती वहां राजनेता भ्रष्ट होते हैं। किए जाते हैं। बड़े बांध, विदेशी शीतलपेय, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पाद को बाजार दिलाने में मदद की जाती है। मुक्त व्यापार का ताना- बाना बुना जाता है। जो कमजोर राष्ट्र के लिए हमेशा खतरे की घंटी होता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू टी ओ) जनरल एग्रीमेंट आन ट्रेड एंड ट्राफिक (गैट) के जरिए शक्तिशाली देशों को कमजोर देशों का शोषण करने की छूट देते हैं।
सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि इन संगठनों को दुनिया के महज 18-20 धनी लोग फंड मुहैया कराते हैं। ये लोग अमेरिका, यूरोप और एशिया प्रशांत देशों के हैं। रौथचाइल्ड कारपोरेशन, फोर्ड फाउंडेशन, कारनेगी फाउंडेशन, राकफेलर फाउंडेशन तथा बिल्डर वर्गर समुदाय इसमें प्रमुख हैं। इन अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में चुने हुए लोगों की शक्ति कई बार अमेरिकी राष्ट्रपति की शक्ति से भी ज्यादा होती है। ये बात और है कि इसके केंद्रीय नियंत्रण की मुख्य संचालन शक्ति अमेरिका में ही होती है। वैसे भी संयुक्त राष्ट्र की संस्था वल्र्ड इंस्टीट्यूट फार डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स के ताजे आंकड़े चुगली करते हैं कि दुनिया के सबसे अमीर 1 फीसदी लोगों के पास दुनिया की कुल 40 फीसदी संपत्ति है। सबसे अमीर 10 फीसदी लोगों के पास दुनिया की संपत्ति-संसाधनों का 85 फीसदी है, जबकि दुनिया की आधी वयस्क आबादी के हिस्से केवल एक फीसदी दुनिया की दौलत है। कर्ज और व्यापार के हथियार का इस्तेमाल करके इन्होंने तीसरी दुनिया के बाजार और अर्थव्यवस्थाएं अपने लिए खुलवा ली हैं। हालांकि इन्होंने इसे इस जीवन दर्शन से बांधा है कि यह प्रक्रिया मुनाफे और उपभोग की नीति के तहत सभी आबादियों, संस्कृतियों और समाजों को जोड़कर एकीकृत दुनिया बनाती है। लेकिन हकीकत यह है कि इनकी कोशिश कर्ज और व्यापार का दबाव बनाकर तीसरी दुनिया के देशों के घरेलू नियम, कानून, नीतियां बदलवाकर उनके बाजार अपने बहुराष्ट्रीय कंपनियों, बैंकों और फर्मों के लिए खुलवाने की होती है। भूमंडलीकरण के नाम पर उपभोक्तावाद फैलाया जा रहा है। जबकि संयुक्त राष्ट्र के वरिष्ठ अर्थशास्त्री जोमो क्वामे सुन्दरम् ने अपने एक अध्ययन में इस चौंकाने वाले तथ्य का खुलासा किया है कि भूमंडलीकरण से अधिक गैरबराबरी के अवसर पैदा हुए हैं। भूमंडलीकरण के बाद गैरबराबरी में महत्वपूर्ण और चिंताजनक इजाफा हुआ है। जिस विश्वबैंक ने मनमोहन सिंह की तारीफ की है, उसका गठन भले ही दूसरे महायुद्ध के बाद युद्धोपरांत शांति स्थापना के लिए, महायुद्ध के बाद के विनाश का फिर से विनिर्माण करने के वास्ते 1944 में हुआ हो पर यह देखना जरूरी हो जाता है कि इसके पीछे लोग कौन हैं। परंपरा के तौर पर विश्वबैंक का अध्यक्ष अमेरिकी नागरिक ही बनता है। इसकी स्थापना मुद्राकोष के साथ ही अमेरिका के ब्रेटनवुड्स में हुई थी। इसीलिए इन्हें ब्रेटनवुड्स संस्थाएं भी कहते हैं। इसमें जिस देश का जितना ज्यादा धन लगा होता है उसे वोट का उतना ज्यादा अधिकार होता है। विश्व बैंक और मुद्राकोष दोनों एक-दूसरे के पर्याय हैं। मुद्राकोष की नीतियों पर चलने के नाते अर्जेन्टीना को दीवालिया होना पड़ा था। वेनेजुएला, बोलीविया, इक्वाडोर, ब्राजील, चिली, उरुग्वे आदि देशों को भी इनका खामियाजा भुगतना पड़ा। ग्रीस, स्पेन, पुर्तगाल, आयरलैंड और इटली कर्ज में डूबे हैं।
मनमोहन सिंह ने इन बड़ी संस्थाओं के लिए भारत में वैश्वीकरण का द्वार खोला। उन्होंने मुक्त अर्थव्यवस्था के लिए वित्तमंत्रालय में अधिकारी रहते हुए ही काम करना शुरु कर दिया था। वह तीन साल संयुक्त राष्ट्र संघ में रहे। इसी की संस्था यूएनडीपी के हालिया आंकड़े बताते हैं कि भारत में 35.9 फीसदी आबादी गरीबी में जीती है। देश के पहले शहरी सामाजिक-आर्थिक और जातीय जनगणना के लीक हुए डाटा के मुताबिक 35 फीसदी शहरी घर गरीबी रेखा से नीचे है। इनमें सबसे ज्यादा मणिपुर में है जहां पर 54.95 फीसदी लोग इस गरीबी रेखा के नीचे इसके बाद मिजोरम और बिहार हैं जहां पर क्रमश: ये आंकड़ा 52.35 फीसदी और 49.82 फीसदी है। जबकि सबसे कम गोवा में सबसे कम 16 फीसदी और 18 फीसदी दादरा नागर हवेली में गरीबी रेखा के लोग हैं। ये सारे आंकड़े घरों के हैं यानि एक परिवार में पांच लोग रहते हैं। ऐसे में इन आंकड़ों पर भरोसा करें तो 10 करोड़ से ज्यादा की शहरी आबादी गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करती है। वहीं अगर गांव की बात करें तो भारत में 49 फीसदी ग्रामीण आबादी गरीबी रेखा से नीचे है। कुल 17.91 करोड़ ग्रामीण परिवारों में में से 5.37 करोड़ परिवारों के पास कोई अपनी जमीन नहीं हैं और मजदूरी से उनका काम चलता है। करीब 4.21 करोड़ परिवारों में कोई भी 25 फीसदी से ज्यादा साक्षर हों, वहीं कच्चे घरों में रहने वाले परिवारों की संख्या 2.37 करोड़ है। अगर कमाई की बात करें तो 10 हजार प्रति माह या उससे अधिक कमाने वाले ग्रामीण परिवार की तादाद महज 8.3 फीसदी है। 5 से 10 हजार रुपये कमाने वाले परिवार 17.2 फीसदी हैं और 5000 महीना पाने वाले परिवारों की संख्या 74.5 फीसदी है।
देश की आ•ाादी के 68 साल में एक दशक तक खुद मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री रहे हैं। ऐसे में क्या इस गरीबी के लिए उन्हें जिम्मेदार नहीं ठहराया जाना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के आंकड़े भारत की प्रगति का जो पैमाना पेश करते हैं, वह बेहद निराशाजनक है। अंतरराष्ट्रीय अर्थशास्त्री और समाजशास्त्री भूमंडलीकरण और उदारीकरण की जो तस्वीर दिखाते हैं, उसमें असुरक्षा, भय और आर्थिक गुलामी छिपी हुई है। ऐसे में इस सवाल का उत्तर तलाशना मौजूं और लाजमी हो जाता है कि आखिर विश्व बैंक असमय मनमोहन सिंह की पीठ क्यों थपथपा रहा है। वैश्वीकरण के लिए भारत के दरवाजे खोलने के लिए। मुक्त व्यापार का मौका मुहैया कराने के लिए। लेकिन अगर इसका उत्तर किसी को न में मिलता हो तो उसके लिए इस सवाल का जवाब देना अनिवार्य हो जायेगा कि आखिर अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं भारत की प्रगति का जो धूमिल चित्र पेश कर रही हैं उसकी हकीकत क्या है।
(लेखक न्यूज एक्सप्रेस न्यूज चैनल के उत्तर प्रदेश उत्तराखंड के स्टेट हेड हैं)
एक ऐसे समय जब पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भारतीय इतिहासकारों से अपने हितपोषी मूल्यांकन की जरूरत थी, तब विश्वबैंक ने उनके कार्यकाल की तारीफ करते हुए उन्हें भारतीय इतिहासकारों के व्यामोह से मुक्त कर दिया। विश्वबैंक ने अपनी हालिया टिप्पणी में यह कहा है कि मनमोहन सिंह के कार्यकाल में चलाई गयी कल्याणकारी योजनाएं बेमिसाल थीं। उससे जनता का बहुत फायदा हुआ। अकेले महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) को लेकर विश्व बैंक द्वारा जारी रिपोर्ट में कहा गया कि इससे भारत में तकरीबन 15 फीसदी लोगों को रोजगार मिला। यह सच है कि मनरेगा ने गांव में लोगों की क्रयशक्ति बढ़ाई। लोगों को उनकी मजदूरी का वाजिब दाम दिलाया। लेकिन यह किए जाने से मनमोहन सिंह के कार्यकाल में किये गये पाप कम कैसे होते हैं। यूपीए-1 के कार्यकाल में अगर उन्होंने इस तरह की कल्याणकारी योजना शुरु की थी, तो भारत की जनता ने भी उन जैसे गैर-राजनैतिक व्यक्ति को दूसरा कार्यकाल देकर उससे बड़ा रिटर्न गिफ्ट दिया था। लेकिन आज जब उनकी सरकार को नरेंद्र मोदी भ्रष्टाचार के आरोप के तीरों से बींधकर अपदस्थ कर चुके हैं, तब विश्व बैंक द्वारा उनकी पीठ का थपथपाया जाना कई सवाल खड़े करता है।
विश्व बैंक ने अपनी रिपोर्ट 'द स्टेट ऑफ सोशल सेफ्टी नेट्स 2015Ó में यह निष्कर्ष निकाला है कि भारत का मनरेगा दुनिया का सबसे बड़ा लोक निर्माण कार्यक्रम है। यह कार्यक्रम देश की लगभग 15 प्रतिशत जनसंख्या को सामाजिक सुरक्षा दायरा उपलब्ध कराता है। रिपोर्ट के मुताबिक, 'दुनिया के सभी पांच सबसे बड़े सामाजिक सुरक्षा दायरा कार्यक्रम मध्य आय वर्ग वाले देशों चीन, भारत, दक्षिण अफ्रीका व इथोपिया में चल रहे हैं, जो कि 52.6 करोड़ लोगों तक पहुंचते हैं।Ó गौरतलब है कि मनरेगा योजना की शुरुआत 2006 में हुई थी। तब से लेकर आज तक 2 लाख 86 हजार 214 करोड़ से ज्यादा रुपये खर्च कर अब तक पिछले करीब एक दशक में साल दर साल कुल 39.18 करोड़ रोजगार उत्पन्न किए गये हैं। यह बात और है कि इन रोजगारों में पिछले साल के रोजगार पाने वालों की संख्या जुड़ी हुई है, फिर भी विश्वबैंक के मुताबिक कुल 18.2 करोड़ रोजगार के अवसर तो उत्पन्न हो ही गये हैं।
विश्व बैंक की तारीफ से उठे सवालों में पहला सवाल यह है कि आखिर यूपीए-1 के कार्यकाल की तारीफ यह अंतरराष्ट्रीय संस्था इसे अमलीजामा पहनाने वाले नेता के पराभव के बाद क्यों कर रही है। दूसरा सवाल यह है कि दुनियाभर में स्वास्थ्य, पर्यावरण, शिक्षा सरीखे अहम् मसलों पर चौधराहट करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के काम करने की गति क्या इतनी धीमी है। तीसरा सवाल यह खड़ा होता है कि जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी धाक जमाने की दिशा में अतुलनीय गति से आगे बढ़ रहे हैं, तब विश्वबैंक किन वजहों से भूले-बिसरे गीत गा रहा है।
विश्व बैंक की बेमौसम शहनाई का सबब उसकी खुद की भूमिका पर भी सवाल उठाता है। मनमोहन सिंह की असमय तारीफ के मद्देनजर अगर विश्वबैंक की भूमिका की पड़ताल की जाय तो कई चौंकाने वाले तथ्य हाथ लगते हैं। विलियम एच मैकल्लेहानी की किताब 'द प्रिजनÓ इसके तमाम रहस्य खोलती है। दरअसल, दुनिया भर में शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण की देखभाल और आधारभूत ढांचे के विकास का जिम्मा लेने वाली ये अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं बड़ा अजीबोगरीब खेल खेल रही हैं। इन कामों के लिए बने ये संगठन विश्वबैंक, संयुक्त राष्ट्र संघ, एमनेस्टी इंटरनेशनल, मानवाधिकार आयोग आदि अरबों डालर खर्चकर मानव समाज में पाये जाने वाले विरोधाभासों को बढ़ाने तथा सरकार-परस्ती बढ़ाकर आम आदमी के कर्तव्य आधारित अभिक्रम को अर्थ, शिक्षा, संस्कृति, धर्म, आध्यात्म, राजनीति आदि क्षेत्र में नष्ट करने का काम कर रहे हैं। विश्वबैंक का उद्देश्य यह है कि विकासशील देशों की जनता पराश्रित बनाकर स्थायी रूप से गरीबी की खाई में ढकेल दी जाय।
अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं किसी भी देश में बड़ी-बड़ी विकास योजनाओं को कर्ज देती हैं, जो आम आदमी की जमीन छीनती हैं। उसके स्वावलंबी होने के जीवन दर्शन को नष्ट करती हैं। इनका काम बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए भूमिका तैयार करने की भी है। ये संस्थाएं जिन योजनाओं के लिए कर्ज देती हंै, उनसे उस देश की जनता का हित नहीं सधता। साथ ही जिन देशों का कर्ज या सहायता मिलती वहां राजनेता भ्रष्ट होते हैं। किए जाते हैं। बड़े बांध, विदेशी शीतलपेय, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पाद को बाजार दिलाने में मदद की जाती है। मुक्त व्यापार का ताना- बाना बुना जाता है। जो कमजोर राष्ट्र के लिए हमेशा खतरे की घंटी होता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू टी ओ) जनरल एग्रीमेंट आन ट्रेड एंड ट्राफिक (गैट) के जरिए शक्तिशाली देशों को कमजोर देशों का शोषण करने की छूट देते हैं।
सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि इन संगठनों को दुनिया के महज 18-20 धनी लोग फंड मुहैया कराते हैं। ये लोग अमेरिका, यूरोप और एशिया प्रशांत देशों के हैं। रौथचाइल्ड कारपोरेशन, फोर्ड फाउंडेशन, कारनेगी फाउंडेशन, राकफेलर फाउंडेशन तथा बिल्डर वर्गर समुदाय इसमें प्रमुख हैं। इन अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में चुने हुए लोगों की शक्ति कई बार अमेरिकी राष्ट्रपति की शक्ति से भी ज्यादा होती है। ये बात और है कि इसके केंद्रीय नियंत्रण की मुख्य संचालन शक्ति अमेरिका में ही होती है। वैसे भी संयुक्त राष्ट्र की संस्था वल्र्ड इंस्टीट्यूट फार डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स के ताजे आंकड़े चुगली करते हैं कि दुनिया के सबसे अमीर 1 फीसदी लोगों के पास दुनिया की कुल 40 फीसदी संपत्ति है। सबसे अमीर 10 फीसदी लोगों के पास दुनिया की संपत्ति-संसाधनों का 85 फीसदी है, जबकि दुनिया की आधी वयस्क आबादी के हिस्से केवल एक फीसदी दुनिया की दौलत है। कर्ज और व्यापार के हथियार का इस्तेमाल करके इन्होंने तीसरी दुनिया के बाजार और अर्थव्यवस्थाएं अपने लिए खुलवा ली हैं। हालांकि इन्होंने इसे इस जीवन दर्शन से बांधा है कि यह प्रक्रिया मुनाफे और उपभोग की नीति के तहत सभी आबादियों, संस्कृतियों और समाजों को जोड़कर एकीकृत दुनिया बनाती है। लेकिन हकीकत यह है कि इनकी कोशिश कर्ज और व्यापार का दबाव बनाकर तीसरी दुनिया के देशों के घरेलू नियम, कानून, नीतियां बदलवाकर उनके बाजार अपने बहुराष्ट्रीय कंपनियों, बैंकों और फर्मों के लिए खुलवाने की होती है। भूमंडलीकरण के नाम पर उपभोक्तावाद फैलाया जा रहा है। जबकि संयुक्त राष्ट्र के वरिष्ठ अर्थशास्त्री जोमो क्वामे सुन्दरम् ने अपने एक अध्ययन में इस चौंकाने वाले तथ्य का खुलासा किया है कि भूमंडलीकरण से अधिक गैरबराबरी के अवसर पैदा हुए हैं। भूमंडलीकरण के बाद गैरबराबरी में महत्वपूर्ण और चिंताजनक इजाफा हुआ है। जिस विश्वबैंक ने मनमोहन सिंह की तारीफ की है, उसका गठन भले ही दूसरे महायुद्ध के बाद युद्धोपरांत शांति स्थापना के लिए, महायुद्ध के बाद के विनाश का फिर से विनिर्माण करने के वास्ते 1944 में हुआ हो पर यह देखना जरूरी हो जाता है कि इसके पीछे लोग कौन हैं। परंपरा के तौर पर विश्वबैंक का अध्यक्ष अमेरिकी नागरिक ही बनता है। इसकी स्थापना मुद्राकोष के साथ ही अमेरिका के ब्रेटनवुड्स में हुई थी। इसीलिए इन्हें ब्रेटनवुड्स संस्थाएं भी कहते हैं। इसमें जिस देश का जितना ज्यादा धन लगा होता है उसे वोट का उतना ज्यादा अधिकार होता है। विश्व बैंक और मुद्राकोष दोनों एक-दूसरे के पर्याय हैं। मुद्राकोष की नीतियों पर चलने के नाते अर्जेन्टीना को दीवालिया होना पड़ा था। वेनेजुएला, बोलीविया, इक्वाडोर, ब्राजील, चिली, उरुग्वे आदि देशों को भी इनका खामियाजा भुगतना पड़ा। ग्रीस, स्पेन, पुर्तगाल, आयरलैंड और इटली कर्ज में डूबे हैं।
मनमोहन सिंह ने इन बड़ी संस्थाओं के लिए भारत में वैश्वीकरण का द्वार खोला। उन्होंने मुक्त अर्थव्यवस्था के लिए वित्तमंत्रालय में अधिकारी रहते हुए ही काम करना शुरु कर दिया था। वह तीन साल संयुक्त राष्ट्र संघ में रहे। इसी की संस्था यूएनडीपी के हालिया आंकड़े बताते हैं कि भारत में 35.9 फीसदी आबादी गरीबी में जीती है। देश के पहले शहरी सामाजिक-आर्थिक और जातीय जनगणना के लीक हुए डाटा के मुताबिक 35 फीसदी शहरी घर गरीबी रेखा से नीचे है। इनमें सबसे ज्यादा मणिपुर में है जहां पर 54.95 फीसदी लोग इस गरीबी रेखा के नीचे इसके बाद मिजोरम और बिहार हैं जहां पर क्रमश: ये आंकड़ा 52.35 फीसदी और 49.82 फीसदी है। जबकि सबसे कम गोवा में सबसे कम 16 फीसदी और 18 फीसदी दादरा नागर हवेली में गरीबी रेखा के लोग हैं। ये सारे आंकड़े घरों के हैं यानि एक परिवार में पांच लोग रहते हैं। ऐसे में इन आंकड़ों पर भरोसा करें तो 10 करोड़ से ज्यादा की शहरी आबादी गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करती है। वहीं अगर गांव की बात करें तो भारत में 49 फीसदी ग्रामीण आबादी गरीबी रेखा से नीचे है। कुल 17.91 करोड़ ग्रामीण परिवारों में में से 5.37 करोड़ परिवारों के पास कोई अपनी जमीन नहीं हैं और मजदूरी से उनका काम चलता है। करीब 4.21 करोड़ परिवारों में कोई भी 25 फीसदी से ज्यादा साक्षर हों, वहीं कच्चे घरों में रहने वाले परिवारों की संख्या 2.37 करोड़ है। अगर कमाई की बात करें तो 10 हजार प्रति माह या उससे अधिक कमाने वाले ग्रामीण परिवार की तादाद महज 8.3 फीसदी है। 5 से 10 हजार रुपये कमाने वाले परिवार 17.2 फीसदी हैं और 5000 महीना पाने वाले परिवारों की संख्या 74.5 फीसदी है।
देश की आ•ाादी के 68 साल में एक दशक तक खुद मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री रहे हैं। ऐसे में क्या इस गरीबी के लिए उन्हें जिम्मेदार नहीं ठहराया जाना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के आंकड़े भारत की प्रगति का जो पैमाना पेश करते हैं, वह बेहद निराशाजनक है। अंतरराष्ट्रीय अर्थशास्त्री और समाजशास्त्री भूमंडलीकरण और उदारीकरण की जो तस्वीर दिखाते हैं, उसमें असुरक्षा, भय और आर्थिक गुलामी छिपी हुई है। ऐसे में इस सवाल का उत्तर तलाशना मौजूं और लाजमी हो जाता है कि आखिर विश्व बैंक असमय मनमोहन सिंह की पीठ क्यों थपथपा रहा है। वैश्वीकरण के लिए भारत के दरवाजे खोलने के लिए। मुक्त व्यापार का मौका मुहैया कराने के लिए। लेकिन अगर इसका उत्तर किसी को न में मिलता हो तो उसके लिए इस सवाल का जवाब देना अनिवार्य हो जायेगा कि आखिर अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं भारत की प्रगति का जो धूमिल चित्र पेश कर रही हैं उसकी हकीकत क्या है।
(लेखक न्यूज एक्सप्रेस न्यूज चैनल के उत्तर प्रदेश उत्तराखंड के स्टेट हेड हैं)
http://www.deshbandhu.co.in/article/5326/10/330#.Va6jRKSqqkp
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