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Saturday, July 18, 2015

अतीत इतिहासकार की जिम्मेदारी नहीं है लेकिन भविष्य के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से वह मुक्त नहीं हो सकता

अतीत इतिहासकार की जिम्मेदारी नहीं है लेकिन भविष्य के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से वह मुक्त नहीं हो सकता

इतिहास मेरी नजर में

मानव इतिहास विश्व के सबसे कमजोर और प्राकृतिक रूप से सर्वाधिक साधनहीन प्राणी के सर्वाधिक शक्तिशाली हो कर उभरने की गाथा है. वह प्राणी जो किसी हिंसक जन्तु से अपनी रक्षा के लिए न तो तेज दौड़ सकता है न काया का रंग बदल सकता है, न तीव्र गंध छोड़ सकता है, शीत से बचाव के लिए न उसे कोई लबादा मिला है और न भूख से बचाव के लिए दीर्घकाल तक शीत निद्रा अंगीकार करने की सामर्थ्य. उसे मिले केवल खुले हाथ और मात्र पावों के सहारे दीर्घ काल गतिशील रहने की सामर्थ्य. हाथ खुले तो आत्मरक्षा के उपाय सोचते-सोचते मस्तिष्क भी विकसित होता गया. अपनी सोच को रूपायित करने का तरीका भी आ गया. प्राकृतिक घटनाओं का अनुप्रयोग करते करते उसने आग जलाना सीखा. पहिये का आविष्कार किया. बार-बार असफल होते हुए अपने प्रयासों को जारी रखते हुए कैसे उसने संस्कृति का विकास किया. यही उसका इतिहास है.

लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष भी है, वह पक्ष जिसमें वह अपनी सहज वृत्ति को भी भूल कर अधिक लोभी, अधिक हिंसक और स्वजाति नाशक भी होता गया है. संसार का कोई भी अन्य जीव शौक के लिए आखेट नहीं करता, उदरपूर्ति से अधिक प्रकृति से लेता भी नहीं है, उसे प्रदूषित भी नहीं करता. सभी शाकाहारी जीव एक साथ चर सकते हैं पर मानव जगत में यह सम्भव नहीं रहा. रंगभेद, वर्गभेद, जातिभेद, और भी नाना प्रकार के भेदों से उन्हें जीवन को जटिल बना दिया. यही नहीं हर जाति या समूह में एक उप समूह अधिक शक्तिशाली होता गया और न केवल उसने अपने समूह को अपने अधीन बना दिया अपितु अन्य समूहों पर भी वर्चस्व स्थापित करने के लिए खूनी संघर्ष आरम्भ कर दिये. इन खूनी संघर्षों को ही इतिहास का नाम देकर अगली पीढ़ियों के सम्मुख परोसा जाता रहा और सामान्य मानव का इस धरती को अधिक से अधिक जीने लायक बनाने, अपने अस्तित्व को सँवारने का सारा कृतित्व जो वास्तविक इतिहास था, वह गौण हो गया.

अतीत इतिहासकार की जिम्मेदारी नहीं है लेकिन भविष्य के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से वह मुक्त नहीं हो सकता

ताराचंद्र त्रिपाठी, लेखक उत्तराखंड के प्रख्यात अध्यापक हैं जो हिंदी पढ़ाते रहे औऐर शोध इतिहास का कराते रहे। वे सेवानिवृत्ति के बाद भी 40-45 साल पुराने छात्रों के कान अब भी उमेठते रहते हैं। वे देश बनाने के लिए शिक्षा का मिशन चलाते रहे हैं। राजकीय इंटर कॉलेज नैनीताल के शिक्षक बतौर उत्तराखंड के सभी क्षेत्रों में सक्रिय लोग उनके छात्र रहे हैं। अब वे हल्द्वानी में बस गए हैं और वहीं से अपने छात्रों को शिक्षित करते रहते हैं।

जीव जगत का सूक्ष्म विश्लेषण करने पर विदित होता है कि उनमें संघर्ष की मुख्य कारक मादा होती हैं इसमें मानव पशु भी पीछे नहीं रहा है. शायद यह चिरंतन त्रिकोण मानव जीवन पर अधिक हावी है. यही नहीं पशु में तो यह संघर्ष तात्कालिक ही होता है पर मानव समूहों में यह स्थायी शत्रुता का कारक बन जाता है. शाकाहारी पशुओं में कभी-कभी घातक हो उठने वाले संघर्ष का कोई और कारक नहीं होता. पर मांसाहारी जीवों में तो अपने आहार क्षेत्र के भौगोलिक सीमांकन की प्रवृत्ति भी दिखाई देती है उन में अपने आहार क्षेत्र की रक्षा करने और दूसरे के आहार क्षेत्र पर अधिकार करने की लड़ाई चलती रहती है. इस दृष्टि से मानव भी एक मांसाहारी पशु की प्रवृत्तियों से युक्त दिखाई देता है.

आदिम मानव कबीलों में इस संघर्ष का परिणाम विजित कबीले का संहार ही होता था. फिर विजित कबीले की स्त्रियों पर अधिकार आरंभ हुआ. फिर लगा कि हत्या करने की अपेक्षा उनसे काम क्यों न लिया जाय. इस प्रकार दास प्रथा आरंभ हुई. समाज में दो वर्ग हो गये. दास-स्वामी और दास. यह पशु से मनुष्य बनने की ओर मानव का दूसरा और दीर्घकालीन कदम था. दासों का जीवन पशुओं से भी दयनीय और अपने स्वामियों की इच्छा पर निर्भर था. और यह दासप्रथा कभी दैहिक रूप में और कभी मानसिक रूप में आज भी विद्यमान है.

धीरे-धीरे इन कबीलों का विस्तार हुआ और अनेक दास स्वामियों को पराजित और वशीभूत कर समूह का नायक महास्वामी या सामन्त कहलाने लगा. इन दासों ने अपने स्वामियों को प्रसन्न करने के लिए उनका महिमामंडन किया. उनके जीवन, उनकी वीरता अथवा काल्पनिक वीरता, ऐश्वर्य तथा उनके नाना संघर्षों पर बढ़-चढ़ कर गाथाएं लिखीं. दासत्व की यह प्रवृत्ति केवल गुलामों में ही नही उनके दरबारी चाटुकारों में भी कम नहीं थी. जनतंत्रीय युग के आरम्भ हो जाने पर भी यह प्रवृत्ति अनेक रूपों में परिलक्षित होती रहती है. चाटुकारों के इन वृत्तों को ही प्राय: इतिहास के रूप में परोसा जाता है. किसने कितनी लड़ाइयाँ लड़ी, कितने सन्निवेश उजाड़े, शान्ति से जीवन यापन कर रहे कितने समूहों का सुख-चैन लूटा और सामान्य जन के परिश्रम पर कितनी मौज की, सच कहें तो इस यथार्थ को वीरता और जय-पराजय जातीय गौरव या विभव के आवरण में लपेट कर जो इतिवृत्त हर नयी पीढ़ी को पढ़ाया जाता रहा है वही इतिहास कहा जाता है.

वस्तुत: राजभृत्यों, दरबारियों या सुविधाभोगी वर्गों द्वारा प्रस्तुत किया जाने वाला विवरण मिथ्या इतिहास है. वास्तविक इतिहास तो हमारे स्वच्छ्न्द लोक-गीतों और गाथाओं में मिलता है. उनमें सामन्तों के वैभव का वर्णन मिलता है तो उनके जन उत्पीड़क दुष्कर्मों का भी लेखा-जोखा मिल जाता है. हो सकता है यह लेखा जोखा आत्मरक्षा को ध्यान में रखते हुए लोक गायकों द्वारा ऐसे किसी राजवंश के अवसान के बाद जोड़ा गया हो. पर यह दरबारियों द्वारा रचित महिमामंडन से पूर्ण इतिहास से अधिक वस्तुनिष्ठ और यथार्थ और सार्वत्रिक होता है. यह केवल आतीत के इतिहास की समस्या नहीं सार्वकालिक और सार्वदेशिक समस्या है. सच तो यह है किसी तथाकथित नायक के युग के अवसान के बाद ही उसके युग का वस्तुनिष्ठ इतिहास लिखा जा सकता है.

जातीय और प्रजातीय श्रेष्ठता, रक्त शुद्धता की धारणा और तज्जन्य अहंकार केवल और केवल भ्रान्ति है. मनुष्य कहाँ पैदा हुआ, कैसे संक्रमित हुआ, कितने कबीलों का सम्पर्क हुआ, संक्रमण के दौरान परस्पर कितना गुण सूत्र और रक्त सम्मिश्रण हुआ होगा, यह स्वत: समझा जा सकता है. किसी क्षेत्र का मूल निवासी होने की धारणा भी केवल भ्रान्ति है. आर्य यदि केवल किसी समूह को दिया गया एक नाम या पहचान संकेत है तो मान्य है. पर उसके साथ किसी अन्य बोध को जोड़ना सर्वथा भ्रान्त है.

इतिहास बताता है कि जब भी किसी एक कबीले ने दूसरे कबीले पर आक्रमण किया तो उसे नष्ट करने या दास बनाने का प्रयास किया. भारत में यह केवल यवनों, शकों हूणों ने ही नहीं किया, आर्यॊ ने भी कम विनाशलीला नहीं मचाई. आर्येतर जातियों के पुरों या नगरों को ध्वस्त करने के लिए उन्होंने अपने नायक इन्द्र की भूरि-भूरि प्रशंसा की. विजित जातियों की जी भर कर निन्दा की. बाद के आक्रान्ताओं और विजेताओं ने भी यही किया. जीतने वाले की जय-जयकार और पराजित को धिक्कार. यह पुराणों ने ही नहीं किया, आज के इतिहासकार भी इसमें पीछे नहीं हैं. और इस विजय दुंदुभी के शोर में, उत्पाटित और उन्मूलित होने वाले निरीह मानव समूहों की आवाज दबती रही है.

जातीय और साम्प्रदायिक ग्रन्थियों वाले इतिहासकारों से अतीत के सही रूपांकन की अपेक्षा तो की ही नहीं जा सकती, पर सब प्रकार के पूर्वग्रहों से मुक्त इतिहासकार भी उतना वस्तुनिष्ठ नहीं हो पाता जितना एक प्रकृति विज्ञानी होता है. अपनी सामाजिक पृष्ठभूमि से स्वाभाविक जुड़ाव उसे पूरी तरह वस्तुनिष्ठ होने भी नहीं देते. यह भी सत्य है कि प्रकृति विज्ञान का कोई भी तथ्य हमारी सामाजिक मानसिकता को प्रभावित नहीं करता, पर ऐतिहासिक घटनाओं का विवरण हमारी मानसिकता को झकझोर सकता है. अत: भविष्य के रूपांकन में एक इतिहासकार की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है. अतीत बदला नहीं जा सकता पर उसका भविष्य पर कोई घातक प्रभाव न पड़े यह तो किया ही जा सकता है. समुदायों में वैमनस्य कम हो, वैचारिक उदारता बढ़े, भ्रान्त अवधारणाओं के कुहासे से आने वाली पीढ़ियाँ अधिक से अधिक मुक्त हों. यह भी इतिहासकार का दायित्व है. और यह किसी भी ऐतिहासिक घटना के कारणों की सम्यक समीक्षा से ही सम्भव है. उदाहरण के लिए जब इतिहासकार यह रहस्योद्घाटन करता है कि हर आक्रान्ता में, चाहे वह आर्य , यवन , शक, स्पेनी, ब्रिटिश, या कोई और भी क्यों न हो, विजित जाति की समृद्धि और धरोहरों का उत्पाटन करने की प्रवृत्ति रही है. तब मुस्लिम आक्रमण के दौरान हुआ उत्पाटन एक ऐतिहासिक घटना मात्र रह जाता है और जातीय विद्वेष को भी अधिक प्रज्वलित नहीं कर पाता.

अतीत इतिहासकार की जिम्मेदारी नहीं है लेकिन भविष्य के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से वह मुक्त नहीं हो सकता.

तारा चंद्र त्रिपाठी

अतीत इतिहासकार की जिम्मेदारी नहीं है लेकिन भविष्य के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से वह मुक्त नहीं हो सकता

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ताराचंद्र त्रिपाठी, लेखक उत्तराखंड के प्रख्यात अध्यापक हैं जो हिंदी पढ़ाते रहे औऐर शोध इतिहास का कराते रहे। वे सेवानिवृत्ति के बाद भी 40-45 साल पुराने छात्रों के कान अब भी उमेठते रहते हैं। वे देश बनाने के लिए शिक्षा का मिशन चलाते रहे हैं। राजकीय इंटर कॉलेज नैनीताल के शिक्षक बतौर उत्तराखंड के सभी क्षेत्रों में सक्रिय लोग उनके छात्र रहे हैं। अब वे हल्द्वानी में बस गए हैं और वहीं से अपने छात्रों को शिक्षित करते रहते हैं।

(राजकीय महा्विद्यालय, रामनगर में आयोजित इतिहास-गोष्ठी के समापन व्याख्यान का एक अंश)




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