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Tuesday, July 21, 2015

महाकवि रविन्द्रनाथ ठाकुर और हिन्दुत्व के बयानवीर

महाकवि रविन्द्रनाथ ठाकुर और हिन्दुत्व के 

बयानवीर

21, JUL, 2015, TUESDAY 10:01:24 PM
विगत छह माह के अन्तराल में संघ परिवार एवं उसके आनुषंगिक संगठनों के अग्रणियों की तरफ से भारत के प्रथम नोबेल पुरस्कार विजेता महाकवि रविन्द्रनाथ ठाकुर को लेकर तीन अलग अलग किस्म की बातें सुनने को मिलीं।
दिसम्बर माह में संघ सुप्रीमो मोहन भागवत ने जहां उन्हें 'हिन्दु राष्ट्रÓ की संकल्पना के प्रस्तुतकर्ता के तौर पर रेखांकित किया / मराठी अखबार 'लोकसत्ताÓ 20 जनवरी 2015/ तो अभी राजस्थान के राज्यपाल एवं संघ के स्वयंसेवक कल्याण सिंह जो बाबरी मस्जिद विध्वंस के मामले में एक दिन की जेल की सजा काट चुके हैं, ने उनके द्वारा रचित 'जन गण मनÓ को ब्रिटिश राजा की तारीफ में लिखा कह कर उन्हें अंग्रेजों का पिट्ठू साबित करने कोशिश की और अब ताजा समाचार के मुताबिक प्रचारक से प्रधानमंत्री के पद पर पहुंचे जनाब नरेन्द्र मोदी ने ताजिकिस्तान के अपने दौर में राजधानी दुशानबे में उनकी मूर्ति का अनावरण करते हुए यह कहा कि 'गुरूदेव रविन्द्रनाथ ठाकुर के शब्द हमें प्रेरित करते रहेंगे।Ó उनके ऑफिस द्वारा जारी टिकट में इस बात का उल्लेख करते हुए कहा गया कि जनाब मोदी ने इस बात को भी याद किया कि गुरूदेव ने दो राष्ट्रों के राष्ट्रगीत लिखे थे।
संघ के तीन जिम्मेदार लोगों की तरफ से एक ही शख्स के बारे में, जिन्होंने जलियांवाला बाग काण्ड पर उन्हें प्रदान की गई उपाधि लौटा दी थी और जो ताउम्र बर्तानिया की गुलामी की मुखालिफत करते रहे, तीन किस्म की बातों से आखिर क्या निष्कर्ष निकाला जाए? क्या खुद संघ-भाजपा इस मामले में दिग्भ्रमित है या उन्हें विवादग्रस्त बनाने की कोई मुहिम चल रही है?
इनमें सबसे शातिराना हमला एक तरह से जनाब कल्याण सिंह की तरफ से दिखता है, जहां वह इस बात को दोहराते दिखते हैं कि 'जन गण मन में जो 'अधिनायकÓ शब्द है, वह दरअसल राजा की तारीफ में लिखा गया था और उसे हटा कर उसके स्थान पर 'मंगलÓ प्रयोग किया जाना चाहिए।Ó पिछले दिनों राजस्थान विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह में बोलते हुए उन्होंने यह कहा। निश्चित ही यह जुबां फिसलने का मामला नहीं था क्योंकि अखबारों के मुताबिक कि यह पहली दफा नहीं था जब उन्होंने इस मुददे को उठाया था।
रविन्द्रनाथ ठाकुर को एक तरह से विवादग्रस्त बनाने की चाल न केवल आजादी के तमाम कर्णधारों की क्षमता को प्रश्नांकित करती है जिन्होंने उसे संविधान निर्माण के वक्त राष्ट्रगीत का दर्जा दिया, सुभाष चन्द्र बोस को भी विवादित बनाती है जिन्होंने आजाद हिन्द फौज के राष्ट्रगीत के तौर पर इस गीत को अपनाया था बल्कि मन में रविन्द्रनाथ ठाकुर जैसे महाकवि को लेकर भी सन्देह के नए बीज भी डालता है। यह वक्त का तकाजा है कि इस बारे में भ्रम दूर किए जाएं।
मालूम हो कि प्रस्तुत गीत 1911 में लिखा गया था और उन दिनों कांग्रेस के अधिवेशन में गाया भी गया था। यह भी सही है कि यह वही दौर था जब पंचम जार्ज भारत की यात्रा पर आए थे और बंगाल विभाजन रदद करने के लिए कांग्रेस अधिवेशन में उनकी प्रशंसा में बातें भी कही गई थी और उनकी तारीफ में एक गीत भी गाया गया था, मगर यह वह गीत नहीं था। हिन्दी में गाए गए इस गीत के बोल थे 'बादशाह हमाराÓ जिसे किन्हीं रामभुज चैधरी ने लिखा था और जिसे बच्चों ने गाया था। सवाल उठता है कि बात इतनी स्पष्ट होने के बावजूद इतनी अस्पष्टता क्यों है? जानेमाने इतिहासकार एवं दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापक प्रदीप दत्ता के मुताबिक इसके पीछे उन दिनों के एंग्लोइंडियन अखबारों की चालाकी दिखती है, जिन्होंने तोड़ मरोड़ कर घटना का समाचार दिया था। मिसाल के तौर पर 'द इंग्लिशमैनÓ/ 28 दिसम्बर 1912 ने लिखा कि अधिवेशन की कार्रवाई टैगोर द्वारा पंचम जार्ज की तारीफ में लिखे गीत के साथ हुई। उनके मुताबिक 'द स्टेटसमैनÓ और 'द इंडियनÓ नामक दो अन्य अखबारों ने भी उसी किस्म की शरारतीपूर्ण रिपोर्ट दी। अगर उन दिनों के राष्टवादी अखबारों को पलटें तो सच्चाई सामने आती है कि अधिवेशन के दूसरे दिन की शुरूआत रविन्द्रनाथ के 'जन गण मनÓ  गीत से हुई थी और बाद में रामभुज का लिखा गीत भी गाया था। अगर हम 'द बंगालीÓ नामक अखबार को पलटें / 28 दिसम्बर 1912/ तो वह बताता है कि 'कांग्रेस का सालाना अधिवेशन महान बंगाली कवि रविन्द्रनाथ टागोर द्वारा रचे गीत के साथ शुरू हुआ, फिर पंचम जार्ज के प्रति निष्ठा जताते हुए प्रस्ताव पारित किया गया और उसके बाद पंचम जार्ज के प्रति आदर प्रगट करते हुए एक गीत लड़कों एवं लड़कियों ने गाया।Ó अम्रत बाजार पत्रिका की रिपोर्ट भी यही बताती है कि कि 'बांगला में ईश्वर की प्रार्थना के साथ कांग्रेस पार्टी के अधिवेशन की कार्रवाई शुरू हुई, उसके बाद पंचम जार्ज के प्रति निष्ठा प्रगट करने वाला प्रस्ताव पारित हुआ और बाद में किंग जार्ज का स्वागत करते हुए गीत गाया गया /28 दिसम्बर 1912/
ध्यान रहे कि यह विवाद  खुद रविन्द्रनाथ ठाकुर के जीते जी भी चला था और इस सम्बन्ध में उन्होंने पुलिन बिहारी सेन को भी पत्रा लिखा था / नवम्बर 10, 1937/ जो प्रभातकुमार मुखर्जी द्वारा लिखी जीवनी 'रविन्द्रजीवनीÓ में शामिल किया गया है, जिसमें उन्होंने 'अधिनायकÓ शब्द किसके लिए लिखा गया है, उसको स्पष्ट किया था। मगर उससे भी विवाद ठंडा नहीं हुआ तो उन्होंने 13 मार्च 1939 को एक अन्य पत्रा लिखा जिसके शब्द थे 'मैं अपने आप को अपमानित  ही करूंगा अगर मैं पंचम जार्ज जैसों की स्तुति में गीत लिखने की मूर्खता करूंगा और जिसमें यह जिक्र करूंगा कि किस तरह वह मानवता के समयविहीन इतिहास के तमाम युगों से चले आ रहे रथ महारथी हैं जो तमाम यात्रियों को लेकर निकले हैं।Ó
यह सवाल उठना लाजिमी है कि इस गीत के निर्माण के सौ साल बाद और गीत के रचयिता के गुजर जाने के सत्तर से अधिक सालों के बाद आखिर इस विवाद को नई हवा क्यों दी जा रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि तीस के दशक में इस गीत को लेकर कांग्रेस के अन्दर ही जो विवाद खड़ा हुआ था जब राष्ट्र की अलग-अलग संकल्पना के आधार पर पोजिशन्स ली गई थी, वही बात नए सिरे से लौटती दिख रही है। ध्यान रहे कांग्रेस के अधिवेशन में जन गण मन के साथ-साथ बिपिन चन्द्र पाल द्वारा लिखा गया गीत 'वन्दे मातरमÓ भी गाया जाता रहा है। आनन्दमठ नामक उपन्यास में पहली दफा प्रकाशित इस गीत में भारत की छवि बहुत एकाश्म/मोनोलिथ किस्म की दिखती है, जबकि जन गण मन भारत की सर्वसमावेशी स्वरूप पर जोर देता है। दोनों का रचनाकाल भी अलग-अलग है, जहां वन्दे मातरम उन्नीसवीं सदी के अन्त में सामने आया था तो जन गण मन की रचना बीसवीं सदी की पहली-दूसरी दहाई में हुई थी। बंगाल के बंटवारे के बाद वहां हुए सांप्रदायिक दंगों से खिन्न रविन्द्रनाथ ने एक समावेशी मुल्क का चित्रा खींचा था, जबकि वंदेमातरम में राष्ट्र की छवि हिन्दु राष्ट्र से मेल खाती है। विगत एक साल से जिस किस्म की ताकतें हुकूमत में हैं, उन्हें निश्चित ही वंदे मातरम करीब जान पड़ता है न कि जन गण मन। और शायद इसे अंजाम देने का एक तरीका उन्हें यह नजर आता हो कि जन गण मन को ही वादग्रस्त बना दो। दुनिया के एक जानेमाने क्रांतिकारी विचारक ने 19 वीं सदी में फ्रेंच राजनीति में हो रही उथलपुथल के मद्देनजर एक दिलचस्प वक्तव्य दिया था। उनका कहना था 'इतिहास अपने आप को दोहराता है, पहली दफा एक त्रासदी के तौर पर और दूसरी दफा प्रहसन अर्थात फार्स के तौर पर।Ó सवाल उठता है कि जन गण मन को लेकर यह प्रहसन कब तक चलता रहेगा ?
http://www.deshbandhu.co.in/article/5325/10/330#.Va6hyKSqqkp

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