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Monday, July 6, 2015

चिकित्सा में खुली मुनाफ़ाख़ोरी को बढ़ावा, जनता के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ मोदी सरकार के एक साल में सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं में कटौती पर एक नज़र

चिकित्सा में खुली मुनाफ़ाख़ोरी को बढ़ावा, जनता के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़
मोदी सरकार के एक साल में सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं में कटौती पर एक नज़र

राजकुमार

मई 2015 में दुनिया के 179 देशों के सर्वेक्षण के आधार पर एक सूची प्रकाशित की गयी जिसे वैश्विक स्तर पर मातृत्व के लिए अनुकूल परिस्थितियों के आधार पर बनाया गया है। इस सूची में भारत पिछले साल के 137वें स्थान से 3 पायदान नीचे खिसककर 140वें स्थान पर पहुँच गया है। यूँ तो 137वाँ स्थान हो या 140वाँ, दोनों में कोई ख़ास अन्तर नहीं है, लेकिन यह विकास के खोखले नारों के पीछे की हक़ीक़त बयान कर रही है कि देश में आम जनता के जीवन स्तर में सुधार होने की जगह परिस्थितियाँ और भी बदतर हो रही हैं। भारत अब माँ बनने के लिए सुविधाओं के हिसाब से जिम्बाब्वे, बांग्लादेश और इराक़ से भी पीछे हो चुका है। यह आँकड़ा अच्छे दिनों और विकास का वादा कर जनता का समर्थन हासिल करने वाली मोदी सरकार का एक साल पूरा होने से थोड़ा पहले आया है जो यह दर्शाता है कि भविष्य में इस मुनाफ़ा केन्द्रित व्यवस्था के रहते "विकास" की हर एक नींव रखी जाने के साथ जनता के लिए और भी बुरे दिन आने वाले हैं।

इसी रिपोर्ट में सर्वेक्षण के आधार पर बताया गया है कि भारत के शहरी इलाक़ों में रहने वाली ग़रीब आबादी में बच्चों की मौत हो जाने की सम्भावना उसी शहर में रहने वाले अमीरों के बच्चों की तुलना में 3.2 गुना (320 प्रतिशत) अधिक होती है (स्रोत-1)। बच्चों के ज़िन्दा रहने की इस असमानता का मुख्य कारण ग़रीब परिवारों में माताओं और बच्चों का कुपोषित होना, रहने की गन्दी परिस्थितियाँ, स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध न होना है तथा महँगी स्वास्थ्य सुविधाएँ है (स्रोत-2)। हक़ीक़त यह है कि भारत में पाँच वर्ष की उम्र पूरी होने से पहले ही मरने वाले बच्चों की संख्या पूरी दुनिया की कुल संख्या का 22 फ़ीसदी है (स्रोत-3)। अप्रैल 2015 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 5 साल से कम उम्र के आधे से अधिक बच्चे कुपोषित हैं, जिनमें विटामिन और मिनिरल की कमी है (स्रोत-4)।

healthदेश के अलग-अलग शहरों की बस्तियों और गाँवों में रहने वाली ग़रीब आबादी के बीच कुपोषण और बीमारियों के कारण होने वाली मौतों का मुख्य कारण यहाँ रहने वाले लोगों की जीवन और काम की परिस्थितियाँ होता है। यहाँ रहने वाली बड़ी ग़रीब आबादी फ़ैक्टरियों में, दिहाड़ी पर या ठेला-रेड़ी लगाकर अपनी आजीविका कमाते हैं और इनके बदले में इन्हें जो मज़दूरी मिलती है वह इतनी कम होती है कि शहर में एक परिवार किसी तरह भुखमरी का शिकार हुए बिना ज़िन्दा रह सकता है। समाज के लिए हर वस्तु को अपने श्रम से बनाने वाली मेहनतकश जनता को वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था एक माल से अधिक और कुछ नहीं समझती, जिसे सिर्फ़ ज़िन्दा रहने लायक मज़दूरी दे दी जाती है जिससे कि वह हर दिन 12-16 घण्टों तक जानवरों की तरह कारख़ानों में, दिहाड़ी पर काम करता रहे। इसके अलावा सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुँच इन मज़दूर बस्तियों और गाँवों में रहने वाले ग़रीबों तक कभी नहीं होती। देश में आम जनता को मिलने वाली स्वास्थ्य सुविधाओं का स्तर भी लगातार नीचे गिर रहा है।

लेकिन स्वास्थ्य सुविधाओं को बढ़ाने की जगह पर वर्तमान मोदी सरकार ने सार्वजनिक स्वास्थ्य पर ख़र्च किये जाने वाले ख़र्च में भी 2014 की तुलना में 29 फ़ीसदी कटौती कर दी। 2013-14 के बजट में सरकार ने 29,165 करोड़ रुपये स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए आवँटित किये थे जिन्हें 2014-15 के बजट में घटाकर 20,431 करोड़ कर दिया गया है (स्रोत-5)। पहले ही भारत अपनी कुल जीडीपी का सिर्फ़ 1.3 फ़ीसदी हिस्सा सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं पर ख़र्च करता है जो ब्रिक्स (ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण-अफ़्रीका) देशों की तुलना में सबसे कम है, भारत के बाद चीन का नम्बर है जोकि अपनी जीडीपी का 5.1फ़ीसदी स्वास्थ्य पर ख़र्च कर रहा है, जबकि दक्षिण-अफ़्रीका सबसे अधिक, 8.3 फ़ीसदी, ख़र्च करता है। डॉक्टरों और अस्पतालों की संख्या, बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं के ढाँचे पर किये जाने वाले ख़र्च के मामले में भी भारत ब्रिक्स देशों की तुलना में काफ़ी पीछे है। भारत में स्वास्थ्य पर जनता द्वारा ख़र्च किये जाने वाले कुल ख़र्च में से 30 फ़ीसदी सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं के हिस्से से और बाक़ी 69.5 प्रतिशत लोगों की जेब से ख़र्च होता है। भारत में 10,000 की आबादी पर डॉक्टरों की संख्या 7 है जो ब्रिक्स देशों की तुलना में सबसे कम है। वहीं ब्रिक्स देशों की तुलना में मलेरिया जैसी आम बीमारियों के मामले में भारत में कई गुना अधिक रिपोर्ट होती हैं जिनसे बड़ी संख्या में मरीजों की मौत हो जाती है। भारत में हर साल मलेरिया के 10,67,824 मामले रिपोर्ट होते हैं जबकि चीन और दक्षिण-अफ़्रीका में यह संख्या 5,000 से भी कम है (स्रोत-6)। भारत में कैंसर जैसी बीमारी से हर दिन 1,300 लोगों की मौत हो जाती है, और यह संख्या 2012 से 2014 के बीच 6 प्रतिशत बढ़ चुकी है (स्रोत-7)।

पिछड़ी सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण हमारे देश में ग़रीब आबादी अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा, लगभग 70 प्रतिशत, चिकित्सा पर ख़र्च करने के लिए मजबूर है, जबकि श्रीलंका जैसे दूसरे एशियाई देशों में यह सिर्फ़ 30-40 प्रतिशत है। इण्डियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ पॉपुलेशन साइंस और विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में कम आय वाले लगभग 40 प्रतिशत परिवारों को चिकित्सा के लिए पैसे उधार लेने पड़ते हैं, और 16 फ़ीसदी परिवार चिकित्सा की वजह से ग़रीबी रेखा के नीचे धकेल दिये जाते हैं (स्रोत-8)।

यह वर्तमान स्वास्थ्य परिस्थितियों के अनुरूप एक शर्मनाक परिस्थिति है और यह प्रकट करता है कि भारत की पूँजीवादी सरकार किस स्तर तक कॉरपोरेट-परस्त हो सकती है। सार्वजनिक-स्वास्थ्य-सुविधाओं में कटौती के साथ-साथ बेशर्मी की हद यह है कि सरकार ने फ़ार्मा कम्पनियों को 509 बुनियादी दवाओं के दाम बढ़ाने की छूट दे दी है, जिनमें डायबिटीज़, हेपेटाइटस-बी/सी कैंसर, फंगल-संक्रमण जैसी बीमारियों की दवाओं के दाम 3.84 प्रतिशत तक बढ़ जायेंगे (स्रोत-9)। इसके अलावा वैश्विक स्तर पर देखें तो कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों के इलाज का ख़र्च काफ़ी अधिक है जो आम जनता की पहुँच से काफ़ी दूर है। इसका मुख्य कारण है कि कोई भी कॉरपोरेट-परस्त पूँजीवादी सरकारें इनके रिसर्च पर ख़र्च नहीं करना चाहती क्योंकि इससे मुनाफ़ा नहीं होगा, और जो निजी कम्पनियाँ इनके शोध में लगी हैं, वे मुनाफ़ा कमाने के लिए दवाओं की क़ीमत मनमाने ढंग से तय करती हैं।

वैसे तो मुनाफ़ा केन्द्रित व्यवस्था में सरकारों से पूँजी-परस्ती की इन नीतियों के अलावा और कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती, लेकिन इस पूरी पूँजीवादी व्यवस्था का ढाँचा कितना असंवेदनशील और हत्यारा हो सकता है, यह इस बात से समझा जा सकता है कि स्वास्थ्य-सुविधा जैसी बुनियादी ज़रूरत भी बाज़ार मे ज़्यादा-से-ज़्यादा दाम में बेचकर मुनाफ़े की हवस पूरी करने में इस्तेमाल की जा रही है (स्रोत-10)। वर्तमान सरकार का एक साल पूरा हो चुका है और जनता के सामने इसकी कलई भी खुल चुकी है कि जनता की सुविधाओं में कटौती करके पूँजीपतियों के अच्छे दिन और विकास किया जा रहा है। कुछ अर्थशास्त्री, नेता और पत्रकार यह कुतर्क दे रहे हैं कि सरकार क्या करे, पैसों की कमी है इसलिए वर्तमान सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के लिए आवँटित धन में कटौती करनी पड़ रही है। ऐसे लोगों को शायद यह नहीं पता कि पैसों की कमी कहकर सार्वजनिक ख़र्चों में कटौती करने वाली सरकारें, चाहे वह कांग्रेस हो या भाजपा, हज़ारों करोड़ रुपये बेल-आउट, टेक्स-छूट या लोन में पूँजीपतियों को दान दे चुकी हैं और आज भी दे रही हैं।

Corruption Medical Device Industryअब फ़रवरी 2015 के टाइम्स ऑफ़ इण्डिया में छपी एक रिपोर्ट पर नज़र डालें, जो निजी अस्पतालों के डॉक्टरों से बातचीत पर आधारित है। इसके अनुसार निजी अस्पतालों में सिर्फ़ उन्हीं डॉक्टरों को काम पर रखा जाता है जो ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने में मदद करते हों और मरीजों से भिन्न-भिन्न प्रकार के टेस्ट और दवाओं के माध्यम से ज़्यादा से ज़्यादा पैसे वसूल कर सकते हों। यदि एक डॉक्टर मरीज के इलाज में 1.5 लाख रुपया लेता है तो उसे 15 हज़ार रुपये दिये जाते हैं और बाक़ी 1.35 लाख अस्पताल के मुनाफ़े में चले जाते हैं। इस रिपोर्ट में "चिन्ता" व्यक्त करते हुए यह भी कहा गया है कि निजी अस्पतालों की कॉरपोरेट लॉबी लगातार सरकार पर Clinical Establishments Act 2010 को हटाकर चिकित्सा क्षेत्र से सभी अधिनियम समाप्त करने और इसे मुनाफ़े की खुली मण्डी बनाने का दबाव बना रही है, और सरकार इन बदलावों के पक्ष में है (स्रोत-11)। वैसे इस रिपोर्ट को पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि लेखक को यह अनुमान ही नहीं है कि वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था में चिकित्सा सुविधाएँ बाज़ार में बिकने वाले अन्य मालों की तरह ही पूँजीपतियों के लिए मुनाफ़ा कमाने का एक ज़रिया हैं, जिसके लिए बड़े-बड़े अस्पताल और फ़ार्मा कम्पनियाँ खुलेआम मरीजों को लूटते हैं और सच्चाई यह है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य-सुविधाओं में सरकार द्वारा की जाने वाली कटौतियों का सीधा फ़ायदा निजी अस्पतालों और फ़ार्मा कम्पनियों के मालिकों को ही होगा।

16 मई को जनता के वोटों से चुनकर आयी नयी मोदी सरकार का एक साल पूरा हो गया और देश के करोड़ों ग़रीब, बेरोज़गार लोगों ने अपने बदहाल हालात थोड़े बेहतर होने की जिस उम्मीद में नयी राजनीतिक पार्टी भाजपा को वोट किया था, उसमें कोई परिवर्तन नज़र नहीं आ रहा है। उल्टे पहले से चलायी जा रहीं कल्याणकारी योजनाओं को भी पूँजीवादी "विकास" को बढ़ावा देने के नाम पर बन्द किया जा रहा है। सार्वजनिक-स्वास्थ्य सुविधाओं में कटौती करके और फ़ार्मा कम्पनियों को दवाओं के दाम बढ़ाने की छूट देकर सरकार कॉरपोरेट मालिकों की जेबें भरने की पूरी तैयारी में लगी है।

References:

  1. India Ranks Behind Zimbabwe, Bangladesh & Iraq on Global Motherhood Index. NDTV, May 06, 2015
  2. Children of urban poor more likely to die: Report, Business Standard, May 5, 2015
  3. India has highest number of deaths of children under five years of age,TOI, Mar 28, 2015
  4. Around half of Indian kids under 5 are stunted, The Hindu, April 1, 2015
  5. India slashes health budget, already one of the world's lowest, Dec 23, 2014)
  6. Facing Health Crises, India Slashes HealthcarecomDec 25, 2014
  7. In India, 1,300 die of cancer every dayhttp://news.statetimes.in, May 17, 2015
  8. Medical bills pushing Indians below poverty line: WHO, India Today, November 2, 2011
  9. Govt allows pharma cos to hike prices of 509 essential drugs, The Hindu, April 8, 2015
  10. The High Cost of Cancer Drugs and What We Can Do About It, US National Library of Medicine National Institutes of Health Search, Oct 2012
  11. Doctors with conscience speak out, TOI, Feb 22, 2015

 

मज़दूर बिगुलजून 2015


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