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Tuesday, July 21, 2015

चिट्ठी पत्री: बुढ़ाती ऊर्जावान पीढी और ना गछाया हुआ हरेला


चिट्ठी पत्री: बुढ़ाती ऊर्जावान पीढी और ना गछाया हुआ हरेला

लेखक : नैनीताल समाचार :::: वर्ष :: :

harela-2009-wishes.jpgप्रिय राजीव,

हरेला अंक मिल गया था। इसका हमेशा ही बहुत इंतजार रहता है। लेकिन भई, इस बार मेरे नैनीताल समाचार में हरेले का तिनड़ा न था। सदमा लगा कि यह क्या हो गया, हरेला भी भेजना बंद! ऐसा तो नहीं हो सकता……….। फोन ही से पता चला कि तिनड़े चिपकाए गए थे। मेरे अंक से तिनड़ा 'उखड़ गया होगा'।

यहाँ घर में हमेशा ही हरेला बोया जाता है। इजा बोती है, पूरे जतन से उगाती-पोसती है, देखभाल करनी पड़ती है कि चूहे न कुतर जाएँ। हाँ, ऐसा हो चुका है। पंचनाज टोकरी में डाले नहीं कि रात में चूहा दाने ही कुतर गया। सो, अब बड़ा जतन करना पड़ता है। पहाड़ से भी चिट्ठियों के भीतर पिठ्याँ की पुड़िया के साथ रखे हरेले के तिनड़े बराबर आते हैं। इजा पैरों से सिर तक तीन बार छुआ कर हरेला सिर पर रखती है……। यानी हरेले की कोई कमी नहीं। पर यार, जो तिनड़ा आप भेजते हो नैनीताल समाचार में, उसकी बराबरी नहीं। हरेले के उस पीले सूखे तिनड़े में गजब की उत्तेजना और आकर्षण होते हैं। वह विचार, मंथन, ऊर्जा और सक्रियता का हरेला होता है।

खैर, यह संतोष काफी है कि आपने अपने, बल्कि हमारे समाचार के मुख पन्ने पर हरेले का तिनड़ा चिपकाया था। लेकिन यह 'चिपकाया गया होना' भी जैसे मन में चुभ गया। 'चिपकाया' तिनड़ा मिल जाता तो 'चिपकाए गए होने' की यह कचोट शायद नहीं व्याप्ती। नहीं मिला तो 'उखड़ गया होगा' की खुन-मुन मन में पैदा कर दी। पहले तो हाँ, कई वर्ष पहले तक आप हरेले का तिनड़ा 'गछ्या' कर भेजते थे। 'समाचार' के मुख पन्ने पर छेद करके आर-पार पिरोया हुआ तिनड़ा, जिसके उखड़ने तो दूर 'सरकने' की भी सम्भावना लगभग नहीं हुआ करती थी। तो, अब 'गच्छ्याया' क्यों नहीं गया या 'गच्छ्याया क्यों नहीं जा सका' की गूँजों-अनुगूँजों से मन विकल होने लगा।

यूँ कहने को तो राजीव, यह बात पूछनी बेमतलब-सी ही ठहरी कि गछ्याने के बजाय चिपकाया क्यों गया। अरे, जमाना आगे बढ़ रहा है।चीजें 'सरल' (सच्ची क्या?) हो रही हैं। हमारे बड़बाज्यू-हौर हल्द्वानी से नमक, तेल, गुड़ लाने तीन दिन रात पैदल चलते थे, जंगल में मन्या में पकाते-खाते-सोते थे,वगैरह-वगैरह। आज उनका नाती एक दिन में एक हजार मील भी आसानी से तय कर लेता है तो यह रोना बेकार ठैरा कि हाय जंगल के बीच मन्या में पकाने-खाने-सोने और बाघ की दहाड़ से चौंक कर उठ बैठने का 'सुख' क्यों कर छिन गया। मन को यह भी दिलासा दिया कि कभी-कभी पुरानी यादों को लेकर भावुकता से गल-पिघल जाने वाले हे प्रवासी बंधु, यह भी तो सोच देखो कि 1977 के अगस्त महीने में अक्षर-अक्षर जुड़ान (हैंड कम्पोजिंग) और ट्रेडिल मशीन की खटर-पटर छपाई से शुरू हुआ 'समाचार' आज कम्प्यूटर पर ऑपरेट होता और ऑफसेट पर छपता है। उसमें तो आपको कोई नराईनुमा तकलीफ नहीं होती। फिर हरेला चिपका कर भेजे गये होने और दुर्भाग्य से आपके हिस्से के तिनड़े के उखड़ गए होने की संभावना से क्यों लफ्फाजी -सी बघार रहे हो? मगर यार, मन मान नहीं रहा है कि मेरा तिनड़ा चिपकाया क्यों, गच्छ्याया क्यों नहीं! गच्छ्याए गए होने में ही सिर पर रखे गए होने की प्रतीति क्यों होती है ?

अब अगर यह कोई भ्रांति नहीं तो शायद एक बरस आपने हरेला का तिनड़ा गछ्याने या चिपकाने की बजाय धानी रंग में छाप कर भेजा था जो 'समाचार' के मुख पन्ने पर दिखता तो हरेले जैसा था, लेकिन उसे उठा कर सिर पर रखना संभव ही न था। उस बरस भी आपको ढेरों उलाहने मिले होंगे। अब यार, हरेला तो हरेला है, उसे छाप कर दिखाया-बनाया जाकर होना क्या है ?

बात यहीं तक नहीं है। 'समाचार' के शुरुआती दिनों में जब में 'प्रवासी पहाड़ी की डायरी' लिखता था तो एक प्रसंग में कहीं यह उल्लेख आया था कि लखनऊ शहर में पहाड़ियों के घर ढूंढना हो तो कोई मुश्किल नहीं। देहरी पर डाले गए ऐपण दूर से ही पता बता देते हैं। बरस गए बात गई। अब 'ऐपण डाले नहीं, ऐपण के 'स्टीकर चिपकाए' जाते हैं। अल्मोड़े की बाजार से लेकर हल्द्वानी के 'सरस मार्केट' तक से हमारे घर में ये स्टीकर आते हैं और सगर्व चिपकाए जाते हैं। मुट्ठियों को 'बिस्वार' में डुबो कर गेरू पर बनाये गये लक्ष्मी जी के 'पौ' अब दुर्लभ तो हैं ही, पिछड़ेपन की निशानी भी हैं। लखनऊ में ही कई 'लोक कला विशेषज्ञ' ऐपणों के 'स्टीकर' अखबारों में विज्ञापन देकर बेचते हैं। अब 'स्टीकर' के 'पौ' पर पैर धर कर लक्ष्मी जी घर पधारती हों तो सिर्फ पहाड़ी घरों की देहरी ही क्यों उपकृत हो ? सो, कई बार आप चौंक सकते हो कि श्रीमती श्रीवास्तव ने श्रीमती पंत से स्टीकर मँगवा कर अपनी देहरी लक्ष्मी-आगमन के लिये कहीं बेहतर सजा रखी है। अब इसे सांस्कृतिक झटका कहें या सांस्कृतिक विलयन का अनुपम उदाहरण- आप तय कर लो।

गरज यह कि हम आधी रात को नींद उचटने पर जब यह लिख रहे हैं तो मन को समझा भी रहे हैं कि प्यारे वक्त बदल गया है, बहुत बदल गया है, इसलिए 'समाचार' में हरेले के तिनड़े के चिपकाए जाने पर विलाप उचित नहीं। इतना काफी है कि वहाँ हरेला बोया और भेजा जा रहा है। यह आश्वस्ति तो है कि अगली बार भी भेजा जायेगा। गछ्याने के श्रम और चिपकाने के सरलीकरण पर भी विचार करो। यह भी कि उस दौर में विचार बोने और विचार गछ्याने के लिए कौन-कौन, कहाँ-कहाँ से आ जुटता था! आज कहाँ गए वे लोग और 'वे लोग' नहीं, तो 'नए लोग' क्यों नहीं आ रहे!

लाख समझाने पर भी मन थामी नहीं रहा राजीव। दरअसल, रात को मन का उचटना भी गजब व्याधि है यार। आज हरेले के चिपकाए गए तिनड़े के रास्ते में उखड़ कर गायब हो जाने से मन बिदका है तो कभी किसी और ख्याल से। अब तो अक्सर यह सवाल सालता है कि थोड़ा पढ़-लिख कर 'इंसान' बन जाने के वास्ते जो शहर आया था वह इंसानी वेश वाले जानवरों के इस बीहड़ जंगल में क्योंकर फँसा रह गया और अब भी इससे बाहर निकलने की कोई राह बची है क्या!…… चलो, जाने भी दो….। मेरे हिस्से के हरेले के उस तिनडे़ का गायब हो जाना मन में कहीं गड़ा रह गया है……।

बाकी यहाँ का हाल ठीक जैसा ही है। यू.पी. में सूखा पड़ा है मगर राजधानी लखनऊ में मूर्तियों की बहार है। छोड़ो, उनकी चर्चा क्या करनी।

आपने फोन पर गौतम भट्टाचार्य के अकस्मात निधन की सूचना दी तो मन दुःख से भर गया। पच्चीस-तीस साल पुराने दिन आँखों के सामने घूम गये। गौतम के साथ नैनीताल और लखनऊ में भी अच्छा समय बीता और उत्तेजक बहसें हुई थीं। कई बरस से उससे संपर्क न रहा था, जयपुर के होटल के कमरे में इस तरह मरना……।

एक अत्यन्त ऊर्जावान, सक्रिय पीढ़ी धीरे-धीरे बुढ़ा रही है। प्रकृति का नियम ठहरा। मगर ऊर्जा-सक्रियता का नया दौर क्यों नहीं दिख रहा ? देखो, मुनस्यारी में उतना बड़ा भूस्खलन हुआ……..आप में से, 'समाचार' की टीम से या नैनीताल-अल्मोड़ा से कोई भी वहाँ जा पाया ?…..याद करो तो तवाघाट की वह तबाही, उत्तरकाशी की वह भयानक बाढ़ जब अलकनन्दा में बनी झील ने भीषण तबाही मचाई थी, कर्मी का भूस्खलन….खबर की भनक मात्र से आप लोग कैसे दौड़े जाते थे वहाँ, जान हथेली पर धर कर और राष्ट्रीय अखबारों को पता चलने तक 'समाचार' की टीम तन-मन से टूटी किन्तु उत्तेजना से भरी, घटनास्थल से लौट आती थी..। नई पीढ़ी ऐसी ऊर्जा से भरी और समर्पित क्यों नहीं है? हम उन्हें इसके लिए तैयार क्यों नहीं कर सके? यह हमारा दोष है या कि वक्त का पहिया इसी तरह चलता है ? इस पीढ़ी से भी ज्यादा सचेत, सक्रिय और ऊर्जावान लोग आगे आएँगे जरूर, पक्का भरोसा है, लेकिन यह सिलसिला सतत क्यों नहीं चलता-बढ़ता ?

कलम यहीं रोकता हूँ, राजीव। आज रात मन बहुत विकल हो गया है। यह भावुकता, यह उचाटपन, यह नकारात्मकता (?) ठीक नहीं। सोने की कोशिश करता हूँ, हालाँकि मन में ऐसी गर्जन-तर्जन मची है कि नींद शायद ही पास फटके। बहुत-बहुत नराई के साथ,

नवीन जोशी

गोमती नगर, लखनऊ

'निहुणियों' का 'हरेला अंक' हृदय के भीतर तक गुदगुदी लगा गया। 'तिनड़ा' सिर पर रखा और 'आशीर्वाद' ''जी रैया, जागि रैया, बच रैया, स्यूँ जस तराण एजौ'' आदि आपको दिया।

राणा जी का 'विवाह सीजन' क्या गया, हमें हँसते-हँसते लोटपोट कर गया। किन्तु मेवाड़ी भाई का अन्तिम किस्त कह कर अलविदा कहना बहुत बुरा लगा। मैं तो देवेन्द्र भाई के एक-एक शब्द में इतना आनन्द लेता हूँ जिसका वर्णन करने के लिये मेरे पास शब्द नहीं हैं। मेवाड़ी भाई से मेरी ओर से प्रार्थना कर देना कि कोई और सिरीज लेकर अपनी विनोदात्मक शैली से हमें आनन्दित करते रहें। 'कभी अलविदा ना कहना।'

इन्द्रलाल साह

नैनीताल

हरेला अंक का सम्पादकीय पढ़कर मन बहुत ही विचलित हो गया। वास्तव में क्या मैं इतना व्यस्त हो गया हूँ कि दो शब्द लिखने का समय नहीं रह गया है। मगर सच कहूँ सम्पादक जी, आशल-कुशल की खुशबू तो पत्रों के माध्यम से ही परिलक्षित होती है। क्या इन्टरनेट चैटिंग या मोबाइल हरेले के तिनड़े का प्रवासी उत्तराखण्डियों को वह अहसास दे सकता है ? आज 'मेरा गाँव, मेरे लोग' की समापन किस्त को पढ़ कर बहुत ही मन भर आया। आशा है भविष्य में उनके और भी इसी तरह की कृतियाँ हमें पढ़ने को मिलेंगी।

रमेश चन्द्र चौधरी

नैनीताल बैंक, देहरादून

नैनीताल समाचार के अंक नियमित मिल रहे हैं। इन दिनों पत्र-पत्रिकाओं की संख्या तेजी से बढ़ी है लेकिन ऐसे गिने-चुने ही हैं जो मन में पढ़ने की ललक जगाते हें। 'नैनीताल समाचार' मिलते ही सचमुच हार्दिक प्रसन्नता का अनुभव होता है। दूसरी बात अखबार की निर्भीकता व संघर्षशीलता। पाठकों को हरेला भेजने की परम्परा बिलकुल मौलिक व अनोखी है। पिछले अंकों में शम्भू राणादेवेन्द्र मेवाड़ी और राधा बहन के लेख बहुत रोचक थे। देवेन्द्र मेवाड़ी के हृदयस्पर्शी लेखों पर विराम लगने से दुःख हुआ।

कमल कुमार जोशी

अल्मोड़ा

नैनीताल समाचार का हरेला अंक मिला- इस बार भी हरेला विहीन था। देवेन्द्र मेवाड़ी का 'मेरा गाँव, मेरे लोग' की समापन किश्त के साथ पहाड़ की जिंदगी-बचपन की यादों का एक सिलसिला ठहर गया। यह आत्मगाथा हर उस उत्तराखण्डी की है जो अपनी माटी से जुड़ा रहा, दूर होकर भी उस माटी से अपने जुड़ाव को अलग नहीं कर पाया।

देवेन्द्र उपाध्याय

दिल्ली

हरेले के अत्यन्त अपनत्वपूर्ण पर्वतीय त्यौहार पर आपने अपनी पत्रिका के मुख पृष्ठ पर हरेले की एक छोटी सी पीली पत्ती चिपका कर व्यवसायिक पत्रकारिता के शुष्क प्रवाह में स्निग्धता का संचार किया है। पत्रिका के साथ जाने वाला यह 'हरेला' पहाड़ के बाहर रह रहे उत्तराखंडियों को अवश्य भाव-विह्वल करता ही होगा।

मुझे आप से शिकायत भी है। आपने नैनीताल समाचार टीम को 'निहुणी' लिखा है। यों तो प्यारपूर्वक बिना सोचे-समझे माँ भी अपने बच्चे को 'निहुणी' कह देती है, पर नैनीताल समाचार के लिए यह कहना एकदम अनुपयुक्त है। वास्तविकता की खोज और साहसपूर्वक उसे बेबाक शब्दों में बोलने की पत्रकारिता करने वाले पत्र को 'निहुणी' की उपमा देना मुझे सही नहीं लगता। वह तो आज ही नहीं, भविष्य की भी आशा है। कृपया 'निहुणी' शब्द को वापस ले लीजिए।

राधा बहन

कौसानी

आपकी बेबाक पत्रकारिता समस्याओं के हल होने की आस बँधाती है। श्री देवेन्द्र मेवाड़ी जी का आलेख 'मेरा गाँव मेरे लोग' अत्यंत रोचक शैली में लिखा गया है। उनसे आग्रह है कि वे और लिखें। शम्भू राणा जी का लेख अत्यंत रोचक है बार-बार पढ़ने का मन करता है।

महेश प्रसाद टम्टा,

एडवोकेट अल्मोड़ा

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