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Sunday, July 19, 2015

नेपाल: जैसा तैसा कैसा संविधान, ब्रूटस

एक अदद संविधान बन जाए तो क्या होगा? इससे क्या रास्ता खुलेगा और क्या ही रास्ता बंद होगा। नेपाल में जो संविधान जारी होने वाला है उसको अपने नहीं पढ़ा। उसे देखा तक नहीं। यदि देखा होता तो बैठ सकते थे उसके साथ? सहानुभूति हो सकती थी उसके साथ? 'कोई बात नहीं कॉमरेड', क्या यह वाक्य आ सकता था तुम्हारी जुबान में? लेकिन मैंने देखा है तुम्हें उससे उसी गर्मजोशी के साथ हाथ मिलाते जैसा कि तुम मिलते थे उससे जब वो ठीक उलटा था। इसमें मेरे लिए क्या सबक है? ब्रूटस, नेपाल की जनता को अब शुभचिंतक नहीं चाहिए जो इस संविधान को उन के गले में डाल कर उनका गला घोंट देना चाहता है। उसे चाहिए एक बेरहम साथी जो कहे जला दो इस संविधान को इससे पहले कि ये संविधान तुम्हें जला दे। 

नेपाल: जैसा तैसा कैसा संविधान, ब्रूटस


नेपाल: जैसा तैसा कैसा संविधान, ब्रूटस

Posted by Reyaz-ul-haque on 7/19/2015 03:17:00 PM



विष्णु शर्मा 

ऐसा लगता है नेपाल के मामले में रुचि रखने वाले भारतीय वाम 'चिंतक' भी पूंजीवादी का दबाव सहन नहीं कर पा रहे हैं। वे घुटन महसूस करने लगे हैं। और यही वजह है कि वे भी जो स्वयं को नेपाली जनता का हितैषी बताते हैं उसी तर्क को, उसी भाषा में दोहराने लगे हैं जो बात न जाने कब से 'उदार' और 'भले' चिंतक दोहरा रहे हैं कि 'बस एक बार जैसा तैसा संविधान बन जाए और आगे का रास्ता खुले'।

ऐसी घटिया दलील करते हुए भी वे यह मनवाना चाहते हैं कि वे जनता के असली शुभचिंतक हैं। वे लगातार यह साबित करने की कोशिश में रहते हैं कि संविधान के न बनने से जनता बर्बाद हो रही है, वो मर रही है और वो गिड़गिड़ा रही है 'हे भगवान कोई हमें संविधान दे दे'। सच तो यह है कि अगर जनता को 'जैसा तैसा संविधान' ही चाहिए था तो वो तो उसके पास सदियों से नहीं तो दशकों से है ही। क्या कोई जनता 13 हजार अपने सबसे उत्तम बच्चों का बलिदान 'जैसा तैसा' संविधान के लिए करती है?

ये 'जैसा तैसा' संविधान' कितना लिजलिजा शब्द है और कितना गिलगिली होती है इसको कहने वाली जुबान। मवाद से भरी पीली गिलगिली जुबान।

संविधान का एजेण्डा यकीनन माओवादियों का था। और यह होता भी किसका। हालाकि यह एक सफेद झूठ है कि संविधान सभा के लिए माओवादी जनयुद्ध हुआ। संविधान सभा को जनयुद्ध के एक पड़ाव की तरह ही प्रस्तुत किया गया था न कि जनयुद्ध के अंतिम लक्ष्य की तरह। बाद में नेपाली क्रांति के गद्दारों और उनके दलालों ने इसे छल से साध्य का रूप दे दिया। नेपाल की जनता ने तो इस छल के पकड़ लिया और खुल कर इसके खिलाफ खड़ी हो गई। लेकिन भारत में इन वर्षों में लगभग इस झूठ को स्वीकारता मिल गई। दुख तो इस बात का है कि हमारे 'ब्रूटसों' ने ऐसा किया। 'एट टू, ब्रूटस'।

अपनी कमजोरियों और डर को ढंकने के लिए कथित रेडिकल पार्टियों और वाम चिंतकों ने इन 9 वर्षो में संविधान सभा के इर्द-गिर्द भारतीय क्रांतिकारी जनता को गोलबंद किया। नेपाल से बुद्धिजीवियों और नेताओं को बुला कर संविधान को जनता का संघर्ष दिखाने का षड्यंत्र किया गया। 'एट टू, ब्रूटस'।

बाबुराम और प्रचण्ड आते रहे और रेडिकल बुद्धिजीवी इन्हें एकतर्फा ढंग से जनता के बीच ले जाते रहे। कोई सवाल नहीं सिर्फ एकतर्फा कुतर्क। और सवाल पूछने वालों पर तंज और व्यंग। फेंकने वाला क्रांतिकारी और जवाब मांगने वाला 'बेचारा' साबित किया जाता रहा। 'एट टू, ब्रूटस'।

नेपाली क्रांति के भारतीय 'शुभचिंतक' नेपाल और भारत के सच्चे माओवादियों और क्रांतिकारियों को 'जड़' साबित करते रहे और राजा को नंगा कहने वालों को किनारे लगाते रहे। इन सालों में उन्हें 'रूमानी', '100 साल पीछे चलने वाला', '24 कैरेट क्रांतिकारी' और न जाने क्या क्या नहीं कहा गया। लेकिन इससे क्या हुआ? होता भी क्या?

हाल में ग्रीस में एक गद्दार पर जनता ने विश्वास किया। उसने कहा 'तुम मुझे अपना लो, मैं तुम्हें युरो जेल से आजादी दूंगा'। जनता ने उसे चाबी दी। चाबी हाथ में आते ही वो जेलर के साथ खड़ा हो गया और बोला 'मुझ पर विश्वास करो, तुम्हारे भले के लिए तुम्हें यहां रहना होगा'। वो मालिक बन गया। फैसला करने लगा। 'एट टू, ब्रूटस'।

ऐसे ही नेपाल में जनता ने चाबी दी प्रचण्ड को लेकिन चाबी हाथ में आते ही वो उसे लेकर साउथ ब्लॉक भाग गया और फरियाद करने लगा, 'मालिक नेपाल की चाबी मेरे हाथ लग गई है अब मुझे प्रधान मंत्री बना दो'। राजतंत्र के खात्मे के बाद जिस किसी भी नेता के पास नेपाल की चाबी आई उसने सबसे पहले जेलर के आगे सर झुकाया और तर्क दिया 'हम क्या कर सकते हैं, हम लैण्डलॉक्ड हैं'। जनता 'मरने' से नहीं डरती नेता डरते हैं। इस डर को छिपाने के लिए वे मार्क्सवाद में सुधार करते हैं, उसे समयानुकूल और प्रासंगिक बनाते हैं। मवाद की लिजलिजी तरलता 'जड़ता' के खिलाफ उनका तर्क है। और उनके वफादार बुद्धिजीवी बार बार उन्हें हमारे सामने पेश करते है। साल में दो बार महफिलें सजाई जाती हैं जहां 'महानता' के शोर में सच्चाई को मिममियाने के लिए मजबूर किया जाता है। सच्चाई पर समझदार होने का दवाब बनाया जाता है। बार बार गद्दारों को शहीद बनाया जाता है। 'एट टू, ब्रूटस'।

उसे अलेंदे मूर्ख लगता है। उसे खुशी है कि वो अलेंदे नहीं बना। वो अलेंदे न होने को अपनी प्रतिभा बता रहा है। और तुम ब्रूटस उसका मुंह नहीं नोच ले रहे हो। सहमति में सर हिला रहे हो। 'एट टू, ब्रूटस'।

एक अदद संविधान बन जाए तो क्या होगा? इससे क्या रास्ता खुलेगा और क्या ही रास्ता बंद होगा। नेपाल में जो संविधान जारी होने वाला है उसको अपने नहीं पढ़ा। उसे देखा तक नहीं। यदि देखा होता तो बैठ सकते थे उसके साथ? सहानुभूति हो सकती थी उसके साथ? 'कोई बात नहीं कॉमरेड', क्या यह वाक्य आ सकता था तुम्हारी जुबान में? लेकिन मैंने देखा है तुम्हें उससे उसी गर्मजोशी के साथ हाथ मिलाते जैसा कि तुम मिलते थे उससे जब वो ठीक उलटा था। इसमें मेरे लिए क्या सबक है? ब्रूटस, नेपाल की जनता को अब शुभचिंतक नहीं चाहिए जो इस संविधान को उन के गले में डाल कर उनका गला घोंट देना चाहता है। उसे चाहिए एक बेरहम साथी जो कहे जला दो इस संविधान को इससे पहले कि ये संविधान तुम्हें जला दे। 


तस्वीर: पूजा पंत 


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