सलवा जुडूम का नया संस्करण
श्वेता
अभी हाल ही में 5 मई को छत्तीसगढ़ के दांतेवाडा ज़िले में महेन्द्र कर्मा के बेटे छवीन्द्र कुमार ने सलवा जुडूम की ही तर्ज पर 'विकास संघर्ष समिति' की घोषणा की। राज्य द्वारा समर्थित और केन्द्र सरकार द्वारा पोषित 2005 में सलवा जुडूम की शुरुआत करते समय महेन्द्र कर्मा ने नक्सलवादियों से निपटने की जो बातें की थीं, कुछ उसी तरह की बातें उनके बेटे ने सलवा जुडूम के नये संस्करण यानी 'विकास संघर्ष समिति' की घोषणा करते समय फिर दोहरायी हैं। वैसे क्या इसे महज़ एक इत्तेफ़ाक समझा जाये कि यह घोषणा नरेन्द्र मोदी के दांतेवाड़ा दौरे के चार दिन पहले की गयी थी! दरअसल 9 मई को प्रधानमन्त्री मोदी ने विकास की लच्छेदार बातों की आड़ में कॉरपोरेटों को मालामाल करने की अपनी सरकार और पार्टी की नीति को आगे बढ़ाते हुए दांतेवाड़ा के एक गाँव में इस्पात प्लाण्ट समेत एक अन्य परियोजना का उद्घाटन किया। ज़ाहिर है इन तमाम परियोजनाओं को लागू करने के लिए बड़े पैमाने पर स्थानीय लोगों को उनकी जगह-ज़मीन से उजाड़ने और उनके किसी भी प्रकार के प्रतिरोध को कुचलने की ज़रूरत होगी और इसी ज़रूरत को पूरा करने के लिए नक्सलवाद से निपटने का बहाना बनाकर सलवा जुडूम को एक नये रूप में प्रस्तुत किया गया है।
ग़ौरतलब है कि वर्ष 2005 में छत्तीसगढ़ सरकार और टाटा तथा एस्सार जैसी कम्पनियों के बीच विकास परियोजनाओं को लेकर हुए समझौते के कुछ दिन बाद ही सलवा जुडूम की भी शुरुआत हुई थी। उस समय भी इन परियोजनाओं के लिए कम्पनियों को ज़मीन मुहैया कराने के लिए राज्य और केन्द्र सरकार ने जमकर सलवा जुडूम का सहारा लिया। सरकारों ने मीडिया के ज़रिये इस झूठ को ख़ूब ज़ोर-शोर से उछाला कि यह नक्सलवाद से निपटने का स्थानीय जनता का स्वतःस्फूर्त आन्दोलन है। बताया गया कि सलवा जुडूम (गोण्डी भाषा में इसका अर्थ शान्ति के लिए अभियान है) स्थानीय लोगों को नक्सलवाद के ख़तरे से वाकिफ कराने और उससे निपटने का एक शान्तिपूर्ण जनजागरण अभियान है पर वास्तव में यह जनजागरण अभियान स्थानीय लोगों को उनकी ज़मीन से उजाड़ने का एक बर्बर उपक्रम था। सलवा जुडूम के लिए बाकायदा राज्य सरकार ने 6500 स्पेशल पुलिस अफ़सरों (एसपीओ) की तैनाती की। इनमें से अधिकतर स्थानीय आदिवासी बेरोज़़गार और नाबालिग युवा थे जिन्हें पैसों का झाँसा देकर अपने ही लोगों के खि़लाफ़ लड़ने के लिए तैयार किया गया। इन्हें सुरक्षा बलों द्वारा विशेष सैन्य प्रशिक्षण देने के साथ-साथ हथियारों से लैस किया गया। स्थानीय लोगों पर 'नक्सली' होने का लेबल चस्पाँ करके एसपीओ सुरक्षा बलों के साथ मिलकर उन्हें गिरफ्तार करती। यही नहीं सभी क़ानूनों को ताक पर रखकर उनके घर जला दिये गये, उन्हें बर्बर यातनाएँ दी गयीं, उनकी हत्या की गयी और उनके परिवार की महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया। अपनी ज़मीन से उजाड़कर इन स्थानीय लोगों को सलवा जुडूम कैम्पों में जाने के लिए मजबूर किया गया। इन कैम्पों की स्थितियाँ जेलों की तरह ही बेहद अमानवीय थीं जहाँ उजाड़े गये लोगों से बेगार कराया जाता। ग़ौरतलब है कि वर्ष 2005-2009 के बीच 640 गाँवों से लगभग 3.5 लाख स्थानीय लोगो को उजाड़ा गया। करीब 1 लाख लोग अपने गाँव छोड़कर आन्ध्र प्रदेश चले गये।
कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और जनवादी संगठनों के हस्तक्षेप के बाद वर्ष 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने सलवा जुडूम को ग़ैर-क़ानूनी और असंवैधानिक घोषित किया। लेकिन इसके बाद भी सलवा जुडूम अभी तक नये-नये रूपों में जारी है। वर्ष 2009 के बाद यह 'ऑपरेशन ग्रीन हण्ट' के नाम से जारी रहा जिसे कोया कमाण्डों के ज़रिये संचालित किया गया। महेन्द्र कर्मा के बेटे छवीन्द्र कुमार द्वारा 'विकास संघर्ष समिति' की घोषणा भी इसी निरन्तरता की ही एक कड़ी है। सलवा जुडूम के इन सभी रूपों को सरकारी संरक्षण के अलावा उद्योगपतियों, स्थानीय ठेकेदारों की सरपरस्ती भी प्राप्त है। यह अनायास नहीं है कि नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने के बाद दांतेवाड़ा में अर्द्धसैनिक बलों की संख्या 21 कम्पनी और बढ़ायी गयी है। सरकारें विकास के नाम पर जितने बड़े पैमाने पर लोगों को जगह-ज़मीन से उजाड़ रही है उसके परिणामस्वरूप उठने वाले जन असन्तोषों से निपटने की तैयारी के लिए ही लगातार पुलिस, सेना, अर्द्धसैनिक बलों की संख्या में भी बढ़ोतरी की कवायदें की जा रही हैं। दांतेवाड़ा में अर्द्धसैनिक बलों की हालिया बढ़ोतरी को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए।
यहाँ एक और बात पर ग़ौर करने की ज़रूरत है। आमतौर पर देखा जाता है कि विकास के नाम पर उजड़ने वाले लोगों के पक्ष में खड़े होने वाली ताक़तों को सरकारें तथा राज्यसत्ता के तमाम अंग विकास विरोधी घोषित करते हैं। कॉरपोरेट मीडिया भी इसी सुर में सुर मिलाकर इस धारणा के पक्ष में जनमत निर्मित करता है। ज़ाहिरा तौर पर पूँजीवाद उत्पादक शक्तियों के विकास करने की प्रक्रिया में बड़े पैमाने पर स्वतन्त्र उत्पादकों को उजाड़ता है और उन्हें सामूहिक श्रम की व्यवस्था के अन्तर्गत ले आता है। हालाँकि सामूहिक श्रम की व्यवस्था होते हुए भी चूँकि निजी सम्पत्ति की व्यवस्था मौजूद रहती है इसलिए मेहनतकशों द्वारा सामूहिक तौर पर सृजित सम्पदा का संकेन्द्रण निजी हाथों में होता चला जाता है। इस तरह व्यापक मेहनतकश आबादी के हिस्से विकास की जूठन ही पहुँच पाती है। सवाल विकास के पक्ष या विपक्ष में खड़े होने का है ही नहीं। मुख्य सवाल तो यह है कि विकास निजी हितों के लिए हो रहा है या बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी के हितों को ध्यान में रखकर हो रहा है। पूँजीवाद में निजी हितों के लिए होने वाले विकास की क़ीमत अक्सर ही मेहनतकशों को चुकानी पड़ती है। सलवा जुडूम उसी का ही एक उदाहरण है।
मज़दूर बिगुल, जून 2015
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