अब थोड़ा संघी ब्रिगेड के जनसंख्या विज्ञान पर भी नज़र डालते हैं। यह पिछले एक-दो दशक में सामने आया "भगवा" विज्ञान नहीं है। एक सदी पहले 1909 में पंजाब हिन्दू महासभा के सह-संस्थापक य.न. मुखर्जी ने एक किताब लिख कर संघ के जनसंख्या विज्ञान का सिद्धान्त पेश किया था, जिसके अनुसार देश में मुस्लिम लोग ज़्यादा बच्चे पैदा करके हिन्दुओं से अपनी जनसंख्या अधिक करने वाले हैं और इस तरह बहुत जल्दी ही मुसलमान भारत पर कब्जा कर लेंगे। मुखर्जी का "विज्ञान" तो समय के साथ औन्धे मुँह गिर चुका है मगर उसके पैरोकारों ने इस विज्ञान का प्रचार नहीं छोड़ा है। संघ के ताजा "लव-जिहाद" वाले झूठे प्रचार की असलियत तो हम देख ही चुके हैं। अब इनके दूसरे तर्कों की बात करते हैं जिनका भारत के अच्छे-खासे हिस्से पर असर है जिसमें आम मज़दूर-गरीब लोगों के अलावा मध्यवर्गीय तथा बुद्धिजीवी तबके के बहुतेरे लोग भी शामिल हैं।
संघियों द्वारा सबसे ज़्यादा पेश किया जाने वाला तर्क यह है कि मुसलमान पुरुष 3-3, 4-4 औरतों से शादी करते हैं, इसलिए मुस्लिम ज़्यादा बच्चे पैदा करते हैं। यह एकदम मूर्खतापूर्ण बात है। प्रकृति में लड़का और लड़की के पैदा होने का अनुपात 51 लड़कियों के पीछे 49 लड़के है, मतलब लगभग 50-50 प्रतिशत। इसलिए किसी समुदाय में बच्चे पैदा होने की दर मोटे तौर पर उस समुदाय में बच्चा पैदा करने की उम्र वाली औरतों की संख्या पर निर्भर करती है। दूसरा, अगर किसी समुदाय में एक आदमी चार औरतों से शादी करता है तो तीन आदमियों को शादी के बिना रहना होगा। इस तरह बच्चा पैदा करने के लिए बनने वाले जोड़ों की संख्या उतनी ही रहेगी। उल्टा अगर एक आदमी चार-चार औरतों से शादी करता है तो बच्चा पैदा होने की दर एक आदमी-एक औरत वाली शादियों से कम होगी। अब देखें तथ्य क्या कहते हैं? भारत में एक से ज़्यादा औरतों से शादी करने का प्रतिशत हिन्दुओं में 5.8 प्रतिशत है, जबकि मुसलमानों में 5.73 प्रतिशत है। वैसे भी आँख का अंधा और कान से बहरा आदमी भी यह आराम से समझ सकता है कि आज के महँगाई तथा बेरोजगारी के समय में 4-4 पत्नियाँ और 25-25 बच्चे पालना कितना संभव है। असल में संघी फ़ासीवादी इस्लाम धर्म में एक से ज़्यादा औरतों से शादी की अनुमति होने वाली बात को आधार बनाकर यह सारा झूठा प्रचार करते हैं और तर्क तथा तथ्य की बात बिलकुल नहीं करते क्योंकि यही वो चीजें हैं जो संघियों को नंगा करती है। सभी धर्मों में अनेकों ऐसी बातें हैं जो किसी समय में हालात के कारण समाज में प्रचलित हुईं मगर अब प्रासंगिकता खो चुकी हैं और अब या तो कर्मकाण्ड बन चुकी हैं, या फिर उस धर्म के अमीरों तथा पुरुषवर्चस्वकारी सोच के लिए गरीबों तथा औरतों के दमन का हथियार बन चुकी हैं। इस्लाम में एक से ज़्यादा औरतों से शादी वाली बात भी ऐसी ही है। इसका प्रचलन संभवतः तब हुआ जब इस्लाम मुख्य रूप से उन कबीलों का धर्म था जो दूसरे कबीलों से लगातार लड़ते रहते थे जिसके चलते कबीलों में मर्दों की संख्या औरतों की संख्या से कम रहती थी। इसलिए कबीले की जनसंख्या बनाए रखने के लिए ऐसा प्रचलन शुरू हुआ, मगर समय के साथ यह अमीरों के लिए ऐश उड़ाने के लिए औरतों का इस्तेमाल करने के लिए धर्म से मान्यता प्राप्त तरीका बन गया और गरीबों की औरतों को अपने कब्जे में करने का तरीका भी। साथ में यह समाज में पुरुषवर्चस्वकारी सोच का माध्यम भी बना। किसी भी और धर्म के पुजारियों की तरह, इस्लाम धर्म के मुल्ले भी अमीरपरस्त तथा पुरुषवर्चस्ववादी होने के कारण अभी भी इस धार्मिक सिद्धान्त को बनाए हुए हैं जिसका फ़ायदा संघी फ़ासीवादी गिरोह मुस्लिम समुदाय के खिलाफ़ नफ़रत फैलाने के लिए करते हैं। यह एक और उदाहरण है जिससे यह पता चलता है कि किस तरह सभी धर्मों के चौधरी आम लोगों को लड़ाने के लिए एक-दूसरे को बहाना देते हैं।
No comments:
Post a Comment