जब भी मैं अपने देश के बारे में सोचता हूँ, मुझे भारत माता तो नहीं, गिद्धों, सियारों, भेड़ियों और मूषकों द्वारा अनवरत नोची जाती हुई अधमरी भैंस नजर आती है। जब मैं अपने तथा अपने जैसे वरिष्ठ नागरिकों के बारे में विचार करता हूँ तो मुझे एक अदद भीष्म पितामह दिखाई देते है। अंधे धृतराष्ट्र के दरबार में नाती पोते घर, राज्य और परंपरा और अपना सब कुछ सब कुछ की उजाड़ देने हद तक एक जुआ खेल रहे है, पौत्रवधू को भी दाव पर लगाया जा रहा है, उसे नंगा किया जा रहा है, पर महाबली होने का दंभ भरने वाले पितामह चुपचाप सिर झुकाए बैठे हैं।
मन करता है कि अपने और अपने जैसे हजारों-हजार पितामहों से चिल्ला कर कहूँ, अरे जामवन्तो! समुद्र पार करने की तुम्हारी सामर्थ्य न भी रह गयी हो, (वैसे अपनी जवानी में भी थी क्या?) कम से हनुमानों को हुलने की कोशिश तो कर सकते हो!।
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