असहमति और आलोचना को दुश्मनी समझ लिया जा रहा है .
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पिछले लम्बे समय से फेसबुक में स्टेट्स और कमेंट्स पढ़ते हुए महसूस हो रहा है कि ऐसी बातें जो किसी धर्म,जाति या क्षेत्र के पक्ष में कही जाती हैं तो वे बहुत पसंद की जाती हैं. लोग उसके समर्थन में आ खड़े होते हैं. इसके विपरीत यदि किसी धर्म,जाति या क्षेत्र विशेष की संकीर्णताओं ,बुराइयों या सीमाओं पर प्रश्न खड़े किये जाते हैं या उनकी आलोचना की जाती है तो लोग बिदक पड़ते हैं. गाली-गलौच तक करने में उतारू हो जाते हैं. जबकि दूसरे धर्म,जाति या क्षेत्र विशेष की संकीर्णताओं की वे खूब आलोचना करते हैं लेकिन अपने भीतर की उन्ही संकीर्णताओं पर दूसरा उंगुली उठता है तो वह नाराज हो उठते हैं. समाज में समानता,स्वतन्त्रता और बंधुत्व की बातों को कम ही समर्थन मिलता है. सभी धर्मों,जातियों,लिंगों,क्षेत्रों आदि को समान समझने और सामान व्यवहार किये जाने की बात लोग कम ही पसंद करते हैं. एक इंसान होकर सोचने की बात करना कुफ्र होता जा रहा है. बस अपने-अपने धर्म,जाति या क्षेत्र को श्रेष्ठ घोषित करने की होड़ सी दिखाई देती है. इन दडबों से बहुत कम हैं जो बाहर आना चाहते हैं. ये वे लोग हैं जिनको अपने लिए सारी धरती चाहिए और दूसरे को सुई की नोक के बराबर भी नहीं देना चाहते हैं. अपने लिए सारे अधिकार चाहिए और दूसरा उन्ही अधिकारों की इच्छा व्यक्त करता है तो इन्हें परेशानी हो जाती है .इनको इतनी सी बात समझ में नहीं आती है कि आखिर जो कुछ वह खुद के लिए चाहते हैं ,आखिर वही दूसरे को देने में आपत्ति क्यों? ये सारी दिक्कतें तभी आती हैं जब केवल खुद के बारे में सोचा जाता है ,खुद को दूसरे की जगह रखकर देखा या सोचा जाय तो सब कुछ समझ में आ जाता है; लेकिन ऐसा तो करना ही नहीं हुआ. कितनी अजीब बात है हम खुद के साथ किसी तरह की हिंसा नहीं चाहते हैं लेकिन अपने मन की न होने पर दूसरे के प्रति जल्दी ही हिंसक हो उठते हैं. मन-वचन-कर्म ,हर रूप में हिंसा करने के लिए उतारू हो जाते हैं. ठहरकर सोचने के लिए तैयार ही नहीं हैं. सब अपनी बात को ‘अंतिम सत्य’ की तरह कहे जा रहे हैं. संवाद नहीं आरोप-प्रत्यारोप अधिक हो रहा है . असहमति और आलोचना को दुश्मनी समझ लिया जा रहा है . आखिर ऐसे में कैसे एक शांतिपूर्ण , अहिंसक और लोकतान्त्रिक समाज संभव होगा? यह प्रश्न बहुत बेचैन कर रहा है . कोई राह निकलती नहीं दिखाई दे रही है . क्या हम सचमुच सभ्य हो गये हैं ?
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पिछले लम्बे समय से फेसबुक में स्टेट्स और कमेंट्स पढ़ते हुए महसूस हो रहा है कि ऐसी बातें जो किसी धर्म,जाति या क्षेत्र के पक्ष में कही जाती हैं तो वे बहुत पसंद की जाती हैं. लोग उसके समर्थन में आ खड़े होते हैं. इसके विपरीत यदि किसी धर्म,जाति या क्षेत्र विशेष की संकीर्णताओं ,बुराइयों या सीमाओं पर प्रश्न खड़े किये जाते हैं या उनकी आलोचना की जाती है तो लोग बिदक पड़ते हैं. गाली-गलौच तक करने में उतारू हो जाते हैं. जबकि दूसरे धर्म,जाति या क्षेत्र विशेष की संकीर्णताओं की वे खूब आलोचना करते हैं लेकिन अपने भीतर की उन्ही संकीर्णताओं पर दूसरा उंगुली उठता है तो वह नाराज हो उठते हैं. समाज में समानता,स्वतन्त्रता और बंधुत्व की बातों को कम ही समर्थन मिलता है. सभी धर्मों,जातियों,लिंगों,क्षेत्रों आदि को समान समझने और सामान व्यवहार किये जाने की बात लोग कम ही पसंद करते हैं. एक इंसान होकर सोचने की बात करना कुफ्र होता जा रहा है. बस अपने-अपने धर्म,जाति या क्षेत्र को श्रेष्ठ घोषित करने की होड़ सी दिखाई देती है. इन दडबों से बहुत कम हैं जो बाहर आना चाहते हैं. ये वे लोग हैं जिनको अपने लिए सारी धरती चाहिए और दूसरे को सुई की नोक के बराबर भी नहीं देना चाहते हैं. अपने लिए सारे अधिकार चाहिए और दूसरा उन्ही अधिकारों की इच्छा व्यक्त करता है तो इन्हें परेशानी हो जाती है .इनको इतनी सी बात समझ में नहीं आती है कि आखिर जो कुछ वह खुद के लिए चाहते हैं ,आखिर वही दूसरे को देने में आपत्ति क्यों? ये सारी दिक्कतें तभी आती हैं जब केवल खुद के बारे में सोचा जाता है ,खुद को दूसरे की जगह रखकर देखा या सोचा जाय तो सब कुछ समझ में आ जाता है; लेकिन ऐसा तो करना ही नहीं हुआ. कितनी अजीब बात है हम खुद के साथ किसी तरह की हिंसा नहीं चाहते हैं लेकिन अपने मन की न होने पर दूसरे के प्रति जल्दी ही हिंसक हो उठते हैं. मन-वचन-कर्म ,हर रूप में हिंसा करने के लिए उतारू हो जाते हैं. ठहरकर सोचने के लिए तैयार ही नहीं हैं. सब अपनी बात को ‘अंतिम सत्य’ की तरह कहे जा रहे हैं. संवाद नहीं आरोप-प्रत्यारोप अधिक हो रहा है . असहमति और आलोचना को दुश्मनी समझ लिया जा रहा है . आखिर ऐसे में कैसे एक शांतिपूर्ण , अहिंसक और लोकतान्त्रिक समाज संभव होगा? यह प्रश्न बहुत बेचैन कर रहा है . कोई राह निकलती नहीं दिखाई दे रही है . क्या हम सचमुच सभ्य हो गये हैं ?
द्वारा - Mahesh Punetha
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