Sustain Humanity
Friday, September 30, 2016
Sushanta Kar ধনধান্যে পুষ্পে ভরা আমাদের এই বসুন্ধরা... এই গানটি এক রানীর গলাতেই বসানো হয়েছিল। তার পরে যে কৃষক খেতে পায় না, তার সামনেও অশালীন ভাবে বহুবার গাওয়া হয়েছিল। এখনো হয়। লেখা হয়েছিল সেই ঔপনিবেশিক শাসনের সময়ে যার শাসনের শুরু এবং শেষে শুধু বাংলাদেশেই কয়েক কোটি মানুষ না খেয়ে মরে গেছিলেন। আমরা কেমন এক মায়ার জগতে বাস করতে বেশ ভালোবাসি। যে সত্য উচ্চারণ করে, তার কণ্ঠরোধ করতে আমরা সদা উৎসাহী।
बक्सादुआर के बाघ,कर्नल लाहिड़ी का आदिवासी जीवन पर नायाब उपन्यास
Where should Hindu refugees go with Geeta in Hand,to Pakistan or Afghanistan?
২০১২ সালে গৌহাটীতে নিখিল ভারত বাঙালি উ স সমিতির মঞ্চে দেওয়া ভাষনে হিমন্ত বিশ্বশর্মা এখনও অনড়। হিমন্ত দল ত্যাগ করলেও নীতির পরিবর্তন করেন নাই।
Second in Commander in Assam BJP Government HIMANTO Vishwakarma demands citizenship for partition victim every refugee coming from East Bengal contrary to the BJP governance in Assam or India which denies citizenship to East Bengal refugees and specifically in Assam the ULFA agenda to deport all NON Assamese out of Assam targets Hindnu refugees also and more than 800 hundred Hindu refugees have been subjected to inhuman persecution in Assam and refugees have been put in DETENTION Camps as Ulfa treats everyone foreigner whoever entered in Assam after 1951 including Hindu,Buddhist,Barua,Chakma and Muslim refugees from East Bengal and Bihari, Bengali, Rajsthani and Punjabi citzens for other states in India.
Daink Jugashankha from Guahati and Kolkata has published latest statement of Minister Himanta Vishwakarma who crossed fence to land in RSS camp deserting Congress and ex CM Tarun Gogoi.He supported Nikhil Bharat Udvastu Samanyay Smiti movement in Assam as Congress leader and now speaks in RSS linguistics rejecting Ulfa demand to set 1951 as cut off year to identify foreigners in Assam.
Palash Biswas
Thursday, September 29, 2016
हमारी मुट्ठी में अब खून से लबालब सात समुंदर! पलाश विश्वास
हमारी मुट्ठी में अब खून से लबालब सात समुंदर!
पलाश विश्वास
पहलीबार टीवी पर युद्ध का सीधा प्रसारण खाड़ी युद्ध के दौरान अमेरिकी मीडिया ने किया अमेरिका के उस युद्ध को अमन चैन के लिए इराक के खिलाफ पूरी दुनिया का युद्ध साबित करने के लिए।दुनियाभर का मीडिया उसीके मुताबिक विश्व जनमत तैयार करता रहा और तेल कुंओं की आग में तब से लेकर अबतक सारी दुनिया सुलग रही है।
नतीजतन आधी दुनिया अब शरणार्थी सैलाब से उसीतरह लहूलुहान है,जैसे हम इस महादेश के चप्पे चप्पे पर सन सैंतालीस के बाद से लगातार लहूलुहान होने को अभिशप्त हैं।अमेरिका के उस युद्ध की निरंतरता से महान सोवियत संघ का विखंडन हो गया और सारा विश्व ग्लोब में तब्दील होकर अमेरिकी उपनिवेश में तब्दील है।सारी सरकारें और अर्थव्यवस्थाएं अब वाशिंगटन की गुलाम हैं और उसीके हित साध रही हैं।
मनुष्यता अब पिता की हाथों से बिछुड़कर समुंदर में तैरती लाश है और फिंजा सरहदों के आर पार कयामत है।
सरकारी आधिकारिक बयान के अलावा अब तक किसी सच को सच मानने का रिवाज नहीं है और वाशिंगटन का झूठ ही सच मानती रही है दुनिया।दो दशक बाद उस सच के पर्दाफाश के पर्दाफाश के बावजूद दहशतगर्दी और अविराम युद्धोन्माद, विश्वव्यापी शरणार्थी सैलाब,गृहयुद्धों और प्राकृतिक संसाधनों के लूटखसोट पर केंद्रित नरसंहारी मुक्तबाजार में कैद मनुष्यता की रिहाई के सारे दरवाजे खिड़किया बंद हैं और हम पुशत दर पुश्त हिरोशिमा और नागाशाकी,भोपराल गैस त्रासदी,सिख नरसंहार, असम त्रिपुरा के नरसंहार,आदिवासी भूगोल में सलवा जुड़ुम और बाबरी विध्वंस के बाद गुजरात प्रयोग की निरंतरता के मुक्तबाजार के तेल कुंओं में झलसते रहेंगे।मेहनतकशों के हाथ पांव कटते रहेंगे,युवाओं के सपनों का कत्लगाह बनता रहेगा देश,स्त्री दासी बनी रहेगी,बच्चे शरणार्थी होते रहेंगे और किसान खुदकशी करते रहेंगे।दलितों,आदिवासियों और आम जनता पर जुल्मोसिताम का सिलसिला जारी रहेगा।
इसलिए सर्जिकल स्ट्राइक के सच झूठ के मल्टी मीडिया फोर जी ब्लिट्ज और ब्लास्ट पर मुझे फिलहाल कुछ कहना नहीं है।मोबाइल पर धधकते युद्धोन्माद पर कुछ कहना बेमायने है।राष्ट्रद्रोह तो मान ही लिया जायेगा यह।
हम अमेरिकी उपनिवेश हैं और अमेरिकी नागरिकों की तरह वियतनाम युद्ध और खाड़ी युद्ध के विरोध की तर्ज पर किसी आंदोलन की बात रही दूर,विमर्श,संवाद और अभिव्यक्ति के लिए भी हम आजाद नहीं है क्योंकि यह युद्धोन्माद भी उपभोक्ता सामग्री की तरह कारपोरेट उपज है और हम जाने अनजाने उसके उपभोक्ता हैं। उपभोक्ता को कोई विवेक होता नहीं है।सम्यक ज्ञान और सम्याक प्रज्ञा की कोई संभावना कही नहीं है और न इस अनंत युद्धोन्माद से कोई रिहाई है।धम्म लापता है।
हम लोग ग्लोबीकरण की अवधारणा के तहत इस दुनिया को अपनी मुट्ठी में लेने की तकनीक के पीछे बेतहाशा भाग रहे हैं।यह वह दुनिया है जिसके पोर पोर से खून चूं रहा है।हमारी मुट्ठी में अब खून से लबालब सात समुंदर हैं।जिसमें हमारे अपनों का खून भी पल दर पल शामिल होता जा रहा है।अपनी मुट्ठी में कैद इस दुनिया की हलचल से लेकिन हम बेखबर हैं।खबरें इतनी बेहया हो गयी हैं कि उनमें विज्ञापन के जिंगल के अलावा जिंदगी की कोई धड़कन नहीं है।सच का नामोनिशां बाकी नहीं है।
1991 के बाद,पहले खाड़ी युद्ध के तुरंत बाद से पिछले पच्चीस सालों से हम अमेरिकी उपनिवेश हैं।हमें इसका कोई अहसास नहीं है।सूचना क्रांति के तिलिस्म में हम दरअसल कैद हैं और प्रायोजित पाठ के अलावा हमारा कोई अध्ययन, शोध, शिक्षा, माध्यम,विधा,लोक,लोकायत,परंपरा ,संस्कृति या साहित्य नहीं है।सबकुछ मीडिया है।
हालांकि उपनिवेश हम कोई पहलीबार नहीं बने हैं।फर्क यह है कि करीब दो सौ साल के ब्रिटिश हुकूमत का उपनिवेश बनकर इस महादेश का एकीकरण हो गया। अब अमेरिकी उपनिवेश बन जाने की वजह से गंगा उल्टी बहने लगी है।भारत विभाजन के बाद बचा खुचा भूगोल और इतिहास लहूलुहान होने लगा है और किसानों ,मेहनतकशों की दुनिया में नरसंहारी अश्वमेधी सेनाएं दौड़ रही हैं।साझा इतिहास भूगोल समाज और संस्कृति का ताना बाना बिखरने लगा है।उत्पादन प्रणाली ध्वस्त हो गयी है और औद्योगीकीकरण से जो वर्गीय ध्रूवीकरण की प्रक्रिया शुरु हो गयी थी,जो जाति व्यवस्था नये उत्पादन संबंधों की वजह से खत्म होने लगी थी,मनुस्मृति अनुशासन के बदले जो कानून का राज बहाल होने लगा था और बहुजन समाज वर्गीय ध्रूवीकरण के तहत आकार लेने लगा था,वह सबकुछ इस अमेरिकी उपनिवेश में अब खत्म है या खत्म होने को है।
ब्राह्मण धर्म जो तथागत गौतम बुद्ध की सामाजिक क्रांति से खत्म होकर उदार हिंदुत्व में तब्दील होकर ढाई हजार साल तक इस महादेश की विविधता और बहुलता को आत्मसात करते रहा है,फिर मुक्तबाजार का ब्राह्मणधर्म है,जो भारतीय संविधान की बजाय फिर मनुस्मृति लागू करने पर आमादा है।धम्म फिर सिरे से गायब है।
एकीकरण की बजाय अब युद्धोन्माद का यह मुक्तबाजार हिंदुत्व का ब्राह्मणधर्म है और हमारी राष्ट्रीयता कारपोरेट युद्धोन्माद है।महज सत्तर साल पहले अलग हो गये इस महादेश के अलग अलग राजनितिक हिस्से परमाणु युद्ध और उससे भी भयंकर जलयुद्ध के लिए निजी देशी विदेशी कंपनियों की कारपोरेट फासिज्म के तहत एक दूसरे को खत्म करने पर आमादा हैं जबकि विभाजन के सत्तर साल के बाद भी इन तमाम हिस्सों में संपूर्ण कोई ऐसा जनसंख्या स्थानांतरण हुआ नहीं है कि इस युद्ध में सीमाओं के आरपार बहने वाली खून की नदियों में हमारा वजूद लहूलुहान हो।अकेले बांग्लादेश में दो करोड हिंदू है तो भारत में मुसलमानों की दुनियाभर में सबसे बड़ी आबादी है और कुलस मिलाकर यह महादेश कुलमिलाकर अब भी एक सांस्कृतिक अविभाज्य ईकाई है,जिसे हम तमाम लोग सिरे से नजर्ंदाज कर रहे हैं।
कलिंग युद्ध से पहले,सम्राट अशोक के बुद्धमं शरणं गच्छामि उच्चारण से पहले सारा देश कुरुक्षेत्र का महाभारत बना हुआ था।सत्ता की आम्रपाली पर कब्जा के लिए हमारे गणराज्य खंड खंड राष्ट्रवाद से लहूलुहान हो रहे थे। दो हजार साल का सफर तय करने के बाद हमने बरतानिया के उपनिवेश से रिहा होकर अखंड भारत न सही,उसी परंपरा में नया भारतवर्ष साझा विरासत की नींव पर बना लिया है।अबभी हमारा राष्ट्रवाद अंध खंडित राष्ट्रवाद युद्धोन्मादी है।धम्म नहीं है कहीं भी।
हमारी विकास यात्रा सिर्फ तकनीकी विकास यात्रा नहीं है और न यह कोई अंतरिक्ष अभियान है।हम इतिहास के रेशम पथ पर सिंधु घाटी से लेकर अबतक लगातार इस महादेश को अमन चैन का भूगोल बनाने की कवायद में लगे रहे हैं। तथागत गौतम बुद्ध ने जो सत्य अहिंसा के धम्म के तहत इस महादेश को एक सूत्र में बांधने का उपक्रम शुरु किया था,वह सारा इतिहास अब धर्मोन्मादी युद्धोन्माद है।
आज मुक्त बाजार का कारपोरेट तंत्र मंत्र यंत्र फिर उसी युद्धोन्माद का आवाहन करके हमें चंडाशोक में तब्दील कर रहा है और हम सबके हाथों में नंगी तलवारें सौंप रहा है कि हम एक दूसरे का गला काट दें।
ब्रिटिश राज के दरम्यान अफगानिस्तान से लेकर म्यांमर,सिंगापुर,श्रीलंका से लेकर नेपाल तक हमारा भूगोल और इतिहास की साझा विरासत हमने सहेज ली। सामंती उत्पादन प्रणाली के नर्क से निकलकर हम औद्योगिक उत्पादन प्रणाली में शामिल हुए।ब्रिटिश हुक्मरान ने देश के बहुजनों को कमोबेश वे सारे अधिकार दे दिये, जिनसे मनुस्मृति की वजह से वे वंचित रहे हैं।मनुस्मृति अनुशासन के बदले कानून का राज बहाल हुआ तो नई उत्पादन प्रणाली के तहत जनमजात पेशे की मनुस्मृति अनिवार्यता खत्म हुई और शिक्षा का अधिकार सार्वजनिक हुआ।
शूद्र दासी स्त्री की मुक्ति की खिड़कियां खुल गयीं।अछूतों को सेना और पुलिस में भर्ती करके उन्हें निषिद्ध शस्त्र धारण का अधिकार मिला।तो संपत्ति और वाणिज्य के अधिकार भी मिले।मुक्तबाजार अब फिर हमसे वे सारे हकहकूक छीन रहा है।
औद्योगीकरण और शहरीकरण के मार्फत नये उत्पादन संबंधों के जरिये मेहनतकशों का वर्गीय ध्रूवीकरण एक तरफ जाति व्यवस्था के शिकंजे से भारतीय समाज को मुक्त करने लगा तो वर्गीय ध्रूवीकरण के रास्ते देश भऱ में,बल्कि पूरे महादेश में बहुजन समाज का एकीकरण होने लगा और सत्ता में भागेदारी का सिलसिला शुरु हो गया।जो अब भी जारी है।जिसे खत्म करने की हर चंद कोशिश इस युद्धोन्मादी हिंदुत्व का असल एजंडा है।
आदिवासी और किसान विद्रोह के अविराम सिलसिला जारी रहने पर जल जंगल जमीन और आजीविका के मुद्दे,शिक्षा और स्त्री मुक्ति,बुनियादी जरुरतों के तमाम मसले अनिवार्य विमर्श में शामिल हुए,जिसकी अभिव्यक्ति भारत की स्वतंत्रतता के लिए पूरे महादेश के आवाम की एकताबद्ध लड़ाई है,आजाद हिंद फौज है।सामाजिक क्रांति की दिशा में संतों के सुधार आंदोलन का सिलसिला जारी रहा तो नवजागरण के तहत सामंतवाद पर कुठाराघात होते रहे और किसान आंदोलनों के तहत मेहनतकश बहुजनों का राजनीतिक उत्थान होने लगा।
यह साझा इतिहास अब हमारी मुट्ठी में बंद सात समंदर का खून है।
हमारे दिलो दिमाग में अब मुक्तबाजार का युद्धोन्माद है।
हम आत्मध्वंस के कार्निवाल में शामिल हम कबंध नागरिक हैं और इस युद्धोन्माद के खिलाफ अभिव्यक्ति की कोई स्वतंत्रता एक दूसरे को भी देने को तैयार नहीं है।फासिज्म की पैदल सेना में तब्दील हमारी देशभक्ति का यही युद्धोन्माद है।
Dainik jugosankha 29-09-2016.
Wednesday, September 28, 2016
Never mourn my beloved friends if I have to collapse sooner or later! Palash Biswas
উচ্চবর্ণের মানুষেরা 1905 সালে বাংলাভাগের বিরোধিতা করল, তারাই আবার 1947 সালে বাংলাভাগের পক্ষে কেন গেল ? নিচের লেখাটা অনেকটাই দিক নির্দেশ করে বোধহয় ।।
I personally feel no amendment would ever solve the problem until the law itself is scrapped and we get back citizenship as partition victims under 1955 provisions prescribed by the original citizenship act without any condition at all.Legal discretion involves racist politics which would never allow our citizenship,I am afraid. NIBBUS should continue the movement! Palash Biswas
Palash Biswas
Draupadi - Kalakshetra Manipur
I wonder what would not be branded as sedition next! Draupadi has been performed by elegant Manipuri artists for many years and it always have been a challenge to present the story on stage.It deals with woman`s identity and existence subjected to brute patriarchal repression with racist venom under the genocide culture of the rulers.It is the infinite scream of a victim which might not be suppressed even if this governance of fascism kills our mind and heart.Every drop of the spilling blood would call for change.Let the fool have long ropes to hang themselves.
Draupadi - Kalakshetra Manipur
I wonder what would not be branded as sedition next! Draupadi has been performed by elegant Manipuri artists for many years and it always have been a challenge to present the story on stage.It deals with woman`s identity and existence subjected to brute patriarchal repression with racist venom under the genocide culture of the rulers.It is the infinite scream of a victim which might not be suppressed even if this governance of fascism kills our mind and heart.Every drop of the spilling blood would call for change.Let the fool have long ropes to hang themselves.
Silemukh - Veer Draupadi
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Silemukh - Veer Draupadi
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Silemukh - Veer Draupadi
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Silemukh - Veer Draupadi
I wonder what would not be branded as sedition next! Draupadi has been performed by elegant Manipuri artists for many years and it always have been a challenge to present the story on stage.It deals with woman`s identity and existence subjected to brute patriarchal repression with racist venom under the genocide culture of the rulers.It is the infinite scream of a victim which might not be suppressed even if this governance of fascism kills our mind and heart.Every drop of the spilling blood would call for change.Let the fool have long ropes to hang themselves.
Droupadi x264
I wonder what would not be branded as sedition next! Draupadi has been performed by elegant Manipuri artists for many years and it always have been a challenge to present the story on stage.It deals with woman`s identity and existence subjected to brute patriarchal repression with racist venom under the genocide culture of the rulers.It is the infinite scream of a victim which might not be suppressed even if this governance of fascism kills our mind and heart.Every drop of the spilling blood would call for change.Let the fool have long ropes to hang themselves.
Draupadi, Mahasveta
I wonder what would not be branded as sedition next! Draupadi has been performed by elegant Manipuri artists for many years and it always have been a challenge to present the story on stage.It deals with woman`s identity and existence subjected to brute patriarchal repression with racist venom under the genocide culture of the rulers.It is the infinite scream of a victim which might not be suppressed even if this governance of fascism kills our mind and heart.Every drop of the spilling blood would call for change.Let the fool have long ropes to hang themselves.
कामरेड नियोगी लाल जोहार…. - सुदीप ठाकुर
ফুটেউঠল কংগ্রেসের আসল চেহারা। উদ্বাস্তুদের ভোটব্যাংক করে এতদিন ব্যবহার করেছে কংগ্রেস, এখন উদ্বাস্তু দরদ শিকেয় উঠেছে। শেয়ার করুন। প্রতিবাদ করুন, অধিকার বুঝেনিন। নতুবা আগামীতে আমরা হবো ভারতের গোলাম।
মাতৃভাষা-সংস্কৃতির দাবিতে অস্ত্র তুলে নিয়েছিলাম,এবার প্রয়োজনে প্রাণ দেব
মাতৃভাষা-সংস্কৃতির দাবিতে অস্ত্র তুলে নিয়েছিলাম,এবার প্রয়োজনে প্রাণ দেব
বাংলা ভাগ করেছো,কিন্তু বাঙালিকে ভাগ করা যায়নি , দেশ বদল হলেও আমাদের ভাগ্য বদল হয়নি আজও- নিখিল ভারত বাঙালি উদ্বাস্তু সমন্বয় সমিতির সম্মেলনের মঞ্চে দাঁড়িয়ে রবিবার এমনটাই বললেন উত্তরপ্রদেশের সমন্বয় সমিতির সভাপতি ডা. রবিন দাস।
ক্ষোভ প্রকাশ করে তিনি বলেন, অস্ত্র জমা দিলেও, আর্দশ জমা দিইনি। শুধু অসম নয় ভারতের বুকে বাঙালিদের স্বীকৃতি দাবিতে প্রাণ দিতেও আমি রাজি।
২৬ সেপ্টেম্বর ২০১৬ উত্তর খন্ডের দীনেশপুরে নিখিল ভারত বাঙালি উদ্বাস্তু সমন্বয় স সমিতির আহ্বানে হাজার হাজার উদ্বাস্তুরা সাড়া দিলেন। সমন্বয় গড়ার ডাক দিলেন উদ্বাস্তু দরদী লোক কবি অসীম সরকার । উত্তর খন্ডের সমিতির কর্মীদের ধন্যবাদ জানাই। অসীম বাবুর অবদান উত্তর প্রদেশ ও উত্তর খন্ডের মানুষের মনের সর্নকোঠায় অমরহয়ে থাকবে। জয় নিখিল ভারত উদ্বাস্তু বাঙালি
Monday, September 26, 2016
1940 সালের দলিল আছে ওঁদের; 1964 সাল থেকে ভোটার| তবুও ডি-ভোটারের অভিযোগে তাঁরা সপরিবারে ডিটেনসন ক্যাম্পে!ট্রাইবুনালের চিঠি গায়েব করে, উত্তর দেবার সুযোগ না দিয়ে পুলিশ/প্রশাসন এ ভাবেই বাঙালিদের শায়েস্তা করার সুযোগ নিচ্ছে বলে অভিযোগ! মামলা সুপ্রিম কোর্টে এখন, কিন্তু তবুও কি সুবিচার মিলবে? নিখিল ভারত বাঙালি উদ্বাস্ত সমন্বয় সমিতির মঞ্চ থেকে এ প্রশ্নই ছুঁড়ে দিলেন বেণীমাধব; উত্তরটা কে দেবে? সংবিধান, গণতন্ত্র নাকি দেশভাগের নায়কেরা?
पूर्वी बंगाल से धार्मिक उत्पीड़न के शिकार भारत आये राजनीतिक शरणार्थियों के खिलाफ रंगभेदी सफाया अभियान असम में 80 लाख विभाजन पीड़ित हिंदू शरणार्थियों की नागरिकता छीनने के लिए हिंदुत्व के राजकाज में अमानुषिक अल्फाई उत्पीड़न त्रिपुरा समेत समूचे पूर्वोत्तर में अल्फाई राजकाज का आतंक एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
১৮ লাখ মানুষ কোন জল পাচ্ছে না ৪ দিন ধরে।
Priyasmita Dasgupta
তিলতিল করে মারা যাবে মানুষ। রক্ত বেরোবেনা, বোমা ফেলতে লাগবেনা রোজ রোজ, মহামারী ছড়াবে, তিল তিল করে মারা যাবে সিরিয়া। তিলতিল করে মারা যাবে পৃথিবী।
ভারত জুড়ে উদ্বাস্তুদের অধিকারের দাবিতে ঐক্যবদ্ধ আন্দোলনের ডাক
পলাশ বিশ্বাস
ভারত জুড়ে উদ্বাস্তুদের অধিকারের দাবিতে ঐক্যবদ্ধ আন্দোলনের ডাক
অসমে নাগরিকত্ত আইনের নামে সন্ত্রাস ৮০ লাখ বাঙালির রাতের ঘুম কেড়ে নিয়েছে
শনিবার কলকাতার লাগোয়া দূর্গানগরে শুরু হয়েছে ভারতের সর্ববৃহৎ উদ্বাস্তু সংগটনটির দুইদিন ব্যাপি কর্মী প্রশিক্ষণ শিবির। পশ্চিমবঙ্গ,অসম,ত্রিপুরা সহ আঠারো (১৮) টি রাজ্যের প্রতিনিধিরা এই শিবিরে অংশ নিয়েছেন। শিবিরে উদ্বাস্তুদের বিভিন্ন সমস্যা ও তার প্রতিকার নিয়ে কিভাবে আন্দোলন গড়ে তোলা হবে তা নিয়ে প্রশিক্ষণ দেওয়া হয় আগত প্রতিনিধিদের। এর পাশাপাশি সংবাদমাধ্যম ও সামাজিক মাধ্যমকে হাতিয়ার করে কিভাবে উদ্বাস্তুদের দাবিগুলি তুলে ধরা হবে তা নিয়ে আলোচনা হয়।
এই সভাগুলিতে আলোচকরূপে উপস্থিত ছিলেন, সাংবাদিক পূর্ণেন্দু চক্রবর্তী, সুপ্রীমকোর্টে আইনজীবি অম্বিকা রায়,ওড়িশ্যার মালকানগিরি প্রাক্তন বিধায়ক নিমাই সরকার, কলকাতা বিশ্ববিদ্যালয়ের প্রাক্তন রেজিস্টার নিতিশ বিশ্বাস, অল ইন্ডিয়া কোর্ডিনেশন কমিটি অফ বুদ্ধিষ্ট অর্গানাইজেশনের আশারাম গৌতম, ড.বিরাট বৈরাগ্য, ভারতীয় শুল্ক দফতরের প্রাক্তন কমিশনার অমল বিশ্বাস, বিরাজ মিস্ত্রী, সাহিত্যিক কপিলকৃষ্ণ ঠাকুর প্রমুখ।
এদিন ডা.সুবোধ বিশ্বাস বলেন, বর্তমানে ভারত জুড়ে প্রায় ৪ কোটি উদ্বাস্তু বাঙালি আছেন। এরমধ্যে পশ্চিমবংলার বাইরে পুর্ণবাসনের কথা বলে পাঠানো হয়েছে দন্ডকারণে, অসমে, ছত্রিসগড়ে সহ ভারতের বিভিন্ন স্থানে ২ কোটি বাঙালিকে। তাদের বসবাসের জন্য ভূমি দেওয়া হলেও জমির মালিকানা পাট্টা দেওয়া হয়নি। সেজন্য এরা কোন সরকারি অনুদান বা সুযোগ সুবিধা পান না। এর কারণে এরা অর্থনৈতিক ভাবে দেউলিয়া হয়ে পড়েছেন। এরা অধিকাংশই তপশীলি জাতির হওয়া সত্তেও সাংবিধানিক অধিকার থেকে বঞ্চিত। মাতৃভাষায় শিক্ষার অধিকার মতো, মৌলিক অধিকার থেকেও বঞ্চিত। তাদের জোর করে হিন্দি ভাষা শিখতে বাধ্য করা হচ্ছে। ফলে তারা বাঙালি সংস্কৃতি হারিয়ে ফেলছে। যদি এভাবে চলতে থাকে তাহলে আমরা বাঙালিদের জাতি হিসাবে নিজেদের হারিয়ে ফেলব।
তিনি বলেন, অসমে নাগরিকত্ত আইনের নামে সন্ত্রাস ৮০ লাখ বাঙালির রাতের ঘুম কেড়ে নিয়েছে। নাগরিকত্ত আইনের অজুহাতে বাঙলিদের ডিটেনশান ক্যাম্পে নিয়ে যাওয়া হচ্ছে। ৪ বছরের শিশু কল্পনা বিশ্বাস ক্যাম্পে নারকীয় সন্ত্রাস ভোগ করছে। এনআরসি আইনের আওয়তায় ৪০ লাখ বাঙালি উদ্বাস্ত বেঘর হয়ে পড়বে। দুঃখের বিষয় পশ্চিমবঙ্গের বাইরে বাঙালি উদ্বাস্তুদের এই যন্ত্রণা নিয়ে কলকাতার বুদ্ধিজীবিদের কোন হেলদোল নেই। অসমের উদ্বাস্তু বাঙালিদের ভার কিন্তু এরাজ্যের মানুষকে বহন করতে হবে যদি এখনই এর কোন প্রতিকার না হয়। অসমে যখন বিহারিরা আক্রান্ত হয় তখন মায়াবতি,লালুপ্রসাদরা ছুটে যান কিন্তু এরাজ্যের বাঙালি রাজনৈতিক নেতাদের সেই দায় নেই কেন?
তিনি আরও বলেন, এরাজ্যেকে নাম পরিবর্তন করে বাংলা করার উদ্যোগ নেওয়া হচ্ছে। তাকে আমরা স্বাগত জানিয়ে বলতে চাই, নাম পরিবর্তন দরকার তার পাশাপাশি দরকার ভারতের বিভিন্ন প্রান্তের বাঙালিদের রক্ষা করার ইচ্ছাও। এনিয়ে আমরা আন্দোলন করছিলাম এতদিন এবার বাংলার বুকে এ আন্দোলন শুরু করার জন্যই আমাদের এই প্রশিক্ষণ শিবির।
সৌজন্যে: যুগশঙ্খ
Friday, September 23, 2016
Thus, RAFALE deal struck!Thanks to Kashmir! Palash Biswas
Thus, RAFALE deal struck!Thanks to Kashmir!
Palash Biswas
It is unprecedented war campaign making in public opinion at home as well as worldwide for yet another Indo Pak clash in the border. It reminds the pattern of war campaign launched by Bush War Machine activated in United States of America as the corporate media worldwide campaign to build up a false resistance against so called weapons of mass destruction in Iraq to launch the war against the middle east to capture oilfields and resultant in Taliban to ISIS which made entire middle East And Africa subjected to American Spring.
Having signed nuclear deal with India,Bush injected the American Spring in Indian psyche to make Indian ocean peace zone a burning oil field for the survival of US War Economy in turmoil with the burns of wars since Vietnam and which have to be continued at any cost to bring home the dead soldiers and marines or those live dead humanity inflicted with personality disorder.
This war cry is being presented as a consumer product with strategic marketing in media and social media as the offspring of neoliberal reforms divested the unity and integrity of Indian nation, its democracy, its natural and human resources along with everything public including defence and internal security just to serve the interests of the desi videsi companies selling the weapons of mass destruction and we have been subjected to radioactive environment as nuclear plants have become viral in our veins so dangerously.This blind nationalism happens to be most antinational in this sense.
This war cry all on the name of false patriotism is nothing but simple business interests with huge stakes by those praivate companies around the world in the wide open Indian Weapon market.
Unfortunately,Indian people,specifically the people in Kashmir vally,a different demography with majority Muslim population have to be the victims as well as those human beings across the borders who would be sacrificed in border clash which might well be resolved with diplomatic bilateral exercise.
Those vomiting venom against humanity and nature have not to pay anything,the taxpayers have to pay the bill of commission to be paid as it has been the story of all defence purchase.Millions of people around this geopolitics have to be desettled yet again as the partition holocaust continues. Specifically those,who have to lose their sons converted into martyrs.
No conscience seems to relevant as it was not there anywhere to skip the war in the oilfields and the media misled the humanity.
Media reports:
Rafale fighters are 4.5 generation jets and with the deal for 36 aircraft being signed today, the Indian Air Force's (IAF) combat power will be enhanced significantly. The Rafale fighter jet is equipped to carry out both air-to-ground strikes, as well as air-to-air attacks and interceptions during the same sortie.
Rafale is an "omni-role" aircraft, with a full-range of advanced weapons such as Meteor Beyond-Visual-Range (BVR) missile, SCALP long-range missile, helmet mount system, AESA (Active Electronically Scanned Array) radar and latest warfare systems.
Dassault Aviation says that the aircraft has the ability to track targets and generate real time three-dimensional maps. It has a wing span of 10.90m; length of 15.30m; and a height of 5.30m.
The digital 'Fly-by-Wire' Flight Control System is aimed at providing longitudinal stability. But, more than anything else, it is the missiles that are integrated on the Rafale that add to the IAF's firepower.
निखिल भारत बांगली उद्वस्तु समन्वय समिति के तत्वाधान में दिनेशपुर नगर में विश्व विख्यात कवि श्री असीम सरकार जी के द्वारा एक विशाल कवी गान का आयोजन किया गया। जिसमें नगर तथा आस पास से आये हज़ारो लोगो ने कार्यक्रम का आनंद उठाया ।
जन्मशताब्दी वर्ष के मौके पर बिजन भट्टाचार्य के रंगकर्म का तात्पर्य पलाश विश्वास
जन्मशताब्दी वर्ष के मौके पर बिजन भट्टाचार्य के रंगकर्म का तात्पर्य
पलाश विश्वास
भारतीय गण नाट्य आंदोलन ने इस देश में सांस्कृतिक क्रांति की जमीन तैयार की थी, हम कभी उस जमीन पर खड़े हो नहीं सके।लेकिन इप्टा का असर सिर्फ रंग कर्म तक सीमाबद्ध नहीं है। भारतीय सिनेमा के अलावा विभिन्न कला माध्यमों में उसका गहरा अर हुआ है।सोमनाथ होड़ और चित्तोप्रसाद जैसे यथार्थवादी चित्रकारों से लेकर,देवव्रत विश्वास जैसे रवींद्र संगीत गायक,सलिल चौधरी और भूपेन हजारिका जैसे संगीतकार, माणिक बंदोपाध्याय से लेकर महाश्वेता देवी तक जनप्रतिबद्धता और रचनाधर्मिता के मोर्चे पर लामबंदी का सिलसिला उसी इप्टा की विरासत है।
यह भारतीय रंगकर्म और भारतीय सिनेमा में संगीतबद्ध लोक के स्थाई भाव का सर्वव्यापी सौंदर्यबोध है, जो एकमुश्त भारतीय सिनेमा के साथ भारतीय रंगकर्म, भारतीय साहित्य और संस्कृति की जमीन और लोक की जड़ों का रचनासंसार भी है।
बिजन भट्टाचार्य की जन्मशताब्दी के मौके पर पटना के रंगकर्मियों के आयोजन का न्यौता मिला है। लेकिन हम वहां जा नहीं पा रहे हैं।नवारुण भट्टाचार्य और महाश्वेता देवी के साथ दशकों के संवाद के जरिये बिजन भट्टाचार्य के रंगकर्म के अनेक अंतरंग आयाम से उसी तरह आमना सामना हुआ है,जिस तरह ऋत्विक घटक की फिल्मों मेघे ढाका तारा,कोमल गांधार और सुवर्णरेखा के मार्फत रंग कर्म आंदोलन के विस्तार का साक्षात्कार हुआ है।
नवान्न के लेखक,अभिनेता बतौर रवींद्र की नृत्य नाटिकाओं से लेकर ऋत्विक घटक की रचना संसार तक इप्टा के रंगकर्म का जो विशाल विस्तार है,इस मौके पर उसकी चर्चा करना चाहुंगा।यह आलेख थोड़ा लंबा हो जाये,तो पाठक माफ करेंगे।हम नहीं जानते कि इस आयोजन में कितने लोगों तक यह आलेख पूरा का पूरा पहुंच सकेगा,लेकिन हिंदी में भारतीय पाठकों को अपनी परखौती की इस विरासत को शेयर करने के लिए इस हम अपने ब्लागों पर भी साझा कर रहे हैं।हमारा भी नैनीताल में युगमंच और गिरदा के जरिये,फिर शिवराम जैसे नुक्कड़ रंगकर्मी के जरिये सत्तर के दशक में रंगकर्म से थोडा़ नाता रहा है तो कोलकाता में नांदीकार के साथ भी थोड़ा रिश्ता रहा है तो बिजन भट्टाचार्य के परिजनों को भी दशकों से बहुत नजदीक से जानना हुआ है।हम चाहेंगे कि रंगकर्म और साहित्य संस्कृति से जड़ि पत्रिकाएं इस पूरे आलेख को पाठकों तक पहुंचाने में हमारी मदद करें ताकि बिजन भट्टाचार्य के बहाने हम भारतीय रंग कर्म और कलामाध्यमों का एक संपूर्ण छवि नई पीढ़ियों के समाने पेश कर सकें।
पहले इस तथ्य पर गौर करें कि भारतीय रंगकर्म की मौजूदा संरचना और उसी शैली, कथानक, सामाजिक यथार्थ में विभिन्न कलाओं के विन्यास की जो संगीबद्धता है,उसकी शुरुआत नौटंकी और पारसी थिएटर की देशज विधाओं की नींव पर नाट्यशास्त्र और संस्कृत नाटकों की शास्त्रीय विशुद्ध नाट्य परंपरा के विपरीत रवींद्र नाथ के भारततीर्थ की विविधता और बहुलता वाली राष्ट्रीयता में रची बसी उनकी नृत्य नाटिकाओं से शुरु है।भारतीय नाटकों में संस्कृत और देशज नाटकों में नृत्यगीत बेहद महत्वपूर्ण रहे हैं,लेकिन रवींद्र नाथ ने नाटक की समूची संरचना और कथानक का विन्यास नृत्य गीत के माध्यम से किया है।बिजन भट्टाचार्य के लिखे नाटक नवान्न ने नृत्यगीत की उस शास्त्रीय तत्सम धारा को अपभ्रंश की लोक जमीन में तोड़कर अभिव्यक्ति के सबसे सशक्त माध्यम बतौर नाटक की जमीन तैयार की।जिसमें इप्टा आंदोलन के मंच से चित्रकला, साहित्य की विभिन्न धाराओं का समायोजन हुआ है और आधुनिक रंगकर्म में उन सभी धाराओं को हम एकमुश्त मंच पर बहते हुए देख सकते हैं।
रवींद्र नृत्य नाटिकाओं में चंडालिका,विसर्जन,चित्रांगदा,रक्करबी आधुनिक रंगकर्म के लिए तत्सम संस्कृत के वर्चस्व के बावजूद उसीतरह सामाजिक यथार्थ को सोंबोधित है जैसे मुक्तिबोध की भाषा और शिल्प,निराला के छायावाद की नींव पर आधुनिक हिंदी साहित्य के जनप्रतिबद्ध यथार्थवाद का विस्तार हुआ है।रवींद्र के इन चारों नृत्यनाटिकाओं में नृत्य के ताल में छंदबद्ध कविताओं के मार्फत स्त्री अस्मिता, अस्पृश्यता के खिलाफ बुद्धमं सरणमं गच्छामि और पराधीन भारत की स्वतंत्रतता की मुक्ति आकांक्षा का जयघोष है।चंडालिका,चित्रांगदा और नंदिनी तीनों मुक्ति संग्राम में नेतृत्वकारी भूमिका में है।
इसी सिलसिले में तत्सम से अपभ्रंश की लोक जमीन पर इप्टा आंदोलन के तहत भारतीय थियेटर का सामाजिक यथार्थ पर केंद्रित भारतीय रंगकर्म और संस्कृति कर्म का नया सौंदर्यबोध बना है, जिसे मार्क्सवादी सौंदर्यबोध से जोड़कर हम अपने लोक जीवन की मेहनतकश दुनिया के कला अनुभवों को ही नजरअंदाज करते हैं।बिजन भट्टाचार्य से वह शुरुआत हुई जब भारतीय रंगकर्मियों ने लोक जीवन को रंगकर्म का मुख्य विन्यास,संरचना और माध्यम बनाने में निरंतर काम किया है। भारतीय कला माध्यमों की समग्र समझ के साथ भारतीय रंगकर्म को देखने परखने के लिए बिजन भट्टाचार्य को जानना इसलिए बेहद जरुरी है।
नया रंगकर्म और रंगकर्म के नये प्रयोगों के लिए बिजन भट्टाचार्य का पाठ महाश्वेता देवी और नवारुण भट्टाचार्य के पाठ से ज्यादा जरुरी है।बिजन के बाद उनके ग्रुप थिएटर का निर्देशन करने वाले उनके बेटे नवारुण दा की मृत्यु उपत्यका में फिर वही नवान्न की भुखमरी की चीखें हैं तो अरबन लेखक नवारुण के उपन्यासों में फिर अंडरक्लास, अछूत, असभ्य, जातिहीन,अंत्यज सर्वहारा फैताड़ु या हर्बर्ट का धमाका गुलिल्ला युद्ध शब्द दर शब्द है।नवारुण दा और महाश्वेता दी के लेखन में वही फर्क है,जो ऋत्विक घटक और मृणाल सेन की फिल्मों में है।यह रंगकर्म के अनुभव का फर्क है जो नीलाभ या मंगलेश डबराल,वीरेन डंगवाल या गिरदा को दूसरे कवियों से अलग खड़ा कर देता है।
नवान्न के बिजन भट्टाचार्य और ऋत्विक घटक की युगलबंदी से सामाजिक यथार्थ की संगीदबद्ध सिनेमा का भी विकास हुआ जो दो बीघा जमीन की कथा से अलहदा है।लोक को रंगकर्म का आधार बनाने का मुख्य काम बिजन भट्टाचार्य के नवान्न से ही शुरु हुआ जो गिरदा के नाट्य प्रयोगों में कुमांयूनी और गढ़वाली लोक जीवन है तो हबीब तनवीर के नया थिएटर में फिर वही छत्तीसगढ़ी नाचा गम्मत के साथ तीखा परसाईधर्मी व्यंग्य है तो मणिपुर में इस धारा में मणिपुरी नृत्य और संगीत के साथ साथ मार्शल आर्ट का समावेश है।शिवराम से लेकर सफदर हाशमी की नुक्कड़ यात्रा में भी वही लोक जमीन ही रंगकर्म की पहचान है।
बिजन भट्टाचार्य की पत्नी महाश्वेता देवी थीं।महाश्वेता देवी के चाचा थे ऋत्विक घटक और महाश्वेता देवी के साथ बिजन भट्टाचार्य का विवाह टूट गया तो महाश्वेता देवी ने दूसरा विवाह कर लिया। नवारुण अपनी मां के साथ नहीं थे और वह अपने रंगकर्मी पिता के साथ थे।नवारुणदा ने मेघे ठाका तारा से लेकर सुवर्ण रेखा तक भारत विभाजन की त्रासदी को बिजन और ऋत्विक के साथ जिया है लेकिन अपने रचनाकर्म में छायावादी भावुकता के बजाय चिकित्सकीय चीरफाड़ नवारुणदा की खासियत है और बिजन और ऋत्विक की संगीतबद्धता की बजाय ठोस वस्तुनिष्ठ गद्य उनका हथियार है, लेकिन शुरु से लेकर आखिर तक नवारुणदा उसी नवान्न की जमीन पर खड़े हैं और भद्र सभ्य उपभोक्ता नागरिकों के साथ नहीं,मेहनतकश दुनिया के हक हकूक के साथ वे खड़े हैं लगातार लगातार शब्द शब्द युद्ध रचते हुए तो नवान्न में साझेदार महाश्वेता दी की रचनाओं में शहरी सीमेंट के जंगल के बजाय तमाम जंगल के दावेदार हैं,आदिवासी किसान विद्रोह का सारा इतिहास है और वह हजार चौरसवीं की मां से लेकर महाअरण्य की मां या सिंगुर नंदीग्राम जंगलमहल लोधा शबर की मां भी है।महाश्वेता दी रचनाकर्मी जितनी बड़ी हैं उससे बड़ी सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता है और वे विचारधारा के पाखंड को तोड़कर भी आखिरतक जंगल की गंध से अपनी वफा तोड़ती नहीं हैं।
सविताजी और मुझे उन्हीं महाश्वेता देवी के एकांत में उनके कंठ से दशकों बाद नवान्न के वे ही गीत सुनने को मिले हैं। पारिवारिक संबंध जैसे भी रहे हों,मेहनतकशों के हक हकूक की लड़ाई में नवान्न का रंगकर्म उनका हमेशा साझा रहा है।यही इप्टा को लेकर कोमल गांधार के विवाद और रंगकर्म पर नेतृत्व के हस्तक्षेप के खिलाफ ऋत्विक, देवव्रत विश्वास,सोमनाथ होड़ वगैरह की बगवात की कथा व्यथा भी है।यह कथा यात्रा भी सर्वभारतीय है,जिसमें भारतीय सिनेमा और उसके बलराज साहनी,एके हंगल जैसे तमाम चमकदार चेहरे भी शामिल हैं।
नवान्न बिजन भट्टाचार्य ने लिखा और 1944 में भारतीय गण नाट्य संघ(इप्टा) ने किंवदंती रंगकर्मी शंभू मित्र के निर्देशन में इस नाटक कामंचन भुखमरी के भूगोलको संबोधित करते हुए लिखा है।बाग्ला ग्रुप थिएटर आंदोलन की कथा जैसे शंभू मित्र के बिना पूरी नहीं होती तो बिजन की चर्च के बिना वह कहानी फिर अधूरी है।इन्हीं शंभू मित्र ने फिर राजकपूर की सर्वश्रेष्ठ फिल्म जागते रहो का निर्देशन किया।वहा भी मैं क्या झूठ बोल्या की गूंज राजकपूर और नर्गिस के करिश्मा से बढ़कर है और यह फिल्म इसीलिए महान है।भुखमरी के इसी भूगोल से सोमनाथ होड़ और चित्तोप्रसाद की चित्रकला जुड़ी है तो देवव्रत विश्वास के रवींद्र संगीत में भी भूख का वही भूगोल है जो माणिक बंद्योपाध्या का समूचा कथासंसार है।जो दरअसल रवींद्र की चंडालिका, रक्तकरबी और चित्रांगदा का भाव विस्तार है तो नया थिएटर से लेकर मणिपुरी थिएटर का बीज है और इसी परंपरा में मराठी रंगकर्म में तमाशा जैसे लोक विधा का समायोजन है तो दक्षिण भारतीय रंगकर्म में शास्त्रीय नृत्य भारत नाट्यम और कथाकलि विशुध लोक के साथ एकाकार हैं।
1944 में शंभू मित्र के निर्देशन में गणनाट्य संघ की प्रस्तुति के बाद 1948 में आजाद भारत में शंभू मित्र के ग्रुप थिएटर बहुरुपीके मच से कुमार राय के निर्देशन में फिर नवान्न का मंचन हुआ।ब्रिटिश भारत के बंगाल में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान एक भी मृत्यु बमवर्षा से न होकर लाखों लोग खामोशी से भुकमरी के शिकार हो गये।1943 की बंगाल की उस भुखमरी के शिकार लोगों की मदद के लिए इप्टा ने वायस आप बेंगल उत्सव के जरिये देशभर में एक लाख रुपये से बड़ी रकम इकट्ठा की थी। नवान्न सिर्फ नाटक का मंचन नहीं था,वह सामाजिक यथार्थ का कला के लिए कला जैसा कला कौशल भी नहीं था,भुखमरी के शिकार लोगों के लिए देशव्यापी राहत सहायता अभियान भी था वह ,जो इप्टा का सामाजिक क्रांति उपक्रम था,जिसमें सारे कला माध्यमों का संगठनात्मक ताना बाना था,जो पराधीन भारत में बना लेकिन भारत के आजाद होते ही टूटकर बिखर गया।इप्टा से नवान्न का बहुरुपी के मंच तक स्थानांतरण इसी विघटन का प्रतीक है।
बिजन भट्टा चार्य जितने बड़े लेखक थे,उससे कहीं ज्यादा सशक्त वे थिएटर और सिनेमा दोनों विधायों के अभिनेता थे।बांग्ला थिएटर आंदोलन में गिरीश चंद्र भादुडी़ के बाद त्रासदी जिनके नाम का पर्याय है,वे बिजन भट्टाचार्य है,जिन्होंने मेघे ढाका तारा में नीता के पिता की भूमिका अदा किया है तो विभाजन की त्रासदी को नाटक दर नाटक, फिल्म दर फिल्म भुखमरी की नर्क यंत्रणा के साथ जिया है,नवारुण दा ने उस पिता का हाथ कभी नहीं छोड़ा और यही उनकी आजीवन त्रासदी का सुखांत कहा जा सकता है।
विजन भट्टाचार्य और ऋत्विक घटक हमारी तरह ही पूर्वी बंगाल के विभाजनपीड़ित विस्थापित थे, जिन्हें उनकी सक्रिय रचनाधर्मिता और भारतीय संस्कृति,रंगकर्म और सिनेमा में अभूतपूर्व योगदान के बावजूद बंगाली भद्रलोक समाज ने कभी मंजूर नहीं किया।
ऋत्विक को बाकायदा बंगाल के इतिहास भूगोल से पूर्वी बंगाल से आये बंगाली विभाजनपीड़ितों की तरह खदेड़ दिया गया और बिजन भट्टाचार्य लगभग गुमनाम मौत मरे और बंगाल के सांस्कृतिक जगत में उनकी जन्मशताब्दी को लेकर वह हलचल नहीं है, जो बंगाल के किसी भी क्षेत्र में कुछ भी करने वाले किसी की भी जन्मशताब्दी को लेकर दिखती है।बल्कि यूं कहे कि बंगाली भद्रसमाज को भूख के भूगोल के इस महान शरणार्थी कलाकार की कोई याद नहीं आती वैसे ही जैसे उन्हें ऋत्विक घटक कभी रास नहीं आये।
हमारे पुरखे जैशोर जिले में रहते थे जो मधुमति नदी के किनारे नड़ाइल थाना इलाके के वाशिंदा थे और वे हरिचंदा ठाकुर के मतुआ आंदोलन से लेकर तेभागा तक के सिपाही थे।वह नड़ाइल अब अलग जिला है।मधुमति नदी भी सूख सी गयी है ,बताते हैं।उसी मधुमति नदी के उस पार फरीदपुर जिले के खानखानापुर में 1906 को बिजन भट्टाचार्य का जन्म हुआ था।उनके पिता क्षीरोद बिहारी स्कूल शिक्षक थे।पेशे के लिहाज से बदली होते रहने के कारण बंगाल भर में पिता के साथ सफर करते रहने की वजह से बंगाल के विबिन्ऩ इलाकों के लोकत में उनकी इतनी गहरी पैठ बनी।उनके लिखे में इसलिए भद्रलोक तत्सम भाषा के बजाय बोलियों के अपभ्रंश ज्यादा हैं,जिन्हें उन्होंने नवान्न मार्फत भारतीय रंगकर्म का सौंदर्यशास्त्र बना दिया।
नवान्न के बारे में बिजन भट्टाचार्य ने खुद कहा है,आवेग न हो तो कविता का जन्म नहीं होता-संवेदना न हो,जीवन यंत्रणा न हो तो शायद कोई रचना संभव नहीं है।
इसतरह गणनाट्य आंदोलन भी दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान सोवियत संघ पर हिटलर के हमले की वजह से शुरु फासीवादविरोधी आंदोलन के तहत फासीवाद विरोधी लेखक संसकृतिकर्म संगठन से लेकर इप्टा तक का सफर रहा है।1943 की भुखमरी के मुश्किल हालात के मुकाबले समस्त कला माध्यमों के समन्वय से ही इस आंदोलनका इतना व्यापक असर भारतीय विधाओं और कला माध्यमों पर हुआ,जिसके लिए नवान्न का मंचन प्रस्थानबिंदू रहा है।